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सामाजिक न्याय

आरक्षण और जातिगत गतिशीलता: पृष्ठभूमि

  • 18 Dec 2023
  • 27 min read

यह एडिटोरियल 15/12/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “What Tavleen Singh doesn’t get: Reservation is the oxygen for my uphill journey” लेख पर आधारित है। इसमें तर्क दिया गया है कि कुछ समुदायों के समक्ष विद्यमान ऐतिहासिक अन्याय एवं भेदभाव—जिसने अतीत में संभावित रूप से इन समूहों को समान अवसरों से वंचित किया होगा, को दूर करने के लिये आरक्षण एक आवश्यक सुधारात्मक उपाय है।

प्रिलिम्स के लिये:

आरक्षण, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS), SCs और STs, जातिवाद, अन्य पिछड़ा वर्ग

मेन्स के लिये:

भारत में आरक्षण: चुनौतियाँ और आगे की राह।

कई राजनीतिक विशेषज्ञों और अन्य लोगों की राय है कि भारत में आरक्षण प्रणाली को अब समाप्त कर दिया जाना चाहिये। इसके साथ ही, कई लोगों का तर्क है कि सकारात्मक कार्रवाई (affirmative action) संबंधी विमर्श को विवाद के रूप में वर्गीकृत करना आरक्षण से लाभान्वित हो रहे समुदायों के संघर्ष एवं प्रत्यास्थता की अनदेखी करता है। आरक्षण प्रणाली के समर्थक आरक्षण के प्रबल प्रभाव को उजागर करते हैं, जहाँ वे इस बात पर बल देते हैं कि यह अवांछनीय लाभ नहीं है बल्कि भारतीय संविधान द्वारा चिह्नित गंभीर सामाजिक हानियों को दूर करने का एक साधन है। 

भारत में आरक्षण प्रणाली: 

  • परिचय: 
    • भारत की सदियों पुरानी जाति व्यवस्था देश में आरक्षण प्रणाली की उत्पत्ति के लिये ज़िम्मेदार है। 
      • सरल शब्दों में कहें तो यह आबादी के कुछ वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और यहाँ तक कि विधायिका तक पहुँच को सुविधाजनक बनाने से संबंधित है। 
    • इन वर्गों को अपनी जातीय पहचान के कारण ऐतिहासिक रूप से अन्याय का सामना करना पड़ा है। 
    • कोटा आधारित सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण को सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) के रूप में भी देखा जा सकता है। 
      • भारत में यह भारतीय संविधान द्वारा समर्थित सरकारी नीतियों द्वारा शासित होता है। 
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 
    • जाति-आधारित आरक्षण प्रणाली की परिकल्पना सर्वप्रथम वर्ष 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले द्वारा की गई थी। 
    • वर्तमान में जो आरक्षण प्रणाली मौजूद है, वह सही अर्थों में वर्ष 1933 में शुरू की गई थी जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक अधिनिर्णय या ‘कम्युनल अवार्ड’ (Communal Award) प्रस्तुत किया था। 
    • इस अधिनिर्णय में मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय लोगों और दलितों के लिये अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया। 
    • लंबी चर्चा के बाद गांधी और अंबेडकर ने ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर किये, जहाँ यह निर्णय लिया गया कि आरक्षण के कुछ प्रावधानों के साथ एकल हिंदू निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था होगी। 
  • स्वतंत्रता के बाद: 
    • स्वतंत्रता के बाद प्रारंभ में आरक्षण केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये प्रदान किया गया था।  
    • मंडल आयोग की सिफ़ारिशों पर वर्ष 1991 में अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) को भी आरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया गया। 
    • इस निर्णय के साथ ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को भी बल मिला जहाँ विचार किया गया कि पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण केवल आरंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होना चाहिये और इसका विस्तार पदोन्नति के लिये नहीं होना चाहिये। 
    • यह 10% आर्थिक आरक्षण 50% आरक्षण सीमा से अतिरिक्त रूप से प्रदान किया जा रहा है। 

भारत में आरक्षण प्रणाली का विकास कैसे हुआ?  

  • संवैधानिक प्रावधान और संशोधन: 
    • संविधान का भाग XVI केंद्र और राज्य विधायिका में SC एवं ST के आरक्षण से संबंधित है। 
    • संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) ने राज्य और केंद्र सरकारों को SC एवं ST समुदाय के सदस्यों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाया है। 
    • संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) शामिल किया गया जिससे सरकार पदोन्नति के मामले में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम हुई है। 
      • बाद में, आरक्षण के माध्यम से पदोन्नत SC एवं ST उम्मीदवारों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम 2001 द्वारा खंड (4A) में संशोधन किया गया। 
    • संविधान (81वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 16 (4B) शामिल किया गया जो राज्य को किसी वर्ष SC/ST के लिये आरक्षित खाली रिक्तियों को अगले वर्ष भरने में सक्षम बनाता है; इस प्रकार उस वर्ष रिक्तियों की कुल संख्या पर पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा समाप्त हो जाती है।  
    • अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडलों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व का अवसर प्रदान करते हैं। 
      • अनुच्छेद 243D प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है। 
      • अनुच्छेद 233T प्रत्येक नगरनिकाय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान करता है। 
  • न्यायिक घोषणाएँ: 
    • मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन (1951) मामला आरक्षण के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का पहला प्रमुख निर्णय था। इस मामले से संविधान में पहले संशोधन की राह खुली। 
      • अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जबकि राज्य के तहत रोज़गार के मामले में अनुच्छेद 16(4) नागरिकों के पिछड़े वर्ग के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करता है, अनुच्छेद 15 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है। 
      • मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार संसद ने अनुच्छेद 15 में संशोधन करते हुए इसमें खंड (4) को शामिल किया। 
    • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4) के दायरे एवं सीमा पर विचार किया। 
      • न्यायालय ने कहा है कि OBCs के ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण के लाभार्थियों की सूची से बाहर किया जाना चाहिये, पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं होना चाहिये और कुल आरक्षित कोटा 50% से अधिक नहीं होना चाहिये। 
    • इसकी प्रतिक्रिया में संसद ने 77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया जिसके माध्यम से अनुच्छेद 16(4A) को शामिल किया गया। 
      • यह अनुच्छेद राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में पदोन्नति के मामले में SC एवं ST समुदाय के पक्ष में सीटें आरक्षित करने की शक्ति प्रदान करता है, यदि समुदायों को सार्वजनिक नियोजन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो। 
    • एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4A) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से वैध होने के लिये ऐसी किसी भी आरक्षण नीति को निम्नलिखित तीन संवैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होगी: 
      • SC एवं ST समुदाय सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन की शिकार हो। 
      • सार्वजनिक नियोजन में SC एवं ST समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो। 
      • ऐसी आरक्षण नीति प्रशासन में समग्र दक्षता को प्रभावित नहीं करती हो।  
    • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण प्रदान के लिये राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन पर मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है। 
      • न्यायालय ने माना कि ‘क्रीमी लेयर’ का अपवर्जन SC/ST में मामले में भी लागू होता है, इसलिये राज्य उन SC/ST व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दे सकता जो अपने समुदाय के ‘क्रीमी लेयर’ से संबंधित हैं। 
    • वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक के उस कानून को वैध घोषित किया जो परिणामी वरिष्ठता के साथ SC एवं ST के लिये पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देता है।                                           

भारत में आरक्षण की आवश्यकता:

  • ऐतिहासिक भेदभाव: भारत में जाति-आधारित भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है और कुछ समुदाय ऐतिहासिक रूप से समाज के हाशिये पर रहे हैं। आरक्षण का उद्देश्य इस ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना और उन लोगों के लिये अवसर प्रदान करना है जो सामाजिक एवं आर्थिक रूप से वंचना के शिकार हैं। 
  • मानव विकास संकेतकों की कमी: विभिन्न डेटा और रिपोर्ट विभिन्न जाति समूहों के बीच शिक्षा, रोज़गार और संसाधनों तक पहुँच में लगातार उल्लेखनीय असमानताएँ दिखाते रहे हैं। 
    • आरक्षण नीतियों को हाशिये पर स्थित समुदायों के लिये प्रतिनिधित्व एवं अवसरों तक पहुँच सुनिश्चित कर इन अंतरालों को दूर करने के दृष्टिकोण से डिज़ाइन किया गया है। 
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना: भारतीय संविधान अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण के प्रावधान की अनुमति देता है। यह संवैधानिक अधिदेश सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। 
    • शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि हाशिये पर स्थित समुदायों के छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच प्राप्त हो। 
      • इसके प्रभावस्वरूप गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने में मदद मिलती है और इन समुदायों की समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। 
  • पिछड़ेपन की व्यापकता: वर्ष 1980 में मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) के लिये आरक्षण की अनुशंसा की। इन अनुशंसाओं के कार्यान्वयन का उद्देश्य कुछ सामाजिक समूहों के पिछड़ेपन को दूर करना है। 
  • सामाजिक आर्थिक जनगणना डेटा: सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना (Socio Economic caste census) डेटा विशिष्ट समुदायों के बीच गरीबी की असंगत एकाग्रता और विकास की कमी को प्रकट करता है। आरक्षण नीतियाँ इन समुदायों को शिक्षा और रोज़गार में उपयुक्त अवसर प्रदान कर उनका उत्थान करने का लक्ष्य रखती हैं। 
  • सरकारी रिपोर्ट और नीतियाँ: विभिन्न सरकारी रिपोर्ट, जैसे सच्चर समिति की रिपोर्ट, कुछ अल्पसंख्यक समुदायों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को उजागर करती हैं, जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रिपोर्ट से निचली जातियों की दयनीय स्थिति उजागर हुई है। 
  • सार्वजनिक रोज़गार में समतामूलक प्रतिनिधित्व: सरकारी नौकरियों में आरक्षण सार्वजनिक सेवाओं में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है और विविधता एवं समावेशिता को बढ़ावा देता है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट (Periodic Labour Force Survey Reports) में सरकारी रोज़गार में कुछ समूहों के निम्न प्रतिनिधित्व संबंधी आँकड़े इस आवश्यकता की पुष्टि करते हैं। 

भारत में आरक्षण प्रणाली से संबद्ध प्रमुख मुद्दे

  • शिक्षा और रोज़गार की गुणवत्ता: आरक्षण नीतियाँ मुख्य रूप से शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक पहुँच को लक्षित करती हैं। हालाँकि एक चिंता यह है कि ये नीतियाँ दीर्घकाल में शिक्षा और कार्यबल की गुणवत्ता से समझौते की स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं, क्योंकि उम्मीदवारों का चयन योग्यता के बजाय कोटा के आधार पर किया जा सकता है। 
  • प्रतिभा पलायन: कुछ लोगों का तर्क है कि आरक्षण नीतियों से प्रतिभा पलायन या ‘ब्रेन-ड्रेन’ की स्थिति बन सकती है, जहाँ अनारक्षित श्रेणियों के प्रतिभाशाली लोग आरक्षण प्रणाली से बचने के लिये विदेश में अध्ययन या कार्य करने का विकल्प चुन सकते हैं, जिससे देश के भीतर प्रतिभा की हानि हो सकती है। 
  • आक्रोश और विभाजन: आरक्षण कभी-कभी समाज के अंदर सामाजिक एवं आर्थिक विभाजन पैदा कर सकता है। यह विभाजन उन लोगों में आक्रोश का कारण बन सकता है जिन्हें इन नीतियों से लाभ नहीं मिलता है, जिससे संभावित रूप से सामाजिक एकजुटता एवं विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • अक्षमताएँ और भ्रष्टाचार: आरक्षण नीतियाँ कभी-कभी अक्षमता, भ्रष्टाचार और जाति प्रमाणपत्रों में हेरफेर से भी अक्षम बनती हैं। ये मुद्दे प्रणाली की प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकते हैं और विकास में बाधा डाल सकते हैं। 
  • फर्जी लाभार्थी (Ghost Beneficiaries): आरक्षण नीतियाँ प्रायः व्यापक श्रेणियों पर निर्भर करती हैं, जो उन श्रेणियों के सबसे वंचित व्यक्तियों को सटीक रूप से लक्षित करने में अक्षम सिद्ध हो सकती हैं। संभव है कि आरक्षित श्रेणियों के कुछ व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तरह वंचना का शिकार नहीं हों, फिर भी वे लाभान्वित हो रहे हों। 
  • कलंक और रूढ़िवादिता: आरक्षण के कारण कभी-कभी आरक्षित श्रेणियों के व्यक्तियों के लिये कलंक और रूढ़िवादिता का सामना करने की स्थिति बन सकती है, जो उनके आत्म-सम्मान और समग्र विकास को प्रभावित कर सकता है। 
  • आर्थिक विकास बनाम सामाजिक विकास: आरक्षण नीतियाँ सामाजिक विकास पर ध्यान केंद्रित करती हैं, लेकिन वे प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक असमानताओं को संबोधित करने में अक्षम सिद्ध हो सकती हैं। असमानता को दूर करने और समग्र विकास को बढ़ावा देने के लिये आर्थिक विकास भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 
  • राजनीतिक शोषण: आरक्षण नीतियों का उपयोग कभी-कभी राजनीतिक लाभ के लिये किया जाता है, जिससे दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों के बजाय अल्पकालिक राजनीतिक उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। 

आरक्षण का समाधान:

  • अवसर के बुनियादी ढाँचे का पुनरुद्धार करना: अवसर के बुनियादी ढाँचे के पुनरुद्धार के लिये ‘3Es’ - यानी शिक्षा, रोज़गार योग्यता और रोज़गार (Education, Employability and Employment) में तेज़ी से सुधार लाने की आवश्यकता है। 
    • शिक्षा के क्षेत्र में राज्य सरकारों को छोटे वर्ग आकार, शिक्षक योग्यता या शिक्षक वेतन पर अधिक ऊर्जा बर्बाद करने के बजाय प्रदर्शन प्रबंधन, शासन और ‘सॉफ्ट स्किल’ की बाध्यकारी बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिये। 
    • रोज़गार योग्यता या क्षमता के मामले में हमें अभ्यास से सीखने (learning by doing), सीखने के साथ आय अर्जन करने (learning while earning), क्वालिफिकेशन मोड्यूलरिटी के साथ सीखने (learning with qualification modularity), मल्टीमॉडल डिलीवरी के साथ सीखने (learning with multimodal delivery) और सिग्नलिंग वैल्यू के साथ सीखने (learning with signaling value) के पाँच डिज़ाइन सिद्धांतों के अनुरूप प्रणाली को फिर से अभिकल्पित कर नियोक्ताओं से कौशल के लिये बड़े पैमाने पर नए वित्तपोषण को आकर्षित करने की आवश्यकता है। 
    • रोज़गार के मामले में, बड़े पैमाने पर गैर-कृषि, उच्च-मज़दूरी, औपचारिक रोज़गार सृजन के लिये नियोक्ताओं हेतु नियामक बाधाओं या ‘रेगुलरिटी कोलेस्ट्रॉल’ (जो नियोक्ताओं पर मुक़दमेबाजी, अनुपालन, फाइलिंग और अपराधीकरण को बढ़ावा देते हैं) में कटौती की आवश्यकता है और इसके लिये नई श्रम संहिताएँ पारित की जानी चाहिये। 
  • समान व्यवहार: यह सुनिश्चित करना कि सभी व्यक्तियों के साथ उचित और भेदभावरहित व्यवहार किया जाए, समानता को बढ़ावा देने का एक बुनियादी पहलू है। इसका अर्थ यह है कि लोगों को उनकी पृष्ठभूमि, जैसे कि उनके माता-पिता की स्थिति, के आधार पर हानि का सामना नहीं करना पड़े या विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो। 
  • निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा: लोगों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के एकसमान अवसर को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जहाँ व्यक्तियों को अपने कौशल, क्षमताओं और प्रयासों के आधार पर सफल होने के समान अवसर प्राप्त हों। यह व्यक्तियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने के लिये प्रेरित करने के माध्यम से उत्कृष्टता को बढ़ावा देता है। 
  • प्रतिफलों का निष्पक्ष आकलन: किसी व्यक्ति के प्रदर्शन, कौशल और योगदान के उचित और निष्पक्ष मूल्यांकन के माध्यम से प्रतिफलों को निर्धारित किया जाना चाहिये। यह सुनिश्चित करेगा कि सफलता के निर्धारण में योग्यता और उपलब्धि प्राथमिक कारक हैं। 
  • प्रयास और साहस के आधार पर आकलन: कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के साहस के महत्त्व पर बल देने से व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी और व्यक्तिगत प्रयास की संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद मिलती है। 
  • संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग: आधुनिक राज्य को कल्याणकारी राज्य होना चाहिये और भविष्य में इसे आदर्श राज्य तब समझा जाएगा जब इसकी एक ऐसी सरकार हो जो समाज के संसाधनों का उपयोग उन लोगों को गुणवत्तापूर्ण भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा एवं आवास प्रदान करने के लिये करे जिन्हें इसकी आवश्यकता है। 
    • लेकिन यह सुरक्षा जाल कर्महीनता का पर्याय नहीं बन जाए। बेरोज़गार कामगारों को कार्यरत कामगारों के समान आय नहीं मिल सकती है क्योंकि कार्य करने से प्राप्त लाभ महज आय पाने तक ही सीमित नहीं है। इसी प्रकार, अमीर लोगों को खाद्य, गैस या डीज़ल सब्सिडी नहीं मिलनी चाहिये। 
    • नीति ऐसी हो जो सब्सिडी के लिये आधार-सक्षम प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (Aadhaar-enabled Direct Benefit Transfer) क्रांति में तेज़ी लाए। 

निष्कर्ष: 

गांधीजी का मानना था कि सर्वोदय (सभी का विकास) की प्राप्ति अंत्योदय (कमज़ोरों का कल्याण) के माध्यम से हो सकेगी। विभिन्न दार्शनिकों ने इस दृष्टिकोण से विचार किया है और निष्कर्ष निकाला कि यदि आप दुनिया में अपना स्थान जाने बिना इसे डिज़ाइन कर रहे हैं तो आप सभी के लिये निष्पक्षता सुनिश्चित कर सकेंगे। आरक्षण सामाजिक न्याय के लिये एक बहुमूल्य साधन है लेकिन ‘पूर्ण स्वराज’ के कई साल गुज़रने के बाद अब इसे त्यागने का समय आ गया है क्योंकि यह प्रायः राजनीतिक हेरफेर के अधीन होता है और इसके बदले कुछ ऐसा अपनाने की आवश्यकता है जो अगले दशकों में अधिक सार्वभौमिक सिद्ध हो। 

अभ्यास प्रश्न: भारत में आरक्षण की क्या आवश्यकता है? आरक्षण नीतियों से संबंधित मुद्दों का विश्लेषण कीजिये और इसमें सुधारों के प्रस्ताव कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. क्या राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिये संवैधानिक आरक्षण के क्रियान्वयन का प्रवर्तन करा सकता है? परीक्षण कीजिये। (2018)

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