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डेली न्यूज़

  • 17 Apr, 2024
  • 79 min read
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भारतीय राजनीति

हिरासत में होने वाली मौतों पर सख्त कदम उठाने की आवश्यकता

प्रिलिम्स के लिये:

हिरासत में यातना, मानवाधिकार, हिरासत में मौत, अनुच्छेद 21, IPC, CrPC

मेन्स के लिये:

हिरासत में यातना और हिरासत में मौत, पुलिस व्यवस्था में सुधार, प्रौद्योगिकी और पूछताछ, हिरासत में मौत से बचने के उपाय

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय ने हिरासत में मौत के मामलों में आरोपित पुलिस अधिकारियों की ज़मानत याचिकाओं पर विचार करते समय "अधिक कठोर दृष्टिकोण" अपनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।

हिरासत में मौत क्या है?

  • परिचय:
    • हिरासत में मृत्यु ऐसी मृत्यु को संदर्भित करती है, जो उस समय होती है जब कोई व्यक्ति विधि प्रवर्तन अधिकारियों की अभिरक्षा में होता है। यह विभिन्न कारणों से हो सकता है, जैसे कि अत्यधिक बलप्रयोग, उपेक्षा या अधिकारियों द्वारा दुर्व्यवहार
    • भारत के विधि आयोग के अनुसार, गिरफ्तार किये गए या हिरासत में रखे गए व्यक्ति के विरुद्ध एक लोक सेवक द्वारा किया गया अपराध हिरासत में यातना के समान है।
  • हिरासत में मौत के प्रकार:
    • पुलिस हिरासत में मृत्यु: पुलिस हिरासत में मृत्यु अत्यधिक बल, यातना, चिकित्सा देखभाल से इनकार, या अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार या आकस्मिक कारण से हो सकती है।
    • न्यायिक हिरासत में मृत्यु: न्यायिक हिरासत में मृत्यु भीड़भाड़, चिकित्सा सुविधाओं की कमी, कैदी की हिंसा या आत्महत्या के कारण हो सकती है।
    • सेना या अर्द्धसैनिक बलों की हिरासत में मृत्यु: यह यातना या न्यायेत्तर हत्याओं के माध्यम से हो सकती है।

पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत:

पहलू

पुलिस हिरासत

न्यायिक हिरासत

हिरासत का स्थान

किसी पुलिस स्टेशन के हवालात या किसी जाँच एजेंसी के पास

मजिस्ट्रेट की हिरासत में जेल 

न्यायालय के समक्ष उपस्थिति

24 घंटे के भीतर संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष

जब तक न्यायालय से ज़मानत का आदेश नहीं आ जाता

प्रारंभ

शिकायत मिलने या FIR दर्ज करने के बाद किसी पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तारी के समय

सरकारी वकील द्वारा न्यायालय को संतुष्ट करने के बाद जाँच के लिये आरोपी की हिरासत आवश्यक है।

अधिकतम अवधि

24 घंटे (उपयुक्त मजिस्ट्रेट द्वारा 15 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है)

आजीवन कारावास, मृत्यु या कम से कम दस वर्ष के कारावास से दंडनीय अपराधों के लिये 90 दिन; अन्य अपराधों के लिये 60 दिन

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हिरासत में होने वाली मौतों पर रोक लगाना क्यों आवश्यक है?

  • यह विधि द्वारा उचित व्यवहार किये जाने के व्यक्तियों के मूल अधिकार के विरुद्ध है।
  • भारत संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर (UNCAT) का एक हस्ताक्षरकर्त्ता है, जो न्यायिक और पुलिस हिरासत में लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार पर नियंत्रण लगाता है।
  • हिरासत में यातना को रोकने के लिये सख्त नियमों के अभाव में, भारत को विजय माल्या जैसे लंबित न्यायिक कार्यवाही से बचने हेतु दूसरे देशों में शरण लेने वाले व्यक्तियों के प्रत्यर्पण में चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है।
    • आर्थिक अपराधी प्रायः अपने प्रत्यर्पण मामलों में भारत में हिरासत में यातना पर नियमों में लचीलेपन का हवाला देते हैं।
  • हिरासत में यातना, हिरासत में लिये गए व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को हानि पहुँचा सकती है क्योंकि पुलिस उनकी भावनाओं की परवाह नहीं करती है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें क्रूर व्यवहार, यौन शोषण जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है साथ ही समाज उनसे घृणा करने लगता है। उदाहरण: वर्ष 1972 में मथुरा में हिरासत में बलात्कार का मामला।

हिरासत में मौत से संबंधित संवैधानिक और विधिक ढाँचा क्या है?

  • संवैधानिक प्रावधान:
    • भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को सुनिश्चित करता है, जिसमें यातना व अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या सज़ा से मुक्त होने का अधिकार शामिल है।
    • अनुच्छेद 20 किसी आरोपी व्यक्ति को मनमानी और अत्यधिक सज़ा के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी या कंपनी या निगम के समान विधिक इकाई हो। इसके अंतर्गत तीन प्रावधान शामिल हैं:
      • जिनमें अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण:- (अनुच्छेद 20(1), दोहरे दंड से सुरक्षा:- अनुच्छेद 20(2) और आत्म-अपराध के विरुद्ध सुरक्षा:- अनुच्छेद 20(3) से संबंधित प्रावधान शामिल हैं।
      • इसके अतिरिक्त, सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में न्यायालय ने कहा कि राज्य किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसका नार्को-विश्लेषण, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग परीक्षण नहीं कर सकता है।
  • विधिक सुरक्षा:
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 24 में यह प्रावधान है, कि जाँच एजेंसियों की धमकी के आगे झुककर आरोपी द्वारा की गई सभी स्वीकारोक्ति न्यायालय में स्वीकार्य नहीं होगी।
      • यह धारा मुख्य रूप से आरोपी को उसकी इच्छा के विरुद्ध बल प्रयोग के कारण बयान देने से रोकने का कार्य करती है।
    • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 330 और 331, किसी भी व्यक्ति से अपराध स्वीकारोक्ति या सूचना प्राप्त करने के लिये स्वेच्छा से चोट या गंभीर चोट पहुँचाना अपराध मानती है।
    • सुरक्षा उपायों को शामिल करने के लिये वर्ष 2009 में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 41 में संशोधन किया गया था, जिसमें:
      • पूछताछ के लिये गिरफ्तारियों और हिरासत में लेने के लिये उचित आधार एवं दस्तावेज़ी प्रक्रियाओं को निर्धारित किया गया।
      • गिरफ्तारियों को परिवार, दोस्तों और जनता के लिये पारदर्शी बनाया जाता है तथा विधिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से सुरक्षा प्रदान की जाती है।

हिरासत में यातना के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय क्या हैं?

  • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विधि, 1948:
    • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विधि में एक प्रावधान है जो लोगों को यातना और अन्य बलपूर्वक कार्यवाहियों से संरक्षित करता है।
  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945:
  • नेल्सन मंडेला नियम, 2015:
    • नेल्सन मंडेला नियमों को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2015 में कैदियों के साथ अंतर्निहित गरिमा के साथ व्यवहार करने एवं यातना तथा अन्य दुर्व्यवहार पर रोक लगाने के लिये अपनाया गया था।
  • यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAT): 
    • यह संयुक्त राष्ट्र की एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है जिसका उद्देश्य विश्वभर में यातना और क्रूर, अमानवीय, या अपमानजनक कृत्य या सज़ा के अन्य कृत्यों को रोकना है।

हिरासत में यातना से निपटने के लिये उपाय:

  • कानूनी प्रणालियों को सुदृढ़ बनाना:
    • सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह मामला, 2006 के आदेशों के समान व्यापक कानून स्थापित करना, जो विशेष रूप से हिरासत में यातना को अवैध बनाता है।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था में बेहतर सुधार हेतु जाँच और कानून व्यवस्था के कार्यों को पृथक करने, राज्य सुरक्षा आयोग (SSC) की स्थापना करने का निर्देश दिया, जिसमें सिविल सोसाइटी के सदस्य होंगे तथा एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन किया जाएगा।
    • हिरासत में यातना के आरोपों की त्वरित और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करना।
    • निष्पक्ष और शीघ्र सुनवाई के माध्यम से अपराधियों को जवाबदेह बनाना।
  • पुलिस सुधार और संवेदनशीलता:
    • मानवाधिकारों और गरिमा के सम्मान पर ज़ोर देने हेतु पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ाना।
    • कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भीतर जवाबदेही, व्यावसायिकता और सहानुभूति की संस्कृति को बढ़ावा देना।
    • हिरासत में यातना के मामलों की प्रभावी ढंग से निगरानी और समाधान करने के लिये निरीक्षण व्यवस्था (oversight mechanism) की स्थापना करना।
  • नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठनों को सशक्त बनाना:
    • हिरासत में यातना के पीड़ितों की सक्रिय रूप से समर्थन करने के लिये नागरिक समाज संगठनों को प्रोत्साहित करना।
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को कथित मानवाधिकार उल्लंघन की तारीख से एक वर्ष के बाद भी किसी मामले की जाँच करने की अनुमति दी जानी चाहिये।
      • सशस्त्र बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों में उचित उपायों के साथ इसके अधिकार क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिये।
    • पीड़ितों व उनके परिवारों को सहायता और कानूनी सहायता प्रदान करना।
    • निवारण और न्याय पाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार निकायों एवं संगठनों के साथ सहयोग करना।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न.1 मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्राख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय-सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)

प्रश्न.2 भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को

सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)


शासन व्यवस्था

भारत में मेडिकल शिक्षा की स्थिति

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, पैरामेडिक्स, रूस-यूक्रेन संघर्ष

मेन्स के लिये:

भारत में मेडिकल  शिक्षा संबंधी चुनौतियाँ, भारत में मेडिकल  शिक्षा में प्रस्तावित सुधार

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

यूक्रेन-रूस युद्ध ने यूक्रेन में भारतीय मेडिकल छात्रों के लिये कठिन समय उत्पन्न कर दिया है। फरवरी, 2022 में रूस-यूक्रेन संघर्ष के युद्ध में परिवर्तित होने के बाद यूक्रेन में पढ़ रहे लगभग 18000 भारतीय मेडिकल छात्रों को घर लौटने के लिये मजबूर होना पड़ा।

  • हालाँकि एक अपवाद के रूप में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने इनमें से 4,000 छात्रों को, जो अपने अंतिम सेमेस्टर में थे, घर पर अपनी इंटर्नशिप पूरी करने की अनुमति दी।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से लगभग 70% वापस लौटे MBBS छात्र अब सर्बिया, किर्गिज़स्तान, उज़्बेकिस्तान और जॉर्जिया के विश्वविद्यालयों से पढ़ाई कर रहे हैं।
  • ये कॉलेज मेडिकल शिक्षा प्राप्त करने के लिये भारत से छात्रों के नए बैचों को भी आकर्षित कर रहे हैं।

भारत में मेडिकल शिक्षा से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • सीटों की सीमित संख्या: मेडिकल कॉलेज की सीटें अभी भी उम्मीदवारों की संख्या से काफी कम हैं। मेडिकल कॉलेज की सीटों का उम्मीदवारों से अनुपात लगभग 20:1 है।
  • उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि: नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एज़ुकेशनल प्लानिंग द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार, विगत 10 वर्षों में परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या लगभग 3 गुना बढ़ गई है, जबकि इनमें से केवल 0.25% ही शीर्ष कॉलेजों में पहुँच पाते हैं।
  • मेडिकल कॉलेजों का असमान वितरण: भारत में मेडिकल कॉलेज शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में एक शून्यक (vacuum) उत्पन्न करता है।
  • निजी मेडिकल कॉलेजों का अधिक शुल्क: सरकारी संस्थान शुल्क और शिक्षा गुणवत्ता के मामले में अधिक किफायती हैं।
  • पुराना पाठ्यक्रम: भारत में कई मेडिकल कॉलेजों का पाठ्यक्रम पुराना है और वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों के अनुरूप नहीं है। इससे मेडिकल कॉलेजों में छात्र सीखे गए कौशल और नैदानिक ​​अभ्यास में आवश्यक कौशल के बीच अंतर उत्पन्न होता है।
  • बुनियादी ढाँचे की कमी: भारत में कई मेडिकल कॉलेजों में उच्च गुणवत्ता वाली चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने हेतु आवश्यक बुनियादी ढाँचे की कमी है। इसमें आधुनिक प्रयोगशालाएँ उन्नत चिकित्सा उपकरण और प्रौद्योगिकी तक पहुँच शामिल है।
  • व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अपर्याप्त ज़ोर: भारत में चिकित्सा शिक्षा प्रायः सिद्धांत-आधारित है, जिसमें व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अपर्याप्त ज़ोर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप डॉक्टर पर्याप्त व्यावहारिक अनुभव के बिना स्नातक हो सकते हैं।
  • खराब चिकित्सा अनुसंधान: अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत में चिकित्सा अनुसंधान पर कम ज़ोर दिया जाता है। भारत में अधिकतर डॉक्टर अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी करना पसंद करते हैं, इसलिये शोध की उपेक्षा की जाती है।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC):

  • NMC का गठन संसद के एक अधिनियम द्वारा किया गया है, जिसे राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के रूप में जाना जाता है।
  • NMC भारत में चिकित्सा शिक्षा और अभ्यास के शीर्ष नियामक के रूप में कार्य करता है।
  • स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा में उच्चतम मानकों को बनाए रखने के लिये प्रतिबद्ध, NMC संपूर्ण देश में गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण का वितरण सुनिश्चित करता है।

भारत में मेडिकल शिक्षा में सुधार हेतु क्या पहलें की गई हैं?

  • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग: अकुशल और अपारदर्शी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) में पूरी तरह से बदलाव करते हुए, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की स्थापना की गई है। पेशेवर ईमानदारी, अनुभव और उत्कृष्टता के उच्चतम मानकों वाले इस आयोग की प्राथमिकता मेडिकल शिक्षा में सुधार करना है।
    • इन सुधारों को आगे बढ़ाने के लिये सक्षम व्यक्तियों का सावधानीपूर्वक चयन किया गया है।
  • सीटों की संख्या बढ़ाना: निजी-सार्वजनिक भागीदारी प्रारूप का प्रयोग करके सरकार ने ज़िला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में परिवर्तित करके सीटों की संख्या बढ़ाई है।
  • शुल्कों/फीस का विनियमन: राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम में निजी मेडिकल कॉलेजों और डीम्ड विश्वविद्यालयों में 50% सीटों पर फीस व अन्य सभी शुल्कों को विनियमित करने का प्रावधान है। NMC इस संबंध में दिशानिर्देश तैयार कर रही है।
  • एक देश एक परीक्षा: 'एक देश, एक परीक्षा, एक योग्यता' प्रणाली तथा एक सामान्य परामर्श प्रणाली सुनिश्चित करते हुए वर्ष 2016 में MBBS नामांकन के लिये राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) शुरू की गई थी।
  • न्यूनतम मानक अनिवार्यता: यह मेडिकल कॉलेजों की स्थापना के लिये न्यूनतम मानक अनिवार्यता (MSR) पर संपूर्ण नियमों को सुव्यवस्थित करने से संबंधित है।
  • नियमित गुणवत्ता मूल्यांकन: मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है, और इसकी रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध होनी चाहिये। गुणवत्ता नियंत्रण उपाय के रूप में NMC सभी मेडिकल स्नातक के लिये एक सामान्य निकास परीक्षा का आयोजित करता है।

भारत में मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिये क्या सिफारिशें की गई हैं?

  • नीति आयोग ने देश के दूरदराज़ के क्षेत्रों में निजी कॉलेजों को ज़िला अस्पतालों से संबद्ध करने का प्रस्ताव रखा है।
  • पैरामेडिक्स और नर्सों के कौशल को बेहतर बनाने से चिकित्सा क्षेत्र की गैर-विशेषज्ञ मांगों को पूरा करने में सहायता मिलेगी व डॉक्टरों की कमी की समस्या का समाधान किया जा सकेगा।
  • उचित प्रोत्साहन के साथ निजी क्षेत्र को मेडिकल कॉलेज स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करने के साथ-साथ मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिये सार्वजनिक निवेश को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • चिकित्सा शिक्षा केंद्रों के विस्तार के लिये मौज़ूदा बुनियादी ढाँचे का इष्टतम उपयोग।
  • विशेषज्ञों के लिये सीटों की व्यवस्था के लिये व्यापक भारत-विशिष्ट दृष्टिकोण अपनाना।
  • मेडिकल कॉलेजों में 'घोस्ट फैकल्टी' (ऐसे शिक्षक जो अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध हैं लेकिन उन्हें वेतन दिया जाता है) की व्यवस्था पर प्रतिबंध लगाने के लिये भर्ती प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना आवश्यक है।
  • समस्याओं की शीघ्र पहचान करके उनका समाधान करने के लिये कॉलेजों का नियमित निष्पादन एवं मूल्यांकन।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में चिकित्सा शिक्षा से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं और हालिया रूस-यूक्रेन संकट का इस पर क्या प्रभाव पड़ा है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय संविधान के निम्नलिखित में से कौन-से प्रावधान शिक्षा पर प्रभाव डालते हैं? (2012)

  1. राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
  2. ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकाय
  3. पंचम अनुसूची
  4. षष्ठ अनुसूची
  5. सप्तम अनुसूची

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3, 4 और 5
(c) केवल 1, 2 और 5
(d) 1, 2, 3, 4 और 5

उत्तर: (d)


सामाजिक न्याय

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण

प्रिलिम्स के लिये:

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, दहेज निषेध अधिनियम 1961

मेन्स के लिये:

भारत में घरेलू हिंसा का समाधान करने वाले कानूनी ढाँचे, सामाजिक मानदंडों की भूमिका

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act of 2005) की सार्वभौमिकता पर बल देते हुए कहा कि ये सभी महिलाओं पर लागू होता है, चाहे उनकी धार्मिक या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

  • उच्च न्यायालय ने एक पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा दायर याचिका को खारिज़ करते हुए ये टिप्पणियाँ कीं।
  • याचिका में अपीलीय न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसने पत्नी द्वारा दायर घरेलू हिंसा की शिकायत को बहाल कर दिया था।

भारत में घरेलू हिंसा कितनी व्यापक है?

  • भारत में 32% विवाहित महिलाओं ने बताया कि उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने पतियों द्वारा शारीरिक, यौन हिंसा या भावनात्मक हिंसा का अनुभव किया है।
  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (National Family Health Survey-5), 2019-2021 के अनुसार, “18 से 49 वर्ष की आयु के बीच की 29.3% विवाहित भारतीय महिलाओं ने घरेलू/यौन हिंसा का सामना किया है; 18 से 49 वर्ष की 3.1% गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है।
    • यह तो केवल महिलाओं द्वारा दर्ज़ किये गये मामलों की संख्या है। अक्सर ऐसे कई लोग होते हैं, जो शिकायत करने कभी पुलिस तक नहीं पहुँच पाते हैं।
  • NFHS आँकड़ों के मुताबिक, वैवाहिक हिंसा की शिकार 87% विवाहित महिलाएँ मदद नहीं मांगती हैं।

Domestic_Violence_in_India

घरेलू हिंसा में योगदान देने वाले कारक क्या हैं?

  • लैंगिक असमानताएँ:
    • वैश्विक सूचकांकों में परिलक्षित भारत का व्यापक लैंगिक असमानता पुरुष प्रधानता और अधिकार की भावना में योगदान देता है।
    • पुरुष प्रभुत्व जताने और अपनी कथित श्रेष्ठता को मज़बूत दिखाने के लिये हिंसा का प्रयोग कर सकते हैं।
  • मादक पदार्थों का सेवन:
    • शराब या नशीली दवाओं का दुरुपयोग जो निर्णय को बाधित करता है और हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ाता है। नशा करने से संकोच समाप्त हो जाता है और आपसी झगड़े बढ़कर शारीरिक या मौखिक दुर्व्यवहार में परिवर्तित हो जाते हैं।
  • दहेज प्रथा:
    • घरेलू हिंसा और दहेज प्रथा के बीच एक मज़बूत संबंध होता है, दहेज की अपेक्षाएँ पूरी न होने पर हिंसा की घटनाएँ बढ़ जाती हैं।
      • दहेज पर रोक लगाने वाले कानून जैसे दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के बावजूद, दुल्हन को जलाने और दहेज से संबंधित हिंसा के मामले जारी हैं।
    • वित्तीय तनाव और निर्भरता की गतिशीलता जो संबंधों में तनाव को बढ़ाती है।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक मानक:
    • पारंपरिक मान्यताएँ एवं प्रथाएँ लैंगिक भूमिकाओं और घरेलू शक्ति असंतुलन को कायम रखती हैं।
    • पितृसत्तात्मक व्यवस्थाएँ महिलाओं पर पुरुष सत्ता और नियंत्रण को प्राथमिकता देती हैं। हिंसा अक्सर महिलाओं के शरीर, श्रम और प्रजनन अधिकारों पर स्वामित्व की धारणा से उत्पन्न होती है, जो प्रभुत्व की भावना को मज़बूत करती है।
      • असुरक्षा या अधिकार से उपजी एक साथी पर प्रभुत्व और नियंत्रण की इच्छा।
    • सामाजिक अनुकूलन अक्सर पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को मज़बूत करते हुए, महिलाओं के लिये विवाह को अंतिम लक्ष्य के रूप में चित्रित करती है।
    • भारतीय संस्कृति अक्सर उन महिलाओं का गौरवान्वित करती है जो सहिष्णुता और समर्पण का प्रदर्शन करती हैं, उन्हें अपमानजनक संबंधों को छोड़ने से हतोत्साहित करती हैं।
  • सामाजिक आर्थिक तनाव:
    • गरीबी और बेरोज़गारी, परिवारों के भीतर अतिरिक्त तनाव उत्पन्न करती है, जिससे हिंसक व्यवहार की संभावना बढ़ जाती है।
  • मानसिक स्वास्थ्य मुद्दे:
    • अनुपचारित मानसिक स्वास्थ्य स्थितियाँ जैसे अवसाद, चिंता या व्यक्तित्व विकार जो अस्थिर व्यवहार में योगदान करते हैं।
  • शिक्षा और जागरूकता का अभाव:
    • स्वस्थ संबंधों की गतिशीलता और अधिकारों की सीमित समझ, जिसके कारण अपमानजनक व्यवहार को स्वीकार या सामान्य किया जा सकता है।
      • घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा या उपलब्ध सहायता सेवाओं के बारे में अज्ञानता।
    • कई महिलाओं में अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी होती है और वे अपनी अधीनस्थ स्थिति को स्वीकार करती हैं, जिससे कम आत्मसम्मान व अधीनता का चक्र कायम रहता है।

भारत में घरेलू हिंसा को कौन-से कानूनी ढाँचे संबोधित करते हैं?

कानूनी ढाँचा

विवरण 

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDVA)

  • इसका उद्देश्य महिलाओं को घरेलू हिंसा, जिसमें शारीरिक, भावनात्मक, यौन और आर्थिक शोषण शामिल है, से बचाना है। यह सुरक्षा, निवास और राहत के लिये विभिन्न आदेश प्रदान करता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 (धारा 498A)

  • यह किसी महिला पर पति या उसके सबंधियों द्वारा क्रूरता को दर्शाता है, साथ ही क्रूरता, उत्पीड़न या यातना के कृत्यों को अपराध घोषित करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872

  • यह अधिनियम विशेष रूप से घरेलू हिंसा पर केंद्रित नहीं है, फिर भी यह अधिनियम घरेलू हिंसा से संबंधित मामलों में प्रासंगिक कानूनी कार्यवाही में साक्ष्य हेतु नियम प्रदान करता है।

दहेज निषेध अधिनियम, 1961

  • यह दहेज संबंधी अपराधों को संबोधित करता है। इसके अनुसार, दहेज देना या लेना अपराध है।

दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (धारा 354A)

  • यौन उत्पीड़न से संबंधित नए अपराधों को शामिल करने के लिये IPC में संशोधन किया गया। यह घरेलू हिंसा के मामलों में प्रासंगिक है।

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 

  • बच्चों के अधिकारों और कल्याण की रक्षा करता है। यह तब प्रासंगिक है जब बच्चे घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं।

राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990

  • महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा हेतु राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) की स्थापना की गई। NCW घरेलू हिंसा को संबोधित करने में भूमिका निभाता है।

बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006

  • इसका उद्देश्य बाल विवाह को रोकना है। यह तब प्रासंगिक जब बाल वधुओं को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है।

समलैंगिक संबंधों के संदर्भ में घरेलू दुर्व्यवहार

  • वर्तमान कानून मुख्य रूप से विषमलैंगिक संबंधों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे समलैंगिक युगल बिना कानून के घरेलू दुर्व्यवहार के प्रति संवेदनशील होते हैं।
  • समलैंगिक विवाहों की मान्यता मौज़ूदा कानूनों को प्रभावित कर सकती है, संभावित रूप से समलैंगिक युगलों को सुरक्षा प्रदान करके, इन संबंधों में घरेलू दुर्व्यवहार को संबोधित कर सकती है।

वैश्विक पहलें:

  • महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (CEDAW):
    • वर्ष 1979 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया, CEDAW जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कार्य करता है।
  • महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा (DEVAW):
    • DEVAW, 1993 महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को स्पष्ट रूप से संबोधित करने वाला पहला अंतर्राष्ट्रीय उपकरण था, जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई हेतु एक रूपरेखा प्रदान करता था।
  • सुरक्षित शहर और सुरक्षित सार्वजनिक स्थान:
    • यह पहल यू.एन. वुमेन द्वारा गठित एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं और बालिकाओं (W&G) के खिलाफ यौन उत्पीड़न एवं अन्य प्रकार की हिंसा को रोकना व उसपर प्रतिक्रिया देना है।
    • यह शहरी सरकारों, स्थानीय समुदायों और नागरिक समाज संगठनों के साथ मिलकर कार्य करता है।
  • बीजिंग प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन:
    • वर्ष 1995 का बीजिंग प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन महिलाओं और बालिकाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने तथा प्रतिक्रिया देने के लिये सरकारों द्वारा की जाने वाली विशिष्ट कार्रवाइयों की पहचान करता है।

घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानून लागू करना चुनौतीपूर्ण क्यों है?

  • सामाजिक:
    • पीड़ित प्रायः सामाजिक कलंक, प्रतिशोध के भय या पारिवारिक प्रतिष्ठा की चिंताओं के कारण घरेलू हिंसा की रिपोर्ट नहीं करते हैं। यह चुप्पी अधिकारों हेतु कार्रवाई करना चुनौतीपूर्ण बना देती है।
    • घरेलू हिंसा की घटनाएँ अक्सर कम ही दर्ज़ की जाती हैं। पीड़ित कुछ व्यवहारों को दुर्व्यवहार के रूप में नहीं पहचान पाते हैं या उन्हें सामान्य बना लेते हैं
  • जागरूकता का अभाव:
    • पीड़ितों सहित कई लोग अपने विधिक अधिकारों और उपलब्ध संसाधनों से अनभिज्ञ हैं। पर्याप्त जागरूकता के अभाव में मामलों की रिपोर्ट करना तथा विधिक सहायता प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
  • निर्भरता और आर्थिक कारक:
    • पीड़ितों की अपने साथ दुर्व्यवहार करने वालों पर आर्थिक निर्भरता एक अन्य समस्या है। आर्थिक दुष्परिणामों के भय से वे कानूनी सहायता लेने से बचते हैं।
  • अपर्याप्त कार्यान्वयन और प्रशिक्षण:
    • इस बात की भी काफी संभावना बनती है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों और न्यायिक निकायों में घरेलू हिंसा के मामलों के निपटान के लिये उचित प्रशिक्षण का अभाव हो। ऐसे में कानूनों का असंगत कार्यान्वयन इसके प्रभावी कार्यान्वयन में बाधाएँ उत्पन्न करता है।
  • विधिक बाधाएँ:
    • न्यायालय में घरेलू हिंसा को साबित करने के लिये ठोस प्रमाण की आवश्यकता होती है। गवाहों अथवा भौतिक साक्ष्यों की कमी से मामला कमज़ोर पड़ सकता है।
  • पारिवारिक समस्याएँ:
    • घरेलू हिंसा अक्सर परिवार से संबंधित होती है। विधिक कार्रवाइयों के कारण पारिवारिक रिश्ते खराब होने का विचार कर पीड़ित व्यक्ति विधिक सहायता प्राप्त करने में झिझकते हैं।
  • सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताएँ:
    • घरेलू दुर्व्यवहार की धारणा और इसपर प्रतिक्रिया कई सांस्कृतिक मानदंडों एवं प्रथाओं से प्रभावित होती है।
    • प्रवर्तन रणनीतियों में इन विविधताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिये।

आगे की राह

  • लैंगिक आधार पर भूमिकाओं एवं शक्तियों के संबंध में विचारधाराओं में परिवर्तन लाना एक मूलभूत शर्त है। परस्पर सम्मान को बढ़ावा देने तथा समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक मानसिकता के उन्मूलन के लिये पुरुष-महिलाओं पर केंद्रित पहलें आवश्यक हैं।
  • तदभूति को बढ़ावा देने के लिये कानून प्रवर्तन, सेवा प्रदाताओं और मजिस्ट्रेट जैसे हितधारकों के लिये लैंगिक परिप्रेक्ष्य से प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिये।
  • पूरी न्यायालयी प्रक्रिया के दौरान पीड़ितों को निःशुल्क अथवा कम लागत वाले विधिक सहायता तक पहुँच की सुविधा सुनिश्चित की जानी चाहिये।
  • उत्तरजीवियों के आर्थिक सशक्तीकरण को बढ़ावा देने हेतु रोज़गार संबंधी प्रशिक्षण व वित्तीय साक्षरता कौशल की सुविधा प्रदान की जानी चाहिये।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. घरेलू हिंसा के विरुद्ध भारत में कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक व विधिक चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. प्रायः समाचारों में देखी जाने वाली 'बीजिंग घोषणा और कार्रवाई मंच (बीजिंग डिक्लरेशन ऐंड प्लैटफॉर्म फॉर ऐक्शन)' निम्नलिखित में से क्या है? (2012)

(a) क्षेत्रीय आतंकवाद से निपटने की एक कार्यनीति (स्ट्रैटजी), शंघाई सहयोग संगठन (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन) की बैठक का एक परिणाम
(b) एशिया-प्रशांत क्षेत्र में धारणीय आर्थिक संवृद्धि की एक कार्य-योजना, एशिया-प्रशांत आर्थिक मंच (एशिया-पैसिफिक इकनॉमिक फोरम) के विचार-विमर्श का एक परिणाम
(c) महिला सशक्तीकरण हेतु एक कार्यसूची, संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलन का एक परिणाम
(d) वन्यजीवों के दुर्व्यापार (ट्रैफिकिंग) की रोकथाम हेतु कार्यनीति, पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (ईस्ट एशिया समिट) की एक उद्घोषणा

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. हमें देश में महिलाओं के प्रति यौन-उत्पीड़न के बढ़ते हुए दृष्टांत दिखाई दे रहे हैं। इस कुकृत्य के विरुद्ध विद्यमान विधिक उपबंधों के होते हुए भी, ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस संकट से निपटने के लिये कुछ नवाचारी उपाय सुझाइये। (2014)

प्रश्न. भारत में एक मध्यम-वर्गीय कामकाजी महिला की अवस्थिति को पितृतंत्र (पेट्रिआर्की) किस प्रकार प्रभावित करता है? (2014)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत का वस्तु निर्यात नई ऊँचाईयों पर

प्रिलिम्स के लिये:

भारत के निर्यात की स्थिति, निर्यात का रुझान

मेन्स के लिये:

भारत का निर्यात क्षेत्र, चुनौतियाँ एवं आगे की राह

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों? 

वित्तीय वर्ष 2022-23 की तुलना में मार्च 2024 तक 41.68 बिलियन अमेरिकी डॉलर का उच्चतम माल/वस्तु निर्यात हुआ

निर्यात संबंधी वर्तमान आँकड़े क्या हैं?

  • परिचय:
    • विगत वर्ष की तुलना में 0.67% की गिरावट के बावजूद, वित्त वर्ष 2022-23 की तुलना में मार्च 2024 में भारत का स्तु निर्यात 41.68 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया।
    • दूसरी ओर, इसी अवधि के दौरान आयात 6% गिरकर 57.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
    • वस्तु व्यापार घाटा 15.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक कम हो गया, जो 11 महीनों में सबसे कम है।
  • प्रमुख घटक:
    • सोने के आयात में गिरावट: मार्च में सोने का आयात 53.6% की भारी गिरावट के साथ 1.53 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा।
    • गैर-तेल, गैर-सोना आयात: गैर-पेट्रोलियम, गैर-सोना आयात में कमी ने समग्र गिरावट में योगदान दिया।
    • चाँदी के आयात में वृद्धि: चाँदी का आयात बढ़कर 816.6 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
  • वार्षिक आँकड़ों पर प्रभाव(2023-24):
    • जहाँ पहले दस माह में वस्तु निर्यात औसतन 35.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो अंतिम दो माह में बढ़कर कुल 437.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
    • यह प्रदर्शन पिछले वर्ष प्राप्त किये गए रिकॉर्ड 451.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर से 3.1% कम है।
  • वित्तीय वर्ष 2023-24 के अनुमान:
    • यूक्रेन युद्ध और पश्चिम एशियाई संकट जैसी लगातार वैश्विक चुनौतियों के बावजूद, कुल निर्यात पिछले वर्ष के रिकॉर्ड को पार करने का अनुमान है।
      • भारत का कुल निर्यात (माल + सेवाएँ) 776.68 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है।
      • यह पिछले वित्तीय वर्ष (वित्त वर्ष 2022-23) की तुलना में 0.04% की सकारात्मक वृद्धि को दर्शाता है।
      • वैश्विक चुनौतियों के बावजूद, यह आँकड़ा वित्त वर्ष 2022-23 में दर्ज़ 776.40 बिलियन अमेरिकी डॉलर से थोड़ा अधिक है।

Trade_during_March 2024

  • व्यापारिक निर्यात चालक: व्यापारिक निर्यात वृद्धि में मुख्य योगदानकर्त्ताओं में शामिल हैं:
    • इलेक्ट्रॉनिक सामान: निर्यात 23.64% बढ़कर 29.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
    • औषधि एवं फार्मास्यूटिकल्स: निर्यात 9.67% बढ़कर 27.85 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
    • इंजीनियरिंग सामान: निर्यात 2.13% बढ़कर 109.32 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
  • कृषि जिंसों में सकारात्मक वृद्धि देखी गई:
    • वित्त वर्ष 2023-24 में तंबाकू, फल, सब्ज़ियाँ, मांस, डेयरी उत्पाद, मसाले और तिलहन जैसी कृषि वस्तुओं के निर्यात में सकारात्मक वृद्धि देखी गई।
  • व्यापार घाटे में सुधार:
    • वित्त वर्ष 2023-24 में कुल व्यापार घाटा 35.77% बढ़कर 78.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है।
    • वित्त वर्ष 2022-23 की तुलना में व्यापारिक व्यापार घाटा 9.33% बढ़कर 240.17 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।
  • चालू खाता शेष आउटलुक:
    • मार्च में माल व्यापार घाटा कम होने से वित्त वर्ष 2023-24 की अंतिम तिमाही में चालू खाता शेष के लिये अच्छा संकेत मिलने की आशा है।

भारत के निर्यात को और बढ़ाने के लिये क्या रणनीति होनी चाहिये?

  •  लागत अनुकूलन:
    • भूमि, विद्युत् और पूंजीगत लागत: सरकार को भूमि अधिग्रहण, विद्युत् शुल्क और पूंजी उपलब्धता से जुड़ी लागत संबंधी चुनौतियों का तत्काल समाधान करना चाहिये।
    • मापन (Scale) और दक्षता: मापनीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहित करने से व्यवसायों के लिये लागत संबंधी अक्षमताओं को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
  • प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाना:
    • बुनियादी ढाँचा और रसद: परिवहन नेटवर्क, बंदरगाहों और भंडारण सुविधाओं में सुधार से आपूर्ति शृंखला दक्षता में वृद्धि होगी।
    • श्रम का लचीलापन: श्रम कानूनों को सुव्यवस्थित करना और लचीलापन सुनिश्चित करना, भारतीय कंपनियों को अधिक प्रतिस्पर्द्धी बना सकता है।
    • MSME का समर्थन: सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को मज़बूत करने से समग्र प्रतिस्पर्द्धात्मकता में योगदान मिलेगा।
  •  व्यापार संधियों के माध्यम से बाज़ार तक पहुँच:
    • भारत को अपने निर्यात के लिये बाज़ार पहुँच को सुविधाजनक बनाने हेतु प्रमुख व्यापारिक भागीदारों के साथ सक्रिय रूप से संवाद और व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करना चाहिये।
    • द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संधियाँ वैश्विक स्तर पर भारतीय उत्पादों के लिये नए रास्ते खोल सकती हैं।
  • प्रौद्योगिकी और गुणवत्ता फोकस:
    • अनुसंधान और विकास (R&D) में निवेश करने तथा उन्नत प्रौद्योगिकियों को अपनाने से उत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि होगी।
    • उपभोक्ता का विश्वास प्राप्त करने के लिये गुणवत्ता प्रमाणन और अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करना महत्त्वपूर्ण है।
  • ब्रांड इंडिया को बढ़ावा देना:
    • सरकार और उद्योग निकायों को मिलकर वैश्विक मंच पर "ब्रांड इंडिया" को बढ़ावा देना चाहिये।
    • भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, कुशल कार्यबल और नवीन क्षमताओं को उज़ागर करना अंतर्राष्ट्रीय खरीदारों को आकर्षित करेगा।
  • चाइना प्लस वन रणनीति:
    • बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चीन से अलग अपने विनिर्माण आधार में विविधता लाने के लिये प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
    • भारत स्वयं को निवेश और उत्पादन के लिये एक आकर्षक विकल्प के रूप में स्थापित कर सकता है।
  • इन रणनीतियों को लागू करके, भारत न केवल अपने निर्यात वृद्धि को बनाए रख सकता है, बल्कि आर्थिक समृद्धि और वैश्विक व्यापार गतिशीलता में योगदान करते हुए पिछले रिकॉर्ड को भी पीछे छोड़ सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

वैश्विक बाजार में भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने की संभावनाओं और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये, साथ ही उच्च निर्यात क्षमता वाले प्रमुख क्षेत्रों और टिकाऊ आर्थिक विकास के लिये उनका लाभ उठाने की रणनीतियों पर प्रकाश डालिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. फरवरी 2006 से प्रभावी हुआ SEZ एक्ट, 2005 के कुछ उद्देश्य हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित पर विचार कीजिये:

  1. अवसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) सुविधाओं का विकास
  2.  विदेशी स्रोतों से निवेश को प्रोत्साहन 
  3.  केवल सेवा क्षेत्र में निर्यात को प्रोत्साहन  

 उपर्युक्त में से कौन-सा/से एक्ट का/के उद्देश्य है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (a) 


प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

किसी मुद्रा के अवमूल्यन का प्रभाव यह होता है कि वह आवश्यक रूप से:

  1. विदेशी बाज़ारों में घरेलू निर्यात की प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार करता है।
  2. घरेलू मुद्रा के विदेशी मूल्य को बढ़ाता है।
  3. व्यापार संतुलन में सुधार करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?

   (a) केवल 1
  (b) केवल 1 और 2
  (c) केवल 3
  (d) केवल 2 और 3

उत्तर: (a)  


मेन्स:

प्रश्न. विश्व व्यापार में संरक्षणवाद और मुद्रा चालबाज़ियो की हालिया परिघटनाएँ भारत की समष्टि-आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार प्रभावित करेंगी? (2018)


आंतरिक सुरक्षा

अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह का सामरिक महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये:

Andaman and Nicobar Islands, Indo-Pacific region, Malacca Strait, UNCLOS, India's Act East Policy

मेन्स के लिये:

अंडमान और निकोबार द्वीप से जुड़े सामरिक महत्त्व और चुनौतियाँ, भारत पर भू-राजनीतिक प्रभाव

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (ANI) को विकसित करने पर भारत सरकार का नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना, भारत-प्रशांत क्षेत्र में उनके रणनीतिक महत्त्व को रेखांकित करता है, जिससे बुनियादी ढाँचे एवं सुरक्षा को बढ़ाने के प्रयासों को बढ़ावा मिलता है।

  • द्वीपों पर नागरिक और सैन्य दोनों तरह के रणनीतिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर हालिया फोकस लंबे समय से लंबित है तथा आज़ादी के बाद से रणनीतिक सामुद्रिक दृष्टि की कमी को दर्शाता है।

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का सामरिक महत्त्व क्या है?

  • भारतीय मुख्य भूमि से 700 समुद्री मील दक्षिण-पूर्व में स्थित, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र में 300,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जोड़ता है, जिसमें समुद्र के नीचे हाइड्रोकार्बन एवं खनिज भंडार की संभावना है।
  • मलक्का जलडमरूमध्य पर द्वीपों की रणनीतिक स्थिति, उन्हें भारत-प्रशांत क्षेत्र में निगरानी और शक्ति प्रोजेक्ट करने की भारत की क्षमता के लिये एक महत्त्वपूर्ण परिसंपत्ति बनाती है
    • मलक्का जलडमरूमध्य एक महत्त्वपूर्ण समुद्री अवरोध बिंदु है, जहाँ से हर साल 90,000 से अधिक व्यापारिक जहाज़ (merchant ships) दुनिया का लगभग 30% व्यापार योग्य वस्तुओं का आयत-निर्यात होता है
  • ये द्वीप म्याँमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया एवं बांग्लादेश के साथ समुद्री सीमाएँ साझा करते हैं, जिससे भारत को विशेष आर्थिक क्षेत्र और महाद्वीपीय शेल्फ के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (United Nations Convention on the Law of the Sea - UNCLOS) के तहत पर्याप्त समुद्री स्थान प्राप्त होता है।
  • ये द्वीप विशेषकर भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण, भारत की समुद्री सुरक्षा को कमज़ोर करने के पूर्व के किसी भी प्रयास के विरुद्ध रक्षा के प्रथम स्तर के रूप में कार्य कर सकते हैं, ।
  • पोर्ट ब्लेयर आपदा राहत, चिकित्सीय सहायता, समुद्री डकैती से निपटने, खोज और बचाव तथा अन्य समुद्री सुरक्षा पहलों पर सहयोग करने के लिये नौसेनाओं के लिये एक क्षेत्रीय केंद्र बन सकता है।

ANI के विकास में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • भारत की लुक ईस्ट नीति से मज़बूत एक्ट ईस्ट नीति में बदलाव के साथ-साथ समुद्री शक्ति के महत्त्व और चीनी PLA नौसेना की बढ़ती क्षमताओं ने भारतीय द्वीप क्षेत्रों, विशेषकर अंडमान और निकोबार समूह को विकसित करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
  • हाल तक राजनीतिक प्राथमिकता का अभाव, द्वीपों के रणनीतिक महत्त्व का एहसास केवल अब हुआ है।
  • मुख्य भूमि से दूरी की चुनौतियाँ और बुनियादी ढाँचे के विकास में कठिनाइयाँ।
  • वन और जनजातीय संरक्षण पर जटिल पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रियाएँ और नियम।
    • कई मंत्रालयों और एजेंसियों की भागीदारी के कारण समन्वय चुनौतियाँ। दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टि और तात्कालिक राजनीतिक लाभ के बीच संघर्ष।

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में किस रणनीतिक बुनियादी ढाँचे के विकास की आवश्यकता है?

  • समुद्री डोमेन जागरूकता बढ़ाना:
    • द्वीपों पर व्यापक समुद्री डोमेन जागरूकता और निगरानी सुनिश्चित करना।
    • पूर्व से किसी भी नौसैनिक दुस्साहस के विरुद्ध निवारक क्षमताओं को मज़बूत करना।
  • बुनियादी ढाँचे को मज़बूत बनाना:
    • भारत की समुद्री अर्थव्यवस्था को, विशेषकर द्वीपों के दक्षिणी समूह में समर्थन देने के लिये बुनियादी ढाँचे का विकास करना।
      • विकास एवं पर्यटन को सुविधाजनक बनाने के लिये परिवहन और कनेक्टिविटी में सुधार करना। ग्रेट निकोबार द्वीप पर गैलाथिया खाड़ी ट्रांँसशिपमेंट बंदरगाह का विकास करना।
      • सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल (OFC) के माध्यम से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को मुख्य भूमि से जोड़ने की योजना को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इससे सस्ती व बेहतर कनेक्टिविटी और डिजिटल इंडिया के लाभों तक पहुँच मिलेगी।
    • आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के लिये मुख्य भूमि के समर्थन पर द्वीपों की निर्भरता को कम करना।
    • विकास एवं पर्यटन के लिये परिवहन और कनेक्टिविटी को बढ़ाना।
    • उच्च गति वाली अंतर-द्वीपीय नौका सेवाओं और एक सीप्लेन टर्मिनल की स्थापना करना।
  • सैन्य उपस्थिति बढ़ाना:
    • सेना को द्वीप की सुरक्षा बनाए रखने के लिये अंडमान निकोबार कमांड (ANC) में सेना की तैनाती बढ़ानी चाहिये। जिसमें वहाँ निगरानी और लड़ाकू विमानों को तैनात करने के साथ-साथ निरंतर सैन्य टुकड़ियों का संचालन करना भी शामिल है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:

अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह:

  • इतिहास:
    • अंडमान एवं निकोबार द्वीप के साथ भारत का जुड़ाव वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् से है, जब अंग्रेज़ों ने भारतीय क्रांतिकारियों के लिये एक दंड कॉलोनी (penal colony) की स्थापना की थी।
    • इन द्वीपों पर वर्ष 1942 में जापानियों ने कब्ज़ा कर लिया था और बाद में वर्ष 1943 में ब्रिटिश शासन से मुक्त होने वाला यह भारत का प्रथम भाग बन गया, जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पोर्ट ब्लेयर का दौरा किया।
    • वर्ष 1945 में जापानियों के आत्मसमर्पण के बाद अंग्रेज़ों ने द्वीपों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर द्वीप भारत को दे दिये गये।
    • स्वतंत्रता से लेकर वर्ष 1962 तक की अवधि में द्वीपों की उनके दूरस्थ स्थान के कारण उपेक्षा देखी गई।
    • वर्ष1962 में एक चीनी पनडुब्बी के प्रति चिंता के कारण एक नौसैनिक गैरीसन की स्थापना की गई थी। वर्ष 2001 में कारगिल युद्ध के बाद सुरक्षा समीक्षा के बाद पोर्ट ब्लेयर में अंडमान निकोबार कमांड (ANC) की स्थापना की गई, जो भारत की पहली संयुक्त और एकीकृत परिचालन कमान थी।
      • वर्ष 2001 में स्थापित ANC, भारत की पहली संयुक्त या एकीकृत परिचालन कमान है, जो तीनों सेवाओं के साथ ही तटरक्षक बल को एक ही कमांडर-इन-चीफ के अधीन रखती है।
      • ANC रणनीतिक अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में व्यापक समुद्री डोमेन जागरूकता तथा निरोध क्षमताओं को बनाए रखने के लिये उत्तरदायी है।
  • मुख्य तथ्य:
    • 10 डिग्री चैनल एक संकीर्ण जलडमरूमध्य है जो अंडमान द्वीप समूह को निकोबार द्वीप समूह से अलग करता है। यह लगभग 10 डिग्री अक्षांश चिह्न पर स्थित है।
    • इंदिरा पॉइंट निकोबार द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी सिरा है। यह ग्रेट निकोबार द्वीप पर स्थित है और भारत के सबसे दक्षिणी बिंदु को चिह्नित करता है।
    • ANI 5 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों का आवास है: ग्रेट अंडमानीज़, जारवा, ओंगेस, शोम्पेन एवं उत्तरी सेंटिनलीज़।
  • नवीनतम विकास:
    • नीति आयोग ग्रेट निकोबार के लिये एक परियोजना चला रहा है जिसमें एक अंतर्राष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल, एक हवाई अड्डा, एक बिजली संयंत्र के साथ-साथ एक टाउनशिप भी शामिल होगी।
    • इसके अतिरिक्त, लिटिल अंडमान के प्रस्ताव में सिंगापुर एवं हांगकांग के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने के लिये एक नए ग्रीनफील्ड तटीय शहर के विकास की घोषणा की गई है।
    • क्रा नहर, थाईलैंड में एक प्रस्तावित नहर है जो थाईलैंड की खाड़ी को अंडमान सागर से जोड़ेगी। इसका उद्देश्य हिंद महासागर के साथ ही दक्षिण चीन सागर के बीच शिपिंग के लिये एक लघु मार्ग का निर्माण करना है।

Andaman and Nicobar Islands

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न. भारत को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के ऐतिहासिक महत्त्व एवं विशेष रूप से भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन की समुद्री महत्वाकांक्षाओं के संबंध में भू-राजनीतिक प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए विकास और सुरक्षा को किस प्रकार से प्राथमिकता देनी चाहिये?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न.निम्नलिखित द्वीपों के युग्मों में से कौन-सा एक 'दश अंश जलमार्ग' द्वारा आपस में पृथक किया जाता है? (2014)

(a) अंडमान एवं निकोबार
(b) निकोबार एवं सुमात्रा
(c) मालदीव एवं लक्षद्वीप
(d) सुमात्रा एवं जावा

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित में से किनमें प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं? (2014)

  1. अंडमान और नोकोबार द्वीप समूह  
  2. कच्छ की खाड़ी  
  3. मन्नार की खाड़ी  
  4. सुंदरबन

नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2 और 4
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (a)


प्रश्न. निम्नलिखित में से किस स्थान पर शोम्पेन जनजाति पाई जाती है? (2009)

(a) नीलगिरि पहाड़ियाँ
(b) निकोबार द्वीप समूह
(c) स्पीति घाटी
(d) लक्षद्वीप द्वीप समूह

उत्तर: (b)


शासन व्यवस्था

भूमि संघर्ष पर वन अधिकार अधिनियम का प्रभाव

प्रिलिम्स के लिये:

वन अधिकार अधिनियम, 2006

मेन्स के लिये:

जनजातीय मुद्दे, FRA, 2006 के कार्यान्वयन में मुद्दे, भारत में भूमि संघर्ष

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत में भूमि संबंधी संघर्षों पर नज़र रखने वाली डेटा अनुसंधान एजेंसी लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच ने भूमि संघर्ष और वन अधिकार अधिनियम (FRA) के प्रवर्तन के बीच एक महत्त्वपूर्ण संबंध अनुभव किया है।

इस विश्लेषण से भूमि संघर्ष के बारे में क्या पता चलता है?

  • वन अधिकार अधिनियम (FRA) के निर्वाचन क्षेत्रों में भूमि संबंधी संघर्ष:
    • लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (LCW) के डेटाबेस में दर्ज़ 781 संघर्षों में से, 264 संघर्षों का एक उपसमूह संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से निकटता से जुड़ा हुआ है जहाँ वन अधिकार अधिनियम (FRA) एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
    • पीपुल्स फाॅरेस्ट रिपोर्ट (विज्ञान और पर्यावरण केंद्र द्वारा) के आधार पर इन निर्वाचन क्षेत्रों को आमतौर पर 'FRA निर्वाचन क्षेत्रों' के रूप में जाना जाता है।
    • 117 संघर्ष सीधे वन-निवासी समुदायों को प्रभावित करते हैं, जो लगभग 2.1 लाख हेक्टेयर भूमि को कवर करते हैं और इससे लगभग 6.1 लाख लोग प्रभावित होते हैं।
  • संघर्ष के कारण: 
    • संरक्षण और वानिकी परियोजनाएँ: इन निर्वाचन क्षेत्रों में लगभग 44% संघर्ष संरक्षण और वानिकी परियोजनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं, जिनमें वृक्षारोपण जैसी गतिविधियाँ भी शामिल हैं।
    • FRA का गैर-कार्यान्वयन और उल्लंघन: लगभग 88.1% संघर्ष वन अधिकार अधिनियम (FRA) के भीतर महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के गैर-कार्यान्वयन या उल्लंघन से उत्पन्न होते हैं। इन प्रावधानों में शामिल हैं:
      • बेदखली पर रोक: वनों में रहने वाले समुदायों को उनके अधिकारों के दावे निहित होने से पूर्व ही बेदखल कर दिया जाता है।
      • पूर्व सहमति की आवश्यकता का पालन न करना: अक्सर ग्राम सभा की पूर्व सहमति के बिना वन भूमि का अन्य उद्देश्यों के लिये उपयोग करना।
    • भूमि अधिकारों पर कानूनी सुरक्षा का अभाव: कई वन-निवास समुदायों के पास अपने भूमि अधिकारों के लिये पर्याप्त कानूनी सुरक्षा उपायों का अभाव है।
    • वन प्रशासन और संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन: वन विभाग स्थानीय समुदायों के वन भूमि अधिकारों को खतरे में डालने वाले संघर्षों में प्राथमिक प्रतिकूल पक्ष के रूप में उभरता है।
  • सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य:
    • महाराष्ट्र, ओडिशा और मध्य प्रदेश में कोर FRA निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या सबसे अधिक है।
    • महत्त्वपूर्ण FRA निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे अधिक वन अधिकार मुद्दों वाले राज्य ओडिशा, छत्तीसगढ़ और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर हैं।
    • लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (LCW) डेटाबेस में दर्ज 781 मामलों में से 187 मामले 69 आरक्षित संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से सामने आए हैं।
  • संघर्षों की प्रकृति:
    • सामान्य भूमि विवाद: आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में अधिकांश मामले सामुदायिक वनों और गैर-जंगलों दोनों सहित सामान्य भूमि से संबंधित होते हैं।
      • विवादों में अक्सर भूमि लेनदेन में प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के खिलाफ शिकायतें शामिल होती हैं।
    • निजी भूमि संघर्ष: इसके विपरीत, अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में निजी भूमि, विशेष रूप से राजस्व पट्टा भूमि पर संघर्ष की उच्च आवृत्ति देखी जाती है।
    • संघर्षों में शामिल सामान्य आर्थिक गतिविधियाँ:
      • बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ: बुनियादी ढाँचे का विकास आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में संघर्ष को जन्म देता है। उदाहरण के लिये, खनन और बिजली क्षेत्र, सड़क तथा रेलवे परियोजनाएँ भूमि संघर्ष का प्राथमिक कारण हैं।
    • लघु वन उपज के संग्रहण के संबंध में अतीत में ऐसे मुद्दे रहे हैं जिनके कारण संघर्ष हुआ है।

FRA के कार्यान्वयन की स्थिति:

  • शीर्षक समझौता: फरवरी 2024 तक, आदिवासियों और वनवासियों को लगभग 2.45 मिलियन स्वामित्व प्रदान किये गए हैं।
    • हालाँकि, प्राप्त पाँच मिलियन दावों में से लगभग 34% खारिज़ कर दिये गए हैं।
  • पहचान दर: विशाल संभावनाओं के बावजूद, वन अधिकारों की वास्तविक मान्यता सीमित रही है। 31 अगस्त, 2021 तक, FRA लागू होने के बाद से वन अधिकारों के लिये पात्र न्यूनतम संभावित वन क्षेत्रों में से केवल 14.75% को ही मान्यता दी गई है।
  • राज्यों की भिन्नताएँ:
    • आंध्र प्रदेश: इसे न्यूनतम संभावित वन क्षेत्रीय दावे का 23% मान्यता प्राप्त है।
    • झारखंड: अपने न्यूनतम संभावित वन क्षेत्र का केवल 5% ही मान्यता प्राप्त है।
    • अंतरराज्यीय विविधताएँ: यहाँ तक कि राज्यों के भीतर भी मान्यता दरें भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिये, ओडिशा में नबरंगपुर ज़िले ने 100% IFR मान्यता दर प्राप्त की, जबकि संबलपुर की दर 41.34% है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 क्या है?

  • परिचय:
    • वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) का उद्देश्य अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पारंपरिक वन निवासियों को औपचारिक रूप से वन अधिकारों एवं वन भूमि पर अधिकार को मान्यता एवं अनुदान देना था, जो पीढ़ियों से इन जंगलों में रहते हैं, भले ही उनके अधिकार औपचारिक रूप से प्रलेखित नहीं थे।
    • इसका उद्देश्य औपनिवेशिक तथा उत्तर-औपनिवेशिक भारत की वन प्रबंधन नीतियों के कारण वनवासी समुदायों द्वारा सामना किये गए ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करना था, जो वनों के साथ उनके दीर्घकालिक सहजीवी संबंध को स्वीकार करने में विफल रहे थे।
    • इसके अतिरिक्त, अधिनियम ने वनवासियों को वन संसाधनों तक निरंतर पहुँच एवं उपयोग करने, जैवविविधता तथा पारिस्थितिक संतुलन को बढ़ावा देने के साथ ही उन्हें गैरकानूनी बेदखली एवं विस्थापन से बचाने में सक्षम बनाकर उन्हें सशक्त बनाने की मांग की।
  • कार्यान्वयन में समस्याएँ:
    • व्यक्तिगत वन अधिकारों (IFR) की मान्यता में कमी रही है, जिसका कारण प्राय: वन विभाग का विरोध, अन्य विभागों की उदासीनता एवं प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग है।
    • मध्य प्रदेश में वनमित्र सॉफ्टवेयर जैसी डिजिटल प्रक्रियाओं का कार्यान्वयन खराब कनेक्टिविटी एवं कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों में चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।
    • सामुदायिक वन अधिकारों (CFR) की शिथिल एवं अधूरी मान्यता FRA को लागू करने में अत्यधिक अंतर है।
      • जबकि महाराष्ट्र, ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ ने  CFR को पहचानने में कुछ प्रगति की है, लेकिन अधिकांश राज्य अभि भी पिछड़े हुए हैं।
    • अधिकांश राज्यों में 'वन ग्रामों' के मुद्दे को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है, जो FRA के व्यापक कार्यान्वयन की कमी को दर्शाता है।
    • दिल्ली स्थित संगठन कॉल फॉर जस्टिस द्वारा गठित एक तथ्य-खोज समिति ने पाँच राज्यों (असम, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं कर्नाटक) में वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (FRA) को "मिश्रित" रूप से कार्यान्वित किया है। समिति द्वारा रिपोर्ट किये गए प्रमुख मुद्दों में शामिल हैं:
      • अद्वितीय कृषि प्रथाओं को मान्यता देने में चुनौतियाँ: असम में FRA स्थानांतरित खेती जैसी प्रथाओं को समायोजित नहीं करता है, जिससे वन अधिकारों को मान्यता देने में समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
      • भूमि परिवर्तन को लेकर चिंताएँ: जबकि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले ने संतोषजनक प्रगति दिखाई, वहाँ सामुदायिक वन भूमि को गैर-वन उद्देश्यों के लिये परिवर्तित करने को लेकर चिंताएँ थीं।
      • कुछ वनवासियों का बहिष्कार: कुछ पारंपरिक वनवासियों को FRA मान्यता प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।

आगे की राह:

  • ग्राम सभा को दृढ़ बनाना: वन प्रबंधन निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में ग्राम सभा की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • समावेशी निर्णय लेने को बढ़ावा देना: समावेशी निर्णय लेने में अधिकार धारकों का समर्थन करना ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके दृष्टिकोण और आवश्यकताओं पर विचार किया जाए।
  • शैक्षिक दृष्टिकोण: वनवासियों को FRA के तहत उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने के लिये जागरुकता कार्यक्रम और प्रशिक्षण सत्र आयोजित करना।
  • क्षमता वृद्धि: वनवासियों के अधिकारों के लिये प्रभावी ढंग से समर्थन करने के लिये नागरिक समाज संगठनों की क्षमता का निर्माण करना।
  • निगरानी ढाँचा: वन विभाग और अन्य संबंधित अधिकारियों द्वारा FRA के अनुपालन की निगरानी हेतु निगरानी प्रणाली स्थापित करना।
  • जवाबदेही सुनिश्चित करना: FRA के किसी भी उल्लंघन या गैर-अनुपालन के लिये ज़िम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने के उपायों को लागू करना।
  • समग्र योजना: एकीकृत योजनाएँ विकसित करना, जो वनवासियों के अधिकारों और हितों को बरकरार रखते हुए वनों के विकास एवं संरक्षण दोनों आवश्यकताओं को संबोधित करना।

निष्कर्ष:

  • अंततः निष्कर्ष यह स्पष्ट है कि FRA और आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों दोनों में भूमि संघर्ष को कम करने के लिये कानूनी सुधार, सामुदायिक सशक्तिकरण एवं सतत् विकास पहल को शामिल करने वाला एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है।
  • अंतर्निहित कारणों को संबोधित करके और समावेशी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देकर, नीति निर्माता न्यायसंगत भूमि प्रशासन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं तथा समुदायों एवं पर्यावरण संरक्षण प्रयासों के बीच सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा दे सकते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न.अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। इस कानून ने भारत में वन समुदायों और संरक्षण प्रयासों को कैसे प्रभावित किया है? (250 शब्द)

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न.राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021)

(a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
(b) पंचायती राज मंत्रालय
(c) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(d) जनजातीय कार्य मंत्रालय

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. भैषजिक कंपनियों के द्वारा आयुर्वेद के पारंपरिक ज्ञान को पेटेंट कराने से भारत सरकार किस प्रकार रक्षा कर रही है? (2019)


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