भारतीय राजव्यवस्था
भारत का न्यायिक लंबितता संकट
- 05 Dec 2025
- 88 min read
प्रिलिम्स के लिये: न्यायपालिका, निचली अदालत, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, विधि आयोग, लोक अदालत, ई-न्यायालय मिशन मोड परियोजना, विशेष अनुमति याचिका, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015।
मेन्स के लिये: भारत में न्यायिक लंबित मामलों की स्थिति और उनके कारण, भारत में न्यायिक लंबितता को कम करने के लिये प्रणालीगत सुधार आवश्यक हैं।
चर्चा में क्यों?
कानून एवं न्याय मंत्री ने सूचित किया कि न्यायपालिका गंभीर जनशक्ति की कमी का सामना कर रही है और उच्च रिक्तियों तथा बढ़ते मुकदमों (निचली अदालतों में लगभग 4.80 करोड़ मामले लंबित) के बीच बढ़ता अंतर व्यापक प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
भारतीय न्यायपालिका में लंबित मामलों की स्थिति क्या है?
- उच्च न्यायालयों में लंबितता: सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, वर्ष 2021 के 70,239 मामलों से बढ़कर वर्ष 2025 में यह 90,694 हो गई, यानी चार वर्षों में लगभग 30% की वृद्धि।
- निचली अदालतों में बढ़ती लंबितता: देश की निचली अदालतों में लगभग 4.80 करोड़ मामले लंबित हैं। महाराष्ट्र का उदाहरण दर्शाता है कि वर्ष 2021 से ज़िला एवं निचली अदालतों में 250 पद लगातार रिक्त रहने के कारण नियुक्तियाँ न होने से लंबितता लगातार बढ़ती रही है।
- राज्यों के बीच असमानताएँ: उत्तर प्रदेश भारत की न्यायिक लंबितता का केंद्र है। निचली अदालतों में यहाँ 1.13 करोड़ मामले लंबित हैं, जो देश की कुल लंबितता का 23% से अधिक है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय भी उच्च न्यायालयों में सबसे अधिक लंबित मामलों वाला न्यायालय है, जहाँ 11.66 लाख मामले निस्तारण की प्रतीक्षा में हैं।
प्रणालीगत समस्याएँ भारतीय न्यायपालिका में लंबितता संकट को कैसे बढ़ाती हैं?
- जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या: भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात बहुत कम है, प्रति मिलियन लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश, जबकि अमेरिका में यह संख्या 150 प्रति मिलियन है। यह अनुपात विधि आयोग की वर्ष 1987 की सिफारिश (प्रति मिलियन 50 न्यायाधीश) से भी काफी नीचे है।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने भी इस तर्क पर ज़ोर दिया था कि भारत में ‘और अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता’ है और न्यायपालिका सभी स्तरों पर न्यायिक क्षमता बढ़ाने के लिये सरकार से बातचीत कर रही है।
- उच्च रिक्ति दर: जैसा कि आँकड़े दिखाते हैं, निचली अदालतों में 4,855 और उच्च न्यायालयों में 297 रिक्तियाँ हैं, जिससे मौजूदा न्यायाधीशों पर अत्यधिक भार पड़ता है। निचली अदालत के एक न्यायाधीश के पास हज़ारों लंबित मामले हो सकते हैं।
- अवसंरचनात्मक कमियाँ: कई न्यायालयों में पर्याप्त न्यायालय कक्ष, लिपिकीय स्टाफ, स्टेनोग्राफर और आधुनिक तकनीकी सहायता (कंप्यूटर, वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग) का अभाव है, जो दैनिक कार्यवाही को धीमा कर देता है।
- अप्रभावी मामले प्रबंधन: कमज़ोर पूर्व-न्यायिक समयनिर्धारण, पुराने मामलों की खराब प्राथमिकता और समान मामलों को समूहित न करना सुनवाइयों को अव्यवस्थित बना देता है।
- वकीलों की अनुपस्थिति, जानबूझकर विलंब या प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों के कारण बार-बार आसानी से दिये जाने वाले स्थगन के कारण मामले वर्षों तक कई सुनवाइयों में लंबित रह जाते हैं।
- धीमी और जटिल नियुक्ति प्रक्रिया: न्यायाधीशों की भर्ती लंबी होती है और प्रशासनिक व राजनीतिक विलंबों के कारण और धीमी हो जाती है, जबकि कॉलेजियम तथा कार्यपालिका के बीच विवाद उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय की रिक्तियों को और बढ़ा देता है।
- वहीं पर्याप्त विशेषीकृत न्यायालयों (जैसे, साइबर अपराध के लिये) की कमी सामान्य न्यायालयों को जटिल मामलों को निपटाने हेतु बाध्य करती है, जिससे लंबित मामलों की संख्या और बढ़ जाती है।
- अनुकल्पी विवाद समाधान (ADR) का कम उपयोग: मध्यकता, माध्यस्थम् और लोक अदालत जैसी व्यवस्थाओं का पर्याप्त उपयोग नहीं हो रहा है। हालाँकि लोक अदालतें लाखों मामलों का निपटान करती हैं, ये प्राय: मुकदमे से पहले या छोटे विवादों को ही सॅंभालती हैं, न कि मुख्य लंबित मामलों को।
न्यायिक रिक्ति और लंबितता संकट भारत में न्याय वितरण को कैसे कमज़ोर करता है?
- संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन: यह सीधे तौर पर अनुच्छेद 21 के त्वरित न्याय के अधिकार का हनन करता है, जिससे ‘न्याय में विलंब’ बदलकर ‘न्याय से वंचित’ बन जाता है और कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन होता है।
- न्याय वितरण की गुणवत्ता में कमी: मौजूदा न्यायाधीशों पर भारी कार्यभार, जो प्राय: प्रतिदिन सैकड़ों मामलों की सुनवाई करते हैं। विचार-विमर्श, गहराई और निर्णयों की निष्पक्षता को खतरे में डालता है।
- जनता का विश्वास और सामाजिक समझौता कमज़ोर होना: अत्यधिक विलंब के कारण मुकदमेबाज़ी से थकान, निर्णयों की निवारक क्षमता में कमी और न्यायपालिका के प्रति जनता की निराशा बढ़ती है, जिससे राज्य तथा नागरिकों के बीच सामाजिक समझौता कमज़ोर पड़ता है।
- आर्थिक वृद्धि को बाधित करना: व्यापारिक विवादों के लंबित निर्णय नियामक अनिश्चितता उत्पन्न करते हैं, लेन-देन की लागत बढ़ाते हैं तथा निवेश के लिये बाधा बनते हैं, जिससे भारत की ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग और आर्थिक संभावनाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- सामाजिक असमानता को बढ़ाना: यह संकट हाशिये पर रहने वाले वर्गों और न्याय प्रक्रिया में बंद कैदियों पर असमान प्रभाव डालता है, जिससे संभावित सज़ा से अधिक समय तक अग्रिम हिरासत बनी रहती है तथा मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ और मज़बूत होती हैं।
- कानून के शासन को खतरा: कानूनी उपायों को अप्रभावी बनाकर यह सचेतन न्याय और संवैधानिक के बाहर के विवाद समाधान के तरीकों को बढ़ावा देता है।
- संस्थागत क्षमता का यह क्षरण संविधान की मूल संरचना में से एक, विधि के शासन को मौलिक रूप से कमज़ोर करता है।
भारत में न्यायिक लंबितता कम करने के प्रयास
भारत में न्यायिक लंबितता कम करने हेतु कौन-से प्रणालीगत सुधार आवश्यक हैं?
- रिक्तियों को शीघ्र भरना: राष्ट्रीय न्यायिक भर्ती ढाँचा आवश्यक है, जो उत्तर प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे उच्च-आवश्यकता वाले राज्यों में तात्कालिक तथा समयबद्ध भर्ती को अनिवार्य करे।
- दीर्घकालिक लक्ष्य यह है कि राष्ट्रीय न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात को 120वें विधि आयोग की रिपोर्ट (1987) की सिफारिश के अनुसार प्रति मिलियन लोगों पर 50 न्यायाधीश तक बढ़ाया जाए।
- मौजूदा न्यायाधीशों के समय और न्यायालय प्रक्रियाओं का अनुकूलन: स्थगन केवल असाधारण मामलों में ही दिया जाए और असंगत विलंबों पर दंड लगाया जाए।
- व्यावसायिक विवादों, चेक बाउंस मामलों, यातायात अपराधों और पारिवारिक कानून के लिये समर्पित न्यायालयों का विस्तार करें ताकि विशेषज्ञता एवं गति में वृद्धि हो सके।
- प्रौद्योगिकी का उपयोग करना (डिजिटल न्यायालय): ई-न्यायालय मिशन मोड परियोजना को पूरी तरह लागू करें, जिसमें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ई‑फाइलिंग और प्रबंधन प्रणाली शामिल हों।
- AI-संचालित ट्रायज उपकरणों का उपयोग करें ताकि मामलों को वर्गीकृत किया जा सके, मध्यकता का सुझाव दिया जा सके और सुनवाई के समय की भविष्यवाणी की जा सके।
- ADR को बढ़ावा देना: अधिकतर दीवानी और व्यावसायिक विवादों में मुकदमे से पहले मध्यकता अनिवार्य करें, जैसा कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 में है। लोक अदालतों और माध्यस्थम प्रणाली को मज़बूत करें, उनकी प्रवर्तनीयता बढ़ाएँ और संस्थागत माध्यस्थम को प्रोत्साहित करें।
- सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के कार्यों का अनुकूलन: सर्वोच्च न्यायालय को विशेष अनुमति याचिका को अत्यधिक सीमित करना चाहिये ताकि यह संवैधानिक मामलों पर केंद्रित रहे और अपनी लंबित मामलों की संख्या घटा सके।
- उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों में सख्त मामले प्रबंधन और प्रदर्शन मानकों को लागू करना चाहिये।
निष्कर्ष
भारत की न्यायपालिका कर्मचारी और अवसंरचनात्मक कमी का सामना कर रही है, जिससे अद्वितीय मामले लंबितता उत्पन्न हो रही है। सामरिक सुधारों की आवश्यकता है, जिसमें मिशन-मोड भर्ती, प्रौद्योगिकी का उपयोग, मामलों का कुशल प्रबंधन और वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) तंत्र का विस्तार शामिल है। सभी स्तरों पर न्यायिक क्षमता तथा दक्षता को बढ़ाना, समय पर न्याय सुनिश्चित करने एवं लंबित मामलों के संकट को कम करने के लिये अत्यंत आवश्यक है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका में मामलों की उच्च लंबितता के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारकों की आलोचनात्मक समीक्षा करना। समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिये सामरिक सुधारों का सुझाव दीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. भारत की निचली अदालतों में अभी कितने मामले पेंडिंग हैं?
निचली अदालतों में लगभग 4.80 करोड़ मामले लंबित हैं, जिसमें केवल उत्तर प्रदेश के पास ही 1.13 करोड़ मामले हैं।
2. भारत में न्यायाधीश-से-जनसंख्या अनुपात क्या है?
भारत में प्रति मिलियन लोगों पर 21 न्यायाधीश हैं, जो कि वर्ष 1987 में कानून आयोग की प्रति मिलियन 50 न्यायाधीश की सिफारिश से काफी कम है।
3. ई-न्यायालय परियोजना क्या है?
ई-न्यायालय परियोजना एक प्रमुख मिशन-मोड पहल है, जिसका उद्देश्य सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के माध्यम से भारतीय न्यायालयों को डिजिटाइज़ करना है, ताकि मामलों का कुशल प्रबंधन, ई-फाइलिंग और न्याय तक ऑनलाइन पहुँच सुनिश्चित की जा सके।
सारांश
- भारत गंभीर न्यायिक लंबितता संकट का सामना कर रहा है, जिसमें निचली अदालतों में लगभग 4.8 करोड़ मामले लंबित हैं और चार वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय में बैकलॉग में 30% की तेज़ वृद्धि हुई है।
- उत्तर प्रदेश सबसे अधिक प्रभावित राज्य है, जो राष्ट्रीय लंबित मामलों का 23% से अधिक हिस्सा रखता है, जिससे राज्य स्तर पर गंभीर प्रणालीगत विफलताएँ उजागर होती हैं।
- मुख्य कारणों में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात कम होना, उच्च रिक्तियाँ, अवसंरचनात्मक कमियाँ, अक्षम केस प्रबंधन और अनुकल्पी विवाद समाधान (ADR) के कम उपयोग शामिल हैं।
- आवश्यक सुधारों में मिशन-मोड भर्ती, ई-न्यायालय परियोजना का पूर्ण कार्यान्वयन, मुकदमे से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करना और संवैधानिक मामलों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के डॉकेट का तार्किक पुनर्गठन शामिल हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रीलिम्स
प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
- भारत के राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर बैठने और कार्य करने हेतु बुलाया जा सकता है।
- भारत में किसी भी उच्च न्यायालय को अपने निर्णय के पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है, जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पास है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (c)
प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
भारत के संविधान में 44वें संशोधन लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन को न्यायिक पुनर्विलोकन से परे रखा।
भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अभिखंडित कर दिया, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (b)
मेन्स
प्रश्न. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021)
प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)