भारतीय राजव्यवस्था
एससी/एसटी एक्ट: सर्वोच्च न्यायालय
- 02 Nov 2021
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प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय,एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) कानून 1989 के प्रावधान मेन्स के लिये:'विशेष क़ानूनों' से संबंधित आपराधिक मामलों को रद्द करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले का अवलोकन करते हुए पाया कि शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों के पास एससी/एसटी अधिनियम सहित विभिन्न 'विशेष क़ानूनों' के तहत दायर आपराधिक मामलों को रद्द करने की शक्ति है।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत कार्यवाही को रद्द करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के पास संविधान के अनुच्छेद 142 या उच्च न्यायालय के आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत निहित शक्तियाँ हैं।
प्रमुख बिंदु
- 'विशेष कानून' के तहत मामलों को रद्द करने की स्थिति:
- जहाँ न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि विचाराधीन अपराध, भले ही एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत आता है, प्राथमिक रूप से निजी या दीवानी प्रकृति का है, या जहाँ कथित अपराध पीड़ित की जाति के आधार पर नहीं किया गया है, या कानूनी कार्यवाही को जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा, न्यायालय कार्यवाही को रद्द करने के लिये अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
- जब दोनों पक्षों के बीच समझौता/निपटान के आधार पर रद्द करने की प्रार्थना पर विचार करते समय, यदि न्यायालय संतुष्ट हो जाता है कि अधिनियम के अंतर्निहित उद्देश्य का उल्लंघन नहीं किया जाएगा या कम नहीं किया जाएगा, भले ही विवादित अपराध के लिये दंडित न किया जाए।
- अनुच्छेद 142:
- परिचय: यह सर्वोच्च न्यायालय को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है क्योंकि इसमें कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए ऐसा आदेश पारित कर सकता है या ऐसा आदेश दे सकता है जो उसके समक्ष लंबित किसी भी मामले या मामले में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो।
- रचनात्मक अनुप्रयोग: अनुच्छेद 142 के विकास के प्रारंभिक वर्षों में आम जनता और वकीलों दोनों ने समाज के विभिन्न वंचित वर्गों को पूर्ण न्याय दिलाने या पर्यावरण की रक्षा करने के प्रयासों के लिये सर्वोच्च न्यायालय की सराहना की।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड मामले को भी अनुच्छेद 142 से संबंधित बताया था। यह मामला भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों से जुड़ा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं को संसद या राज्यों की विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों से ऊपर रखते हुए कहा कि पूर्ण न्याय करने के लिये यह संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को भी समाप्त कर सकता है।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ‘बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि अनुच्छेद 142 का उपयोग मौज़ूदा कानून को प्रतिस्थापित करने के लिये नहीं, बल्कि एक विकल्प के तौर पर किया जा सकता है|
- न्यायिक अतिरेक के मामले: हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई निर्णय दिये हैं जिनमें उसने उन क्षेत्रों में प्रवेश किया है जो लंबे समय से न्यायपालिका के लिये 'शक्तियों के पृथक्करण' के सिद्धांत के कारण निषिद्ध थे, जो कि संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं। उदाहरण :
- राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध: केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना में केवल राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे शराब की दुकानों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 142 को लागू करके राज्य राजमार्गों से 500 मीटर की दूरी पर प्रतिबंध लगा दिया।
- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482:
- यह धारा उच्च न्यायालय को न्याय सुनिश्चित करने के लिये कोई भी आदेश पारित करने की अनुमति देती है। यह अदालत को निचली अदालत की कार्यवाही को रद्द करने या FIR रद्द करने की शक्ति भी देता है।
- एससी/एसटी अधिनियम:
- एससी/एसटी अधिनियम 1989 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों के खिलाफ भेदभाव और अत्याचार को रोकने के लिये संसद द्वारा अधिनियमित का एक अधिनियम है।
- यह अधिनियम निराशाजनक वास्तविकता को भी संदर्भित करती है क्योंकि कई उपाय करने के बावजूद अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति उच्च जातियों के हाथों विभिन्न अत्याचारों के अधीन हैं।
- अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) तथा 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए अधिनियमित किया गया है, जिसमें सुरक्षा के दोहरे उद्देश्य हैं। यह कमज़ोर समुदायों के सदस्यों के साथ-साथ जाति आधारित अत्याचार के पीड़ितों को राहत और पुनर्वास प्रदान करता है।
- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति संशोधित अधिनियम (2018) में प्रारंभिक जाँच ज़रूरी नहीं है और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति पर अत्याचार के मामलों में FIR दर्ज करने के लिये जाँच अधिकारियों को अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की पूर्व मंजूरी की भी आवश्यकता नहीं है।