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डेली न्यूज़

  • 26 Jun, 2025
  • 17 min read
भारतीय राजव्यवस्था

संसदीय समितियों को सशक्त बनाना

प्रिलिम्स के लिये:

संसदीय समितियाँ, अनुच्छेद 105, अनुच्छेद 118, राज्यसभा, लोकसभा, लोकसभा अध्यक्ष

मेन्स के लिये:

संसदीय समितियाँ और उनका महत्त्व, संबंधित चुनौतियाँ तथा उनकी प्रभावी कार्यप्रणाली हेतु उपाय।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

लोकसभा अध्यक्ष ने प्राक्कलन समितियों के राष्ट्रीय सम्मेलन में इस तर्क पर ज़ोर दिया कि संसदीय समितियाँ सरकार की प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि पूरक होती हैं।

  • उन्होंने सरकार और अधिकारियों से समिति की सिफारिशों को गंभीरता से लेने तथा उन्हें अक्षरशः लागू करने का आग्रह किया।

संसदीय समितियाँ क्या हैं?

परिचय

  • संसदीय समिति एक ऐसी निकाय होती है जिसे लोकसभा या राज्यसभा द्वारा गठित किया जाता है या अध्यक्ष/सभापति द्वारा नामित किया जाता है, ताकि संसद द्वारा सौंपे गए कार्यों का निष्पादन किया जा सके। ये समितियाँ:
    • पीठासीन अधिकारी के निर्देशन में कार्य करती हैं।
    • अपनी रिपोर्ट सदन या अध्यक्ष/सभापति के समक्ष प्रस्तुत करती हैं।
    • लोकसभा/राज्यसभा सचिवालय द्वारा सेवायुक्त होती हैं।
  • भारत में ब्रिटिश संसद से उत्पन्न संसदीय समितियाँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 (अधिकार और विशेषाधिकार) और अनुच्छेद 118 (कार्य संचालन का विनियमन) के तहत अपना अधिकार प्राप्त करती हैं।

प्रकार

  • स्थायी समितियाँ: ये प्रकृति में स्थायी होती हैं, जिन्हें संसद के प्रक्रिया नियमों या अधिनियमों के अंतर्गत प्रत्येक वर्ष पुनर्गठित किया जाता है और इनका कार्य निरंतर एवं नियमित होता है। इनमें शामिल हैं:
    • वित्तीय समितियाँ  

 संसद की प्रमुख वित्तीय समितियाँ

  समिति का नाम

  सदस्यों की संख्या

        कार्यकाल

    चयन प्रक्रिया 

प्राक्कलन समिति (Estimates Committee)

30 (सभी सदस्य लोकसभा से)

          1 वर्ष

लोकसभा द्वारा निर्वाचित

लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee - PAC)

22 (15 लोकसभा से + 7 राज्यसभा से)

         1 वर्ष

  संसद के दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित

सार्वजनिक उपक्रम समिति (Committee on Public Undertakings - COPU)

22 (15 लोकसभा से + 7 राज्यसभा से)

          1 वर्ष

संसद के दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित

  • विभागीय स्थायी समितियाँ (DRSC), जो विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों, विधेयकों और नीतिगत दस्तावेज़ों की जाँच करती हैं।

  • अन्य स्थायी समितियाँ जैसे याचिका समिति, अधीनस्थ विधि समिति तथा सरकारी आश्वासन समिति।
  • तदर्थ समितियाँ: ये अस्थायी प्रकृति की होती हैं और उन्हें सौंपे गए कार्य के पूरा होने पर उनका अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। 
    • उदाहरण: GST पर चयन समिति, विशेष विधेयकों पर संयुक्त संसदीय समितियाँ (JPC), रेलवे कन्वेंशन समिति आदि।
    • इनका उद्देश्य संसद के विस्तृत कार्यों का संचालन करना होता है, जिन्हें पूरा सदन समय या विशेषज्ञता की कमी के कारण गहराई से नहीं निपटा सकता।

संसदीय समिति प्रणाली का महत्त्व क्या है?

  • कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करना: यद्यपि समितियों की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं, फिर भी उनकी विस्तृत रिपोर्टें सार्वजनिक अभिलेख और जनमत का निर्माण करती हैं, कार्यपालिका की गहन जाँच को बढ़ाती हैं तथा सरकार पर विवादास्पद निर्णयों पर पुनर्विचार करने का दबाव बनाती हैं।
    • इनकी गोपनीय रूप की प्रकृति राजनीतिक दिखावे से मुक्त होकर स्पष्ट और सहयोगात्मक चर्चा को संभव बनाती है।
  • सूचित एवं समावेशी विधिनिर्माण को बढ़ावा देना: समितियाँ सांसदों के लिये विशेषज्ञों, नागरिक समाज और अधिकारियों से परामर्श करने का माध्यम बनती हैं, जिससे प्रमाण-आधारित विचार-विमर्श सुनिश्चित होता है।
    • विधेयकों की धारावार जाँच, हितधारकों से परामर्श तथा सार्वजनिक भागीदारी विधायी गुणवत्ता और लोकतांत्रिक वैधता को सुदृढ़ बनाते हैं।
  • द्विदलीय प्रतिनिधित्व वाली लघु संसद: आनुपातिक दलीय प्रतिनिधित्व और पूरे वर्ष चलने वाली कार्यप्रणाली के साथ, समितियाँ निरपेक्ष (गैर-पक्षपातपूर्ण) बहस, अंतर-मंत्रालयीय समन्वय तथा बजट, वार्षिक रिपोर्टों एवं नीतिगत प्रस्तावों की गहन जाँच को प्रोत्साहित करती हैं।
    • तदर्थ समितियाँ विशिष्ट मुद्दों पर केंद्रित जाँच में और अधिक सहयोग प्रदान करती हैं।
  • क्षमता निर्माण और शासन सुधार: समितियाँ प्रामाणिक अंतर्दृष्टियाँ और मूल्यवर्धित सिफारिशें प्रदान करती हैं, जिससे विधायी प्रक्रिया तथा शासन व्यवस्था सशक्त होती है।
    • ये युवा सांसदों के लिये एक अनौपचारिक प्रशिक्षण मंच के रूप में कार्य करती हैं और जनप्रिय दबावों एवं पार्टी के अनुशासन से परे कार्य करते हुए संसदीय लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करती हैं।

संसदीय समितियों से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • सीमित अधिकार एवं कमज़ोर अनुपालन: संसदीय समितियाँ परामर्शदाता निकाय होती हैं, जिनकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं।
    • इनके पास प्रवर्तन की शक्ति नहीं होती और न ही कोई संस्थागत अनुपालन तंत्र होता है, जिससे कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने और नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन में इनकी भूमिका कमज़ोर पड़ जाती है।
  • संसाधन एवं शोध की सीमाएँ: संसदीय समितियों को कर्मचारियों और बुनियादी ढाँचे की सीमाओं का सामना करना पड़ता है, जबकि तकनीकी सहायता मुख्य रूप से सचिवीय कार्यों जैसे कि कार्यक्रम निर्धारण और नोट्स लेने तक सीमित है।
    • राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (2002) ने विभागीय संबंधित स्थायी समितियों (DRSC) के लिये विशेषज्ञ सलाहकारों और अनुसंधान समर्थन की गंभीर कमी को रेखांकित किया, जिससे गहन जाँच और प्रमाण-आधारित विश्लेषण में बाधा उत्पन्न हुई। 
  • निम्न भागीदारी और सांसदों की उपस्थिति: समिति की बैठकों में सांसदों की उपस्थिति औसतन लगभग 50% रहती है, जो कि नियमित संसद सत्रों के दौरान दर्ज 84% उपस्थिति की तुलना में काफी कम है।
    • विरोधाभासी कार्यक्रम, कम प्रोत्साहन और रुचि की कमी जैसे कारक इस सीमित भागीदारी में योगदान करते हैं, जिससे विचार-विमर्श की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
  • अपर्याप्त संसदीय समय और निरीक्षण: संसदीय बैठकों में आई गिरावट प्रभावी समिति पर्यवेक्षण के लिये समय को सीमित करती है। 17वीं लोकसभा के पहले सत्र में संसद केवल 37 दिनों के लिये बुलाई गई, जबकि 2009–19 के दस वर्षों का औसत वार्षिक सत्र मात्र 67 दिन रहा है।
    • परिणास्वरूप, प्रमुख विधेयकों और बजटीय प्रस्ताव अक्सर विस्तृत जाँच से बच जाते हैं; 16वीं लोकसभा में केवल 17% केंद्रीय बजट पर ही चर्चा की गई।
  • राजनीतिक प्रभाव और स्वतंत्रता का आभाव: संसदीय समितियाँ प्रायः पार्टी नेतृत्व या बाहरी दबावों के राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना करती हैं, जिससे उनकी निष्पक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
    • सदस्यों की नामांकन प्रक्रिया में राजनीतिक विचारों की प्रधानता समिति के कार्य संचालन की प्रभावशीलता और वस्तुनिष्ठता को और अधिक कमज़ोर कर देती है।
  • अत्यधिक कार्यभार और खंडित पर्यवेक्षण: विभाग संबंधी स्थायी समितियाँ (DRSC) अनेक बार परस्पर असंबंधित मंत्रालयों से संबंधित विषयों को सँभालती हैं, जिससे विषय-विशेष ध्यान और विशेषज्ञता सीमित हो जाती है।
    • व्यापक अधिदेश और केवल एक वर्ष का अल्प कार्यकाल समितियों की विशेषज्ञता के विकास में बाधा उत्पन्न करता है तथा निरंतर और गहन पर्यवेक्षण को सीमित कर देता है।

संसदीय समितियों के कार्य संचालन को सुदृढ़ करने के लिये क्या उपाय किए जाने चाहिये?

  • संस्थागत और अनुसंधान समर्थन को सुदृढ़ बनाना: संसदीय समितियों को विषय विशेषज्ञों, शोध कर्मचारियों और विश्वसनीय आँकड़ों तक पहुँच के साथ एक सुसज्जित सचिवालय की आवश्यकता है।
    • पर्याप्त संसाधन और आधुनिक तकनीकी उपकरणों की उपलब्धता से गहन विश्लेषण संभव हो सकेगा, साक्ष्य-आधारित सिफारिशें सुनिश्चित होंगी, और विचार-विमर्श की गुणवत्ता में वृद्धि होगी।
  • जवाबदेही तंत्र को संस्थागत बनाना: मंत्रालयों को निर्धारित समयावधि के भीतर कार्रवाई रिपोर्ट (ATR) प्रस्तुत करना अनिवार्य किया जाना चाहिये।
    • सरकार को समिति की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार करने के निर्णय के पीछे लिखित स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना चाहिये, जिससे जवाबदेही सुदृढ़ हो तथा समिति की रिपोर्टों की प्रामाणिकता और प्रभाव में वृद्धि हो।
  • रेफरल और विशेषज्ञता में वृद्धि: प्रक्रिया नियमों में संशोधन कर सभी गैर-वित्तीय विधेयकों को समितियों को अनिवार्य रूप से अथवा दृढ़ता से सिफारिश करते हुए संदर्भित करना सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, प्रत्येक DRSC के दायरे को युक्तिसंगत बनाया जाना चाहिये, जिसके अंतर्गत प्रति समिति मंत्रालयों की संख्या घटाई जाए, ताकि पर्यवेक्षण केंद्रित हो, विषयों में समरसता बनी रहे, और सदस्यों के बीच विषय-विशेष की विशेषज्ञता को प्रोत्साहन मिल सके।
  • सांसदों की भागीदारी और क्षमता निर्माण में सुधार: समिति बैठकों में सांसदों की औसत उपस्थिति लगभग 50% है (पूर्ण बैठकों में 84% के मुकाबले), अतः सहभागिता बढ़ाने के लिये लक्षित उपायों जैसे- प्रोत्साहन, दंड अथवा औपचारिक मान्यता की आवश्यकता है।
    • इसके अतिरिक्त, विशेष रूप से नव निर्वाचित सांसदों के लिये नियमित प्रशिक्षण एवं उन्मुखीकरण कार्यक्रम समिति कार्य की महत्ता के प्रति जागरूकता बढ़ा सकते हैं तथा उनकी विधायी क्षमता को सुदृढ़ कर सकते हैं।
  • पारदर्शिता और नागरिक सहभागिता को प्रोत्साहित करना: समिति रिपोर्टों की भाषा और संरचना को सरल बनाया जाना चाहिये, ताकि वे जनसामान्य के लिये सुलभ हो सकें।
    • समितियों को साक्ष्य-संग्रह की प्रक्रिया के दौरान ई-परामर्श, क्राउडसोर्सिंग (crowdsourcing) के माध्यम से साक्ष्य एकत्र करने और हितधारकों के साथ प्रत्यक्ष डिजिटल संवाद जैसे उपायों के लिये डिजिटल मंचों का उपयोग करना चाहिये, जिससे विधायी प्रक्रिया में सार्वजनिक विश्वास, पारदर्शिता और सहभागिता को बढ़ावा मिल सके।

निष्कर्ष

संसदीय समितियाँ विधायी निगरानी, लोकतांत्रिक जवाबदेही और सहभागी शासन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। समितियों की सिफारिशों के प्रति अधिक सम्मान और उत्तरदायित्व की आवश्यकता पर लोकसभा अध्यक्ष द्वारा दिया गया ज़ोर, इन संस्थाओं के पुनर्जीवन की तात्कालिकता को दर्शाता है। जैसे-जैसे भारत डेटा-आधारित और पारदर्शी शासन की ओर अग्रसर हो रहा है, समितियों को सुधार और जवाबदेही के प्रमुख वाहक के रूप में विकसित होना चाहिये, ताकि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर नीतियाँ न केवल सुविचारित हों, बल्कि उनका प्रभावी क्रियान्वयन भी सुनिश्चित किया जा सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने में संसदीय समितियों की क्या भूमिका है? हाल के वर्षों में उनकी प्रभावशीलता क्यों कम हुई है, और उसकी पुनर्स्थापना के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत की संसद के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सी संसदीय समिति इसकी संवीक्षा करती है और सदन को सूचित करती है कि जो विनियम, नियम, उप-नियम, उप-विधि, आदि बनाने की शक्तियाँ संविधान द्वारा प्रदत्त हैं या सदन द्वारा प्रत्यायोजित हैं उनका कार्यपालिका द्वारा इन प्रत्यायोजनों (डेलिगेशन) की परिधि के भीतर उचित प्रयोग हो रहा है? (2018)

(a) सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति
(b)अधीनस्थ विधान संबंधी समिति
(c)नियम समिति
(d)कार्य सलाहकार (बिज़नेस ऐडवाइज़री) समिति

उत्तर: (b)


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