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भारतीय राजनीति

आर्टिकल 15

  • 03 Jul 2019
  • 18 min read

संदर्भ

देश में हर वर्ष हज़ारों फ़िल्में बनती हैं और इनमें से कुछ समय-समय पर चर्चा तथा विवाद का विषय बन जाती हैं। इसी कड़ी में हाल ही में रिलीज़ हुई अनुभव सिन्हा और गिन्ग्गर शंकर निर्देशित फिल्म आर्टिकल 15 लगातार चर्चा में बनी हुई है। बताया जा रहा है कि यह फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसके कंटेंट को लेकर कई लोगों को आपत्ति भी है। सवर्णों के एक संगठन ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। फिल्म में उत्तर प्रदेश के एक गाँव की कहानी दर्शाई गई है और इसका टाइटल संविधान के अनुच्छेद 15 से लिया गया है।

आर्टिकल 15 क्या है?

संविधान के आर्टिकल 14 से लेकर आर्टिकल 18 तक में देश के सभी नागरिकों को समता यानी समानता का मौलिक अधिकार देने की बात कही गई है।भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मौलिक अधिकार दिये गए हैं। इन अधिकारों का उद्देश्य है कि हर नागरिक सम्मान के साथ अपना जीवन जी सके और किसी के साथ किसी आधार पर भेदभाव न हो।

आर्टिकल 15 के चार प्रमुख बिंदु

  1. आर्टिकल 15 के नियम 1 के तहत राज्य किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान और वंश के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।
  2. नियम 2 के मुताबिक, किसी भी भारतीय नागरिक को जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान और वंश के आधार पर दुकानों, होटलों, सार्वजानिक भोजनालयों, सार्वजानिक मनोरंजन स्थलों, कुओं, स्नान घाटों, तालाबों, सड़कों और पब्लिक रिजॉर्ट्स में जाने से नहीं रोका जा सकता।
  3. वैसे तो देश के सभी नागरिक समान हैं, उनसे भेदभाव नहीं किया जा सकता, लेकिन महिलाओं और बच्चों को इस नियम में अपवाद के रूप में देखा जा सकता है। आर्टिकल 15 के नियम 3 के मुताबिक, अगर महिलाओं और बच्चों के लिये विशेष उपबंध किये जा रहे हैं तो आर्टिकल 15 ऐसा करने से नहीं रोक सकता। महिलाओं के लिये आरक्षण या बच्चों के लिये मुफ्त शिक्षा इसी उपबंध के तहत आते हैं।
  4. इस आर्टिकल के नियम 4 के मुताबिक, राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े तथा SC/ST/OBC के लिये विशेष उपबंध बनाने की छूट है।

क्यों हो रहा है विवाद?

फिल्म आर्टिकल 15 समाज में मौजूद ऊँच-नीच एवं जातिगत भेदभाव पर आधारित है और यही वज़ह है कि एक वर्ग विशेष के कुछ संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। आज भी जातिगत भेदभाव की घटनाएँ यदा-कदा सामने आ जाती हैं और इसी से निपटने के लिये नागरिकों को मिला है आर्टिकल 15 यानी ऐसा मौलिक अधिकार जिसके तहत किसी भी भारतीय नागरिक से उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। सरकार और समाज की यह जिम्मेदारी है कि ऐसा कोई भेदभाव न होने दे। आज भी जाति और धर्म के नाम पर आर्टिकल 15 का सबसे ज्यादा उल्लंघन किया जाता है। महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को लगता है कि जाति और धर्म के नाम पर अब भेदभाव लगभग खत्म हो गया है, लेकिन सच तो यह है कि देश के कई हिस्सों में इस तरह का भेदभाव अभी भी होता है। जाति और धर्म को लेकर समाज में सदियों से व्याप्त धारणाएँ आज भी मौजूद हैं।

आर्टिकल 15 के बेहतर अनुपालन हेतु बनाए गए कुछ कानून

नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (The Protection of Civil Rights Act, 1955): इस कानून के माध्‍यम से किसी भी रूप में अस्‍पृश्‍यता अर्थात् छुआछूत का आचरण करने वाले को दंड देने का प्रावधान है। वर्ष 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया गया था। यह अधिनियम 1 जून, 1955 से प्रभावी हुआ था, लेकिन अप्रैल 1965 में गठित इलायापेरूमल समिति की अनुशंसाओं के आधार पर 1976 में इसमें व्यापक संशोधन किये गए तथा इसका नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (Protection of Civil Rights Act, 1955) कर दिया गया था। यह संशोधित अधिनियम 19 नवंबर, 1976 से प्रभावी हुआ और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के अस्पृश्यता उन्मूलन संबंधी प्रावधानों के अनुरूप है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989): यह अन्‍य बातों के साथ-साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के प्रति होने वाले अपराधों को रोकने, ऐसे अपराधों के अभियोजन के लिये विशेष न्‍यायालय बनाने तथा राहत देने और ऐसे अपराधों के शिकार लोगों के पुनर्वास के लिये प्रावधान करने वाला एक अधिनियम है। इस कानून को और प्रभावी बनाने के लिये वर्ष 2015 में इसमें संशोधन किये गए तथा यह 26 जनवरी, 2016 से लागू हुआ।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (Hindu Succession Act, 1956): इस अधिनियम में बताया गया है कि जब किसी हिंदू व्यक्ति की मृत्यु बिना वसीयत किये हो जाती है, तो उसकी संपत्ति को उसके वारिसों, परिजनों या रिश्तेदारों में कानूनी रूप से किस तरह बाँटा जाएगा। अधिनियम में मृतक के उत्तराधिकारियों को अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया है और मृतक की संपत्ति में उनको मिलने वाले हिस्से के बारे में भी बताया गया है। यह कानून जन्म से हिंदू, बौद्ध, जैन तथा सिख या ऐसा कोई व्यक्ति जिसने इनमें से कोई धर्म अपना लिया हो, पर लागू होता है। वर्ष 2005 में इस कानून में संशोधन किया गया तथा संपत्ति के मामले में पुत्रियों को भी बराबर का हक दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट किया कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधित) अधिनियम के तहत 9 सितंबर 2005 को जीवित कर्ताओं की जीवित पुत्रियों को संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार है। इस बात से अंतर नहीं पड़ता कि ऐसी पुत्रियों का जन्म कब हुआ है।

मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 (Maternity Benefit Act, 1961): यह अधिनियम मातृत्व के समय महिला के रोज़गार की रक्षा करता है और मातृत्व लाभ का हकदार बनाता है अर्थात अपने बच्चे की देखभाल के लिये पूरे भुगतान के साथ उसे काम से अनुपस्थित रहने की सुविधा देता है। यह अधिनियम 10 या उससे अधिक व्यक्तियों को रोज़गार देने वाले सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होता है। वर्ष 2017 में इस अधिनियम में संशोधन किये गए। इसके तहत कामकाजी महिलाओं को दो बच्चों के लिये मातृत्व लाभ की सुविधा 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह और दो से अधिक बच्चों के लिये 12 सप्ताह कर दी गई है। ‘कमिशनिंग मदर’ और ‘एडॉप्टिंग मदर’ को 12 सप्ताह का मातृत्व लाभ मिलेगा तथा घर से काम करने की सुविधा दी गई है। इसके साथ 50 या उसके अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों में क्रेच का अनिवार्य प्रावधान किया गया है।

कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 [Sexual Harassment of Women at Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2013]: संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अंतर्गत लिंग समानता की गारंटी में यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और प्रतिष्ठा के साथ कार्य करने का अधिकार शामिल है। कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 में एक नागरिक के रूप में समान, सुरक्षित और निरापद वातावरण में कोई भी व्यवसाय या कार्य अपनाने का संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किया गया है। इसके लागू हो जाने के बाद विभिन्न कार्यों में महिलाओं की भागीदारी पर दूरगामी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है तथा महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त बन रही हैं। यह कानून समय के अनुकूल है और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने में यह उचित सहायता प्रदान करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में ऐतिहासिक विशाखा बनाम राजस्थान सरकार मुकदमे का निर्णय देते समय ऐसे कानून की कमी महसूस की थी।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act, 2016): इस अधिनियम में दिव्‍यांगजनों के अधिकारों और विशेष अधिकारों की रक्षा के लिये व्‍यापक प्रावधान किये गए हैं। इन प्रावधानों में सेवाओं में आरक्षण बढ़ाना और अधिनियम के तहत दिव्‍यांगता की अतिरिक्‍त 14 श्रेणियों को शामिल किया गया है। इन 14 श्रेणियों में ऐसिड अटैक पीड़ित, थैलेसीमिया, हिमोफीलिया, अवरुद्ध विकास, सीखने की असमर्थता और पार्किंसन बीमारी भी शामिल हैं। नए प्रावधान और दिव्‍यांगता की श्रेणियाँ वर्ष 2007 के संयुक्‍त राष्‍ट्र समझौते की सिफारिशों के अनुरूप तय की गई हैं। भारत इन सिफारिशों पर हस्‍ताक्षर कर चुका है।

मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 (The Mental Health Care Act, 2017): यह अधिनियम मानसिक स्वास्थ्य के इलाज के तरीके को बदलने का प्रयास करता है और यह सुनिश्चित करता है कि हमारा कानून दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCRPD) के अनुरूप हो। यह अधिनियम काफी व्यापक है और इसका उद्देश्य मानसिक रूप से बीमार लोगों को मानसिक स्वास्थ्य देखभाल एवं सेवाएँ मुहैया कराना है। साथ ही देखभाल एवं सुविधाएँ देते समय ऐसे लोगों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें बढ़ावा देना भी इसके उद्देश्यों शामिल है। इसके तहत मानसिक रोगियों के अधिकार, अग्रिम निर्देश, केंद्रीय और राज्य मानसिक स्वास्थ्य अथॉरिटी, मानसिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठान, मानसिक स्वास्थ्य समीक्षा आयोग और बोर्ड, आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से अलग करना तथा बिजली के झटके की उपचार पद्धति को निषिद्ध करना आदि प्रावधानों की व्यवस्था की गई है।

क्या हैं मौलिक अधिकार?

  • मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये अनिवार्य होने की वज़ह से संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये गए हैं और जिनमें राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
  • ये ऐसे अधिकार हैं जो किसी के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये आवश्यक हैं और जिनके बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नही कर सकता।
  • इन अधिकारों को मौलिक इसलिये कहा जाता है क्योंकि इन्हें देश के संविधान में स्थान दिया गया है तथा संविधान में संशोधन की प्रक्रिया के अतिरिक्त इनमें किसी भी प्रकार से संशोधन नही किया जा सकता।
  • ये अधिकार व्यक्ति के प्रत्येक पक्ष के विकास हेतु मूल रूप में आवश्यक हैं तथा इनके अभाव में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
  • इन अधिकारों का उल्लंघन नही किया जा सकता। मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से प्राप्त होते हैं।

मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण

भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। इन अधिकारों में अनुच्छेद 12, 13, 33, 34 तथा 35 का संबंध अधिकारों के सामान्य रूप से है। 44वाँ संशोधन होने से पहले संविधान में दिये गए मौलिक अधिकारों की सात श्रेणियाँ थीं, परंतु इस संशोधन के द्वारा संपत्ति के अधिकार को सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया गया।

छ्ह मौलिक अधिकार

1. समानता का अधिकार: इसमें कानून के समक्ष समानता, धर्म, वंश, जाति लिंग या जन्‍म स्‍थान के आधार पर भेदभाव का निषेध तथा रोज़गार के संबंध में समान अवसर शामिल है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार: भाषा और विचार प्रकट करने की स्‍वतंत्रता का अधिकार, एकत्र होने संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्‍यवसाय करने की स्‍वतंत्रता का अधिकार (इनमें से कुछ अधिकार राज्‍य की सुरक्षा, विदेशों के साथ भिन्‍नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीनता और नैतिकता के तहत दिये जाते हैं)।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार: इसमें बेगार, बाल श्रम और मनुष्‍यों के व्‍यापार का निषेध किया गया है।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: आस्‍था एवं अंत:करण की स्‍वतंत्रता, किसी भी धर्म का अनुयायी बनना, उस पर विश्‍वास करना एवं धर्म का प्रचार करना इसमें शामिल हैं।

5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी अधिकार: किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने और अल्‍पसंख्‍यकों को अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएँ चलाने का अधिकार।

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार: मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिये संवैधानिक उपचार का अधिकार।

बेशक आर्टिकल 15 समस्त नागरिकों को समानता का अधिकार देता है, लेकिन आज भी देश में बड़े पैमाने पर जातिगत भेदभाव होता है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। जाति के निचले पायदान पर खड़े समाजों, विशेषकर दलित समुदाय के लोगों के साथ बेहद अपमानजनक व्यवहार किया जाता है। भारत की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी लगभग 16% है और लगभग तीन हज़ार वर्ष पुरानी जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है।

अभ्यास प्रश्न: संविधान प्रदत्त आर्टिकल 15 के प्रभावी कार्यान्वयन से जातिगत भेदभाव को कम किया जा सकता है। चर्चा करें।

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