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नारीवाद के विविध आयाम: चुनौतियाँ एवं संभावनाएं

अवधारणा-

नारीवादी अवधारणा का आरंभ इस विश्वास के साथ होता है कि स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अलाभ और हीनता की स्थिति में हैं। नारीवादी विचारधारा मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष भेदभाव से जुड़ी है तथा यह स्त्रियों की भूमिका और अधिकारों से संबंधित है। यह अवधारणा स्त्रियों की पराधीनता और उनके प्रति होने वाले अन्याय पर ध्यान केंद्रित करते हुए इनके प्रतिकार के उपायों पर विचार करती है। नारीवाद स्त्री-पुरुष भेदभाव की पड़ताल के लिए मुख्य रूप से ‛सेक्स’ और ‛जेंडर’ को आधार बनाता है। नारीवादियों का मानना है कि सेक्स एक ‛जीव वैज्ञानिक तथ्य’ है तथा जेंडर एक ‛समाजवैज्ञानिक तथ्य’ । नारीवादियों का मानना है कि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष की शारीरिक बनावट में जो अंतर स्थापित किया है उसी को सामाजिक स्थिति का आधार बना लिया गया जो कि तर्कसंगत नहीं है। प्राचीन काल से ही स्त्रियों को सामाजिक जीवन में उपयुक्त मान्यता नहीं दी गई और उन्हें हीन स्थिति में रखा गया। नारीवादी विचारक जैविक-निर्धारणवाद(Biological determinism) के विचार को खारिज करते हुए बताते हैं कि पुरुष और स्त्री की भिन्न छवि उनके जीव वैज्ञानिक अंतर पर आधारित नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति की देन है। यह अधीनता सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की उपज है जो महिलाओं की भौतिक और विचारधारात्मक अधीनता यानी जेंडर के प्रभुत्व को सुनिश्चित करती है। ये मान्यताएं सामाजिक जीवन में स्त्री के संपूर्ण जीवन पर पुरुष के नियंत्रण को बढ़ावा देती हैं जिससे पितृसत्ता स्थापित होती है और यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही स्त्रियों के शोषण का कारण है। इस प्रकार से नारीवादियों का मानना है कि स्त्रियों की हीन स्थिति का कारण कृत्रिम है और यह समाज द्वारा निर्मित है जिसे चुनौती दी जानी चाहिए।

ऐतिहासिक विकास-

यदि हम ऐतिहासिक रूप से नारीवादी मुद्दों की बात करें तो इनकी मांग है कि स्त्रियों के अधिकारों को मानव अधिकारों की सामान्य श्रेणी के रूप में मान्यता दी जाए और संपूर्ण सामाजिक जीवन के संदर्भ में स्त्री-पुरुष की समानता स्वीकार की जाए। महिला आंदोलन नारीवाद के सैद्धांतिक पक्षों का व्यावहारिक प्रस्तुतीकरण है। प्राचीन या मध्यकाल में स्त्रियों की हीनतम स्थिति के विरुद्ध महिलाओं द्वारा किसी आंदोलन का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है। एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में नारीवाद 20वीं शताब्दी की देन है। महिला आंदोलन और उससे जुड़ा स्त्री मुक्ति का प्रश्न भी एक आधुनिक परिघटना है। संगठित नारीवादी आंदोलन की शुरुआत फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुई जब स्त्रियों द्वारा समस्त राजनीतिक एवं सार्वजनिक कार्यवाहियों में खुल कर हिस्सा लिया गया । इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों की कानूनी स्थिति में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव लाए गए जैसे- 1791 के कानून द्वारा स्त्री शिक्षा का प्रावधान, 1792 में स्त्रियों को नागरिक अधिकार प्रदान किये गए तथा 1794 के कानून द्वारा तलाक की प्रक्रिया को सरलीकृत किया गया। अमेरिका में 1840 के दशक में एक लोकप्रिय सेनेका फॉल्स कन्वेंशन हुआ जिससे अमेरिका की स्त्रियों के अधिकारों के आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। इसी प्रकार 1869 में स्त्रियों को वोट देने के अधिकार के एक राष्ट्रीय एसोसिएशन की स्थापना हुई। ऐसे संगठन धीरे-धीरे यूरोप में भी बनने लगे। सभी विकसित देशों से यह मांग उठने लगी कि स्त्रियों को वोट का अधिकार मिलना चाहिए। इसमें पहली सफलता 1893 में न्यूजीलैंड में मिली। अमेरिका में 1920 में स्त्रियों को मतदान का अवसर मिला। 1970 के दशक में नारीवाद ने अपने आपको एक विचारधारा के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया और 1990 के दशक में यह पूर्ण रूप से एक विचारधारा के रूप में स्थापित हुई। नारीवाद के विचार को ‛न्यूयॉर्क रेड स्टॉकिंग्स घोषणा पत्र, 1969’ के द्वारा सशक्त अभिव्यक्ति मिली। इसमें उल्लिखित किया गया कि, “स्त्रियाँ एक उत्पीड़ित वर्ग हैं। स्त्रियों का उत्पीड़न सर्वव्यापक है जो स्त्रियों के जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है।” 21वीं शताब्दी के आरंभ में इस विचारधारा में कई प्रभावशाली परिवर्तन हुए। आज नारीवाद एक बहुआयामी और प्रभावकारी विचारधारा है जिसने न सिर्फ अकादमिक जगत में बल्कि व्यवहारिक रुप से सामाजिक परिवर्तन का भी कार्य किया है।

नारीवादी की मुख्य धाराएँ- नारीवादी आंदोलन के अंतर्गत अनेक प्रकार के विचार और कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए हैं। स्त्रियों की असमानता, दमन और अधीनता के कारणों, प्रकारों और समाधानों के बारे में नारीवादियों की अलग-अलग राय है। इसी कारण इसी कारण इसकी अलग-अलग धाराएँ हैं। मुख्य रूप से नारीवाद को तीन धाराओं में बाँटकर देखा जा सकता है- उदारवादी नारीवाद, आमूलपरिवर्तनवादी नारीवाद एवं समाजवादी नारीवाद

1. उदारवादी नारीवाद- उदार नारीवाद, नारीवाद से जुड़ी आरंभिक विचारधारा है जो उदारवाद से जुड़ी मान्यताओं के आधार पर स्त्रियों के अधिकारों की वकालत करती है। यह विचारधारा क्रांति के विपरीत क्रमिक और कानूनी सुधार का समर्थन करती है। इससे जुड़े विचारक सार्वजनिक क्षेत्र में समानता का समर्थन करते हैं। एक प्रकार से यह सुधारवादी आंदोलन है। मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट, जे. एस. मिल, बेट्टी फ्रीडन, कैरोल पेटमैन प्रमुख उदारवादी नारीवादी विचारक हैं। 18 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने अपनी चर्चित कृति ‛विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वीमेन’(1792) में सामाजिक ढाँचे की आलोचना करते हुए कहा कि स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया है और वे सार्वजनिक जीवन में भी अनुपस्थित हैं। अतः स्त्रियों को विवेकशील प्राणी मानते हुए स्त्री-पुरुष में बुनियादी समानता स्थापित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जॉन स्टूअर्ट मिल ने अपनी रचना ‛सब्जेक्शन ऑफ वीमेन’ (1869) के अंतर्गत भी स्त्री अधिकारों का समर्थन किया। मिल ने कहा कि स्त्री-पुरुष का संबंध आधिपत्य के बजाय साहचर्य पर आधारित होना चाहिये। उसने स्त्रियों की शिक्षा, नागरिकता तथा संपत्ति में अधिकार की वकालत की। बेट्टी फ्रीडन जिन्हें ‛महिला मुक्त की जन्मदाता’ भी कहा जाता है ने अपनी रचना ‛द फेमिनिन मिस्टीक’(1963) में कहा कि स्त्रियों को भी स्वायत्तता और आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिये।

2. आमूलपरिवर्तनवादी नारीवाद- आमूल परिवर्तनवादी या उत्कट नारीवादी विचारधारा की शुरुआत मुख्य रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात हुई। यह विचारधारा सामाजिक व्यवस्था की यथास्थिति में आमूल परिवर्तन की मांग करती है। यह विचारधारा निजी जीवन में समानता की समर्थक है। इस धारा की प्रमुख विचारक सिमोन द बुआ , शुलामिथ फायरस्टोन, केट मिलेट, वर्जीनिया वूल्फ, एलस्टीन, आयरिश मेरियम यंग हैं।

फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका सिमोन द बुआ ने अपनी चर्चित कृति ‛द सेकंड सेक्स’ (1949) में कहा कि,“ स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि उसे ऐसा बना दिया जाता है”(“ A woman is not born but made”) सिमोन ने कहा कि पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को ‛द्वितीय लिंग’ का दर्जा दिया जाता है।

वर्जीनिया वूल्फ ने महिलाओं की पराधीन स्थिति को देखते हुए कहा कि,“महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है।” फायरस्टोन ने अपनी चर्चित कृति ‛डायलेक्टिक आफ सेक्स’(1970) के अंतर्गत नारीवाद की नई व्याख्या देकर इससे जुड़े आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने तकनीकी के विकास को स्त्री मुक्ति का साधन बताया। केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‛सेक्सुअल पॉलिटिक्स’(1970) के अंतर्गत बताया कि नारीवाद को एक राजनीतिक आंदोलन का रूप देने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि स्त्री-पुरुष का संबंध प्राकृतिक न होकर राजनीतिक है। उन्होंने कहा कि स्त्री पर पुरुष का जो नियंत्रण है वह जीव वैज्ञानिक अंतर की देन नहीं बल्कि सामाजिक संरचना का परिणाम है । केट मिलेट की उपर्युक्त पुस्तक अमेरिका में नारी मुक्ति आंदोलन को बढ़ावा देने में विशेष रूप से उपयोगी साबित हुई।

3. समाजवादी नारीवाद- समाजवादी नारीवादी विचारधारा समाजवाद से जुड़ी मान्यताओं को आधार बनाकर महिलाओं के उत्थान का समर्थन करती है। समाजवादी नारीवादी यह नहीं मानते कि स्त्रियों की समस्या राजनीतिक और कानूनी रूप से समाप्त हो सकती है। उनके अनुसार स्त्री-पुरुष की असमानता का मूल कारण सामाजिक-आर्थिक संरचना है जो एक सामाजिक क्रांति के द्वारा ही समाप्त की जा सकती है। समाजवादी नारीवादी मुख्य रूप से पूंजीवादी व्यवस्था को स्त्रियों के शोषण का कारण मानते हैं। इस धारा के प्रमुख विचारक चार्ल्स फ्यूरिए, फ्रेडरिक एंगेल्स और शीला रोबाथम हैं।

फ्रेडरिक एंगेल्स का मानना है कि स्त्रियों का दमन परिवार की संस्था से आरंभ होता है क्योंकि बुर्जुआ परिवार की संरचना पितृसत्तात्मक होती है। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक ‛द ओरिजिन ऑफ द फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड स्टेट’(1884) में यह तर्क दिया कि समाजवाद के आगमन से निजी संपत्ति का अंत हो जाएगा जिससे स्त्रियों को गृह कार्य के भार से मुक्ति मिल जाएगी और समानता स्थापित होगी।

शीला रोबाथम प्रमुख समाजवादी नारीवादी विचारक हैं। इन्होंने मुख्य रूप से स्त्रियों के इतिहास का पता लगाने की कोशिश की। इन्होंने अपनी चर्चित कृति ‛विमेन रेजिस्टेंस एंड रिवॉल्यूशन’ के अंतर्गत बताया कि स्त्रियों के अतीत की जानकारी से हमें उनके भविष्य के लिए दिशा दृष्टि मिल सकती है। शीला रोबाथम का मानना था कि नारी मुक्ति का संघर्ष वस्तुतः पूंजीवाद विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा है।

भारत में नारीवाद-

पुरुष वर्चस्व हर एक समाज की सच्चाई है और भारतीय समाज भी इससे अछूता नहीं रहा है। भारतीय समाज के लगभग सभी वर्गों में महिलाओं की स्थिति आरंभिक समय से ही दोयम दर्जे की रही है। समाज की आधी आबादी होने के बावजूद महिलाएँ हमेशा से मूलभूत अधिकारों से वंचित रही हैं। भारत में भी नारीवाद पितृसत्ता के विरोध और समान अधिकारों की लड़ाई से जुड़ा हुआ है। यदि हम भारतीय संदर्भ में नारीवादी आंदोलन को देखें तो इसको तीन कालखंडों में बाँटा जा सकता है -

1.प्रथम चरण 1850-1915
2.द्वितीय चरण 1915-1947 तथा
3.तृतीय चरण 1947 से वर्तमान तक।

ऐतिहासिक कारण: भारतीय सामाजिक संरचना, उपनिवेशवाद और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के कारण भारत का नारीवादी आंदोलन पश्चिम से भिन्न है। भारत का नारीवादी आंदोलन 19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधार आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा हुआ है। भारत में पहला नारीवादी आंदोलन समाज में विद्यमान अंधविश्वासों रूढ़ परंपराओं जैसे- सती प्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा आदि को समाप्त करने के उद्देश्य पर केंद्रित था। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिबा फुले , सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, ताराबाई शिंदे, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडिता रमाबाई, सर सैय्यद अहमद खान आदि विचारकों और समाज सुधारकों ने महिलाओं से जुड़े हुए प्रश्नों को प्रमुखता दी तथा विभिन्न संगठनों और कानूनी सुधार के माध्यम से स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह और स्त्री अधिकार की दिशा में समर्पित प्रयास किया।

दूसरा चरण महिलाओं की सक्रिय भागीदारी से जुड़ा हुआ है। इस दौर में महिलाएँ स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर श्रमिक आंदोलन में भी शामिल होने लगी। इस चरण में भारतीय महिला संघ(1917) जैसे विभिन्न संगठनों की स्थापना हुई और शारदा एक्ट (1929) जैसे कानूनी सुधार हुए। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के महिला उत्थान की दिशा में किए गए प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जहाँ महात्मा गाँधी ने सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत व विधवाओं के शोषण का मुखर विरोध किया वहीं डॉ. अंबेडकर ने कानूनी सुधार(प्रसूति अवकाश, मताधिकार) व संवैधानिक प्रावधानों(समानता का अधिकार और लैंगिक विभेद का अंत) के माध्यम से महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में व्यावहारिक प्रयास किया। इस दौर में प्रमुख नारीवादियों में कामिनी राय, सरला देवी चौधरानी, दुर्गाबाई देशमुख की भूमिका उल्लेखनीय रही है।

भारत में नारीवादी आंदोलन का तीसरा चरण आजादी के बाद सार्वजनिक और निजी जीवन में समानता से जुड़ा हुआ है। यह प्रमुख रूप से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता, शिक्षा तक पहुँच, संपत्ति में अधिकार तथा लैंगिक विभेद के अंत से जुड़ा हुआ है।

यदि हम वर्तमान में भारतीय नारीवादी विचारकों और आंदोलनकारियों की बात करें तो मेघना पंत, वृंदा करात, मधु किश्वर, मेधा पाटकर, गीता सहगल, वंदना शिवा, निवेदिता मेनन, नीरा देसाई, रूथ वनिता का नाम प्रमुख रूप से सामने आता है।

चुनौतियाँ-

नारीवादियों के समक्ष अलग-अलग प्रकार की चुनौतियाँ हैं। चूँकि प्रत्येक समाज की संस्कृतियाँ अलग हैं। इसलिये महिलाओं की पराधीनता और शोषण के कारण तथा संरचनाएँ भी अलग-अलग हैं। नारीवादी आंदोलन के समक्ष सबसे प्रमुख व्यवहारिक चुनौती स्त्रियों के प्रति बनी बनाई रूढ़ अवधारणाएं और पूर्वाग्रह हैं। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के विरुद्ध की मानसिकता का निर्माण हजारों वर्षों का परिणाम है। असंख्य सुधारों के बावजूद भी लैंगिक भेदभाव सार्वजनिक जीवन की एक हकीकत है। नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख चुनौती समाज में विद्यमान असमानता और स्त्रियों के शोषण की समाप्ति के विचार को लेकर नारीवादी आंदोलन से जुड़े विचारकों के मध्य असहमति भी है। नारीवाद का प्रमुख उद्देश्य पितृसत्तात्मक समाज को समाप्त करना है लेकिन नारीवाद के अंतर्गत इसके तरीके पर सहमति नहीं है। जिस वजह से नारीवादी आंदोलन की गति धीमी रही है।

संभावनाएँ-

नारीवाद से जुड़े हुए विचारकों का मानना है कि आज के वैज्ञानिक चिंतन के युग में शिक्षा के विस्तार के साथ यह स्पष्ट हो चुका है कि स्त्री-पुरुष की मानसिक और शारीरिक क्षमताओं तथा उत्तरदायित्व से जुड़ी योग्यताओं में कोई अंतर नहीं है। जहां भी स्त्रियों को अवसर मिला है वहाँ वे अपने आपको साबित कर चुकी हैं। शारीरिक क्षमता से जुड़े क्षेत्रों में भी स्त्रियाँ पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं। सेना तथा खेलकूद के क्षेत्रों में भी स्त्रियों ने नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसलिए स्त्री को सिर्फ अशक्त या अबला के रूप में देखना तर्कसंगत नहीं है। स्त्रियों की हीन स्थिति सामाजिक व्यवस्था की उपज है न कि प्राकृतिक व्यवस्था की देन। नारीवादी आंदोलन का सभी प्रकार के समाजों पर कमोबेश प्रभाव पड़ा है। नारीवादी आंदोलन के कारण स्त्रियों की दशा में काफी सुधार हुआ है और कई दूरगामी परिणाम भी प्राप्त हुए हैं। वोट देने के अधिकार, शिक्षा का अधिकार, निजता का अधिकार, विवाह एवं तलाक के कानून में परिवर्तन, दहेज एवं बाल विवाह पर प्रतिबंध जैसे विभिन्न कानूनों एवं अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता से महिलाओं की दशा में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। आज भी शासन व्यवस्थाओं , सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों द्वारा महिला सशक्तिकरण के प्रयास क्रमिक रूप से जारी हैं जिसके सकारात्मक परिणाम हासिल हुए हैं और आगे ढेरों संभावनाएं भी हैं। आज नारीवादी विचारकों का उद्देश्य स्त्रियों को पुरुष के समान बनाना नहीं बल्कि प्राकृतिक अंतर को स्वीकार करते हुए उनकी सामर्थ्य का संपूर्ण उपभोग करने तथा समाज के द्वारा स्थापित कृत्रिम असमानताओं को दूर करने का प्रयास करना है क्योंकि स्त्री-पुरुष समानता स्थापित करके ही किसी भी समाज का संपूर्ण विकास संभव है।

विमल कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
कुँवर सिंह पीजी कॉलेज, बलिया।
kumarvimal1947@gmail.com
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