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जैव विविधता और पर्यावरण

भारत में बड़ी बिल्ली प्रजातियों से संबंधित चुनौतियाँ

  • 04 Aug 2023
  • 24 min read

यह एडिटोरियल 02/08/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Big concerns over big cats’’ लेख पर आधारित है। इसमें बाघों के संरक्षण और इससे संबंधित अन्य मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्रोजेक्ट टाइगर,1973, टाइगर रिज़र्व, भारतीय वन्यजीव संस्थान, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA), प्रोजेक्ट लाॅयन, प्रोजेक्ट लेपर्ड, स्नो लेपर्ड, चीता पुनर्वास परियोजना, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972

मेन्स के लिये:

बाघों को समर्थन देने के क्रम में भारत की वन क्षमता के सीमा तक पहुँचने से संबंधित चिंताएँ।

भारत का विशाल भूदृश्य बड़ी बिल्ली प्रजातियों (big cat species) की उपस्थिति से संपन्न है, जिनमें से प्रत्येक प्रजाति शक्ति, भव्यता और देश की प्राकृतिक विरासत से अभिन्नता को प्रकट करती है। घने जंगलों में विचरण करने वाले रॉयल बंगाल टाइगर से लेकर उच्च हिमालय में अपनी छाप रखने वाले हिम तेंदुए तक, ये शीर्ष शिकारी जीव न केवल भारत की जैव विविधता के प्रतीक हैं बल्कि संवेदनशील पारिस्थितिकी संतुलन के संरक्षक भी हैं। उनकी सुरक्षा की तत्काल आवश्यकता को चिह्नित करते हुए भारत ने वर्ष 1973 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ (Project Tiger) नामक एक दूरदर्शी पहल की शुरुआत की थी, जो बड़ी बिल्लियों और उनके पर्यावासों के संरक्षण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। 

भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority) द्वारा भारत के बाघ अभयारण्यों (tiger reserves) के लिये तैयार की गई ‘भारत में बाघ अभयारण्यों का प्रबंधन प्रभावशीलता मूल्यांकन (Management Effectiveness Evaluation- MEE), 2022 (पाँचवाँ चक्र) रिपोर्ट’ इस संबंध में हुई प्रगति और चुनौतियों की एक मिश्रित तस्वीर पेश करती है। भारत में जंगली बाघों की आबादी वर्ष 2006 के 1,400 से बढ़कर 3,167 होने के साथ चिंताएँ उभर रही हैं, जहाँ इस बढ़ती संख्या को संभाल सकने की देश की वन क्षमता के बारे में चर्चा शुरू हो गई है। 

प्रोजेक्ट टाइगर: 

  • परिचय: 
    • बाघ परियोजना या ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ भारत सरकार द्वारा 1 अप्रैल 1973 को शुरू किया गया एक बाघ संरक्षण कार्यक्रम है। 
  • उद्देश्य: 
    • बाघों के पर्यावासों में कमी लाने वाले कारकों पर नियंत्रण करना और उपयुक्त प्रबंधन द्वारा इनका शमन करना। 
    • अधिकतम संभव सीमा तक पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्प्राप्ति को सुगम बनाने के लिये पर्यावास को हुई क्षति का पुनरुद्धार करना। 
    • आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, सौंदर्यात्मक और पारिस्थितिकी मूल्यों के लिये व्यवहार्य बाघ आबादी को सुनिश्चित करना। 

प्रोजेक्ट टाइगर से प्राप्त लाभ:  

  • बाघ संख्या की पुनर्प्राप्ति: 
    • प्रोजेक्ट टाइगर का एक प्राथमिक उद्देश्य बाघों की आबादी में गिरावट की प्रवृत्ति को उलटना था। 
    • समर्पित संरक्षण प्रयासों के माध्यम से इस परियोजना ने देश भर में नामित बाघ अभयारण्यों में बाघों की संख्या में सफलतापूर्वक वृद्धि दर्ज की है। 
      • आबादी में यह वृद्धि न केवल प्रजातियों को संरक्षित करती है बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र के समग्र स्वास्थ्य में भी योगदान करती है। 
  • पर्यावास संरक्षण: 
    • प्रोजेक्ट टाइगर बाघ पर्यावासों की सुरक्षा पर बल देता है, जिसका पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 
    • यह परियोजना इन भूदृश्यों की सुरक्षा कर अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों और जीवों की एक विस्तृत शृंखला को लाभ पहुँचाती है, जो अस्तित्व के लिये इन पर्यावासों पर निर्भर हैं। 
      • यह जैव विविधता और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में योगदान देता है। 
  • आर्थिक मूल्य और पर्यटन: 
    • बाघ आकर्षक बड़े जीव (megafauna) हैं जो दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। बाघों की आबादी के संरक्षण में परियोजना की सफलता से पर्यावरण-पर्यटन (eco-tourism) में वृद्धि हुई है, जिससे स्थानीय समुदायों के लिये और देश के लिये राजस्व का सृजन हुआ है। 
      • यह आर्थिक लाभ स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रयासों में भागीदारी हेतु प्रोत्साहित करने में मदद करता है। 
  • पारिस्थितिकी संतुलन: 
    • बाघ शीर्ष शिकारी जीव हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 
    • शिकार (prey) की आबादी को नियंत्रित करके, वे अतिचारण (overgrazing) पर नियंत्रण रखते हैं और शाकाहारी प्रजातियों के स्वास्थ्य को प्रबंधित करने में मदद करते हैं। 
      • बदले में, इसका वनस्पति और अन्य पशु आबादी पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, जो एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देता है। 
  • की-स्टोन प्रजातियों का संरक्षण: 
    • बाघों को की-स्टोन प्रजाति (Keystone Species) माना जाता है क्योंकि उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति उनके पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना को वृहत रूप से प्रभावित कर सकती है।  
      • की-स्टोन प्रजाति की अवधारणा वर्ष 1969 में प्राणी विज्ञानी रॉबर्ट टी. पेन (Robert T. Paine) द्वारा पेश की गई थी, जो ऐसी प्रजाति को इंगित करती है जो अपनी बहुतायतता के सापेक्ष अपने प्राकृतिक पर्यावरण पर असमान रूप से वृहत प्रभाव डालती है। 
    • प्रोजेक्ट टाइगर बाघों का संरक्षण कर अप्रत्यक्ष रूप से कई अन्य प्रजातियों की संरक्षा करता है जो खाद्य जाल के तहत एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। 
      • इससे पारिस्थितिकी तंत्र की समग्र स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। 

प्रोजेक्ट टाइगर से संबंद्ध चुनौतियाँ:  

  • पर्यावास हानि और विखंडन: 
    • तीव्र शहरीकरण, अवसंरचना विकास और कृषि विस्तार के कारण पर्यावास की हानि हुई है और उनका विखंडन हुआ है। 
      • इससे बाघों की गतिविधियों के लिये जगह की कमी होने से उनके लिये बड़ा खतरा उत्पन्न हुआ है। 
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष: 
    • बाघ पर्यावासों के संकुचन और मानव आबादी के विस्तार के साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएँ बढ़ी हैं। 
    • बाघ पशुधन या यहाँ तक कि मनुष्यों पर भी हमला कर सकते हैं, जिससे प्रतिशोध में उनकी हत्याएँ की जा सकती हैं और बाघ संरक्षण के बारे में नकारात्मक धारणाएँ पैदा हो सकती हैं। स्थानीय समुदायों की आवश्यकताओं और बाघ संरक्षण के बीच संतुलन रखना एक कठिन चुनौती है। 
  • अवैध शिकार और अवैध वन्यजीव व्यापार: 
    • संरक्षण प्रयासों के बावजूद, अवैध शिकार एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है। पारंपरिक चिकित्सा में  बाघ के अंगों की मांग और इनका अवैध व्यापार इस प्रजाति के लिये खतरा उत्पन्न करता है। 
    • इस अवैध गतिविधि पर अंकुश लगाने के लिये शिकारियों और तस्करों के विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई आवश्यक है। 
  • पर्यावासों के बीच कनेक्टिविटी का अभाव: 
    • विखंडित पर्यावासों में बाघों की पृथक आबादियों को आनुवंशिक बाधाओं और निम्न आनुवंशिक विविधता जैसे संकटों का सामना करना पड़ता है। 
    • आनुवंशिक स्वास्थ्य को बनाए रखने और बाघों को विभिन्न क्षेत्रों के बीच स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकने का अवसर देने के लिये इन आबादियों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिये गलियारों का निर्माण करना अत्यंत आवश्यक है। 
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: 
    • बदलती जलवायु परिस्थितियाँ बाघों के पर्यावास और शिकार की उपलब्धता को बदल सकती हैं, जिससे उनके अस्तित्व पर असर पड़ सकता है। 
    • प्रोजेक्ट टाइगर को इन परिवर्तनों के अनुकूल होने और बाघों एवं उनके पारिस्थितिक तंत्र के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिये जलवायु प्रत्यास्थता रणनीतियों (climate resilience strategies) को शामिल करना चाहिये। 
  • सीमित सामुदायिक भागीदारी: 
    • सफलता के लिये संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि सीमित सामुदायिक भागीदारी और बाघ अभयारण्यों से होने वाले सीमित लाभों के कारण संरक्षण पहल के लिये प्रतिरोध और समर्थन की कमी की स्थिति भी बन सकती है। 
  • संरक्षण और विकास के बीच संघर्ष: 
    • बाँधों या सड़कों जैसी विकास परियोजनाओं के साथ संरक्षण लक्ष्यों को संतुलित करने से संघर्ष की स्थिति बन सकती है। 
    • मानवीय आवश्यकताओं और पर्यावरण संरक्षण दोनों को ध्यान में रखते हुए सतत् विकास सुनिश्चित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। 

बाघों का समर्थन कर सकने में वन क्षमता की सीमितता से जुड़ी चिंताएँ:  

  • संरक्षित क्षेत्रों से बाहर विचरण: 
    • बाघों की लगभग 30% आबादी संरक्षित क्षेत्रों के बाहर विचरण करती है और नियमित रूप से मानव बस्तियों में प्रवेश करती है, जिससे मानव-बाघ संघर्ष की स्थिति बनती है। 
  • सिकुड़ते बाघ गलियारे: 
    • रेलवे लाइनों, राजमार्गों और नहरों जैसे रैखिक अवसंरचना के निर्माण के परिणामस्वरूप बाघ गलियारे सिकुड़ गए हैं, जो दो बड़े वन क्षेत्रों को जोड़ने वाली आवश्यक पट्टी के रूप में कार्य करते हैं। 
  • मानव-प्रधान भूदृश्यों में प्रवेश: 
    • माना जाता है कि बाघ उन शाकाहारी जीवों की तलाश में वनों से बाहर निकल आते हैं जो मानव-प्रधान भूदृश्यों में अधिक प्रवेश करने लगे हैं। 
    • यह व्यवहार पंचफूली या ‘लैंटाना’ (Lantana) जैसी आक्रामक प्रजातियों द्वारा प्राकृतिक वनस्पतियों के अधिग्रहण से प्रेरित है, जो प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित कर रही हैं और शाकाहारी वन्यजीवों को मनुष्यों के निवास क्षेत्रों में खाद्य की तलाश में आने के लिये विवश होना पड़ता है। 
  • वहन क्षमता: 
    • बाघों की बढ़ती आबादी के साथ, यह सवाल खड़ा हुआ है कि क्या भारत के वन इन शीर्ष शिकारी जीवों का वहन कर सकने में अपनी क्षमता की अंतिम सीमा के निकट पहुँच रहे हैं। 
  • असमान वितरण: 
    • जबकि भारत में 75,000 वर्ग किमी. में विस्तृत 53 बाघ अभ्यारण्य हैं, बाघ संरक्षण के लिये आरक्षित क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा 20 अभ्यारण्यों के दायरे में आता है, जिससे बाघ जनसंख्या के असमान वितरण की स्थिति बनती है। 
  • मानव-बाघ संघर्ष: 
    • अक्षम/वृद्ध जंगली बाघों को खाना खिलाने एवं उनका बचाव करने, बाघ पर्यावासों को कृत्रिम रूप से समृद्ध करने और ‘समस्याजनक’ बाघों (‘problem’ tigers) को स्थानांतरित करने जैसे समाधानों के माध्यम से उभरते मानव-बाघ संघर्षों को हल करने का प्रयास किया गया है। 

भारत में बड़ी बिल्ली प्रजातियों के लिये कार्यान्वित प्रमुख संरक्षण प्रयास: 

  • प्रोजेक्ट लायन’
    • गंभीर रूप से संकटग्रस्त (critically endangered) एशियाई शेर प्रजाति के संरक्षण के लिये शेर संरक्षण परियोजना या प्रोजेक्ट लायन (Project Lion) शुरू किया गया, जो मुख्य रूप से गुजरात के गिर वन राष्ट्रीय उद्यान पर केंद्रित है। 
    • यह पहल पर्यावास प्रबंधन, वैज्ञानिक अनुसंधान, अवैध शिकार विरोधी उपायों और सामुदायिक भागीदारी पर बल देती है। इसका उद्देश्य एशियाई शेरों की एक स्थायी और वृद्धिशील बढ़ती आबादी सुनिश्चित करना है। 
  • ‘प्रोजेक्ट लेपर्ड’: 
    • तेंदुओं के व्यापक वितरण और उनकी अनुकूलनीय प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, प्रोजेक्ट लेपर्ड (Project Leopard) शुरू किया गया है। 
    • इसमें तेंदुओं की आबादी की निगरानी करना, मानव-तेंदुआ संघर्ष को कम करना और संरक्षित क्षेत्रों एवं गलियारों के माध्यम से उनके पर्यावासों को संरक्षित करना शामिल है। 
  • हिम तेंदुआ संरक्षण (Snow Leopard Conservation): 
    • भारत के हिमालयी भूदृश्य हिम तेंदुए के लिये पर्यावास का निर्माण करते हैं। इनके संरक्षण प्रयासों में पर्यावास संरक्षण, सामुदायिक सहभागिता, अनुसंधान और अवैध शिकार विरोधी उपाय करना शामिल हैं। 
    • पड़ोसी देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग से उच्च क्षेत्रों में रहने वाले इस शिकारी जीव को संरक्षित करने में मदद मिलती है। 
  • चीता पुनःप्रवेश परियोजना (Cheetah Reintroduction Project): 
    • भारत ने विलुप्त हो चुकी चीता प्रजाति को उनके मूल पर्यावास में पुनःस्थापित करने के लिये कदम उठाया है। इस पहल में उपयुक्त क्षेत्रों का चयन करना, पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्बहाल करना और व्यवहार्य चीता आबादी को पुनःस्थापित करने एवं बनाए रखने में उत्पन्न संभावित चुनौतियों का समाधान करना शामिल है। 
  • विधान और नीतिगत ढाँचा: 
    • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 जैसे अधिनियम बड़ी बिल्ली प्रजाति के संरक्षण के लिये कानूनी आधार प्रदान करते हैं। ये कानून शिकार, अवैध शिकार और वन्यजीवों (एवं उनके व्युत्पन्न उत्पादों) के व्यापार को नियंत्रित करते हैं। 

आगे की राह: 

  • पर्यावास संरक्षण और पुनर्स्थापन को सुदृढ़ करना: 
    • जनसंख्या वृद्धि और आनुवंशिक विविधता के लिये पर्याप्त अवसर सुनिश्चित करते हुए महत्त्वपूर्ण बाघ पर्यावासों की पहचान की जाए और उन्हें आगे के अतिक्रमण से बचाया जाए। 
    • प्रत्यास्थी और परस्पर जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण के लिये पर्यावास पुनर्बहाली प्रयासों (पुनर्वनीकरण और आक्रामक प्रजातियों को हटाने सहित) में निवेश किया जाए। 
  • अवैध शिकार विरोधी उपायों को सुदृढ़ करना: 
    • अवैध शिकार और वन्यजीव तस्करी पर अंकुश लगाने के लिये आधुनिक तकनीक, खुफिया नेटवर्क और त्वरित प्रतिक्रिया टीमों के माध्यम से कानून प्रवर्तन को सशक्त किया जाए। 
    • अपराधियों/उल्लंघनकर्ताओं के विरुद्ध कठोर दंड लागू किये जाएँ और अवैध वन्यजीव व्यापार नेटवर्क के उन्मूलन के लिये अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ मिलकर कार्य किया जाए। 
  • सतत्/संवहनीय मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना: 
    • ऐसे समुदाय-आधारित संरक्षण मॉडल विकसित और कार्यान्वित किये जाएँ जो स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रयासों में शामिल करें, उन्हें वैकल्पिक आजीविका प्रदान करें और मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने में मदद करें। 
    • मानव-बाघ संघर्ष को कम करने और मनुष्यों एवं वन्य जीवों दोनों के लिये सुरक्षा बढ़ाने के लिये पूर्व-चेतावनी प्रणाली जैसी नवीन प्रौद्योगिकियों को नियोजित किया जाए। 
  • जलवायु-प्रत्यास्थी रणनीतियों को एकीकृत करना: 
    • बाघों के पर्यावास और शिकार की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिये बाघ अभयारण्यों के तहत जलवायु अनुकूलन योजनाएँ विकसित की जाएँ। 
    • ऐसे बफर ज़ोन स्थापित किये जाएँ जो चरम मौसमी घटनाओं के दौरान वन्यजीवों के लिये शरणस्थली के रूप में कार्य कर सकें। 
  • वहन क्षमता संबंधी चिंताओं का समाधान करना: 
    • भारत के वनों की वहन क्षमता का आकलन करने के लिये व्यापक अध्ययन आयोजित किये जाएँ और यह सुनिश्चित किया जाए कि बाघों की वर्तमान और भविष्य की आबादी सतत्/संवहनीय बनी रहे। 
    • आनुवंशिक आदान-प्रदान को सुविधाजनक बनाने और बाघों को फलने-फूलने में सक्षम बनाने के लिये बाघ गलियारों के निर्माण एवं पुनर्बहाली को प्राथमिकता दी जाए। 

अभ्यास प्रश्न: ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की भूमिका एवं प्रभावशीलता की चर्चा करते हुए भारत में बड़ी बिल्ली प्रजातियों के संरक्षण से संबंधित चुनौतियों एवं संभावनाओं पर विचार कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्षों के प्रश्न (PYQ)   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित बाघ आरक्षित क्षेत्रों में “क्रांतिक बाघ आवास (Critical Tiger Habitat)” के अंतर्गत सबसे बड़ा क्षेत्र किसके पास है? (2020)

(a) कॉर्बेट
(b) रणथंभौर
(c) नागार्जुनसागर-श्रीसैलम
(d) सुंदरबन

उत्तर: (c)

व्याख्या:

  • “क्रांतिक बाघ आवास (Critical Tiger Habitat), जिसे टाइगर रिज़र्व कोर क्षेत्र भी कहा जाता है, की पहचान वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम (डब्ल्यूएलपी), 1972 के अंतर्गत की गई है। वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर, अनुसूचित जनजाति या ऐसे अन्य वनवासियों के अधिकारों को प्रभावित किये बिना ऐसे क्षेत्रों को बाघ संरक्षण के लिये सुरक्षित रखा जाना आवश्यक है। 
  • क्रांतिक बाघ आवास की अधिसूचना राज्य सरकार द्वारा उद्देश्य पूर्ति के लिये गठित विशेषज्ञ समिति के परामर्श से की जाती है।
  • कोर/क्रांतिक बाघ आवास क्षेत्र:
  • कॉर्बेट (उत्तराखंड): 821.99 वर्ग किमी
  • रणथंभौर (राजस्थान): 1113.36 वर्ग किमी
  • सुंदरवन (पश्चिम बंगाल): 1699.62 वर्ग किमी
  • नागार्जुनसागर श्रीशैलम (आंध्र प्रदेश का हिस्सा): 2595.72 वर्ग किमी
  • अतः विकल्प (c) सही है।
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