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जैव विविधता और पर्यावरण

तटीय क्षरण

  • 12 Apr 2022
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

तटीय क्षरण, भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र, तटीय सुभेद्यता सूचकांक।

मेन्स के लिये:

तटीय क्षरण के कारक और इसका प्रभाव, संरक्षण।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा लोकसभा को सूचित किया गया कि मुख्य भूमि की 6,907.18 किमी. लंबी भारतीय तटरेखा में से एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र तटीय कटाव/क्षरण (Coastal Erosion) की स्थिति के अंतर्गत है।

  • लगभग 34% क्षेत्र कटाव की अलग-अलग स्थिति में है, जबकि 26% समुद्र तट एक अभिवृद्धि प्रकृति (Accreting Nature) को दर्शाता है तथा शेष 40% समुद्र तट स्थिर अवस्था में है।
  • वर्ष 1990 से वर्ष 2018 की अवधि के दौरान पश्चिम बंगाल में लगभग 60.5% तट (323.07 किमी.) का कटाव हुआ। इसके बाद क्रमशः केरल (46.4%) और तमिलनाडु (42.7%) का स्थान है।
  • इससे पूर्व इंडियन नेशनल सेंटर फॉर ओशन इंफॉर्मेशन सर्विसेज़ (Indian National Centre for Ocean Information Services- INCOIS) द्वारा भारत के संपूर्ण समुद्र तट के लिये तटीय सुभेद्यता सूचकांक (Coastal Vulnerability Index- CVI) मानचित्रों का एक एटलस तैयार कर उसका प्रकाशन किया  गया था।

तटीय अपरदन/क्षरण:

  • तटीय क्षरण के बारे में:
    • तटीय क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें मज़बूत लहरों के कारण तटीय क्षेत्र में आई बाढ़ अपने साथ चट्टानों, मिट्टी और/या रेत को नीचे (समुद्र में) की और ले जाती है जिसके कारण  स्थानीय समुद्र का जल स्तर बढ़ता है। 
      • अपरदन और अभिवृद्धि: क्षरण और अभिवृद्धि एक-दूसरे के पूरक हैं। रेत एवं तलछट एक तरफ से बहकर कहीं और तट पर जाकर जमा हो जाते हैं।
      • मृदा अपरदन के कारण भूमि और मानव आवासों का ह्रास होता है क्योंकि समुद्र का पानी समुद्र तट के साथ मृदा क्षेत्र को भी अपने साथ बहा कर ले जाता है।
      • दूसरी ओर, मृदा अभिवृद्धि से भूमि क्षेत्र में वृद्धि होती है।
  • प्रभाव: मनोरंजक गतिविधियाँ (सूर्य स्नान, पिकनिक, तैराकी, सर्फिंग, मछली पकड़ना, नौका विहार, गोताखोरी आदि) प्रभावित हो सकती हैं यदि मौजूदा समुद्र तटों की चौड़ाई कम हो जाए या वे पूरी तरह से गायब हो जाएँ। साथ ही तटीय समुदायों की आजीविका पर भी असर पड़ सकता है।
  • उपाय: मैंग्रोव, कोरल रीफ और लैगून समुद्री तूफानों एवं कटाव के खिलाफ सबसे अच्छे बचाव साधन माने जाते हैं, क्योंकि वे समुद्री तूफानों की अधिकांश ऊर्जा को विक्षेपित और अवशोषित कर लेते हैं,  इसलिये तट सुरक्षा के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के लिये इन प्राकृतिक आवासों को बनाए रखना आवश्यक है।

Coastal-erosion-cause

तटीय क्षरण का कारण:

प्राकृतिक

कृत्रिम

a) ‘वेव ब्रेकिंग’ की क्रिया

a) अनियोजित संरचना का निर्माण

b) गंभीर चक्रवाती तूफान का प्रभाव

b) नदी के बाँध के कारण तलछट की आपूर्ति में कमी

c) समुद्र स्तर में वृद्धि

c) समुद्र तटों से रेत हटाना

d) अपस्फीति

d) इनलेट चैनल का निकर्षण

e) ज्वारीय धारा

e) अनियोजित सुधार

  • प्राकृतिक घटनाएँ:
    • तरंग ऊर्जा को तटीय क्षरण का प्राथमिक कारण माना जाता है।
    • जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप महाद्वीपीय हिमनदों और बर्फ की चादरों के पिघलने के कारण चक्रवात, समुद्री जल का थर्मल विस्तार, तूफान, सुनामी जैसे प्राकृतिक खतरे क्षरण को तेज़ करते हैं।
  • तटीय बहाव:
    • तटवर्ती रेत के बहाव को भी तटीय कटाव के प्रमुख कारणों में से एक माना जा सकता है।
      • तटीय बहाव का अर्थ है प्रचलित हवाओं के कारण उत्पन्न लहरों द्वारा समुद्र या झील के किनारे से लगी तलछट की प्राकृतिक गति।
  • मानवजनित गतिविधियाँ:
    • रेत खनन और प्रवाल खनन ने तटीय क्षरण में योगदान दिया है जिससे तलछट में  कमी देखी गई है।
      • नदी के मुहाने से तलछट के प्रवाह को कम करने वाली नदियों और बंदरगाहों के जलग्रहण क्षेत्र में बनाए गए मछली पकड़ने के बंदरगाहों तथा बाँधों ने तटीय क्षरण को बढ़ावा दिया है।

तटीय प्रबंधन के लिये भारतीय पहलें:

  • राष्ट्रीय सतत् तटीय प्रबंधन केंद्र:
    • इसका उद्देश्य पारंपरिक तटीय और द्वीप समुदायों के लिये लाभ सुनिश्चित करने हेतु भारत में तटीय एवं समुद्री क्षेत्रों के एकीकृत व सतत् प्रबंधन को बढ़ावा देना है।
  • एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजना:
    • यह स्थिरता प्राप्त करने हेतु भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं सहित तटीय क्षेत्र के सभी पहलुओं के संबंध में एक एकीकृत दृष्टिकोण का उपयोग कर तटीय प्रबंधन संबंधी एक प्रक्रिया है।
  • तटीय विनियमन क्षेत्र:
    • भारत के तटीय क्षेत्रों में गतिविधियों को विनियमित करने के लिये पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) संबंधी अधिसूचना वर्ष 1991 में जारी की गई थी।

तटीय सुरक्षा के तरीके:

  • कृत्रिम समुद्र तट पोषण।
  • सुरक्षात्मक संरचनाएँ सीवॉल्स, रिवेटमेंट्स।
  • तलछट के बहाव को रोकने हेतु संरचनाएँ।
  • कृत्रिम समुद्र तट पोषण और इन संरचनाओं का संयोजन।
  • समुद्र तट भूजल तालिका या समुद्र तट जल निकासी प्रणाली का नियंत्रण।
  • वनस्पति रोपण।
  • जियो-सिंथेटिक ट्यूब/बैग का उपयोग।

आगे की राह

  • पंद्रहवें वित्त आयोग ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और/या गृह मंत्रालय कटाव को रोकने तथा शमन उपायों हेतु उपयुक्त मानदंड विकसित कर सकते हैं एवं केंद्र व राज्य सरकारें तटीय और नदी कटाव के कारण लोगों के व्यापक विस्थापन से निपटने के लिये एक नीति विकसित कर सकती हैं।
  • आयोग ने NDMF (राष्ट्रीय आपदा शमन कोष) के तहत 'कटाव को रोकने के उपाय' और NDRF (राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष) के तहत 'कटाव से प्रभावित विस्थापित लोगों के पुनर्वास' के लिये विशिष्ट सिफारिशें भी की हैं।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs):

भारत में मृदा अपक्षय समस्या निम्नलिखित में से किससे/किनसे संबंधित है/हैं? (2014)

1- वेदिका कृषि
2- वनोन्मूलन
3- उष्णकटिबंधीय जलवायु

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

  • मृदा अपरदन भू-आकृति प्रक्रियाओं जैसे- बहते पानी, हवाओं, तटीय लहरों और ग्लेशियरों से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।
  • यह वन भूमि, शुष्क और अर्द्ध-शुष्क भूमि, कृषि भूमि, निर्माण स्थलों, सड़क मार्गों, अशांत भूमि, सतही खानों, हिमाच्छादित तथा तटीय क्षेत्रों व उन क्षेत्रों में होता है जहाँ प्राकृतिक या भूगर्भिक गड़बड़ी होती है। चरम मामलों में यह मिट्टी के नुकसान तथा आधारशिला के ज़ोखिम का कारण हो सकता है।
  • भारत में मृदा अपरदन की समस्या सबसे अधिक वनों की कटाई से संबंधित है। अत: कथन 2 सही है।
  • पूरी तरह से की गई वेदिका कृषि/टेरेस कल्टीवेशन (Terrace Cultivation) पानी को रोककर रखती है। इसका उपयोग कटाव को रोकने के उद्देश्य से किया जाता है, हालाँकि अत्यधिक भारी वर्षा अंततः वेदिका/टेरेस को नष्ट कर देगी। टेरेस के बिना कटाव को रोकने के लिये ढलान पूरी तरह से जमीन के कवर पर निर्भर करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वनों की कटाई की तुलना में वेदिका कृषि मिट्टी के कटाव का एक दूरस्थ और द्वितीयक कारण है। अतः कथन  1 सही नहीं है।
  • उष्ण कटिबंधीय जलवायु क्षेत्रों में वर्षा से संबंधित मृदा अपरदन सबसे अधिक होता है। जबकि वर्षा पौधों की वृद्धि के लिये महत्त्वपूर्ण नमी प्रदान करती है, यह मिट्टी के क्षरण के प्रमुख कारणों में से एक है, जिसे वर्षा क्षरण कहा जाता है, जिससे भोजन व पानी की स्थिरता को खतरा होता है। हालाँकि उष्णकटिबंधीय जलवायु भारत में मिट्टी के क्षरण का कारण नहीं है क्योंकि मिट्टी के कटाव के तहत अधिकतम क्षेत्र उष्णकटिबंधीय जलवायु के बजाय उपोष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण और अल्पाइन जलवायु के अंतर्गत आता है। अत: कथन 3 सही नहीं है।
  • अतः विकल्प (b) सही है।

स्रोत: द हिंदू

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