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युद्ध: कल, आज और कल

ईसा से सात-आठ सौ साल पहले यूनानी कवि हेसियड ने घोषणा की थी– ‘मानवजाति का स्वर्णिम युग अतीत में रह गया है। रजत युग भी बीत गया है। अब कठोर लौह युग आ गया है और सब कुछ तबाह होने वाला है। शक्ति, बुराई और बेइंसाफी बढ़ गए हैं...’ हेसियड के इस कथन में एक गहनतम दुख-बोध छुपा हुआ है। वह अपने सामने एक ऐसी दुनिया देख पा रहे हैं जिसमें अथाह शक्ति की चाह निहित है, यह चाह साम्राज्यों को विस्तार की ओर ले गई। जहां पैदा हुए जघन्यतम अपराध और गलाकाट प्रतिस्पर्धा। ऐसी प्रतिस्पर्धा की आग में भारत के महाभारत काल के युद्धों से होते हुए से यूनान के पेलोपेनिसियन युद्ध, सम्राट अशोक का कलिंग युद्ध, तीन सौ साल धर्मयुद्ध (क्रूसेड), तीस वर्षीय युद्ध (चर्च और राज्य के मध्य), क्रांतियों के दौर में हुए गृह युद्ध, उपनिवेशवाद को कायम रखने के लिए किए गए युद्धों से होते हुए प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भी पिछले सत्तर सालों में भी युद्धों का अंतहीन सिलसिला जारी है।

यूं तो युद्ध बीसवीं सदी में ही वैश्विक हो चुके थे पर इक्कीसवीं सदी में युद्ध तकनीक उन्नति और विकसित सूचना तंत्र के जरिए घर-घर में प्रवेश कर चुके हैं। अब युद्ध के निशाने पर सबसे अधिक यदि कुछ है तो वह है मनुष्य का मन, उसकी चेतना। युद्ध अपने पीछे क्या छोड़ जाता है? कुछ आहत-हताहत शरीर और कुछ विचलित मन, कुछ मलबा बन चुके घर और बहुत कुछ जिसे बयां नहीं किया जा सकता। पर देखा जाए तो युद्धों का सारा प्रपंच हमेशा सत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए रचा है और जनता ने इतिहास की कोख में छुपे बड़े विध्वंसों के बाद भी जीवन का सर्वोत्तम रच दिया। अपने इसी सर्वोत्तम रचे हुए को मनुष्य ‘इतिहास की साधना’ करते हुए तलाश करता है, खुद को ऐसे ही अतीत से जोड़ने में उसे आनंदानुभूति होती है। युद्धों ने मनुष्य के जीवन को तो बदला ही था साथ ही इतिहास को अनिवार्य गतिकी भी दी थी। यानी युद्ध हमेशा ‘मानवता-हंता’ हों यह जरूरी नहीं। हम दो उदाहरणों से बात को समझ सकते हैं- प्रथम ‘वेस्टफेलिया की संधि’ (1648) से समाप्त हुआ तीस वर्षीय युद्ध, इतिहास में एक नई राजनीतिक व्यवस्था का सूत्रपात करता है। दूसरे शब्दों में, इस युद्ध ने डेढ़ हजार साल की यूरोपीय जड़ता को तोड़ते हुए ज्ञान के नए युग की शुरुआत की और इसी के बाद विश्व इतिहास की दिशा बदल गई। द्वितीय- भारत की आजादी के लिए हुआ पहला युद्ध ‘1857’ ने भारत में राष्ट्रवाद के जिन बीजों का रोपण किया उसी की फसल हमें नब्बे साल बाद ‘आजादी’ के रूप में काटने को मिली। उक्त दोनों युद्ध अपने समय के निर्णायक युद्ध रहे, जिसे आज अनिवार्य रूप से पाठ्यपुस्तकों में पढ़ा जा रहा है।

युद्धों को कैसे देखा गया है:

दुनिया के इतिहास में युद्धों को लेकर कई तरह के दावे किए गए हैं। प्रथम विश्वयुद्ध पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने कहा था कि ‘यह युद्ध युद्धों का अंत करेगा’ और खुद विल्सन ने शांति स्थापना के प्रयास ‘लीग ऑफ नेशंस’ के रूप में किए भी थे पर इतिहास में दर्ज है कि उसके बाद बीस साल का शीत युद्ध और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध। यानी विल्सन का दावा पूरी तरह गलत साबित हुआ। विल्सन के इस दावे पर उसी समय कटाक्ष करते हुए स्पेनिश-अमेरिकी दार्शनिक जॉर्ज सेंटायना कहा था कि ‘युद्ध का अंत केवल मृत ही देखेंगे’। पर मृत भी कहाँ कुछ देख सकता है। प्रथम तो नहीं पर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय एक बार तो लगा कि परमाणु आयुधों के प्रयोग से दुनिया खत्म होने के कगार पर है। एक स्थापित तथ्य यह भी है कि युद्धों को हमेशा सत्ताधारियों ने ही अपने निहित स्वार्थों के लिए हवा नहीं दी है बल्कि हथियार निर्माता कंपनियों की स्थाई चाह यही रही कि युद्ध जारी रहें।

ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और अमेरिका की कई कंपनियां युद्ध सामग्री की आपूर्ति में सक्रिय रहीं। यहाँ तक की रॉकफेलर फाउंडेशन जैसी मानवीय सहायता के नाम पर गठित संगठनों ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में हथियारों में व्यापक निवेश किया। विस्फोटक पदार्थों के निर्माण में संलग्न रसायन कंपनियों ने अपने मुनाफे के लिए युद्धरत क्षेत्र में विस्फोटकों की व्यापक आपूर्ति की। फरवरी, 2022 से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध में किस तरह दोनों देशों के सहयोगी गुटों के हथियार उत्पादक युद्ध सामग्री की आपूर्ति अपने हाथों में लिए हुए हैं, इसका अंदाजा पिछले साल स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई-सिपरी) से आई एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि साल 2023 में यूक्रेन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बन चुका है। विशेषकर नाटो देशों ने वर्ष 2018 से 2023 की पाँच साल की अवधि में अपने हथियार आयात में 65 फीसदी की वृद्धि की है। सिपरी के आंकड़ों के मुताबिक अकेले यूक्रेन को बेचे गए हथियारों में से अमेरिका से लगभग 228 तोपें और अनुमानित 5000 निर्देशित तोपखाने रॉकेट, पोलैंड से 280 टैंक और ब्रिटेन से 7000 से अधिक एंटी-टैंक मिसाइलें शामिल थीं। इन आंकड़ों से यह साबित हो रहा है कि युद्ध के व्यापार से कुछ देशों की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है। यहाँ अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और भारत में अमेरिका के राजदूत रहे जॉन गालब्रेथ का कथन ध्यान देने योग्य है कि “युद्ध बंद हो जाएंगे तो युद्ध उद्योग कैसे चलेगा”? यानी बीसवीं सदी में ही ‘युद्ध उद्योग’ कायम हो चुका था और उद्योग का एक ही मकसद होता है-मुनाफा।

इस मुनाफे के लिए युद्ध सामग्रियों के क्षेत्र में सक्रिय कंपनियां और देश नित नवीन शोध कार्य कर रहे हैं। हथियारों को उन्नत से अति उन्नत बनाने हेतु यूरोप और अमेरिका ही नहीं अब इजरायल, ईरान, चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश भी अपने ‘R & D’ (रिसर्च एवं डेवलपमेंट) में अधिक से अधिक निवेश करने के लिए सार्वजनिक और निजी दोनों स्तरों से प्रयासरत हैं। युद्धों में अंतिम विजय अपने पक्ष में हो, ऐसा लक्ष्य लिए चल रही यह होड़ आत्मघाती भी साबित हो रही है। शस्त्र नियंत्रण और निःशस्त्रीकरण के तमाम प्रयासों के बावजूद रासायनिक और जैविक हथियारों के उपयोग आज भी जारी हैं। जे. डी. बर्नाल ने अपनी पुस्तक ‘साइंस इन हिस्ट्री’ (1954) में प्रमाण सहित यह बताया है कि ‘दुनिया की अधिकतर प्रयोगशालाओं में होने वाले शोध के केंद्र में युद्ध होता है’। बीसवीं सदी के लगभग मध्य में स्थापित किया गया यह विश्लेषण आज इक्कीसवीं सदी में और अधिक सच साबित हो चुका है। मशहूर इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी ने युद्धों को तकनीकि का विषय बताया था यानी युद्ध विकसित हो रही तकनीक की ही अभिव्यक्ति होते हैं।

क्या है युद्ध का मनोविज्ञान?

युद्धों का उद्देश्य उनकी सार्थकता को साबित करता है। इतिहास में युद्ध गौरवगाथा का विषय बनते रहे हैं और इतिहास में ही युद्ध शर्म और मानवता के लिए त्रासदी के रूप में भी दर्ज हैं। युद्ध में मरने वालों को शहीद का दर्जा दिया जाता है। भारत ही नहीं जापान में भी यह विश्वास है कि ‘मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी कीर्ति है युद्ध की बलिवेदी पर बलिदान हो जाना’। पर यह तो राष्ट्रों के परिप्रेक्ष्य से है। इसमें मनुष्य का अपना परिप्रेक्ष्य क्या है? यह हमें मनोविज्ञान की मदद से समझ आ सकता है। मनोविज्ञान मानता है कि मनुष्य एक ‘पगनेसियस एनिमल’ है यानि स्वभाव से एक झगड़ालू प्राणी। और यदि मनुष्य का स्वभाव ही एकदूसरे से लड़ना है, तो वह किसी न किसी वजह से लड़ेगा ही। कभी व्यक्ति के रूप में, तो कभी समुदाय के रूप में, तो कभी देश के रूप में। थॉमस हॉब्स अपने मानव स्वभाव की धारणा में कमोवेश ऐसी ही बात कहते हैं। पर इसे हमेशा तो सही नहीं कहा जा सकता। मनुष्य ने अपने सभ्य और सुसंस्कृत होने के क्रम में साहचर्य, सहयोग और सह-अस्तित्व का विकास भी किया है। यानी एक ही समय में युद्ध पिपासु और युद्ध विरोधी मानसिकता के लोग देखे और पाए गये हैं। हिटलर और गांधी दोनों एक ही समय में अलग अलग तरह की दुनिया का निर्माण कर रहे थे, एक की दुनिया में हिंसा, झूठ और नफरत थी तो दूसरे की दुनिया में अहिंसा, सत्य और प्रेम। ऐसे में युद्ध के मनोविज्ञान की समझ आवश्यक है जिससे आज के युद्धग्रस्त समाज को युद्धोन्माद के रोग से मुक्त किया जा सके। इतिहास बताता है कि इंसानों के दरमियां टकराहटों की अहम वजह निजी संपत्ति, उसका विस्तार, महत्वाकांक्षा और उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा आदि ही होता है। लोगों का ऐसा मानना है कि यह निजी संपत्ति उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है, इसलिए इसकी चाह और इसके लिए होड़ जारी है। दूसरों की बढ़ती निजी संपत्ति व्यक्तियों को ही नहीं देशों को भी असुरक्षित बना देते हैं। युद्धों की एक प्रमुख और निर्णायक वजह यह भी है कि देश खुद को असुरक्षित समझते हैं और अपनी सुरक्षा बढ़ाने के लिए शस्त्रास्त्रों की होड़ शुरू कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि भारत और पाकिस्तान कैसे एक दूसरे से असुरक्षित महसूस करते हुए आज दोनों ही परमाणु बम धारक देश बन चुके हैं और ऐसे ही कितने ही देश हथियारों की होड़ में एकदूसरे से लड़ रहे हैं।

क्या है युद्ध का विकल्प?

‘युद्ध’ विदेश नीति की सैद्धांतिकी में कूटनीति के असफल हो जाने की स्थिति में होता है। पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की यथार्थवादी अवधारणा जिसमें राजनीति को शक्ति हासिल करने के लिए किए गए संघर्ष के रूप में परिभाषित किया गया है, वह विश्व व्यवस्था को अराजक बताती है जहां सभी देश शक्तिशाली बनने की स्वाभाविक चूहा दौड़ में शामिल हैं जिसका परिणाम है- युद्ध। पर पुरानी कहावत है कि ‘अंततः चूहा दौड़ में सभी चूहे मारे जाते हैं’, इसलिए युद्ध का विकल्प तलाशना मानव सभ्यता के बचे रहने के लिए अनिवार्य है। हम यदि गांधी को याद करें तो यह इसलिए भी जरूरी है कि कि इस दुनिया में सभी अंधे न हो जाएँ। गांधी का वह उक्ति प्रासंगिक है ‘आँख के बदले आँख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी’। याद रहे जिस समय प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध की आग दुनिया को झुलसा रही थी उसी समय में ओपनहाइमर जैसे वैज्ञानिक और बरट्रेंड रसेल जैसे दार्शनिक और साहित्यकार भी दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाते रहे। विख्यात युद्ध विरोधी स्पेनिश चित्रकार पाब्लो पिकासो की युद्ध विरोधी पेंटिंग ‘गेरनिका’ (1937) यूनाइटेड नेशंस के मुख्यालय (न्यूयॉर्क) की दीवार पर टंगी दुनिया को यह संदेश दे रही है कि अभी भी ‘शांति ही मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभीष्ट है’। और अब इक्कीसवीं सदी में इस पर एकमत होना चाहिए कि युद्ध जीवन विरोधी है, प्रकृति विरोधी है, और सारी मानवता आत्महंता नहीं हो सकती। इसलिए जीवन को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए युद्ध को अनिवार्य रूप से त्यागना ही पड़ेगा। इंसानों और देशों को सांस्कृतिक समागम और अपनी सांस्कृतिक पूंजी के सहज आदान प्रदान की ओर बढ़ना ही होगा। ताकि देशों की सांस्कृतिक पूंजी जैसे उसके गीत, संगीत, नृत्य, खान-पान, वेश-भूषा, स्थापत्य, कृषि, उपज, उत्पाद भाषा, अध्यात्म, मिथक, धर्म, योग, खेलकूद, सिनेमा, साहित्य, इतिहास आदि अबाध रूप से एक-दूसरे को समृद्ध करे और खुद समृद्ध हो। चूंकि इतिहास का विषय मृत्यु नहीं जीवन है, इतिहास मनुष्य की लगातार होती जा रही विजयों का साक्षी है, उसके उज्जवल भविष्य का उद्घोषकर्ता है इसलिए बेहतर होगा कि भविष्य के इतिहास में युद्ध नहीं बल्कि शांति की गाथाएँ हों। सही मायनों में यही समूची मानवता का ध्येय होगा।

अंत में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित (वर्ष 2010) रचनाकार उदय प्रकाश की युद्ध की त्रासदी को बयां करती कविता- ‘दो हाथियों की लड़ाई’ को आपसे साझा कर रहा हूँ-

दो हाथियों का लड़ना/ सिर्फ दो हाथियों के समुदाय से संबंध नहीं रखता/दो हाथियों की लड़ाई में सबसे ज्यादा कुचली जाती है, घाँस/ जिसका हाथियों के समूचे कुनबे से कुछ भी लेना-देना नहीं/ जंगल से भूखी लौट जाती है गाय/ और भूखा सो जाता है घर में बच्चा/ चार दांतों और आठ पैरों द्वारा/ सबसे ज्यादा घायल होती है बच्चे की नींद/ सबसे अधिक असुरक्षित होता है हमारा भविष्य/ दो हाथियों की लड़ाई में, सबसे ज्यादा टूटते हैं पेड़/ सबसे ज्यादा मरती हैं चिड़ियाँ/ जिनका हाथियों के पूरे कबीले से कुछ भी लेना देना नहीं/ दो हाथियों की लड़ाई को/ हाथियों से ज्यादा सहता है जंगल/ और इस लड़ाई में/ जितने घाव बनते हैं हाथियों के उन्मत्त शरीरों पर/ उससे कहीं ज्यादा गहरे घाव/ बनते हैं जंगल और समय की छाती पर/ जैसे भी हो/ दो हाथियों को लड़ने से रोकना चाहिए।

  डॉ अंकित पाठक  

डॉ अंकित पाठक मूलत: सुल्तानपुर जिले के हैं। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक और शोध किया है। वर्तमान में ये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संघटक कॉलेज ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज में राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इनके पास उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापन, लेखन और शोध का दस से अधिक वर्षों का अनुभव है। राजनीति विज्ञान, इतिहास, सिनेमा और साहित्य में इनकी गहरी रुचि है।

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