सामाजिक न्याय
WHO की वैश्विक क्षय रोग (TB) रिपोर्ट 2025
प्रिलिम्स के लिये: विश्व स्वास्थ्य संगठन, क्षय रोग (TB), ह्यूमन इम्यूनोडिफिसिएंसी वायरस, प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान, नि-क्षय मित्र
मेन्स के लिये: राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (NTEP) के तहत भारत की प्रगति और चुनौतियाँ, दवा प्रतिरोधी टीबी
चर्चा में क्यों?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की वैश्विक क्षय रोग (TB) रिपोर्ट 2025 से पता चलता है कि भारत में टीबी के मामलों में 21% की तीव्र गिरावट आएगी, जो वर्ष 2015 में 237 प्रति लाख से घटकर वर्ष 2024 में 187 प्रति लाख हो जाएगी, जो वैश्विक गिरावट की गति से लगभग दोगुनी है और इस रोग के खिलाफ भारत की लड़ाई में एक प्रमुख मील का पत्थर है।
WHO ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2025 के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- वैश्विक: वर्ष 2024 में 10.7 मिलियन लोग टीबी से बीमार पड़ेंगे और 1.23 मिलियन लोगों की मृत्यु होगी। घटना दर प्रति 100,000 पर 131 थी और मृत्यु दर 11.5% थी।
- टीबी विश्व स्तर पर मृत्यु के शीर्ष 10 कारणों में से एक है तथा एकल संक्रामक कारक से होने वाली मौतों में सबसे प्रमुख है।
- उच्च-भार वाले देश: कुल 30 उच्च-भार वाले देश वैश्विक टीबी के 87% मामलों के लिये ज़िम्मेदार हैं। प्रमुख योगदान देने वाले देश भारत (25%), इंडोनेशिया (10%), फ़िलिपींस (6.8%), चीन (6.5%), पाकिस्तान (6.3%), नाइजीरिया (4.8%), डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो (3.9%) और बांग्लादेश (3.6%) हैं।
- टीबी की घटनाओं के प्रमुख कारण: कुपोषण, कम आय, ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस (HIV), मधुमेह, धूम्रपान और शराब सेवन संबंधी विकार।
- भारत की उपलब्धियों में तीव्र गिरावट: वैश्विक टीबी मामलों में भारत का योगदान 25% है, लेकिन उच्च बोझ वाले देशों में भारत ने सबसे तेज़ी से गिरावट दर्ज की है। उपचार कवरेज 53% (2015) से बढ़कर 92% (2024) हो गया है।
- भारत की टीबी मृत्यु दर वर्ष 2015 में 28 प्रति लाख से घटकर वर्ष 2024 में 21 प्रति लाख हो गई। हालाँकि इस प्रगति के बावजूद वर्ष 2024 में विश्व भर में टीबी से होने वाली कुल मौतों में से लगभग 28% भारत में ही होंगी।
- प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान के अंतर्गत उपचार की सफलता दर 90% (2024) है, जो वैश्विक औसत 88% से अधिक है।
- भारत में एक लाख मामले "लापता" रह गए हैं, यानी ऐसे मामले जिनका निदान नहीं हो पाया है और जो संक्रमण फैला रहे हैं। भारत अभी भी वैश्विक पहचान अंतराल में 8.8% का योगदान देता है, जो इंडोनेशिया (10%) के बाद दूसरे स्थान पर है।
भारत में टीबी के मामलों में कमी लाने वाले कारक क्या हैं?
- बड़े पैमाने पर शीघ्र पहचान: आणविक परीक्षण सुविधाओं के तेज़ी से विस्तार के साथ शीघ्र निदान में तीव्र सुधार हुआ है।
- भारत में अब विश्व का सबसे बड़ा टीबी प्रयोगशाला नेटवर्क है और 92% मरीज़ों का रिफैम्पिसिन दवा-प्रतिरोध परीक्षण पहले ही हो जाता है। इस स्तर की शीघ्र पहचान से स्रोत पर ही संक्रमण को रोकने में मदद मिलती है।
- भारत में वर्ष 2024 में टीबी के अब तक सर्वाधिक 26.18 लाख मामलों का निदान किया जाएगा, जिससे अनुमानित और पता लगाए गए मामलों के बीच का अंतर काफी हद तक कम हो जाएगा।
- नई प्रौद्योगिकियों का उपयोग: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI)-सक्षम हैंडहेल्ड एक्स-रे उपकरण, पोर्टेबल डायग्नोस्टिक उपकरण और विस्तारित NAAT (न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्टिंग) कवरेज ने दूरदराज और उच्च-भार वाले क्षेत्रों में भी टीबी का शीघ्र पता लगाना आसान बना दिया है।
- ये प्रौद्योगिकियाँ तेजी से जाँच करने और उपचार शुरू करने में देरी को कम करने में सहायक हैं।
- नई और छोटी उपचार व्यवस्था: BPaLM (बेडाक्विलाइन, प्रीटोमैनिड, लाइनज़ोलिड, मोक्सीफ्लोक्सासिन) व्यवस्था के लागू होने से DR-TB उपचार की अवधि 18-24 महीने से घटकर मात्र 6 महीने रह गई।
- पूर्णतः मौखिक MDR-TB उपचारों से सुरक्षा में सुधार हुआ, ड्रॉपआउट में कमी आई तथा सफल उपचार परिणामों में वृद्धि हुई।
- बड़े पैमाने पर सामुदायिक जाँच: टीबी मुक्त भारत अभियान के तहत सामुदायिक जाँच अभूतपूर्व स्तर पर पहुँच गई है।
- 19 करोड़ से अधिक संवेदनशील लोगों की जाॅंच की गई, जिससे 24.5 लाख रोगियों का पता चला, जिनमें 8.61 लाख लक्षणहीन मामले शामिल थे। मूक वाहकों की पहचान करना संचरण में कमी का एक प्रमुख कारण है।
- 1.78 लाख आयुष्मान आरोग्य मंदिरों और नि-क्षय मित्रों के माध्यम से देखभाल समुदायों के करीब पहुँच गई है।
- इस विकेंद्रीकरण से लोगों को शीघ्रता से परीक्षण और उपचार प्राप्त करने में मदद मिलती है, जिससे टीबी के फैलने में होने वाली लंबी देरी को रोका जा सकता है।
- बेहतर पोषण और सामाजिक सहायता: नि-क्षय पोषण योजना (NPY) के अंतर्गत टीबी रोगियों के पोषण के लिये वित्तीय सहायता 500 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये प्रति माह कर दी गई है, जिससे पूरे उपचार के दौरान प्रति रोगी 3,000 रुपये से 6,000 रुपये तक की सहायता प्रदान की जा रही है।
भारत का टीबी उन्मूलन लक्ष्य क्या है?
- वर्ष 2020 में भारत ने संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम (RNTCP) का नाम बदलकर राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (NTEP) कर दिया, ताकि वर्ष 2030 के वैश्विक लक्ष्य से पाँच वर्ष पहले, वर्ष 2025 तक टीबी को खत्म करने के अपने लक्ष्य के साथ तालमेल बिठाया जा सके।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में TB उन्मूलन को प्रति दस लाख जनसंख्या और प्रति वर्ष एक से कम अधिसूचित टीबी मामले (सभी प्रकार) के रूप में परिभाषित किया गया है।
- NTEP राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (2017-2025) का अनुसरण करता है, जो भारत में टीबी को नियंत्रित करने और समाप्त करने के लिये चार प्रमुख कार्यों पर ध्यान केंद्रित करता है: पहचान (Detect) – उपचार (Treat) – रोकथाम (Prevent) – निर्माण/मज़बूती (Build) (DTPB)।
- जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की TB उन्मूलन रणनीति का लक्ष्य वर्ष 2015 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक टीबी की घटनाओं में 80% की कमी और मृत्यु दर में 90% की कमी हासिल करना है।
- भारत में वर्ष 2015 से वर्ष 2024 के बीच नये मामलों में केवल 21% की गिरावट तथा मृत्यु में 28% की गिरावट आई है।
भारत वर्ष 2025 तक टीबी उन्मूलन लक्ष्य को पूरा करने में क्यों संघर्ष कर रहा है?
- टीबी का उच्च बोझ और तीव्र संचरण: भारत विश्व में सबसे अधिक टीबी प्रभावित देश है, जिससे उन्मूलन मुश्किल हो जाता है।
- अधिक आबादी वाली झुग्गी-झोंपड़ियों, खराब वेंटिलेशन और संकेंद्रित रहने की परिस्थितियाँ संक्रमण को तेज़ी से फैलने देती हैं, जिससे पहचान में सुधार के बावजूद संचरण स्तर उच्च बने रहते हैं।
- दवा प्रतिरोधी टीबी (MDR/XDR): कई मरीज़ इलाज का पूरा कोर्स पूरा नहीं करते हैं और प्राय: एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग किया जाता है। इससे बहु-दवा प्रतिरोधी (MDR) और व्यापक रूप से दवा प्रतिरोधी (XDR) टीबी हो जाती है, जिसका इलाज बहुत कठिन तथा महॅंगा होता है।
- विलंबित या अनुपलब्ध जाँच: आबादी का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण, जनजातीय और दुर्गम क्षेत्रों में त्वरित टीबी परीक्षण सुविधाओं से वंचित है।
- देरी से निदान का अर्थ है कि रोग समुदाय में चुपचाप फैलता रहेगा।
- सहवर्ती रोग और जोखिम कारक: मधुमेह, HIV, कुपोषण और धूम्रपान का उच्च प्रसार प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर करता है तथा संक्रमण के जोखिम को बढ़ाता है।
- बढ़ता वायु प्रदूषण फेफड़ों के स्वास्थ्य को और नुकसान पहुँचाता है। अकेले वर्ष 2024 में लगभग 3.2 लाख टीबी के मामले मधुमेह से जुड़े थे।
- निजी क्षेत्र में चुनौतियाँ: लगभग आधे टीबी मरीज़ पहले निजी डॉक्टरों के पास जाते हैं। हालाँकि, कई निजी क्लीनिक पुरानी जाँचें, असंगत दवाइयाँ अपनाते हैं और सरकार को मामलों की सूचना नहीं देते। इससे मामले छूट जाते हैं और इलाज की गुणवत्ता खराब हो जाती है।
- कुपोषण और खराब जीवनयापन की स्थितियाँ: भारत में टीबी के सबसे बड़े जोखिम कारकों में से एक कुपोषण बना हुआ है।
- खराब गुणवत्ता वाला आहार और खाद्य असुरक्षा प्रतिरक्षा को कमज़ोर करती है, जिससे लोग संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं और उनकी रिकवरी धीमी हो जाती है।
- स्वास्थ्य प्रणाली में कमियाँ: कुछ क्षेत्रों में प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं की कमी, अनियमित दवा आपूर्ति और कमज़ोर अनुवर्ती तंत्र का सामना करना पड़ रहा है।
- ये अंतराल उपचार के पालन को कम करते हैं और दवा प्रतिरोध का जोखिम बढ़ाते हैं।
- बच्चों में टीबी के लक्षण प्राय: सूक्ष्म दिखाई देते हैं और इसके लिये विशेष परीक्षणों की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप, कई मामलों का पता नहीं चल पाता या उनका निदान देर से होता है।
भारत में टीबी उन्मूलन प्रयासों को सुदृढ़ करने हेतु क्या उपाय किये जा सकते हैं?
- प्रारंभिक और सटीक निदान का विस्तार करना: ज़िले एवं उप-ज़िले स्तर पर CBNAAT और TrueNat जैसे त्वरित आणविक परीक्षणों का विस्तार किया जाए ताकि सभी को समान पहुँच मिल सके।
- प्रारंभिक पहचान संक्रमण शृंखला को तोड़ती है, दवा-प्रतिरोध को जल्दी पहचानने में सहायता करती है और ‘गुम/अप्रतिबंधित’ मामलों की संख्या कम करती है।
- दवा-प्रतिरोधी टीबी से निपटने के लिये मज़बूत हस्तक्षेप: BPaL जैसे छोटे और रोगी-अनुकूल उपचार कार्यक्रमों को व्यापक रूप से लागू किया जाए, जो MDR टीबी के उपचार की अवधि को 18–24 महीनों से घटाकर 6 महीने कर देते हैं।
- तीव्र और अधिक सहनीय उपचार बेहतर परिणाम देते हैं तथा कठिन-से-ठीक होने वाले टीबी स्ट्रेनों के प्रसार को नियंत्रित करते हैं।
- मुख्य जोखिम कारकों और सह-रुग्णताओं का समाधान करना: मधुमेह, HIV, कुपोषण, मद्य-त्याग और तंबाकू-नियंत्रण कार्यक्रमों के साथ टीबी स्क्रीनिंग को एकीकृत करना। विशेष रूप से उच्च-भार वाले शहरों में वायु-गुणवत्ता प्रबंधन में सुधार करना चाहिये।
- निवारक चिकित्सा (TPT) को सुदृढ़ बनाना: बच्चों, HIVपॉजिटिव व्यक्तियों और उच्च जोखिम वाले समूहों को लक्षित करके निवारक उपचार के बारे में जागरूकता बढ़ाना।
- निवारक उपचार सुप्त संक्रमणों को सक्रिय टीबी में बदलने से रोकता है, जो दीर्घकालिक रूप से टीबी की घटनाओं में कमी के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- कोविड-पश्चात स्वास्थ्य अवसंरचना को पुनर्स्थापित और सुदृढ़ करना: कोविड-19 के कारण जनशक्ति, प्रयोगशालाएँ और संसाधन अन्यत्र स्थानांतरित हो गए, जिससे कई राज्यों में प्रगति धीमी हो गई। टीबी प्रयोगशाला प्रणालियों का पुनर्निर्माण करना और महामारी के दौरान अन्यत्र स्थानांतरित जनशक्ति को पुनः स्थापित करना।
- मज़बूत सार्वजनिक-निजी सहयोग: सार्वजनिक-निजी सहयोग को प्रोत्साहित करने से नए टीकों, देखभाल केंद्रों पर निदान और छोटी अवधि की दवा व्यवस्था के लिये अनुसंधान एवं विकास को मज़बूत किया जा सकता है।
- इससे निजी प्रदाताओं द्वारा मानकीकृत उपचार दिशानिर्देशों को अपनाया जा सकेगा और गलत निदान तथा अपूर्ण उपचार को कम करने में सहायता मिलेगी।
निष्कर्ष
भारत ने टीबी के मामलों को कम करने और उपचार परिणामों में सुधार लाने में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन वर्ष 2025 तक इसका उन्मूलन अभी भी असंभव है। टीबी उन्मूलन की दिशा में भारत की प्रगति में तेज़ी लाने के लिये निरंतर नवाचार, मज़बूत स्वास्थ्य प्रणालियाँ और लक्षित सामुदायिक समर्थन आवश्यक हैं।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. चर्चा कीजिये कि विकेंद्रीकृत टीबी सेवाओं और नई नैदानिक तकनीकों ने भारत की टीबी प्रतिक्रिया को कैसे बदल दिया है। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. भारत ने WHO ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2025 के अनुसार टीबी संक्रमण में कितनी कमी हासिल की है?
भारत ने वर्ष 2015 से वर्ष 2024 के बीच टीबी संक्रमण में 21% की कमी दर्ज की है, जो 237 प्रति लाख की दर से घटकर 187 प्रति लाख हो गई है।
2. वर्ष 2024 में NTEP के तहत भारत की उपचार कवरेज कितनी है?
वर्ष 2024 में उपचार कवरेज 92% तक पहुँच गई, जो वर्ष 2015 में 53% थी।
3. वैश्विक टीबी मामलों में भारत का हिस्सा कितना है?
भारत वैश्विक टीबी मामलों का 25% हिस्सा रखता है, जो सभी देशों में सबसे अधिक है।
4. BPaLM रेगीमेन (बेड़ाक्विलीन, प्रीटोमैनिड, लाइनज़ोलिड, मोक्सीफ्लॉक्सासिन) क्या है?
BPaLM रेगीमेन दवा-प्रतिरोधी टीबी (DR-TB) के लिये एक नई, छोटी और पूरी तरह मौखिक उपचार पद्धति है। यह उपचार अवधि को 18–24 महीनों से घटाकर केवल 6 महीने कर देता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)
मेन्स
प्रश्न. "एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता के अलावा, प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना धारणीय विकास की एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" विश्लेषण कीजिये। (2021)
सामाजिक न्याय
भारत में सरोगेसी कानून: अधिकार और सीमाएँ
प्रिलिम्स के लिये: सरोगेसी कानून, सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021, परोपकारी सरोगेसी, वाणिज्यिक सरोगेसी, संविधान का अनुच्छेद 21।
मेन्स के लिये: सरोगेसी कानून और संबंधित चुनौतियाँ, इन कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा और बेहतरी के लिये गठित तंत्र, कानून, संस्थान और निकाय।
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय इस बात की जाँच करने के लिये सहमत हो गया है कि क्या सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के तहत दूसरे बच्चे के लिये सरोगेसी के उपयोग पर प्रतिबंध, विशेष रूप से द्वितीयक बाँझपन के मामलों में प्रजनन स्वायत्तता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
भारत के सरोगेसी कानून की सीमाओं को कानूनी चुनौती क्यों दी जा रही है?
- सरोगेसी अधिनियम, 2021 पर विचार: सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 की धारा 4(iii)(C)(II) उन दंपतियों को सरोगेसी का विकल्प चुनने से रोकती है, जिनके पास पहले से ही एक बच्चा है - जैविक, गोद लिया हुआ या सरोगेसी के माध्यम से, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जहाँ मौजूदा बच्चा किसी विकलांगता, जानलेवा या किसी लाइलाज बीमारी से प्रभावित है।
- द्वितीयक बाँझपन से पीड़ित दंपतियों का तर्क है कि यह प्रतिबंध उन्हें सरोगेसी तक पहुँच से वंचित करता है तथा प्रजनन स्वायत्तता के उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- याचिकाकर्त्ताओं द्वारा तर्क: द्वितीयक बाँझपन, हालाँकि कम चर्चा में है, भावनात्मक और चिकित्सकीय रूप से कष्टदायक है।
- जब राष्ट्रीय स्तर पर एक-संतान नीति नहीं है तथा गोद लेने संबंधी कानून पहले से ही दूसरे या तीसरे बच्चे की अनुमति देते हैं (उदाहरण के लिये हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956, किशोर न्याय अधिनियम, 2015) तो सरोगेसी से इनकार नहीं किया जाना चाहिये।
- यह प्रतिबंध प्रजनन स्वायत्तता में राज्य के अतिक्रमण के समान है, जो अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है।
- सरकार का रुख:
- सरोगेसी मौलिक अधिकार नहीं: सरोगेसी में किसी अन्य महिला के गर्भ का उपयोग शामिल है। संविधान किसी अन्य व्यक्ति के शरीर पर अधिकार को मान्यता नहीं देता। सरोगेसी एक वैधानिक अधिकार है, संवैधानिक नहीं।
- प्रतिबंध उचित और आवश्यक: जब दंपति के पास पहले से ही स्वस्थ, जीवित बच्चा हो तो यह अनावश्यक सरोगेसी को रोकता है। गैर-आवश्यक मामलों में सरोगेट माताओं को गर्भधारण से सुरक्षा प्रदान करता है।
- संतुलित प्रावधान: प्रावधान गंभीर चिकित्सा स्थितियों के लिये अपवाद की अनुमति देता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि वास्तविक आवश्यकता को पूरा किया जाए और सरोगेसी का दुरुपयोग न हो।
- सर्वोच्च न्यायालय का अवलोकन: न्यायालय ने भारत की बढ़ती जनसंख्या से संबंधित चिंताओं को ध्यान में रखते हुए कहा कि यह प्रतिबंध "उचित" प्रतीत होता है।
- फिर भी इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह निर्धारित करने के लिये विस्तृत जाँच की आवश्यकता है कि क्या यह प्रावधान प्रजनन स्वतंत्रता, शारीरिक स्वायत्तता और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
भारत में सरोगेसी से संबंधित प्रमुख कानूनी ढाँचे क्या हैं?
- सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021:
- अनुमति: सरोगेसी केवल परोपकारी उद्देश्यों के लिये ही अनुमत है तथा प्रमाणित बाँझपन वाले दंपतियों के लिये वाणिज्यिक सरोगेसी पूर्णतः निषिद्ध है।
- पात्रता की आवश्यकता: केवल कानूनी रूप से विवाहित भारतीय दंपति पुरुष (26–55 वर्ष) और महिला (25–50 वर्ष) या विधवा/तलाकशुदा महिला (35–45 वर्ष) ही सरोगेसी का विकल्प चुन सकते हैं और उनके पास पहले से कोई जैविक, गोद लिया हुआ या सरोगेसी से जन्मा बच्चा नहीं होना चाहिये।
- सरोगेट माँ के लिये मानदंड: निकट संबंधी होना चाहिये विवाहित होना चाहिये, कम-से-कम एक बच्चा होना चाहिये, 25-35 वर्ष की आयु होनी चाहिये तथा केवल एक बार सरोगेट के रूप में कार्य करना चाहिये।
- जन्म के समय कानूनी स्थिति: बच्चा कानूनी रूप से इच्छुक दंपति का जैविक बच्चा होता है, गर्भपात के लिये सहमति की आवश्यकता होती है तथा MTP अधिनियम का पालन करना होता है।
- नियम 7 (दाता अंडे पर प्रतिबंध): नियम 7 दाता शुक्राणु पर प्रतिबंध लगाता है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हाउसर (MRKH) सिंड्रोम से जुड़े एक विशिष्ट मामले में इसके संचालन पर रोक लगा दी है।
- सरोगेसी (विनियमन) नियम, 2022 में संशोधन: इसके तहत दाता युग्मकों के साथ सरोगेसी की अनुमति दी गई है, बशर्ते इच्छुक दंपति में से किसी एक को ज़िला चिकित्सा बोर्ड द्वारा किसी चिकित्सीय स्थिति के कारण दाता युग्मकों की आवश्यकता के लिये प्रमाणित किया गया हो।
- इसका अर्थ है कि यदि दोनों साथियों को कोई चिकित्सीय समस्या है तो दंपति अभी भी सरोगेसी का विकल्प नहीं चुन सकते।
- सरोगेसी का विकल्प चुनने वाली तलाकशुदा या विधवा महिलाओं के लिये यह दाता शुक्राणु के साथ महिला के स्वयं के अंडों के उपयोग को अनिवार्य बनाता है।
भारत के सरोगेसी फ्रेमवर्क में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- शोषण का जोखिम बनाम स्वायत्तता: व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध महिलाओं के प्रजनन विकल्पों को सीमित करता है तथा सुरक्षा और स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाने में कठिनाई उत्पन्न करता है।
- पितृसत्तात्मक सुदृढ़ीकरण: प्रजनन श्रम पर महिलाओं की स्वतंत्रता को सीमित करके, कानून अप्रत्यक्ष रूप से पितृसत्तात्मक मानदंडों को बनाए रखता है और अनुच्छेद 21 के अधिकारों को प्रभावित करता है।
- परोपकारी सरोगेसी में भावनात्मक दबाव: परिवार-आधारित सरोगेसी भावनात्मक तनाव उत्पन्न कर सकती है, संबंधों को प्रभावित कर सकती है और इच्छुक सरोगेट्स की संख्या सीमित रखती है।
- पेशेवर समर्थन की कमी: एजेंसियों को बहिष्कृत करने से संरचित समन्वय, वित्तीय स्पष्टता और सरोगेट व इच्छुक माता-पिता दोनों के लिये भावनात्मक समर्थन की कमी होती है।
- बहिष्करणकारी पात्रता नियम: अविवाहित व्यक्ति, अकेले पुरुष, समलैंगिक जोड़े और लिव-इन रिलेशनशिप में साथी प्रतिबंधित हैं, जो विभिन्न पारिवारिक रूपों के खिलाफ भेदभाव उत्पन्न करते हैं।
भारत के सरोगेसी फ्रेमवर्क को सुदृढ़ करने हेतु किन सुधारों की आवश्यकता है?
- पात्रता मानदंडों का तर्कसंगत सुधार: सरकार और विधायिका को प्रतिबंधात्मक प्रावधानों, विशेषकर द्वितीयक बाँझपन, दाता युग्मक और अविवाहित व्यक्तियों के बहिष्कार पर पुनर्विचार करना चाहिये, ताकि कानून बदलती पारिवारिक संरचनाओं एवं संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप हो।
- सुरक्षा उपायों को मज़बूत करना: प्रतिबंधात्मक नियमों के बजाय ध्यान मज़बूत नियामक तंत्र पर होना चाहिये, जो सरोगेट माताओं के लिये सूचित सहमति, चिकित्सकीय सुरक्षा, व्यय का उचित मुआवज़ा और शोषण से सुरक्षा सुनिश्चित करे।
- परामर्श और समर्थन तंत्र: इच्छुक माता-पिता और सरोगेट माताओं के लिये अनिवार्य मनोवैज्ञानिक, कानूनी तथा चिकित्सकीय परामर्श भावनात्मक दबाव को कम कर सकता है, बलपूर्वक करने से रोकता है तथा सभी पक्षों को जटिल निर्णयों में मार्गदर्शन करता है।
- सांस्थानिक तंत्र: ज़िला और राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्डों को बेहतर निगरानी उपकरण, शिकायत निवारण तंत्र तथा पारदर्शी प्रक्रियाओं के साथ सशक्त किया जाना चाहिये, ताकि सरोगेसी क्लीनिक, एजेंसियों एवं मेडिकल बोर्डों का नियमन किया जा सके।
- अधिकार-आधारित नीति ढाँचा: भविष्य के सुधारों में अनुच्छेद 21 के अधिकारों का संरक्षण, शारीरिक स्वायत्तता का सम्मान और सुरक्षा के साथ सशक्तीकरण का संतुलन सुनिश्चित होना चाहिये ताकि सरोगेसी इकोसिस्टम नैतिक, समावेशी एवं संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बना रहे।
निष्कर्ष
जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय वर्तमान प्रतिबंधों की पुनःसमीक्षा करता है, भारत के पास यह अवसर है कि वह अपने सरोगेसी फ्रेमवर्क को परिष्कृत कर नैतिक सुरक्षा और प्रजनन स्वायत्तता के बीच संतुलन स्थापित करे। एक अधिक समावेशी, अधिकार-आधारित और सुव्यवस्थित प्रणाली सरोगेट माताओं की सुरक्षा, इच्छुक माता-पिता का समर्थन और कानून को बदलती सामाजिक वास्तविकताओं तथा संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बनाए रखने में सक्षम हो सकती है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 शोषण पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से पितृसत्तात्मक धारणाओं को मज़बूत करता है। समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. सरोगेसी (नियमन) अधिनियम, 2021 की धारा 4(iii)(C)(II) के तहत मुख्य प्रतिबंध क्या है?
इसमें उन दंपति को सरोगेसी का उपयोग करने से रोका गया है जिनका पहले से एक बच्चा है, सिवाय इसके कि उस बच्चे को गंभीर दिव्यांगता या जानलेवा बीमारी हो।
2. द्वितीयक बाँझपन वाले दंपति धारा 4(iii)(C)(II) को चुनौती क्यों दे रहे हैं?
वे तर्क देते हैं कि यह प्रावधान उनके प्रजनन स्वायत्तता और अनुच्छेद 21 के तहत उनकी निजता का उल्लंघन करता है।
3. सरकार का रुख क्या है?
सरकार का कहना है कि सरोगेसी मौलिक अधिकार नहीं है और यह प्रतिबंध अनावश्यक सरोगेट उपयोग को रोकता है।
4. सर्वोच्च न्यायालय का निरीक्षण क्या है?
इसने इस प्रतिबंध को ‘युक्तिसंगत’ कहा है, लेकिन प्रजनन स्वतंत्रता पर इसके प्रभाव की जाँच भी करेगा।
5. क्या भारतीय कानून व्यावसायिक सरोगेसी की अनुमति देता है?
नहीं, केवल परोपकारी सरोगेसी की अनुमति है, जो केवल चिकित्सा लागत की प्रतिपूर्ति तक सीमित है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रश्न. मानव प्रजनन प्रौद्योगिकी में अभिनव प्रगति के संदर्भ में "प्राक्केंद्रिक स्थानांतरण ”(Pronuclear Transfer) का प्रयोग किस लिये होता है। (2020)
(a) इन विट्रो अंड के निषेचन के लिये दाता शुक्राणु का उपयोग
(b) शुक्राणु उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं का आनुवंशिक रूपांतरण
(c) स्टेम (Stem) कोशिकाओं का कार्यात्मक भ्रूूणों में विकास
(d) संतान में सूत्रकणिका रोगों का निरोध
उत्तर: (d)
मुख्य परीक्षा
वर्ष 2025 में भारत के कार्बन उत्सर्जन में कमी
चर्चा में क्यों?
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट (GCP) 2025 अध्ययन के अनुसार, जीवाश्म ईंधनों से भारत के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2025 में केवल 1.4% की वृद्धि होने का अनुमान है, जो वर्ष 2024 में दर्ज 4% वृद्धि की तुलना में एक तीव्र मंदी दर्शाता है।
- GCP वर्ष 2001 में स्थापित एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य वैश्विक कार्बन चक्र और उस पर मानव गतिविधियों के प्रभाव से संबंधित ज्ञान का अध्ययन तथा एकीकरण करना है।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट 2025 अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- भारत के उत्सर्जन रुझान: वर्ष 2024 में 3.19 बिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2025 में भारत का उत्सर्जन 3.22 बिलियन टन होने का अनुमान है।
- भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2.2 टन/वर्ष है, जो 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में दूसरा सबसे कम है। कोयला भारत के CO₂ उत्सर्जन का प्राथमिक स्रोत बना हुआ है।
- भारत 3.2 बिलियन टन वार्षिक कार्बन उत्सर्जन (2024) के साथ तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है, जिसके बाद अमेरिका (4.9 बिलियन टन) और चीन (12 बिलियन टन) का स्थान है।
- वर्ष 2005-2014 के बीच भारत की वार्षिक उत्सर्जन वृद्धि औसतन 6.4% रही, लेकिन वर्ष 2015-2024 के दौरान यह घटकर 3.6% रह गई है, जो कार्बन तीव्रता में सुधार और नवीकरणीय क्षमता के विस्तार को दर्शाता है।
- वैश्विक उत्सर्जन रुझान: जीवाश्म ईंधन से वैश्विक CO₂ उत्सर्जन 1.1% बढ़कर इस वर्ष 38.1 बिलियन टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचने का अनुमान है।
- वर्ष 2025 में वैश्विक जीवाश्म CO₂ उत्सर्जन सभी प्रमुख ईंधनों में बढ़ रहा है, जिससे कोयले में 0.8%, तेल में 1% और प्राकृतिक गैस में 1.3% की वृद्धि होगी।
- वर्षों से जलवायु कार्यवाही के बावजूद, वैश्विक उत्सर्जन में कमी शुरू नहीं हुई है।
- भूमि-उपयोग परिवर्तन (निर्वनीकरण, क्षरण) से CO₂ उत्सर्जन में हल्की गिरावट होने का अनुमान है। हालाँकि, कुल वैश्विक CO₂ उत्सर्जन (जीवाश्म ईंधन + भूमि उपयोग) लगभग 42 बिलियन टन पर स्थिर बना हुआ है, जो वर्ष 2024 के समान है।
- कार्बन बजट और जलवायु जोखिम: अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि कार्बन बजट (अधिकतम CO₂ जो हम 1.5°C से नीचे तापमान बनाए रखते हुए उत्सर्जित कर सकते हैं) लगभग समाप्त हो चुका है तथा केवल 170 बिलियन टन CO₂ शेष रह गया है (वर्ष 2025 के स्तर पर लगभग चार वर्षों का उत्सर्जन)।
- वैज्ञानिकों का कहना है कि वर्तमान उत्सर्जन गति के साथ 1.5°C सीमा के भीतर रहना अब यथार्थवादी नहीं है तथा जलवायु परिवर्तन पहले ही भूमि और महासागर के कार्बन सिंक को कमज़ोर कर रहा है, जिससे CO₂ को अवशोषित करने की उनकी क्षमता घट रही है।
भारत की उत्सर्जन प्रोफाइल
- वर्ष 2024 में UNFCCC को सौंपी गई भारत की चौथी द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (BUR-4) में वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2020 में कुल ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में 7.93% की गिरावट दर्ज की गई।
- भूमि उपयोग, भूमि-उपयोग परिवर्तन और वनों (LULUCF) को छोड़कर, भारत का उत्सर्जन 2,959 मिलियन टन CO₂e (कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य, GHG के प्रभाव को मापने की एक इकाई) था।
- LULUCF को शामिल करने पर भारत का निवल उत्सर्जन 2,437 मिलियन टन CO₂e रहा।
- ऊर्जा क्षेत्र कुल उत्सर्जन का 75.66% हिस्सा था, जबकि भूमि आधारित गतिविधियों ने लगभग 522 मिलियन टन CO₂ अवशोषित किया, जिससे राष्ट्रीय उत्सर्जन का लगभग 22% हिस्सा संतुलित हुआ।
भारत में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि धीमी होने के कारक कौन-कौन से हैं?
- मौसम संबंधी परिस्थितियों की भूमिका: वर्ष 2025 में मज़बूत और समय से पहले आने वाले मानसून ने शीतलन की आवश्यकता कम कर दी और सिंचाई की मांग भी घटाई, जिससे विद्युत उत्पादन पर दबाव कम हुआ तथा जीवाश्म ईंधन आधारित उत्सर्जन की वृद्धि धीमी रही।
- नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार: सौर और पवन ऊर्जा के तेज़ी से बढ़ते उत्पादन ने ग्रिड में अधिक स्वच्छ विद्युत जोड़ी, जिससे कोयले पर निर्भरता कम हुई तथा CO₂ उत्सर्जन नियंत्रित रहा।
- अंतर्राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (IRENA) के नवीकरणीय ऊर्जा सांख्यिकी 2025 के अनुसार, भारत कुल नवीकरणीय क्षमता में विश्व स्तर पर चौथे स्थान पर, पवन ऊर्जा में चौथे स्थान पर तथा सौर ऊर्जा में तीसरे स्थान पर है, जो इसके ऊर्जा परिवर्तन के पैमाने और गति को दर्शाता है।
- भारत की कुल स्थापित विद्युत क्षमता (484.82 गीगावाट) में नवीकरणीय ऊर्जा का योगदान अब 50.07% है, जिससे COP26 गैर-जीवाश्म लक्ष्य निर्धारित समय से पाँच वर्ष पहले ही प्राप्त हो गया है।
- गैर-जीवाश्म क्षमता बढ़कर 242.8 गीगावाट हो गई है, जिससे भारत वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट के लक्ष्य की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है।
- कोयला उपभोग के रुझान: वर्ष 2025 में कोयले के उपयोग में केवल मामूली वृद्धि हुई और भारत के विद्युत क्षेत्र के CO₂ उत्सर्जन में 2025 की पहली छमाही में मज़बूत स्वच्छ ऊर्जा वृद्धि और कम समग्र बिजली मांग के कारण वर्ष-दर-वर्ष 1% की गिरावट आई।
- कम शीतलन आवश्यकताओं और उच्च नवीकरणीय उत्पादन ने भारत को कोयले की खपत में होने वाली सामान्य वृद्धि से बचने में मदद की, जो आमतौर पर उत्सर्जन को बढ़ाती है।
- आर्थिक और संरचनात्मक कारक: ऊर्जा दक्षता और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में सुधार ने अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को कम कर दिया है, जबकि बड़ा आर्थिक आधार स्वाभाविक रूप से उत्सर्जन में प्रतिशत वृद्धि को धीमा कर देता है।
भारत की दीर्घकालिक निम्न उत्सर्जन रणनीतियाँ (LT-LEDS) क्या हैं?
भारत ने "CLIMATE" परिवर्तन से निपटने के लिये एक स्थायी मार्ग तैयार करने हेतु एक LT-LEDS योजना तैयार की है। भारत की LT-LEDS में सात प्रमुख रणनीतिक परिवर्तन शामिल हैं, अर्थात्:
- C - स्वच्छ बिजली: राष्ट्रीय विकास आवश्यकताओं के अनुरूप बिजली प्रणालियों का कम कार्बन विकास।
- L- निम्न-कार्बन परिवहन: एक एकीकृत, कुशल और समावेशी निम्न-कार्बन परिवहन प्रणाली का निर्माण।
- I – समावेशी शहरी अनुकूलन: जलवायु-लचीले शहरी डिज़ाइन, ऊर्जा-कुशल इमारतों और टिकाऊ शहरीकरण को बढ़ावा देना।
- M - विनिर्माण और उद्योग डीकार्बोनाइजेशन: कुशल, नवीन, कम उत्सर्जन औद्योगिक प्रणालियों के माध्यम से उत्सर्जन से आर्थिक विकास को अलग करना।
- A - वायुमंडलीय CO₂ निष्कासन: CO₂ निष्कासन का स्तर बढ़ाना और कठिन क्षेत्रों से निपटने के लिये इंजीनियरिंग समाधान।
- T - वृक्ष एवं वनस्पति संवर्द्धन: पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक विचारों के साथ वन और वनस्पति आवरण का विस्तार करना।
- E - नेट-ज़ीरो के लिये आर्थिक पथ: कम कार्बन विकास हेतु आर्थिक और वित्तीय ढाँचे को मज़बूत करना और वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो में परिवर्तन करना।
निष्कर्ष
भारत की उत्सर्जन में कमी उत्साहजनक है, लेकिन वैश्विक उत्सर्जन में वृद्धि और लगभग समाप्त हो चुका 1.5°C कार्बन बजट बेलेम में COP30 की तात्कालिकता को बढ़ा देता है। भारत की स्वच्छ ऊर्जा की गति को बनाए रखना तथा मज़बूत वैश्विक कार्रवाई सुनिश्चित करना भविष्य के जलवायु जोखिमों को सीमित करने के लिये महत्त्वपूर्ण होगा।
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प्रश्न. चर्चा कीजिये कि किस प्रकार भारत का तेज़ी से बढ़ता नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार इसके उत्सर्जन पथ को नया आकार दे रहा है और दीर्घकालिक जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मदद कर रहा है। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट रिपोर्ट 2025, भारत के उत्सर्जन के बारे में क्या कहती है?
भारत के जीवाश्म ईंधन CO₂ उत्सर्जन में केवल 1.4% की वृद्धि होने की उम्मीद है, जो लगभग 3.22 बिलियन टन तक पहुँच जाएगा।
2. आर्थिक विकास के बावजूद भारत का उत्सर्जन धीमा क्यों हो रहा है?
मज़बूत नवीकरणीय विस्तार, बेहतर ऊर्जा दक्षता, स्वच्छ प्रौद्योगिकियाँ तथा मज़बूत मानसून के कारण शीतलन की कम मांग।
3. भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता कितनी महत्त्वपूर्ण है?
वर्ष 2025 तक नवीकरणीय ऊर्जा कुल स्थापित क्षमता का 50.07% होगी, गैर-जीवाश्म क्षमता 242.8 गीगावाट तक पहुँच गई है।
4. भारत के CO₂ उत्सर्जन में किस क्षेत्र का प्रभुत्व बना हुआ है?
कोयला सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता बना हुआ है, हालाँकि उच्च नवीकरणीय उत्पादन के कारण वर्ष 2025 की शुरुआत में विद्युत क्षेत्र के उत्सर्जन में 1% की गिरावट आई है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रीलिम्स
प्रश्न. निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2019)
- कार्बन मोनोऑक्साइड
- मीथेन
- ओज़ोन
- सल्फर डाइऑक्साइड
फसल/बायोमास अवशेषों के जलने के कारण उपर्युक्त में से कौन-सा वायुमंडल में उत्सर्जित होता है?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (d)
प्रश्न. यू.एन.ई.पी. द्वारा समर्थित ‘कॉमन कार्बन मेट्रिक’को किसलिये विकसित किया गया है? (2021)
(a) संपूर्ण विश्व में निर्माण कार्यों के कार्बन पदचिह्न का आकलन करने के लिये।
(b) कार्बन उत्सर्जन व्यापार में विश्व भर में वाणिज्यिक कृषि संस्थाओं के प्रवेश हेतु अधिकार प्रदान करने के लिये।
(c) सरकारों को अपने देशों द्वारा किये गए समग्र कार्बन पदचिह्न के आकलन हेतु अधिकार देने के लिये।
(d) किसी इकाई समय (यूनिट टाइम) में विश्व में जीवाश्म ईंधनों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले समग्र कार्बन पदचिह्न के आकलन के लिये।
उत्तर: (a)
प्रश्न. “मोमेंटम फॉर चेंज: क्लाइमेट न्यूट्रल नाउ” यह पहल किसके द्वारा शुरू की गई थी? (2018)
(a) जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल
(b) UNEP सचिवालय
(c) UNFCCC सचिवालय
(d) विश्व मौसम विज्ञान संगठन
उत्तर: (c)
मेन्स
प्रश्न. एक व्यक्ति 10 मीटर उत्तर की ओर चलता है, फिर दाएँ मुड़ता है और 5 मीटर चलता है, फिर दाएँ मुड़ता है और 10 मीटर चलता है। अब वह प्रारंभिक बिंदु से कहाँ है? (2023)


