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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

डिजिटल अब्यूज़ एवं साइबरस्टॉकिंग

  • 04 Oct 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय ने फेसबुक द्वारा दायर एक याचिका का जवाब देते हुए इंटरनेट प्रौद्योगिकी के कारण शुरू हुए अपर्याप्त कानून एवं नियंत्रणहीनता की स्थिति के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार को तीन सप्ताह के भीतर एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया है।

संदर्भ:

  • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश नागरिकों की गोपनीयता से समझौता किये बिना कानून प्रवर्तन (Law Enforcement) के माध्यम से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा जानकारी साझा करने के लिये रणनीति के निर्माण से प्रेरित है।
  • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा जानकारी साझा न करने अर्थात् पहचान की गोपनीयता के कारण दोषी का पता नहीं लग पाता है। इसके कारण नागरिकों को ट्रोल और बदनाम किये जाने के बावजूद कोई कानूनी सहायता और आसान कानूनी उपाय प्राप्त नहीं हो पाता है।

डिजिटल अब्यूज़ और साइबरस्टॉकिंग क्या है?

  • डिजिटल एब्यूज़ (Digital Abuse) का अभिप्राय टेक्स्टिंग (Texting) और सोशल नेटवर्किंग जैसी तकनीकों का उपयोग किसी को धमकाने, परेशान करने, डाँटने या डराने के लिये किये जाने से है। आमतौर पर यह अपराध ऑनलाइन (Online) किये जाने वाले मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार का एक रूप होता है।
  • साइबरस्टॉकिंग (Cyberstalking) का तात्पर्य किसी अन्य व्यक्ति से लगातार अवांछित संपर्क स्थापित करना या ऐसा करने की कोशिश करना है, चाहे वह पहचान का हो अथवा अजनबी।

Cyberstalking

समस्या क्या है?

  • पिछले कुछ वर्षों से समाज में अपमानित करने और होने की स्थिति अत्यंत उग्र हो चुकी है, तथा सोशल मीडिया पर अपमानित होने के बदले अपमानित करने की प्रवृत्ति इतनी बढ़ गई है कि कानूनी प्रक्रिया को सार्थक बना पाना अत्यंत मुश्किल है।
  • शामिल हितधारकों में अनिवार्य नैतिक आचरण का पालन करने वालों की संख्या न के बराबर होती है।
  • 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की आपत्तिजनक धारा 66A को न्यायालय द्वारा असंवैधानिक करार दिये जाने के बाद भी पुलिस द्वारा इसके आधार पर नागरिकों का उत्पीड़न देखा जाता रहा है।

नोट: श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “धारा 66A मनमाने ढंग से, अत्यधिक और विषमतापूर्ण रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर हमला करती है और इस तरह के अधिकार तथा युक्तियुक्त प्रतिबंधों के बीच संतुलन को भी विचलित करती है।”

  • कई बार कुछ सरकारों पर भी लोगों के खिलाफ उनके किसी राय, विचार अथवा किसी विषय पर समर्थन या विरोध की स्थिति में नकारात्मक राजनीति की भावना से ग्रसित होकर अलोकतांत्रिक तरीके से कार्रवाई किये जाने का आरोप लगाया जाता रहा है।
  • सरकार द्वारा इस संबंध में दिशा-निर्देशों को लागू किये जाने की स्थिति में भी व्यावहारिक स्तर पर इनका मनमाने ढंग से प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि ऐसे मामलों में सही और गलत का निर्धारण कानूनी रूप से होने के बजाय अधिकांशतः सामाजिक तौर पर होने लगता है।
  • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिये इन दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए गोपनीयता और जवाबदेहिता के बीच संतुलन स्थापित कर पाना अत्यंत कठिन है तथा साथ ही इनके ऊपर अपने प्लेटफार्म का गलत उपयोग किये जाने का भी आरोप लगता रहा है। उदाहरण के लिये-
    • फेसबुक पर अमेरिकी चुनावों और ब्रेक्ज़िट को प्रभावित करने हेतु अपने मंच का प्रयोग करने का आरोप लगाया गया है।
    • ट्विटर पर अक्सर दुर्व्यवहार की शिकायतों के मामले में उत्तरदायित्वहीनता का आरोप लगाया जाता है।

आगे की राह:

  • न्यायपालिका ने पिछले कुछ वर्षों में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के स्वरूप का काफी विस्तार किया है और अब यह धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा है। यह अंततः मौजूदा कानूनों और प्रक्रियाओं पर निर्भर है कि इनका किस प्रकार प्रयोग किया जाता है। यदि विवेकपूर्ण एवं नैतिक रूप से लागू किया जाए तो इनके निहितार्थो को सार्थक बनाना आसान होगा।
  • दिशा-निर्देशों से संबंधित स्पष्टता में वृद्धि के माध्यम से कार्रवाई में मनमानी की समस्या को दूर किया जा सकता है।
  • अधिकांश सोशल नेटवर्किंग साइटों में साइबर दुर्व्यवहार और अन्य दुर्व्यवहारों की रिपोर्ट करने के लिये सुविधा उपलब्ध होती है। हालाँकि इसकी व्यावहारिक उपयोगिता के लिये जन-जागरूकता एवं प्रशासनिक इच्छाशक्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

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