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डेली न्यूज़

  • 02 Jul, 2025
  • 46 min read
आंतरिक सुरक्षा

भारत में शरणार्थी, निर्वासन और संबंधित मुद्दे

प्रिलिम्स के लिये:

शरणार्थी सम्मेलन, 1951, विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946, नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA), रोहिंग्या शरणार्थी, शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त

मेन्स के लिये:

भारत में शरणार्थियों की स्थिति, शरणार्थियों से निपटने के लिये भारत में विधायी ढाँचा, भारत में शरणार्थियों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं और बांग्लादेश में राजनीतिक घटनाक्रमों के मद्देनज़र, भारत ने विशेष रूप से पूर्वी सीमा पर अवैध प्रवासियों के खिलाफ निर्वासन और प्रत्यावर्तन (सीमा पर वापस भेजने) जैसे उपायों के माध्यम से अपनी कार्रवाई तीव्र कर दी है।

  • हालाँकि इस दौरान भारतीय नागरिकों सहित गलत तरीके से निष्कासन के बढ़ते मामलों ने नागरिकता सत्यापन, विधिक प्रक्रिया और संवैधानिक सुरक्षा उपायों को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न की हैं।

निर्वासन और प्रत्यावर्तन क्या है?

निर्वासन (Deportation)

  • परिचय: निर्वासन एक औपचारिक और विधिक प्रक्रिया है, जिसके तहत किसी विदेशी नागरिक को भारतीय क्षेत्र से निकालना है, यदि वह अवैध रूप से या बिना वैध दस्तावेज़ों के रह रहा हो।
  • प्रक्रिया: पहचान → हिरासत → कानूनी कार्यवाही → पहचान सत्यापन → राजनयिक माध्यमों से प्रत्यावर्तन।
    • विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 और आव्रजन एवं विदेशी अधिनियम, 2025 जैसे कानूनों द्वारा शासित।
  • संलग्न एजेंसियाँ: गृह मंत्रालय (Ministry of Home Affairs - MHA), विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय (Foreigners Regional Registration Office - FRRO) और संबंधित दूतावास
  • सुरक्षा उपाय: इसमें न्यायिक निगरानी, ​​अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का अनुपालन शामिल है।

प्रत्यावर्तन (Pushback)

  • परिचय: प्रत्यावर्तन एक अनौपचारिक या अविधिक प्रक्रिया है, जिसके तहत संदिग्ध विदेशी नागरिकों को अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पास से बलपूर्वक वापस भेज दिया जाता है, बिना किसी वैधानिक प्रक्रिया का पालन किये।
  • संचालन: मुख्य रूप से सीमा सुरक्षा बल (BSF) द्वारा, प्रायः संदिग्धों की रोकथाम के स्थान पर ही
  • विधिक स्थिति: यह भारतीय विधि में विधिवत परिभाषित नहीं है, इसमें न्यायिक निगरानी या नागरिकता की पुष्टि नहीं होती।
  • चिंताएँ:
    • विधिक प्रक्रिया का उल्लंघन, पहचान की त्रुटि का जोखिम और मानवाधिकार मानदंडों (जैसे कि गैर-प्रत्यावर्तन सिद्धांत) का उल्लंघन।
    • हाल की घटनाओं में असम और पश्चिम बंगाल से भारतीय नागरिकों को गलत तरीके से वापस भेजने की घटनाएँ शामिल हैं । 

भारत में आप्रवास और विदेशियों को विनियमित करने वाले प्रमुख कानून क्या हैं?

  • आप्रवास और विदेशी अधिनियम, 2025: इसने विदेशी नागरिक अधिनियम (1946), पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम (1920), विदेशियों का पंजीकरण अधिनियम (1939) और आप्रवास (वाहक दायित्व) अधिनियम (2000) जैसे चार पुराने कानूनों को प्रतिस्थापित किया। 
    • इसका उद्देश्य विदेशियों के प्रवेश, निवास और निकास की प्रक्रिया को आधुनिक एवं सुव्यवस्थित बनाना है।
    • प्रवेश और निर्वासन के कड़े प्रावधान: वैध पासपोर्ट/यात्रा दस्तावेज़ अनिवार्य; छूट न मिलने पर वीज़ा की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता, सार्वजनिक स्वास्थ्य या विदेशी संबंधों जैसे आधारों पर प्रवेश से इंकार किया जा सकता है। आप्रवास अधिकारियों के निर्णय अंतिम होते हैं।
    • संस्थागत ढाँचा: यह कानून आप्रवासन ब्यूरो (BoI) को एक वैधानिक निकाय के रूप में स्थापित करता है, जो वीज़ा जारी करने, सीमा नियंत्रण और विदेशियों के पंजीकरण का कार्य करेगा।
    • अनिवार्य रिपोर्टिंग: विदेशियों को पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा। अधिसूचित क्षेत्रों में होटलों, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों और गृहस्वामियों को विदेशी नागरिकों की जानकारी देना आवश्यक होगा।
    • आवागमन प्रतिबंध: संरक्षित/प्रतिबंधित/निषिद्ध क्षेत्रों (जैसे सीमावर्ती क्षेत्र, रणनीतिक स्थल) में प्रवेश के लिये विशेष अनुमति आवश्यक होगी। विदेशी नागरिक सरकार की अनुमति के बिना अपना नाम नहीं बदल सकते और उनके आवागमन पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया जा सकता है
    • दंड: अनधिकृत प्रवेश पर अधिकतम 5 वर्ष का कारावास या 5 लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
  • आप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950:  यह अधिनियम विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से असम में हुए भारी प्रवासन को नियंत्रित करने के उद्देश्य से बनाया गया था।
    • हालाँकि यह अधिनियम संपूर्ण भारत पर लागू होता है, लेकिन इसमें असम के लिये विशेष प्रावधान हैं, जो केंद्र सरकार को यह अधिकार देते हैं कि वह उन व्यक्तियों या समूहों को भारत से या विशेष रूप से असम से निष्कासित कर सकें, जो सामान्यतः भारत के बाहर निवास करते थे और जिनकी उपस्थिति सार्वजनिक हित या असम में अनुसूचित जनजातियों के लिये हानिकारक मानी जाए।
    • धारा 2 के अंतर्गत अधिकारियों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे ऐसे व्यक्तियों को निर्धारित समय और मार्ग के भीतर भारत या असम छोड़ने का आदेश दे सकें।
  • विदेशी पंजीकरण: वे विदेशी नागरिक (जिसमें भारतीय मूल के व्यक्ति भी शामिल हैं), जिन्हें 180 दिनों से अधिक का दीर्घकालिक वीज़ा प्राप्त है, उन्हें FRRO (विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी) के पास पंजीकरण कराना अनिवार्य है।
  • नागरिकता अधिनियम, 1955: यह अधिनियम नागरिकता की प्राप्ति, त्याग और पंजीकरण से संबंधित मामलों को नियंत्रित करता है, जिसमें भारतीय प्रवासी नागरिक (OCI) से जुड़े प्रावधान भी शामिल हैं।

भारत की शरणार्थी नीति

  • भारत वर्ष 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन या उसके वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्त्ता नहीं है और देश में कोई विशिष्ट शरणार्थी कानून भी मौजूद नहीं है।
    • भारत ने इस सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने से इसलिये परहेज़ किया है, क्योंकि इसकी परिभाषा संकीर्ण और यूरोप-केंद्रित मानी जाती है, जो आर्थिक प्रवासियों को शामिल नहीं करती तथा दक्षिण एशियाई परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है।
    • इसके अतिरिक्त, भारत को यह आशंका भी है कि इस तरह के बाध्यकारी दायित्व उसकी संप्रभुता से समझौता कर सकते हैं, आंतरिक सुरक्षा को प्रभावित कर सकते हैं और शरणार्थी संरक्षण के लिये अपनाई गई अस्थायी, मानवीय दृष्टिकोण वाली नीति पर अंकुश लगा सकते हैं।
  • म्याँमार, अफगानिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों से आए शरणार्थियों को विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 के अंतर्गत नियंत्रित किया जाता है, लेकिन उन्हें कोई विशेष विधिक सुरक्षा प्राप्त नहीं होती।
  • राज्य सरकारें स्वतंत्र रूप से शरणार्थी दर्जा प्रदान नहीं कर सकतीं, जिससे भारत की केंद्रीकृत और अस्थायी नीति की पुष्टि होती है, जो मानवीय सहायता तो प्रदान करती है, लेकिन विधिक मान्यता या अधिकार नहीं देती

सीमा आवागमन के लिये विशेष प्रावधान

  • नेपाल: भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि (1950) नागरिकों को बिना वीज़ा के स्वतंत्र आवागमन की अनुमति देती है।
  • म्याँमार: मुक्त आवागमन व्यवस्था (FMR) दोनों पक्षों की सीमा से 10 किलोमीटर के भीतर रहने वाले लोगों को बिना वीज़ा के सीमा पार करने की अनुमति देती है।
    • वर्ष 2023 की मणिपुर में हुई हिंसा के पश्चात्, गृह मंत्रालय (MHA) ने अवैध प्रवासन पर रोक लगाने के लिये 1,643 कि.मी. लंबी भारत-म्याँमार सीमा पर बाड़ लगाने का निर्णय लिया।
  • बांग्लादेश और पाकिस्तान: पासपोर्ट और वीज़ा द्वारा नियंत्रित आवागमन; मुक्त आवागमन व्यवस्था (FMR) लागू नहीं है।

निर्वासन और प्रत्यावर्तन से जुड़ी प्रमुख समस्याएँ क्या हैं और निष्पक्ष तथा विधिक दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के उपाय क्या हैं?

निर्वासन और प्रत्यावर्तन से संबंधित समस्याएँ

  • विधिसम्मत प्रक्रिया का अभाव: विदेशी अधिकरण (FT) प्रायः व्यक्ति को विदेशी मान लेते हैं और प्रमाण का भार अभियुक्त पर डालते हैं, जिसके पास अपनी पहचान स्थापित करने के लिये आवश्यक साधन नहीं होते।
    • प्रत्यावर्तन, एक अतिरिक्त विधिक प्रक्रिया के रूप में, अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई से वंचित करता है, जिससे ऐसे निर्णय लिये जाते हैं, जो प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन करते हैं।
  • हाशिये पर रह रहे समूहों पर प्रभाव: आदिवासी, प्रवासी श्रमिक और निर्धन वर्ग, जिनके पास दस्तावेज़ रखने की सबसे कम संभावना होती है, सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। नागरिकता जन्म या निवास के आधार पर न होकर दस्तावेज़ों पर आधारित शर्त बन जाती है।
    • उदाहरण: असम NRC से लगभग 20 मिलियन लोग बाहर कर दिये गए, जिससे सभी समुदाय प्रभावित हुए और यह स्पष्ट हुआ कि यह प्रक्रिया केवल विदेशी नागरिकों को बाहर करने तक सीमित नहीं थी।
  • कमज़ोर सुरक्षा उपाय और न्यायिक निगरानी: प्रत्यावर्तन जैसी अतिरिक्त विधिक प्रक्रियाएँ प्रायः विधिसम्मत प्रक्रिया को दरकिनार कर देती हैं और न्यायिक परीक्षण की सीमा को घटा देती हैं, जिससे उत्तरदायित्व एवं सांविधानिक संतुलन और नियंत्रण पर गंभीर प्रश्न उठते हैं।
  • विधिक व्याख्याओं का दुरुपयोग: अधिकारियों ने निर्वासन को उचित ठहराने के लिये असम लोक व्यवस्था अनुरक्षण अधिनियम, 1950 जैसे पुराने कानूनों का हवाला दिया है।
    • उदाहरण: असम में अधिकारियों ने निर्वासन की कार्रवाई को उचित ठहराने के लिये उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय का हवाला दिया। हालाँकि विधिसम्मत प्रक्रिया के बिना किया गया निर्वासन निष्पक्षता और न्याय के संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है तथा व्यक्तियों को मतदान, निवास और वापसी जैसे अधिकारों से वंचित कर देता है।

न्यायसंगत और विधिसम्मत निर्वासन एवं प्रत्यावर्तन सुनिश्चित करने हेतु उपाय

  • विधि का शासन: सभी निर्वासन और प्रत्यावर्तन की कार्रवाइयों में विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित किया जाए, जिसमें अनुच्छेद 14 और 21 के तहत संवैधानिक सुरक्षा उपायों का अनुपालन शामिल हो, जैसे कि उचित पहचान सत्यापन, न्यायिक पुनरावलोकन और विधिक उपायों तक पहुँच।
  • संस्थागत सुदृढ़ीकरण: विदेशी अधिकरणों (FT) की कार्यप्रणालियों में सुधार और मानकीकरण किया जाए, जिसमें प्रशिक्षित सदस्य, प्रक्रियात्मक पारदर्शिता और नियमित ऑडिट शामिल हों, ताकि गलत वर्गीकरण को रोका जा सके और उत्तरदायित्व बढ़ाया जा सके।
  • मानवीय दृष्टिकोण: राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकारों के बीच संतुलन बनाया जाए, सामान्य पूर्वधारणाओं से बचा जाए और प्रभावित वर्गों की सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलताओं को मान्यता दी जाए; विशेष रूप से असम और पश्चिम बंगाल जैसे सीमा राज्यों में निष्पक्ष प्रक्रिया अपनाई जाए।
  • विधिक स्पष्टता एवं नीतिगत ढाँचा: निर्वासन (जो कि विधिक है) और प्रत्यावर्तन (जो कि अतिरिक्त विधिक है) के बीच स्पष्ट अंतर किया जाए; आप्रवास एवं विदेशियों अधिनियम, 2025 के अंतर्गत कानूनों का समन्वय किया जाए।
    • भारत को पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों जैसे नॉन-रिफाउलमेंट सिद्धांत के अनुरूप निर्वासन और प्रत्यावर्तन पर एक समर्पित नीति अपनानी चाहिये।

निष्कर्ष

हालाँकि निर्वासन और प्रत्यावर्तन राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने और अवैध प्रवासन को नियंत्रित करने के महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं, फिर भी इन्हें निष्पक्षता, विधिसम्मत प्रक्रिया और प्राकृतिक न्याय जैसे संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिये। गलत निर्वासन को रोकने के लिये विधिक सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ करना, न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करना और अधिकार-आधारित दृष्टिकोण को बढ़ावा देना अत्यंत आवश्यक है। एक संतुलित ढाँचा व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करते हुए संप्रभुता को बनाए रखेगा और भारत की लोकतांत्रिक तथा विधिक प्रतिबद्धताओं को सुदृढ़ करेगा।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. क्या भारत के आप्रवासन कानून गलत निर्वासन के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं? हाल के भारतीय नागरिकों से जुड़े घटनाक्रमों के संदर्भ में समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2016)

क्र. सं.

समाचारों में कभी-कभी उल्लिखित समुदाय

किसके मामले में

1

कुर्द

बांग्लादेश

2

मधेसी

नेपाल

3

रोहिंग्या

म्याॅंमार

उपर्युक्त में से कौन-सा/से युग्म सही सुमेलित है/हैं?

(a) 1 और 2
(b) केवल 2
(c) 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न. "शरणार्थियों को उस देश में वापस नहीं लौटाया जाना चाहिये, जहाँ उन्हें उत्पीड़न अथवा मानवाधिकारों के उल्लंघन का सामना करना पड़ेगा।" खुले समाज और लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाले किसी राष्ट्र के द्वारा नैतिक आयाम के उल्लंघन के संदर्भ में इस कथन का परीक्षण कीजिये। (2021)

प्रश्न. बड़ी परियोजनाओं के नियोजन के समय मानव बस्तियों का पुनर्वास एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक संघात है, जिस पर सदैव विवाद होता है। विकास की बड़ी परियोजनाओं के प्रस्ताव के समय इस संघात को कम करने के लिये सुझाए गए उपायों पर चर्चा कीजिये। (2016)

प्रश्न. पिछले चार दशकों में, भारत के भीतर और भारत के बाहर श्रमिक प्रवसन की प्रवृत्तियों में परिवर्तनों पर चर्चा कीजिये। (2015)


भारतीय राजव्यवस्था

प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों पर बहस

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय संविधान की प्रस्तावना, 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976, आपातकाल, राष्ट्रीय आपातकाल, (1975-77), 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978अनुच्छेद 44 (समान नागरिक संहिता)केशवानंद भारती केस (1973), एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980)

मेन्स के लिये :

संविधान में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों पर बहस।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में" समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल किये जाने पर एक नई बहस शुरू हो गई है। आलोचकों का तर्क है कि इन शब्दों को व्यापक परामर्श के बिना शामिल किया गया था और ये भारत के अंतर्निहित धर्मनिरपेक्ष सभ्यतागत लोकाचार के साथ सुमेलित नहीं हैं। 

  • इस चर्चा से उनकी संवैधानिक वैधता और समकालीन प्रासंगिकता पर प्रश्न पुनः उठ खड़े हुए हैं।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना क्या है?

  • परिचय: प्रस्तावना भारत के संविधान का परिचयात्मक वक्तव्य है, जो उन मूल मूल्यों, मार्गदर्शक सिद्धांतों और उद्देश्यों को रेखांकित करता है, जिन पर संविधान आधारित है।
    • यह लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है और संविधान की भावना को समझने की कुंजी के रूप में कार्य करता है।
    • भारतीय संविधान में अंतर्निहित दर्शन को उद्देश्य प्रस्ताव में संक्षेपित किया गया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
  • 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों का समावेश: मूलतः जब 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ तो प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया, जो निम्नलिखित को सुनिश्चित करने के लिये प्रतिबद्ध था:
    • न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक),
    • स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की),
    • समानता (स्थिति और अवसर की), और
    • बंधुत्व (व्यक्तिगत गरिमा और राष्ट्रीय एकता का आश्वासन)।
    • राष्ट्रीय आपातकाल, (1975-77) के दौरान अधिनियमित 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 ने प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े।
      • समाजवादी शब्द मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल के माध्यम से असमानता को कम करने और वितरणात्मक न्याय सुनिश्चित करने के लिये राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
      • धर्मनिरपेक्षता ने सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान के सिद्धांत की पुष्टि की तथा यह सुनिश्चित किया कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन किये बिना धार्मिक मामलों में तटस्थता बनाए रखे।
  • “राष्ट्र की एकता और अखंडता” अभिव्यक्ति में “एकता” के साथ “अखंडता” शब्द भी जोड़ा गया।
    • यद्यपि आपातकाल के दौरान किये गए अनेक परिवर्तनों को बाद में 44 वें संशोधन (1978) के माध्यम से उलट दिया गया, तथापि प्रस्तावना में किये गए संशोधन यथावत बने रहे।

भारतीय संदर्भ में 'धर्मनिरपेक्षता' का क्या अर्थ है?

  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक अनूठा और समावेशी मॉडल है, जो सभी धर्मों के लिये समान सम्मान और व्यवहार सुनिश्चित करता है। यह अंतर-धार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व को रोकने का प्रयास करता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि राज्य सभी धर्मों से सैद्धांतिक दूरी बनाए रखे। धर्म-विरोधी होने के बजाय यह बहुलवाद, सहिष्णुता और संवैधानिक नैतिकता को कायम रखता है।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता की त्रिस्तरीय रणनीति (3-Fold Strategy):
    • सिद्धांत आधारित दूरी (Principled Distance): भारतीय राज्य धार्मिक निरपेक्षता बनाए रखता है और किसी भी धर्म का पक्ष या प्रचार नहीं करता।
      • सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा या उत्सव की अनुमति नहीं।
      • न्यायालयों या सार्वजनिक कार्यालयों में धार्मिक प्रतीकों का उपयोग निषिद्ध।
      • सार्वजनिक जीवन में सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार सुनिश्चित किया जाता है।
      • राज्य सभी धार्मिक विश्वासों से समान दूरी बनाए रखता है।
    • अहस्तक्षेप (Non-Interference): राज्य धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है और जब तक कोई धार्मिक प्रथा मौलिक अधिकारों या संविधान का उल्लंघन नहीं करता तब तक उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता
      • उदाहरण: धार्मिक समुदायों को अपने पूजा स्थलों और त्योहारों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता।
    • चयनात्मक हस्तक्षेप (Selective Intervention): राज्य उन धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करता है, जो संवैधानिक मूल्यों जैसे समानता, सम्मान और न्याय के विरुद्ध होती हैं।
      • उदाहरण: अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17), व्यक्तिगत कानूनों में सुधार (जैसे: लैंगिक समानता सुनिश्चित करना), महिलाओं को समान उत्तराधिकार अधिकार देने वाले कानून आदि।
  • 42 वें संशोधन, 1976 से पहले धर्मनिरपेक्षता: वर्ष 1976 में हुए 42वें संशोधन से पहले संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द स्पष्ट रूप से नहीं था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की भावना संविधान में गहराई से निहित थी।
    • प्रमुख प्रावधानों में अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 और 16 (धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 25-28 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता (एक निर्देशात्मक सिद्धांत) शामिल थे, जो सामूहिक रूप से भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को सुदृढ़ करते हैं।
  • भारतीय बनाम पश्चिमी (अमेरिकी) धर्मनिरपेक्षता (Indian vs. Western (US) Secularism):

भारतीय धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच मुख्य अंतर

पहलू (Aspect)

पश्चिमी मॉडल

भारतीय मॉडल

राज्य और धर्म के बीच संबंध

कड़ा पृथक्करण – धर्म और राज्य परस्पर अनन्य क्षेत्रों में कार्य करते हैं।

सैद्धांतिक दूरी – राज्य और धर्म के बीच लचीला संबंध

धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप

जब तक धर्म कानूनी सीमाओं में रहता है, राज्य हस्तक्षेप नहीं करता।

राज्य पुनरुद्धार के लिये हस्तक्षेप कर सकता है। यदि धार्मिक प्रथाएँ प्रतिगामी या भेदभावपूर्ण हों (जैसे, अस्पृश्यता का उन्मूलन, सती प्रथा पर प्रतिबंध, बाल विवाह पर रोक)।

धार्मिक संस्थाओं को वित्तीय सहायता / शिक्षा

राज्य द्वारा धार्मिक संस्थाओं को कोई आर्थिक सहायता नहीं दी जाती।

राज्य अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित संस्थानों को अनुच्छेद 29 और 30 के तहत सहायता प्रदान कर सकता है।

धार्मिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन

धर्म पूरी तरह निजी है; सार्वजनिक नीति या संस्थानों में कोई स्थान नहीं।

धर्म को सार्वजनिक जीवन में स्थान प्राप्त है, संवैधानिक निगरानी के साथ (जैसे, धार्मिक अवकाश, वक्फ/धरोहर बोर्ड)।

धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य

तटस्थता और हस्तक्षेप न करना सुनिश्चित करना।

समान सम्मान और सुधार सुनिश्चित करना, एकरूपता थोपे बिना

संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को स्पष्ट रूप से शामिल करने में प्रमुख दुविधाएँ क्या थीं?

  • संवैधानिक भूमिका बनाम वैचारिक उद्घोषणा: डॉ. भीमराव अंबेडकर का मानना था कि संविधान को शासन के ढाँचे के रूप में कार्य करना चाहिये, न कि स्थिर वैचारिक प्रतिबद्धताओं को थोपना चाहिये।
    • उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक और राजनीतिक आदर्शों को समय के साथ जनता की इच्छाओं के माध्यम से विकसित होना चाहिये, न कि संविधान द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिये।
  • प्रतीकात्मकता का खतरा: पंडित जवाहरलाल नेहरू का मानना ​​था कि 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़ना एक प्रतीकात्मक संकेत होगा, जिसका वास्तविक प्रभाव नहीं होगा। 
    • उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता को केवल शब्दों में घोषित नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि इसका पालन किया जाना चाहिये और इसका संरक्षण किया जाना चाहिये।
  • गलत व्याख्या का भय: कई सदस्य, जैसे लोकनाथ मिश्र और एच.वी. कामथ आशंकित थे कि यदि 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को स्पष्ट रूप से जोड़ा गया तो यह धर्म-विरोधी या नास्तिकता के रूप में गलत समझा जा सकता है, जिससे गहन आध्यात्मिक तथा विविध समाज में धार्मिक समुदायों की विच्छिन्नता हो सकती है।
  • विधायी लचीलेपन की आवश्यकता: कुछ लोगों का मानना था कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान में शामिल करने से राज्य की भावी विधायी स्वतंत्रता सीमित हो सकती है, विशेष रूप से जब सामाजिक न्याय के लिये  धार्मिक प्रथाओं में सुधार आवश्यक हो (जैसे – अस्पृश्यता का उन्मूलन या व्यक्तिगत कानूनों में सुधार)।

भारतीय संविधान में ‘समाजवादी’ या ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल करने के पक्ष और विपक्ष में तर्क क्या हैं?

समावेशन के समर्थन में तर्क

  • संविधान मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी है: 42वें संशोधन, 1976 से पहले भी, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद संविधान के विभिन्न प्रावधानों में अंतर्निहित थे।
  • अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं और धर्म के आधार पर भेदभाव को निषिद्ध करते हैं।
  • नीति निदेशक सिद्धांत (भाग IV) में समाजवादी लक्ष्य प्रतिबिंबित होते हैं, जैसे कि संपत्ति का न्यायसंगत वितरण, सामाजिक न्याय और राज्य द्वारा जनकल्याण सुनिश्चित करना
  • ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ: प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ शब्दों को शामिल करना भारत की धार्मिक तटस्थता तथा उस समय की राजनीतिक इच्छा की पुष्टि करता है। 42वें संविधान संशोधन, 1976 के माध्यम से इन मूल्यों को संविधान में दर्ज किया गया, जिन्हें बाद में 44वें संशोधन, 1978 द्वारा भी बरकरार रखा गया।
  • न्यायिक समर्थन:
    • केशवानंद भारती मामला (1973) में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा घोषित किया, जिसे संसद द्वारा भी हटाया या संशोधित नहीं किया जा सकता। 
    • एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पंथनिरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की एक मूल विशेषता के रूप में पुनः पुष्टि की।
    • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) में निहित समाजवादी उद्देश्य संविधान के लिये मौलिक हैं और कुछ मामलों में अनुच्छेद 39 (b) और 39 (c) समाजवाद और आर्थिक न्याय की रक्षा के लिये अनुच्छेद 14 और 19 पर वरीयता प्राप्त कर सकते हैं।
    • डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्दों की प्रविष्टि को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया तथा इन शब्दों की वैधता और संविधान के अनुरूप होने की पुष्टि की।

समावेशन के विरुद्ध तर्क

  • मूल इरादे के विरुद्ध: आलोचकों का तर्क है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान निर्माताओं का मानना था कि "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" जैसे मूल्य पहले से ही संविधान के प्रावधानों में अंतर्निहित हैं, इसलिये इनका स्पष्ट रूप से समावेशन अनावश्यक था।
    • उन्होंने यह तर्क दिया कि आपातकाल (1976) के दौरान इन शब्दों को शामिल किया जाना संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ और लोकतंत्र के दमन के बीच संविधानिक मूल्यों के "विश्वासघात" के समान था।
  • पश्चिमी विचारधाराओं की प्रभावी उपस्थिति: विशेषज्ञों और आलोचकों का तर्क है कि समाजवाद और पंथनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणाएँ हैं, जो भारतीय सभ्यता की मूल भावना से मेल नहीं खातीं। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारतीय आध्यात्मिक परंपराएँ धर्म के साथ "सकारात्मक संरेखण" को बढ़ावा देती हैं, जो पश्चिमी पंथनिरपेक्षता में देखे गए सख्त चर्च-राज्य पृथक्करण के विपरीत है।
  • प्रक्रियात्मक चिंताएँ: संविधान के प्रारूपण की प्रक्रिया के अंत में अपनाई गई और 26 नवंबर, 1949 को औपचारिक रूप से अधिनियमित की गई प्रस्तावना, संविधान की मूल भावना और मूलभूत दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है।
    • आलोचकों का तर्क है कि प्रस्तावना में पूर्वव्यापी संशोधन करना उसकी पवित्रता को समाप्त करता है।

निष्कर्ष

प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किया जाना एक संवैधानिक बहस का विषय बना हुआ है, जो मूल उद्देश्य और विकसित होते लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच के गतिशील तनाव को दर्शाता है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा माना है, फिर भी प्रक्रियात्मक वैधता, वैचारिक अधिरोपण और सभ्यतागत दृष्टिकोण को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं। भारतीय संविधान की भावना को बनाए रखने के लिये संवैधानिक नैतिकता, बहुलवाद और पंथनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक आदर्शों को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

Q. भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को पंथनिरपेक्षता के सिद्धांतों के साथ संतुलित करने में शामिल संवैधानिक और दार्शनिक चुनौतियों की समीक्षा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021)

(a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(b) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(c) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(d) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य

उत्तर: (b)


प्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सी लोक सभा की अनन्य शक्ति(याँ) है/हैं? (2022)

  1. आपात की उद्घोषणा का अनुसमर्थन करना 
  2. मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करना
  3. भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाना

नीचे दिये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) 1 और 2
(b) केवल 2
(c) 1 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (b) 


प्रश्न. यदि भारत का राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन यथा उपबंधित अपनी शक्तियों का किसी विशेष राज्य के संबंध में प्रयोग करता है, तो (2018)

(a) उस राज्य की विधान सभा स्वतः भंग हो जाती है।
(b) उस राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोज्य होंगी।
(c) उस राज्य में अनुच्छेद 19 निलंबित हो जाता है।
(d) राष्ट्रपति उस राज्य से संबंधित विधियाँ बना सकता है।

उत्तर: (b)


मुख्य परीक्षा

रोज़गार संबद्ध प्रोत्साहन योजना

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रोज़गार संबद्ध प्रोत्साहन (ELI) योजना को मंजूरी दी, जिसकी घोषणा केंद्रीय बजट 2024–25 में ₹2 लाख करोड़ के व्यापक युवा रोज़गार पैकेज के हिस्से के रूप में की गई थी।

  • ELI योजना का बजटीय प्रावधान लगभग ₹1 लाख करोड़ है और इसे अगस्त 2025 से 31 जुलाई, 2027 तक लागू किया जाएगा।

रोज़गार संबद्ध प्रोत्साहन योजना क्या है?

  • मुख्य घटक:
    • भाग-A: प्रथम बार नियोजित कर्मचारियों के लिये प्रोत्साहन
      • यह योजना 1.92 करोड़ प्रथम बार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) में पंजीकृत कर्मचारियों को लक्षित करती है, जिसके तहत उन्हें एक महीने का EPF वेतन (15,000 रुपए तक) दो किस्तों में दिया जाएगा (सेवा के 6 और 12 महीने बाद), जिसमें वित्तीय साक्षरता कार्यक्रम पूरा करना अनिवार्य है।
      • एक हिस्सा एक नियत बचत खाते में जमा किया जाएगा, ताकि दीर्घकालिक बचत की आदत को बढ़ावा दिया जा सके।
    • भाग B: नियोक्ताओं को समर्थन
      • जो नियोक्ता अतिरिक्त श्रमिकों (जिनका वेतन ₹1 लाख या उससे कम हो) को नियुक्त करेंगे, उन्हें 2 वर्षों तक प्रति माह अधिकतम ₹3,000 की सहायता दी जाएगी।
      • EPFO-पंजीकृत फर्मों को (यदि फर्म में 50 से कम कर्मचारी हैं) 2 अतिरिक्त कर्मचारियों तथा (यदि फर्म में 50 या अधिक कर्मचारी हैं) 5 अतिरिक्त कर्मचारियों को नियुक्त करना अनिवार्य है, जिनका न्यूनतम 6 माह तक नियुक्त रखा जाना चाहिये।
      • इसका उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर विनिर्माण, में रोज़गार को बढ़ावा देना है तथा 2.6 करोड़ नौकरियाँ सृजित करने का लक्ष्य है।
  • प्रोत्साहन भुगतान तंत्र: योजना के भाग A के अंतर्गत पहली बार नौकरी पर रखे गए कर्मचारियों को सभी भुगतान आधार ब्रिज भुगतान प्रणाली (ABPS)  का उपयोग करके DBT (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण) मोड के माध्यम से किये जाएंगे।
    • भाग B के अंतर्गत नियोक्ताओं को भुगतान सीधे उनके स्थायी खाता संख्या से जुड़े खातों में किया जाएगा।
  • महत्त्व:
    • निजी क्षेत्र में भर्ती को बढ़ावा देना: विशेष रूप से पहली बार नौकरी चाहने वालों के लिये प्रोत्साहन के माध्यम से नियुक्ति लागत को कम करके भर्ती को प्रोत्साहित करता है।
    • युवा रोज़गार पर ध्यान: वेतन समर्थन और सामाजिक सुरक्षा कवरेज के साथ नए स्नातकों और नए प्रवेशकों को लक्षित करता है।
    • नौकरी प्रतिधारण और कौशल उन्नयन: प्रतिधारण और वित्तीय साक्षरता से जुड़े प्रोत्साहन कार्यबल स्थिरता को बढ़ावा देते हैं।
    • औपचारिकता को बढ़ावा देना: EPFO से जुड़े भुगतानों के माध्यम से, यह अनौपचारिक से औपचारिक रोज़गार में परिवर्तन का समर्थन करता है। असमानता को कम करना, आर्थिक रूप से वंचित युवाओं को प्राथमिकता देना, समावेशन और गतिशीलता का समर्थन करना।

भारत में रोज़गार वृद्धि

  • वित्त वर्ष 2023-24 में भारत के श्रम बाज़ार में मज़बूत गति देखी गई, जिससे अर्थव्यवस्था में 4.67 करोड़ नए रोज़गार जुड़े। औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में वृद्धि देखी गई है।
  • अनौपचारिक क्षेत्र:
    • सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा असंगठित क्षेत्र उद्यमों के वार्षिक सर्वेक्षण (ASUSE) के अनुसार, 10.01% रोज़गार वृद्धि दर्ज (23-24 वर्ष दर वर्ष (YoY)) की गई।
    • ‘अन्य सेवाएँ’ क्षेत्र (जैसे परिवहन, आवास एवं खाद्य सेवाएँ, सूचना और संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा, रियल एस्टेट आदि) ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिसमें 12 करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार मिला, जो पिछले वर्ष की तुलना में 1 करोड़ से अधिक की वृद्धि है।
  • औपचारिक क्षेत्र (2024-25 की पहली छमाही):
    • कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) में नामांकन 2.3% बढ़कर 6.1 मिलियन हो गया।
    • कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) में नामांकन 5.2% बढ़कर 9.3 मिलियन पहुँच गया।
    • राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (NPS) में नामांकन 6.8% की वृद्धि के साथ बढ़ा, जो उच्च गुणवत्ता वाली रोज़गार में वृद्धि का संकेत देता है।
    • ये संकेतक रोज़गार की गुणवत्ता में सुधार और सामाजिक सुरक्षा कवरेज के विस्तार की ओर इशारा करते हैं, जैसा कि वित्त मंत्रालय की नवीनतम मासिक आर्थिक समीक्षा में भी स्वीकार किया गया है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: रोज़गार से जुड़ी प्रोत्साहन योजना भारत के श्रम बाज़ार में युवा बेरोज़गारी और अनौपचारिकता का समाधान कैसे करती है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. प्रधानमंत्री MUDRA योजना का लक्ष्य क्या है?  (2016) 

(a) लघु उद्यमियों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली में लाना
(b) निर्धन कृषकों को विशेष फसलों की कृषि के लिये ऋण उपलब्ध कराना
(c) वृद्ध एवं निस्सहाय लोगों को पेंशन प्रदान करना
(d) कौशल विकास एवं रोज़गार सृजन में लगे स्वयंसेवी संगठनों का निधियन करना

उत्तर: (a) 


मेन्स

प्रश्न. भारत में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी प्रकृति में संरचनात्मक है। भारत में बेरोज़गारी की गणना के लिये अपनाई गई पद्धतियों का परीक्षण कीजिये और सुधार के सुझाव दीजिये। (2023)


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