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महामारी और शहरी नियोजन

  • 19 Nov 2020
  • 17 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत के शहरी क्षेत्रों में COVID-19 महामारी के प्रसार, इसके कारणों व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

हाल ही में प्रधानमंत्री ने COVID-19 महामारी से सीख लेते हुए भविष्य में शहरों और कस्बों को स्वस्थ एवं रहने योग्य बनाने के लिये शहरी नियोजन तथा विकास पर नए सिरे से विचार करने का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री ने सुरक्षित शहरी जीवन यापन के लिये लोगों की मानसिकता के साथ प्रक्रियाओं और प्रचलित प्रथाओं में बदलाव करने पर ज़ोर दिया। गौरतलब है कि COVID-19 महामारी की शुरुआत के पहले 100 दिनों में विश्व में इसके संक्रमण के कुल मामलों में से 15% शीर्ष 10 प्रभावित शहरों में देखे गए थे। इसी प्रकार भारत के घनी आबादी वाले शहरों से प्राप्त आँकड़ों से पता चलता है कि शुरुआत में शहरी क्षेत्रों में इस महामारी से प्रभावित लोगों की संख्या में काफी वृद्धि देखी गई और यहाँ से यह संक्रमण धीरे-धीरे कस्बों तथा छोटे शहरों की तरफ फैल गया। पिछले दो दशकों के दौरान भारत के तीव्र विकास, बढ़ते शहरीकरण तथा ग्रामीण क्षेत्र से  पलायन के कारण शहरी क्षेत्रों की आबादी कई गुना बढ़ गई है, हालाँकि अनियोजित शहरीकरण एवं किफायती आवासों की कमी के कारण अधिकांश शहरी आबादी के लिये कई प्रकार की संक्रामक बीमारियों का खतरा बना रहता है जो कभी भी एक नई महामारी का रूप ले सकता है।

शहरीकरण और महामारी:    

  • वर्तमान में विश्व के कई शहर वर्ष 1930 के दशक की महामंदी के बाद सबसे बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं।
  • ऐसी बहुत से चीजें और गतिविधियाँ जो शहरी जीवन का प्रतीक हुआ करती थीं, आज उन पर प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। इस महामारी के कारण सामुदायिक समारोहों, खेल गतिविधियों, शिक्षा और मनोरंजन आदि की प्रक्रिया में भारी बदलाव देखने को मिला है।
  • अप्रैल 2020 तक विश्व में COVID-19 के 74% मामले ऐसे देशों (जैसे- अमेरिका, चीन, रूस, इटली, स्पेन आदि) से थे जहाँ की 60-70% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है।
  • अप्रैल माह की शुरुआत में गैर-महानगरीय क्षेत्रों में COVID-19 के कारण होने वाली मौतों की दर 0.43 (प्रति 100,000 आबादी पर), छोटे महानगरों में 0.72, मध्यम आकार के महानगरों में 0.85 और बड़े महानगरों में 0.94 रही।    
  • भारत में भी अप्रैल तक COVID-19 से सबसे अधिक वही राज्य प्रभावित हुए थे जिनमें शहरीकरण सबसे अधिक है [महाराष्ट्र (45% शहरीकरण), गुजरात (43%), दिल्ली (98%), राजस्थान (25%), मध्य प्रदेश (28%), तमिलनाडु (48%), उत्तर प्रदेश (22%)]। 
  • मुंबई, दिल्ली, बंगलूरू और चेन्नई जैसे शहरों में COVID-19 संक्रमण के तीव्र प्रसार का मुख्य कारण सघन शहरी आबादी और लोगों द्वारा सोशल डिस्टेंसिंग के मानदंडों का सही से पालन न कर पाना बताया गया है।

शहरीकरण में व्याप्त पक्षपात:   

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वर्ष 2007 में पहली बार विश्व के शहरों और कस्बों में रहने वाली आबादी का आँकड़ा 50% को पार कर गया।
  • अच्छे और किफायती आवासों की व्यवस्था को एक स्वस्थ और स्थायी शहर के आधार के रूप में देखा जाता है परंतु भारतीय शहरों के मामले में बड़े पैमाने पर इसकी अनदेखी की गई है।
  • शहरी क्षेत्रों में प्रवासी श्रमिकों और समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिये व्यवस्थित और वहनीय रेंटल हाउसिंग (Rental Housing) व्यवस्था महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1961 से वर्ष 2000 के बीच मुंबई में हुए आवासीय निर्माण में मात्र 5% रेंटल हाउसिंग या किराये के आवासों को जोड़ा जा सका है और इसमें से अधिकांश में निजी क्षेत्र का निवेश रहा है।
  • राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अवस्थित बस्तियाँ (Slum) इसके कुल क्षेत्रफल के मात्र 0.6%  हिस्से (दिल्ली मास्टर प्लान, 2021 में आवासीय भूमि का 3.4%) में फैली हुई हैं, हालाँकि इतने छोटे क्षेत्रफल में दिल्ली की लगभग 11-15% आबादी (एक अनुमान के अनुसार, यह आँकड़ा 30% तक भी हो सकता है) दशकों से निवास कर रही है।   
  • वर्ष 2017 के एक आँकड़े के अनुसार, दिल्ली में लगभग 31 लाख कारों की पार्किंग के लिये 13.25 वर्ग किमी. भूमि निर्धारित की गई, जो कि कुल आवासीय क्षेत्रफल का 5% है। 
  • शहरी क्षेत्र में वहनीय आवासों के अभाव में एक बड़ी आबादी को गैर-कानूनी रूप से स्थापित झुग्गी बस्तियों या असुरक्षित क्षेत्रों में रहना पड़ता है, जहाँ स्वच्छ जल, वायु आदि जैसी मूलभूत ज़रूरतें पूरी नहीं हो पातीं।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसे संवेदनशील क्षेत्रों में कई मूलभूत सुविधाओं के बगैर रह रही आबादी में अनेक प्रकार की संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। 

आवासीय गरीबी (Housing Poverty):

  • वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य गरीबी को ‘बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं से वंचित रहने की स्थिति’ के रूप में परिभाषित किया गया है। आवासीय गरीबी की अवधारणा भी एक गरिमापूर्ण जीवन के लिये आवासीय ज़रूरतों के बेंचमार्क पर आधारित है।
  • हालाँकि आवासीय गरीबी की अवधारणा को समझने से पूर्व ‘पर्याप्त आवास’ (Adequate Housing) की अवधारणा को समझना आवश्यक है, क्योंकि पर्याप्त आवासों की कमी ही आवासीय गरीबी को जन्म देती है।
  • इसके तहत बिजली, पानी की आपूर्ति और स्वच्छता तथा सीवेज प्रबंधन जैसी बुनियादी सुविधाओं को भी शामिल किया जाता है।
  • यह एक व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य रहने, रोज़गार करने तथा सामाजिक संबंध स्थापित करने की क्षमता को प्रभावित करती है।
  • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारतीय शहरों में लगभग 9 लाख बेघर लोग रहते हैं, जबकि लगभग 6.5 करोड़ लोग (देश की कुल शहरी आबादी का 17%) झुग्गी बस्तियों में रहते हैं।

आवासीय संकट को दूर करने हेतु पूर्व में किये गए प्रयास:     

  • देश की स्वतंत्रता के बाद से ही आवासीय संकट की चुनौती से निपटने के लिये सरकारों द्वारा कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। 
  • वर्ष 1952 में ‘औद्योगिक श्रमिकों और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये शुरू की गई आवास योजना, 1952’ देश की पहली प्रमुख आवासीय योजना थी। इस योजना का उद्देश्य औद्योगिक क्षेत्र में खदानों और कारखानों में कार्यरत ऐसे कर्मचारी जिनकी मासिक आय 500 रुपए से कम थी, को अपने भविष्य निधि से गैर-वापसी योग्य ऋण उपलब्ध कराना था ताकि उन्हें घर के निर्माण हेतु वित्तीय सहायता प्रदान की जा सके।
  • इस प्रकार ‘निम्न आय वर्ग आवासीय योजना, 1954’ (6000 रुपए वार्षिक आय से कम वाले परिवारों के लिये) , वर्ष 1972 में ‘शहरी मलिन बस्तियों का पर्यावरण सुधार’ (EIUS) कार्यक्रम,  वर्ष 1997 के ‘राष्ट्रीय स्लम विकास कार्यक्रम’ आदि योजनाओं के माध्यम से आवास के साथ-साथ कमज़ोर वर्ग के लोगों के कौशल विकास के प्रयास किये गए। 
  • साथ ही वर्ष 2005 के ‘जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन’, वर्ष 2011 की ‘राजीव आवास योजना’ के माध्यम से बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया।
  • हालाँकि इनमें से कई योजनाएँ अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रहीं और साथ ही कुछ योजनाओं के तहत निर्मित आवासों की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं थी। 

बढ़ती आबादी और वहनीय आवास का असंतुलन : 

  • वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 72% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में और 28% आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करती थी, परंतु वर्ष 2011 की जनगणना में शहरी आबादी का आँकड़ा बढ़कर 31% तक पहुँच गया, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी घटकर 69% रह गई, जो इस अवधि के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ हुए भारी पलायन की ओर संकेत करता है। 
  • हालाँकि वर्ष 2015 में विश्व बैंक (World Bank) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में शहरी आबादी का अनुपात 31% न होकर लगभग 55.3% है।
  • वर्तमान में विकासशील शहरों में लगभग 50-80% रोज़गार असंगठित क्षेत्र से संबंधित हैं, ऐसे में इन रोज़गारों से जुड़े अधिकांश लोग गुणवत्तापूर्ण महँगे आवासों का खर्च  वहन नहीं कर सकते।  
  • वित्तीय वर्ष 2018-19 में भारत में 63.67 मिलियन शहरी और ग्रामीण परिवारों के पास पर्याप्त आवास नहीं थे।
  • विश्व संसाधन संस्थान (World Resources Institute-WRI) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व भर में लगभग 1 बिलियन लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। भारत में ऐसे लोगों की आबादी लगभग 152-216 मिलियन तक बताई गई है।  
  • वर्ष 2018 में ऐसे क्षेत्रों में लगभग 60% आबादी को पाइपलाइन के माध्यम से स्वच्छ पेय जल उपलब्ध हो सका,  मुंबई की बस्तियों में  रहने वाले 70% से अधिक लोगों को पानी के लिये टैंकर के सामने लाइन लगाने के बाद भी प्राप्त जल WHO के मानकों (गैर-आपातकालीन स्थितियों में प्रतिदिन 50 लीटर) के अनुरूप नहीं था। 

समाधान:  

  • केंद्र सरकार को विश्व के अन्य देशों से सीख लेते हुए इस महामारी के पश्चात् ‘एफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग कॉम्पलेक्सेज़’ (Affordable Rental Housing Complexes- ARHC) जैसी योजनाओं के माध्यम से बड़े पैमाने पर उच्च गुणवत्ता वाले वहनीय घरों के निर्माण पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
  • केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मामलों के मंत्रालय द्वारा केवल स्मार्ट सिटीज़ पर ही ध्यान केंद्रित न करते हुए राज्यों के साथ मिलकर संबंधित शहरों में ऐसे घरों की आवश्यकता और योजनाओं के कार्यान्वयन पर कार्य किया जा सकता है।
  • वर्ष 2015 में  शुरू की गई प्रधानमंत्री आवास योजना (Prime Minister Awas Yojana -PMAY)  के तहत वर्ष 2022 तक 10 मिलियन  घरों का निर्माण पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।  
  • देश के अधिकांश शहरों में वायु प्रदूषण,  ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और पानी की गुणवत्ता संबंधी कानूनों के कार्यान्वयन में होने वाली अनदेखी संक्रामक रोगों के प्रसार का एक प्रमुख कारण रही है। 
  • किसी भी लोकतांत्रिक देश में संसाधनों का असमान वितरण उसके सतत् विकास के लिये एक बड़ी चुनौती बन सकता है, ऐसे में सरकार को देश के विकास के लिये समाज में फैली इस प्रकार की असमानता को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
  • पिछले कुछ वर्षों में अनियोजित शहरीकरण और संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से प्रदूषण जैसी समस्या तथा इसके कारण बीमारियों के प्रसार में कई गुना वृद्धि देखने को मिली है। ऐसे में सरकार को शहरों के विकास के दौरान प्राकृतिक एवं सामाजिक संतुलन बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना होगा ।  

निष्कर्ष: 

अगले दो दशकों में भारत और अफ्रीका के कुछ देशों में शहरीकरण की एक बड़ी लहर देखी जा सकती है परंतु COVID-19 महामारी ने विकास की इस गति के समक्ष एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत की है। साथ ही इससे यह स्पष्ट हो गया है कि देश की अर्थव्यवस्था का इंजन माने जाने वाले शहर ऐसी महामारियों के मामले में कितने सुभेद्य हैं। पिछले एक दशक में हैजा, प्लेग और वैश्विक फ्लू महामारी जैसे संकटों के बाद अपशिष्ट जल, कचरा प्रबंधन, सामाजिक आवास और स्वास्थ्य संबंधी सुधारों के कारण इन बीमारियों में कमी आई है। ऐसे में इस महामारी के बाद सरकार को शहरीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण सुधारों के लिये बड़े कदम उठाने होंगे।   

अभ्यास प्रश्न: ‘पिछले दो दशकों के दौरान भारत में शहरों का अनियोजित विकास और संसाधनों का असमान वितरण देश की एक बड़ी आबादी को स्वास्थ्य संबंधी महामारी के लिये अत्यधिक सुभेद्य बनाता है।’ इस कथन के संदर्भ में भारतीय शहरों में व्याप्त असमानता तथा आवासीय समस्याओं की समीक्षा कीजिये।

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