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आक्रामक विदेशी पादप प्रजातियों से खतरा
- 08 Dec 2025
- 53 min read
चर्चा में क्यों?
नेचर सस्टेनेबिलिटी के एक अध्ययन के अनुसार, आक्रामक विदेशी पादप प्रतिवर्ष भारत के 15,500 वर्ग किलोमीटर प्राकृतिक क्षेत्रों में फैल रहे हैं, जिससे 60 वर्षों में 8.3 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हो रहा है और पारितंत्र, वन्यजीव, कृषि तथा ग्रामीण आजीविकाएँ खतरे में पड़ रही हैं।
आक्रामक विदेशी पादप प्रजातियाँ क्या होती हैं?
- परिचय: आक्रामक पादप प्रजातियाँ वे गैर-स्थानीय पादप/पौधे हैं जिन्हें जानबूझकर या अनजाने में किसी पारितंत्र में लाया जाता है, जहाँ ये स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं और आर्थिक, पर्यावरणीय या मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
- आक्रमणों की गति बढ़ रही है, जिसका कारण जलवायु परिवर्तन, भूमि उपयोग में बदलाव, परिवर्तित आग के पैटर्न, मिट्टी की नमी में बदलाव, पशुपालन की चराई की आदतें और जैव विविधता में ह्रास हैं।
- भारत में आक्रामक पादप प्रजातियाँ: प्रमुख आक्रमणकारी पौधों में लैंटाना कैमरा, क्रोमोलाइना ओडोराटा और प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शामिल हैं।
- ये आक्रमण प्रजातियाँ भारत के 2,66,954 वर्ग किलोमीटर प्राकृतिक आवासों में फैले हुए हैं।
- उच्च-जोखिम क्षेत्र: इसमें शिवालिक–तेराई बेल्ट, पूर्वोत्तर का डुआर क्षेत्र, अरावली, दंडकारण्य के वन, और पश्चिमी घाट में नीलगिरी शामिल हैं।
- सूखे घास के मैदान, सवाना, शोलाघास के मैदान और गंगा–ब्रह्मपुत्र के किनारे के दलदली मैदानी इलाके जैसे खुले पारितंत्र तेज़ी से फैलने वाले आक्रामक पादपों के लिये सबसे संवेदनशील हैं।
- आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ भारत के प्राकृतिक पारितंत्रों को बदल रही हैं
- जैव विविधता ह्रास: आक्रामक पौधे स्थानीय वनस्पतियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिससे पारितंत्र की एकरूपता, मिट्टी का क्षरण और व्यापक पारिस्थितिकी व्यवधान होता है।
- जैसे-जैसे स्थानीय पौधों की संख्या घटती है, शाकाहारी अपने प्राकृतिक खाद्य स्रोत खो देते हैं, जिससे शिकारियों को भी शिकार की कमी के कारण स्थानांतरित होना पड़ता है।
- पशुपालन: आक्रामण से पशुओं के जीवन के लिये आवश्यक चारे और चरागाह की उपलब्धता कम हो जाती है।
- मानव: आक्रामक प्रजातियाँ चारा, ईंधन और उपजाऊ भूमि तक पहुँच को कम करती हैं, जिससे ग्रामीण आजीविकाओं को सीधे नुकसान होता है।
- ये श्वसन संबंधी समस्याओं जैसे स्वास्थ्य मुद्दों को भी बढ़ाते हैं और आय व संसाधन सुरक्षा को कमज़ोर करके गरीबी को गहरा करते हैं।
- वर्ष 2022 तक 1.44 करोड़ लोग, 27.9 लाख पशु और 2 लाख वर्ग किलोमीटर छोटे किसान की खेती आक्रामक प्रजातियों के प्रभाव में थे, जो पारिस्थितिकी तथा आजीविका जोखिम की गंभीरता को दर्शाता है।
- जैव विविधता ह्रास: आक्रामक पौधे स्थानीय वनस्पतियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिससे पारितंत्र की एकरूपता, मिट्टी का क्षरण और व्यापक पारिस्थितिकी व्यवधान होता है।
भारत में आक्रामक प्रजातियों के प्रबंधन की चुनौतियाँ और उपाय क्या हैं?
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चुनौतियाँ |
आवश्यक उपाय |
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भारत में आक्रामक प्रजातियों के लिये कोई समर्पित राष्ट्रीय मिशन या केंद्रीय प्राधिकरण नहीं है। |
स्पष्ट नेतृत्व और अधिकारों के साथ राष्ट्रीय आक्रामक प्रजाति मिशन (National Invasive Species Mission) स्थापित किया जाएँ। आक्रामक प्रजाति नियंत्रण को जलवायु अनुकूलन, जलग्रहण प्रबंधन और पुनर्स्थापन कार्यक्रमों में शामिल किया जाएँ। |
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एकीकृत राष्ट्रीय डाटाबेस या दीर्घकालिक निगरानी प्रणाली की कमी है। |
केंद्रीकृत GIS-आधारित डाटाबेस, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और राष्ट्रीय स्तर का मॉनिटरिंग नेटवर्क विकसित किया जाएँ। |
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कमज़ोर क्वारंटाइन और बायो-सिक्योरिटी सिस्टम के कारण नई आक्रामक प्रजातियाँ लगातार प्रवेश करती रहती हैं। |
पौधों, बीजों एवं मृदा के आयात के लिये क्वारंटाइन स्क्रीनिंग, सीमा-बायो-सिक्योरिटी, और आयात नियमों को मज़बूत किया जाएँ। |
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प्रजाति-विशिष्ट नियंत्रण विधियों और दीर्घकालिक पारिस्थितिकी पुनर्प्राप्ति पर सीमित वैज्ञानिक शोध। |
इकोलॉजिकल मॉडलिंग, जैव-नियंत्रण और पुनर्स्थापन विज्ञान के लिये शोध निधि बढ़ाई जाएँ। |
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हाथ से की जाने वाली निकासी महंगी, श्रम-सघन और बिना पुनर्स्थापन के प्राय: अप्रभावी होती है। |
समुदाय-आधारित हटाने के प्रयासों को बढ़ावा, मशीनरी सहायता और बायोफ्यूल उत्पादन जैसे सतत उपयोग के विकल्प विकसित किये जाएँ। |
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हटाए गए क्षेत्रों का पुनर्स्थापन नहीं होता, जिससे आक्रामक प्रजातियाँ जल्दी लौट आती हैं। |
पुन: आक्रमण रोकने के लिये देशज (स्थानीय) घासों और झाड़ियों का सक्रिय पुनर्स्थापन सुनिश्चित किया जाएँ। |
निष्कर्ष
भारत में तेज़ी से फैल रही आक्रामक वनस्पति जैव विविधता, आजीविकाओं और पारिस्थितिक स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा बन रही है, जिसके लिये त्वरित राष्ट्रीय कार्रवाई आवश्यक है। दीर्घकालिक पारिस्थितिक अनुकूलन सुनिश्चित करने के लिये एक समन्वित मिशन अनिवार्य है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ प्रणालीगत पर्यावरणीय कुप्रबंधन का परिणाम हैं। इनके प्रसार के कारक तथा पारिस्थितिक प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. आक्रामक विदेशी प्रजातियाँ क्या हैं?
वे गैर-स्थानीय पौधे हैं जिन्हें जानबूझकर या अनजाने में किसी नए क्षेत्र में लाया गया होता है। ये वहाँ स्थापित होकर तेज़ी से फैलते हैं और स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्द्धा करके उन्हें पीछे छोड़ देते हैं, जिससे पारिस्थितिक तंत्र, अर्थव्यवस्था या मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचता है।
2. अब आक्रमण तेज़ी से क्यों बढ़ रहे हैं?
इसके कारणों में जलवायु परिवर्तन, भूमि उपयोग में बदलाव, अग्नि चक्र में परिवर्तन, मृदा की नमी में बदलाव और पशुधन की बढ़ी हुई चराई शामिल हैं। ये सभी कारक मिलकर आक्रामक प्रजातियों के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।
3. आक्रामक प्रजातियों पर नियंत्रण हेतु कौन‑से उपाय आवश्यक हैं?
एक राष्ट्रीय आक्रामक प्रजाति मिशन की स्थापना, एक केंद्रीय GIS डाटाबेस और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास, क्वारंटाइन/बायो-सिक्योरिटी को मज़बूत करना, प्रजाति-विशिष्ट अनुसंधान को वित्तपोषित करना तथा समुदाय की भागीदारी के साथ पुनर्स्थापन को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
सारांश
- नेचर सस्टेनेबिलिटी के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत के प्राकृतिक क्षेत्रों में प्रतिवर्ष लगभग 15,500 वर्ग किमी में आक्रामक विदेशी पौधों का प्रसार हो रहा है, जो पारिस्थितिक तंत्र और आजीविकाओं पर गंभीर प्रभाव डाल रहा है।
- लैंटाना कैमरा, क्रोमोलेना ओडोराटा और प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसी प्रजातियाँ अब बड़े आवासों पर हावी हो चुकी हैं, जिससे 2,66,954 वर्ग किमी प्राकृतिक क्षेत्र प्रभावित हुआ है।
- वर्ष 2022 तक, इन आक्रामक प्रजातियों के प्रसार के कारण 144 मिलियन लोग, 2.79 मिलियन पशुधन और 2 लाख वर्ग किमी कृषि भूमि पारिस्थितिक एवं आर्थिक जोखिमों के संपर्क में आ गए थे।
- कमज़ोर बायो-सिक्योरिटी, खराब निगरानी और राष्ट्रीय स्तर पर किसी व्यापक मिशन की अनुपस्थिति नियंत्रण प्रयासों में बाधा बन रही है, जो जैव विविधता तथा ग्रामीण समुदायों की रक्षा के लिये एक समन्वित रणनीति की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
मेन्स:
प्रश्न. भारत में जैव विविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैव विविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018)
