भारतीय राजव्यवस्था
भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व का सुदृढ़ीकरण
- 09 Jun 2025
- 26 min read
यह एडिटोरियल 05/06/2025 को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित “Impeachment motion against Allahabad High Court judge Yashwant Varma in Monsoon session” पर आधारित है। इस लेख में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को सामने लाया गया है, जो व्यावहारिक न्यायिक उत्तरदायित्व में कमियों को उजागर करता है।
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय न्यायपालिका, शक्तियों का पृथक्करण, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, न्यायिक समीक्षा, कॉलेजियम प्रणाली, न्यायिक अतिक्रमण, न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968, विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति के लिए विशिष्ट समयसीमा निर्धारित करने में सर्वोच्च न्यायालय का हालिया हस्तक्षेप (राज्यपाल द्वारा आरक्षित) मेन्स के लिये:भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व के लिये वर्तमान तंत्र, भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व के लिये बढ़ती अनिवार्यता को रेखांकित करने वाले प्रमुख कारक। |
वित्तीय कदाचार के आरोपों के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ केंद्र सरकार के आसन्न महाभियोग प्रस्ताव ने न्यायिक उत्तरदायित्व के महत्त्व को लेकर ध्यान आकर्षित किया है। हालाँकि भारत का संविधान न्यायिक निगरानी की व्यवस्था प्रदान करता है, परंतु ऐसे प्रकरणों की विरलता (यह संभवतः किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पहला महाभियोग हो सकता है) इन व्यवस्थाओं की व्यावहारिक प्रभावशीलता पर प्रश्न खड़े करती है। लोकतांत्रिक शासन की तीन प्रमुख शाखाओं में से एक होने के कारण न्यायपालिका को भी कार्यपालिका और विधायिका के समान ही उत्तरदायित्व की कठोर कसौटियों पर परखा जाना चाहिये। वर्तमान मामला इस बात की जाँच का अवसर प्रस्तुत करता है कि भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व की मौजूदा प्रणालियाँ वास्तव में कितनी प्रभावी हैं।
भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व के लिये वर्तमान तंत्र क्या है?
- महाभियोग प्रक्रिया: न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिये महाभियोग प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करता है।
- प्रस्ताव पर कम से कम 100 लोक सभा सदस्यों या 50 राज्य सभा सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिये और फिर न्यायाधीशों एवं न्यायविदों की तीन सदस्यीय समिति द्वारा इसकी जाँच की जानी चाहिये।
- यदि यह मामला दोषी पाया जाता है तो इसे संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदित किया जाना चाहिये।
- इन-हाउस तंत्र: सर्वोच्च न्यायालय की इन-हाउस प्रक्रिया न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों, मुख्यतः कदाचार से संबंधित शिकायतों को निपटाने के लिये स्थापित की गई थी।
- शिकायतों की समीक्षा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या संबंधित उच्च न्यायालय के CJI द्वारा की जाती है।
- अगर शिकायत विश्वसनीय पाई जाती है, तो एक आंतरिक समिति इसकी जाँच करती है। हालाँकि इस तंत्र को सुरक्षा के तौर पर देखा जाता है, लेकिन इसमें वैधानिक समर्थन और पारदर्शिता का अभाव है, जिससे प्रायः इसकी प्रभावशीलता पर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक, 2010 (व्यपगत): इस विधेयक में शिकायतों और जाँच के लिये अन्य निकायों के साथ-साथ एक बाह्य निरीक्षण निकाय, राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति की स्थापना करने की मांग की गई थी।
- यह विधेयक लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया, लेकिन राज्यसभा में निरस्त हो गया, जिससे न्यायिक उत्तरदायित्व औपचारिक विधायी चैनलों के माध्यम से बड़े पैमाने पर पारित नहीं हो सका।
- न्यायिक समीक्षा और सार्वजनिक जाँच: न्यायपालिका उच्च न्यायालयों द्वारा न्यायिक समीक्षा के अधीन है, लेकिन न्यायिक आचरण की देखरेख के लिये कोई स्वतंत्र बाह्य निकाय या व्यापक वैधानिक कार्यढाँचा नहीं है।
- न्यायाधीशों के विरुद्ध आरोपों के कारण प्रायः आंतरिक जाँच या त्यागपत्र की स्थिति आ जाती है, लेकिन ऐसी कार्रवाइयाँ सदैव पारदर्शी या सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं होतीं।
भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व की बढ़ती अनिवार्यता को रेखांकित करने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?
- न्यायपालिका में मज़बूत उत्तरदायित्व तंत्र का अभाव: न्यायिक उत्तरदायित्व के लिये मौजूदा कार्यढाँचे, जैसे न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968, बोझिल और अप्रभावी हैं।
- इसके महत्त्व के बावजूद, न्यायिक कदाचार के लिये महाभियोग प्रस्ताव सफल नहीं हुए हैं, जिसके कारण न्यायपालिका की स्व-नियमन की क्षमता में जनता का अविश्वास बढ़ रहा है।
- उदाहरण के लिये, अनेक आरोपों के बावजूद, वर्ष 1993 के बाद से किसी भी न्यायाधीश पर महाभियोग नहीं लगाया गया है।
- न्यायिक स्वतंत्रता बनाम न्यायिक उत्तरदायित्व: न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के बीच संतुलन एक मुख्य मुद्दा बना हुआ है।
- आलोचकों का तर्क है कि बहुत अधिक स्वायत्तता से बाह्य जाँच में कमी आती है, जिससे दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
- न्यायिक स्वतंत्रता जवाबदेही के विरुद्ध एक ढाल बन गई है, जिससे व्यवस्था में जनता का विश्वास कम हो रहा है।
- भ्रष्टाचार के आरोपी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का मुद्दा तथा न्यायिक अनुशासन के लिये सर्वोच्च न्यायालय की आंतरिक प्रक्रिया, गंभीर आरोपों के बावजूद बाह्य जाँच की कमी को दर्शाती है।
- आलोचकों का तर्क है कि बहुत अधिक स्वायत्तता से बाह्य जाँच में कमी आती है, जिससे दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
- न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में अस्पष्टता: कॉलेजियम प्रणाली के तहत न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी न्यायिक उत्तरदायित्व पर चिंता को बढ़ाती है।
- आलोचकों का तर्क है कि यह अस्पष्टता न केवल वंशवाद को जन्म देती है, बल्कि न्यायिक कार्य की जाँच में भी बाधा डालती है।
- इसके अलावा, पात्रता मानदंड और चयन प्रक्रिया के संबंध में निर्धारित मानदंडों का अभाव परोक्ष मामला होने की धारणा को और बढ़ावा देता है।
- अपर्याप्त बाह्य निरीक्षण तंत्र: न्यायिक आचरण की निगरानी के लिये एक वैधानिक, स्वतंत्र निकाय की अनुपस्थिति जवाबदेही के मुद्दों को बढ़ाती है।
- यद्यपि न्यायपालिका आंतरिक तंत्र पर निर्भर रहती है, फिर भी पारदर्शिता और जनसहभागिता के अभाव के कारण उन्हें प्रायः अपर्याप्त माना जाता है।
- वर्ष 2010 का न्यायिक सुधार विधेयक, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति का प्रस्ताव था, वर्ष 2014 में निरस्त हो गया, जिससे न्यायिक निरीक्षण का दायित्व स्व-नियमन पर आ गया, जो प्रायः अपारदर्शी और अप्रभावी रहा है।
- न्यायिक सक्रियता और अतिक्रमण की चुनौतियाँ: न्यायिक सक्रियता के कारण न्यायपालिका को उन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करना पड़ा है जो पारंपरिक रूप से कार्यपालिका और विधायिका के लिये आरक्षित थे।
- यद्यपि कुछ मामलों में इसे आवश्यक माना जाता है, लेकिन इससे नीतिगत निर्णय लेने वाले अनिर्वाचित न्यायाधीशों की जवाबदेही के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपाल के विचार के लिये आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति द्वारा कार्रवाई करने हेतु विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित करने के मामले में किये गए हस्तक्षेप की कार्यकारी कार्यों में अतिक्रमण के रूप में आलोचना की गई है, जिससे न्यायिक उत्तरदायित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं।
- न्यायिक पारदर्शिता की ओर वैश्विक बदलाव: वैश्विक स्तर पर न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही की ओर रुझान बढ़ रहा है तथा कई राष्ट्र बाह्य निरीक्षण तंत्र लागू कर रहे हैं।
- ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों ने स्वतंत्र न्यायिक पर्यवेक्षण निकाय स्थापित किये हैं।
- ऐसे सुधारों को लागू करने में भारत की विफलता वैश्विक मानकों के विपरीत है, जिससे यह प्रणाली अस्पष्टता की आलोचनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो गई है।
- ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों ने स्वतंत्र न्यायिक पर्यवेक्षण निकाय स्थापित किये हैं।
न्यायिक उत्तरदायित्व लागू करने से जुड़े संभावित जोखिम क्या हैं?
- न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा: सख्त न्यायिक उत्तरदायित्व लागू करने से न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को नुकसान पहुँचने का खतरा है, जो संविधान की आधारशिला है।
- यदि उत्तरदायित्व तंत्र अत्यधिक कठोर या राजनीतिक हो, तो वे कार्यपालिका या विधायी अतिक्रमण के कारण बन सकते हैं, जिससे निष्पक्ष निर्णय लेने में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
- लोकपाल के हालिया निर्णय से पता चलता है कि न्यायाधीश भी लोकपाल (जो एक भ्रष्टाचार विरोधी निकाय है, जो सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों का समाधान करने के लिये स्थापित किया गया है) के अधिकार क्षेत्र में आ सकते हैं।
- इस प्रस्ताव से न्यायिक स्वतंत्रता के हनन की चिंताएँ उत्पन्न हुईं। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वायत्तता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये इस फैसले पर रोक लगा दी।
- न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप: महाभियोग प्रक्रिया और अन्य जवाबदेही उपाय प्रायः राजनीतिक गतिशीलता से काफी प्रभावित होते हैं, जिससे न्यायपालिका के कामकाज़ में राजनीतिक हस्तक्षेप का खतरा उत्पन्न होता है।
- यदि पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों के लिये प्रयोग किया जाता है, तो ऐसे उपायों का उपयोग उन न्यायाधीशों को निशाना बनाने के लिये किया जा सकता है जो सत्तारूढ़ सरकार के प्रतिकूल निर्णय देते हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 1993 में न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव मुख्य रूप से लोकसभा में राजनीतिक दलों के अनुपस्थित रहने के कारण विफल हो गया था, जिससे यह पता चलता है कि स्पष्ट आरोपों के बावजूद राजनीतिक विचार न्यायिक उत्तरदायित्व को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं।
- जनता के विश्वास में कमी: जवाबदेही तंत्र के अति उत्साहपूर्ण कार्यान्वयन से न्यायपालिका के संदर्भ में जनता की धारणा प्रभावित हो सकती है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता में जनता का विश्वास कम हो सकता है।
- यदि न्यायाधीशों को लगातार जाँच का सामना करना पड़ता है या राजनीतिक कारणों से उन्हें पद से हटाये जाने का भय रहता है, तो वे यथास्थिति को चुनौती देने वाले निर्णय देने में हिचकिचाहट महसूस कर सकते हैं, जिससे निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में उनकी भूमिका कम हो सकती है।
- इसके अलावा, न्यायपालिका की आलोचना करने वाले मीडियाकर्मियों या कार्यकर्त्ताओं के खिलाफ लगाए गए न्यायालय की अवमानना-आरोप यह दर्शाते हैं कि न्यायपालिका किस प्रकार बाह्य आलोचना को दबा सकती है, जिससे इसकी जवाबदेही और पारदर्शिता को लेकर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- एकसमान मानकों का अभाव: स्पष्ट, एकसमान दिशानिर्देशों के बिना न्यायिक उत्तरदायित्व लागू करने से कदाचार के मामलों से निपटने के तरीके में असंगतता हो सकती है।
- मानकीकृत कार्यढाँचे के अभाव के परिणामस्वरूप न्यायिक व्यवहार की भिन्न व्याख्याएँ हो सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ न्यायाधीशों को अनुचित तरीके से निशाना बनाया जा सकता है या पक्षपातपूर्ण जाँच हो सकती है।
- उदाहरण के लिये, न्यायिक कदाचार की जाँच के लिये आंतरिक प्रक्रिया विभिन्न न्यायालयों में असंगत बनी हुई है, जिसमें कोई वैधानिक कार्यढाँचा नहीं है, जिसके कारण अस्पष्ट निर्णय सामने आते हैं, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा से जुड़े मामलों में देखा गया है।
भारत में सुदृढ़ और पारदर्शी न्यायिक उत्तरदायित्व कार्यढाँचे को सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- एक स्वतंत्र न्यायिक निगरानी निकाय की स्थापना: एक राष्ट्रीय न्यायिक निगरानी समिति की स्थापना की जानी चाहिये, जिसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीश, विधि विशेषज्ञ और न्यायपालिका के बाहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हों तथा उन्हें न्यायिक कदाचार की जाँच करने का अधिकार हो।
- यह निकाय न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों की समीक्षा के लिये एक निष्पक्ष, पारदर्शी तंत्र उपलब्ध कराएगा तथा यह सुनिश्चित करेगा कि न्यायपालिका पर बाह्य राजनीतिक दबाव न पड़े।
- ऐसे स्वतंत्र निकाय को कानूनी दर्जा प्रदान करने से एक विश्वसनीय और तटस्थ निरीक्षण प्रणाली स्थापित होगी, जिससे न्यायिक उत्तरदायित्व में जनता का विश्वास बढ़ेगा।
- महाभियोग प्रक्रिया में सुधार: महाभियोग प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिये ताकि इसे अधिक पारदर्शी और कुशल बनाया जा सके।
- जाँच के लिये स्पष्ट समयसीमा लागू करना, कार्यवाही का सार्वजनिक प्रकटीकरण सुनिश्चित करना तथा अधिक सुलभ शिकायत तंत्र की आवश्यकता, प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण सुधार ला सकती है।
- इससे यह सुनिश्चित होगा कि राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण जवाबदेही में विलंब या बाधा न आए तथा न्यायिक कदाचार के विरुद्ध एक मज़बूत निवारक उपलब्ध हो।
- न्यायिक परिसंपत्तियों और देनदारियों का सार्वजनिक प्रकटीकरण: लोक सेवकों के लिये अपेक्षित वार्षिक सार्वजनिक घोषणाओं के समान न्यायिक परिसंपत्तियों और देनदारियों की घोषणा को अनिवार्य करने से पारदर्शिता बढ़ेगी तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक निवारक के रूप में कार्य होगा।
- इसके अतिरिक्त, इन खुलासों को एक स्वतंत्र निकाय या मीडिया द्वारा जाँच के अधीन करने से जवाबदेही में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है, विशेष रूप से अनुपातहीन धन संचय के मामलों में।
- ऐसी पारदर्शिता से न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा में जनता का विश्वास और बढ़ेगा।
- वर्ष 1997 में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके तहत न्यायाधीशों को अपने जीवनसाथी और आश्रितों सहित सभी संपत्तियों की घोषणा भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करने की आवश्यकता थी।
- पारदर्शिता के साथ आंतरिक तंत्र को सुदृढ़ करना: यद्यपि न्यायिक कदाचार से निपटने के लिये आंतरिक प्रक्रिया मूल्यवान है, तथापि अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये इसमें सुधार किया जाना चाहिये।
- औपचारिक रिपोर्टिंग तंत्र लागू करने से, न्यायिक गोपनीयता से समझौता किये बिना, जाँच के परिणामों तक जनता की पहुँच सुनिश्चित होगी, जिससे प्रणाली की विश्वसनीयता बढ़ेगी।
- यह सुनिश्चित करना कि अनुशासनात्मक निर्णयों को जनता तक स्पष्ट रूप से पहुँचाया जाए, इससे न्यायपालिका की जवाबदेही मज़बूत होगी, साथ ही न्यायिक स्वतंत्रता भी बनी रहेगी।
- राष्ट्रीय न्यायिक आचार संहिता का कार्यान्वयन: एक स्वतंत्र निकाय द्वारा लागू की जाने वाली राष्ट्रीय न्यायिक आचार संहिता से नैतिक व्यवहार, हितों के टकराव और न्यायिक उत्तरदायित्व के अन्य पहलुओं पर स्पष्ट दिशानिर्देश उपलब्ध होंगे।
- यह संहिता मौजूदा अनौपचारिक दिशा-निर्देशों से कहीं अधिक व्यापक होगी और न्यायाधीशों के लिये स्पष्ट मानक तय करेगी। यह सुनिश्चित करेगी कि न्यायाधीशों को सुसंगत नैतिक मानकों का पालन करना होगा, जिससे अनुशासनात्मक मामलों में स्पष्टता और निष्पक्षता सुनिश्चित होगी।
- न्यायिक निष्पादन समीक्षा और रिपोर्टिंग: न्यायाधीशों के लिये एक निष्पादन समीक्षा प्रणाली शुरू की जानी चाहिये, जहाँ उनके निर्णयों की गुणवत्ता और नैतिक मानकों के पालन का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाता है, इससे जवाबदेही की एक और कड़ी जुड़ जाएगी।
- ये समीक्षाएँ पारदर्शी होंगी तथा समग्र परिणाम सार्वजनिक रूप से साझा किये जाएंगे, जबकि व्यक्तिगत मामलों की गोपनीयता बरकरार रखी जाएगी।
- इससे न्यायपालिका की प्रभावशीलता और निष्ठा की निगरानी करने में सहायता मिलेगी तथा यह सुनिश्चित होगा कि न्यायाधीश व्यावसायिकता के उच्च मानकों के प्रति प्रतिबद्ध रहें।
- न्यायिक कदाचार के लिये मुखबिर संरक्षण: न्यायिक कदाचार की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित करने के लिये, न्यायपालिका के भीतर मज़बूत मुखबिर संरक्षण तंत्र लागू किया जाना चाहिये।
- इससे यह सुनिश्चित होगा कि जो लोग दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करते हैं, चाहे वे न्यायालय के कर्मचारी हों या अन्य हितधारक, उन्हें प्रतिशोध से बचाया जा सके। मुखबिरों की सुरक्षा करके, यह प्रणाली पारदर्शिता की संस्कृति को प्रोत्साहित करेगी और न्यायपालिका को आवश्यकता पड़ने पर स्वयं को सुधारने की अनुमति देगी।
निष्कर्ष:
वर्तमान में न्यायिक उत्तरदायित्व से संबंधित जो तंत्र प्रचलित हैं, जैसे कि 'न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम', वे प्रायः अप्रभावी सिद्ध होते हैं तथा इनमें राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना बनी रहती है। न्यायिक उत्तरदायित्व को सुदृढ़ करने के लिये स्वतंत्र निगरानी निकाय की स्थापना, परिसंपत्तियों की पारदर्शी घोषणा तथा न्यायिक कार्यप्रणाली की नियमित समीक्षा जैसी संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है। ये प्रयास न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखेंगे बल्कि जनता के विश्वास को भी सशक्त करेंगे। जैसा कि पूर्व CJI डी. वाई. चंद्रचूड़ ने रेखांकित किया है, "सच्ची न्यायिक स्वतंत्रता किसी गलत आचरण को ढकने का आवरण नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की पूर्ति का माध्यम है।"
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. न्यायिक उत्तरदायित्व लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है, लेकिन इसे न्यायिक स्वतंत्रता के साथ संतुलित किया जाना चाहिये। भारत में न्यायिक उत्तरदायित्व के लिये मौजूदा तंत्र का परीक्षण कीजिये। अधिक पारदर्शी, प्रभावी और जवाबदेह न्यायपालिका सुनिश्चित करने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न 1. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर:(c) मेन्सप्रश्न 1. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) प्रश्न 2. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |