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सामाजिक न्याय

जेल की भीड़भाड़ संबंधी समस्या

  • 17 May 2021
  • 15 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने कोविड-19 महामारी की अनियंत्रित वृद्धि को देखते हुए पात्र कैदियों की अंतरिम रिहाई का आदेश दिया है।

प्रमुख बिंदु

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुख्य बिंदु:

  • न्यायालय ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (Arnesh Kumar vs State of Bihar) 2014 मामले में निर्धारित मानदंडों का पालन करने की आवश्यकता पर बल दिया।
    • इस मामले के तहत न्यायालय ने पुलिस को अनावश्यक गिरफ्तारी नहीं करने के लिये कहा था, खासकर उन मामलों में जिनमें सात वर्ष से कम जेल की सजा होती है।
  • देश के सभी ज़िलों के अधिकारी आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- Cr.P.C) की धारा 436ए को प्रभावी ढंग से लागू करेंगे।
    • Cr.P.C की धारा 436A के तहत अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम जेल अवधि का आधा समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत गारंटी पर रिहा किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने जेलों में भीड़भाड़ से बचने के लिये दोषियों को उनके घरों में नज़रबंद रखने पर विचार करने के लिये विधायिका को सुझाव दिया है।
    • वर्ष 2019 में जेलों में कैदियों के रहने की दर बढ़कर 118.5% हो गई थी। इसके अलावा जेलों के रखरखाव के लिये बजट की एक बहुत बड़ी राशि का उपयोग किया जाता है।
  • सभी राज्यों को एक निश्चित अवधि के लिये जमानत या पैरोल पर रिहा किये जा सकने वाले कैदियों की श्रेणी का निर्धारण करने हेतु निवारक कदम उठाने के साथ-साथ उच्चाधिकार प्राप्त समितियों का गठन करने का आदेश दिया गया।

भारतीय जेलों की स्थिति:

  • भारतीय जेलों को लंबे समय से चली आ रही तीन संरचनात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है:
    • अतिरिक्त भीड़
    •  स्टाफ और फंडिंग में कमी और
    • हिंसक संघर्ष
  • वर्ष 2019 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित ‘प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया’ 2016 में भारत में कैदियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया है।
    • विचाराधीन जनसंख्या: भारत की विचाराधीन कैदियों की आबादी दुनिया में सबसे अधिक है और वर्ष 2016 में सभी विचाराधीन कैदियों में से आधे से अधिक को छह महीने से भी कम समय के लिये हिरासत में लिया गया था।
      • रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2016 के अंत में 4,33,033 लोग जेल में थे, जिनमें से 68% विचाराधीन थे।
      • इससे पता चलता है कि जेल की संपूर्ण आबादी में विचाराधीन कैदियों का उच्च अनुपात सुनवाई के दौरान अनावश्यक गिरफ्तारी और अप्रभावी कानूनी सहायता का परिणाम हो सकता है।
    • निवारक हिरासत में रखे गए लोग: जम्मू और कश्मीर में प्रशासनिक (या 'निवारक') निरोध कानूनों के तहत पकड़े गए लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है।
      • वर्ष 2015 के 90 की तुलना में वर्ष 2016 में 431 बंदियों के साथ 300% की वृद्धि हुई।
      • प्रशासनिक या 'निवारक', निरोध का उपयोग अधिकारियों द्वारा बिना किसी आरोप या मुकदमे के व्यक्तियों को हिरासत में लेने और नियमित आपराधिक न्याय प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिये किया जाता है।
    • C.R.P.C की धारा 436A के बारे में अनभिज्ञता: आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 436ए के तहत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किये गए कैदियों की संख्या के बीच अंतर स्पष्ट किया गया है।
      • वर्ष 2016 में धारा 436ए के तहत रिहाई के योग्य पाए गए 1,557 विचाराधीन कैदियों में से केवल 929 को ही रिहा किया गया था।
      • साथ ही एमनेस्टी इंडिया के एक शोध में पाया गया है कि जेल अधिकारी अक्सर इस धारा से अनजान होते हैं और इसे लागू करने के इच्छुक नहीं होते हैं।
    • जेल में अप्राकृतिक मौतें: जेलों में "अप्राकृतिक" मौतों की संख्या वर्ष 2015 और 2016 के बीच 115 से बढ़कर 231 हो गई है।
      • कैदियों के बीच आत्महत्या की दर में भी 28% की वृद्धि हुई, यह संख्या वर्ष 2015 के 77 आत्महत्याओं से बढ़कर वर्ष 2016 में 102 हो गई।
      • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने वर्ष 2014 में कहा था कि औसतन एक बाहर के व्यक्ति की तुलना में जेल में आत्महत्या करने की संभावना डेढ़ गुना अधिक होती है। यह भारतीय जेलों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की भयावहता का एक संभावित संकेतक है।
    • मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी: वर्ष 2016 में प्रत्येक 21,650 कैदियों पर केवल एक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर मौजूद था, वहीं केवल छह राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक मौजूद थे।
      • साथ ही NCRB ने कहा था कि वर्ष 2016 में मानसिक बीमारी से ग्रसित लगभग 6,013 व्यक्ति जेल में थे।
      • जेल अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 के अनुसार, प्रत्येक जेल में एक कल्याण अधिकारी और एक कानून अधिकारी होना चाहिये लेकिन इन अधिकारियों की भर्ती अभी भी लंबित है। यह पिछली शताब्दी के दौरान जेलों को मिली राज्य की कम राजनीतिक और बजटीय प्राथमिकता की व्याख्या करता है।

जेल सुधार संबंधी सिफारिश

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अमिताभ रॉय समिति ने जेलों में सुधार के लिये निम्नलिखित सिफारिशें की हैं।
  • भीड़-भाड़ संबंधी
    • तीव्र ट्रायल: समिति की सिफारिशों में भीड़भाड़ की अवांछित घटनाओं को कम करने के लिये तीव्र ट्रायल को सर्वोत्तम तरीकों में से एक माना गया है।
    • वकील व कैदी अनुपात: प्रत्येक 30 कैदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना अनिवार्य है, जबकि वर्तमान में ऐसा नहीं है।
    • विशेष न्यायालय: पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये।
      • इसके अलावा जिन अभियुक्तों पर छोटे-मोटे अपराधों का आरोप लगाया गया है और जिन्हें ज़मानत दी गई है, लेकिन जो ज़मानत की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं, उन्हें व्यक्तिगत पहचान (PR) बाॅॅण्ड पर रिहा किया जाना चाहिये।
    • स्थगन से बचाव: उन मामलों में स्थगन नहीं दिया जाना चाहिये, जहाँ गवाह मौजूद हैं और साथ ही प्ली बारगेनिंग की अवधारणा, जिसमें आरोपी कम सज़ा के बदले अपराध स्वीकार करता है, को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • कैदियों के लिये 
    • अनुकूल ट्रांजीशन: प्रत्येक नए कैदी को जेल में अपने पहले सप्ताह के दौरान सहज महसूस करने के लिये परिवार के सदस्यों के साथ दिन में एक मुफ्त फोन कॉल की अनुमति दी जानी चाहिये।
    • कानूनी सहायता: कैदियों को प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान करने और उनको व्यावसायिक कौशल तथा शिक्षा प्रदान करने संबंधी आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिये।
    • सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का प्रयोग: परीक्षण के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग।
    • वैकल्पिक सज़ा: अपराधियों को जेल भेजने के बजाय न्यायालयों को अपनी ‘विवेकाधीन शक्तियों’ का उपयोग करने और यदि संभव हो तो ‘जुर्माना और चेतावनी’ जैसे दंड देने के लिये प्रेरित किया जा जा सकता है।
      • इसके अलावा न्यायालयों को पूर्व-परीक्षण चरण में या योग्य मामलों में परीक्षण चरण के बाद भी प्रोबेशन पर अपराधियों को रिहा करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • रिक्तियों को भरना
    • सर्वोच्च न्यायालय को निर्देश पारित करते हुए अधिकारियों को तीन माह के भीतर स्थायी रिक्तियाँ भरने संबंधी भर्ती प्रक्रिया शुरू करने के लिये कहना चाहिये और प्रक्रिया एक वर्ष में पूरी की जानी चाहिये।
  • भोजन संबंधी
    • आवश्यक वस्तुओं को खरीदने, आधुनिक विधि से खाना पकाने की सुविधा और कैंटीन आदि की व्यवस्था की जानी चाहिये।
  • वर्ष 2017 में भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि सात वर्ष तक की कैद वाले अपराधों के लिये अपनी अधिकतम सज़ा का एक-तिहाई समय पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों को ज़मानत पर रिहा किया जाए।

संवैधानिक प्रावधान

  • राज्य सूची का विषय: 'कारागार/इसमें रखा गया व्यक्ति' भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 4 के तहत राज्य सूची का विषय है।
    • जेलों का प्रशासन और प्रबंधन संबंधित राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी होती है।
    • हालाँकि गृह मंत्रालय जेलों और कैदियों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नियमित मार्गदर्शन तथा सलाह देता है।
  • अनुच्छेद 39A: संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है, जिसके अनुसार किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से वंचित नहीं किया जाना चाहिये और राज्य मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
    • मुफ्त कानूनी सहायता या मुफ्त कानूनी सेवा का अधिकार संविधान द्वारा गारंटीकृत एक आवश्यक मौलिक अधिकार है।
    • यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण स्वतंत्रता का आधार बनाता है, जिसमें कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।

प्रमुख शब्दावलियाँ

  • विचाराधीन कैदी: इसके अंतर्गत उन कैदियों को रखा जाता है जिन्हें अभी तक उन पर लगाए गए अपराधों के लिये दोषी नहीं पाया गया है।
  • निवारक निरोध: इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति को संभावित अपराध करने से रोकने या सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से हिरासत में लिया जाता है।
    • संविधान का अनुच्छेद 22 (3) (बी) राज्य की सुरक्षा और सार्वज़निक व्यवस्था बनाए रखने के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर निवारक निरोध तथा प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
    • इसके अलावा अनुच्छेद 22 (4) में कहा गया है कि निवारक निरोध के तहत हिरासत में लिये जाने का प्रावधान करने वाले किसी भी कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखने का अधिकार नहीं दिया जाएगा,
    • एक सलाहकार बोर्ड द्वारा विस्तारित निरोध हेतु पर्याप्त कारणों  के साथ रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है।
    • ऐसे व्यक्ति को संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के अनुसार हिरासत में लिया जा सकता है।
  • व्यक्तिगत पहचान बॉण्ड: इसे स्वयं के पहचान (Own Recognizance) बॉण्ड के रूप में जाना जाता है और कभी-कभी इसे "नो कॉस्ट बेल" (No Cost Bail) भी कहा जाता है। इस प्रकार के बॉण्ड के साथ एक व्यक्ति को हिरासत से रिहा कर दिया जाता है तथा उसे जमानत लेने की आवश्यकता नहीं होती है।
    • हालाँकि वह निर्दिष्ट अदालत की तारीख को दिखाने के लिये ज़िम्मेदार हैं और उसे इस वादे को लिखित रूप में बताते हुए एक रिलीज़ फॉर्म पर हस्ताक्षर करना होगा।
    • फिर व्यक्ति को अदालत में पेश होने और अदालत द्वारा निर्धारित रिहाई की किसी भी शर्त का पालन करने के उनके वादे के आधार पर हिरासत से रिहा कर दिया जाता है।

स्रोत: द हिंदू

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