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भारत में बुजुर्गों की स्थिति, समस्याएँ और समाधान

वृद्धाश्रम में रहने वाली 75 वर्षीय एक वृद्ध महिला के दो बेटे थे। बड़े बेटे ने यह कहकर अपनी माँ का सामान घर से बाहर फेंक दिया कि मेरे घर में तुम्हारे लिये जगह नहीं है, और न ही तुम्हारे खाने के लिये दो वक्त की रोटी है। साथ ही, छोटे बेटे और बहू ने भी कह दिया कि, ‘कहीं भी चली जाओ लेकिन मेरे घर पर मत आना।’ दूसरी ओर, एक बेटा अपनी बूढ़ी माँ को तीर्थस्थान पर घुमाने के बहाने छोड़कर चला गया, जिससे माँ दोबारा घर वापस न आ सके। वहीं, एक 86 वर्षीय वृद्धा के चार-चार करोड़पति बेटों ने यह कहकर अपनी माँ को घर से निकाल दिया कि 'तुमसे बदबू आती है’।

ये हृदय विदारक कहानियाँ केवल इन वृद्ध माताओं की नहीं हैं, बल्कि वृद्धाश्रम में रह रहे सभी बूढ़े माँ-बापों की ऐसी ही अपनी-अपनी दास्तान हैं जिन्हें सुनकर किसी भी व्यक्ति की आँखों में आँसू आ जाएँगे। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इन बूढ़े माँ-बापों को ऐसी हालत तक पहुँचाने वाले लोग कहीं बाहर से नहीं, बल्कि हमारे-आपके बीच से ही आते हैं। जिनके कारण धरती पर भगवान का रूप कहे जाने वाले माँ-बाप को अपने बच्चों के होते हुए दर-दर भटकना पड़ता है। कई बार तो माँ-बाप अपनी संतान के सामने इतने असहाय हो जाते हैं कि थक-हारकर वे अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर लेते हैं।

वे बच्चे जिनके लिये मां अपनी सभी इच्छाओं का त्याग कर देती है; उनकी खुशी के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहती है; जिनके लिये पिता दिन-रात पसीना बहाता है; जिन्हें उँगली पकड़कर चलना सिखाता है; अपने पैरों पर खड़े होते ही सब कुछ भूल जाते हैं। वृद्ध हो जाने पर जब माँ-बाप को उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है तब उन्हीं बच्चों को अपने माता-पिता बोझ लगने लगते हैं, और शायद इसीलिए आज देश में वृद्धाश्रम कम पड़ रहे हैं।

वृद्धों की लगातार बढ़ रही संख्या की वजह से आज सरकार को हर जिले में वृद्धाश्रम खोलने की ज़रूरत महसूस हो रही है। यहां यह बात सोचने पर मज़बूर करती है कि क्या हमारे माता-पिता की ज़िम्मेदारी सरकार की है; हमारा उनके प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं। क्यों आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते हुए हम अपने कर्तव्यों व संस्कारों को भूलते जा रहे हैं? जब उन्होंने कभी हमें अकेला नहीं छोड़ा तो हम इतने स्वार्थी कैसे हो जाते हैं कि बिना कुछ सोचे- विचारे नि:सहाय अवस्था में उन्हें छोड़कर चले जाते हैं। जबकि हम सब को पता है कि वृद्धावस्था में बुजुर्गों को कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इस अवस्था में शरीर इतना दुर्बल हो जाता है कि प्रत्येक बुजुर्ग को किसी न किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती ही है। साथ ही, व्यक्ति की मानसिक क्षमता भी कम होने लगती है एवं उसकी याददाश्त कमज़ोर हो जाती है। इससे भी कहीं अधिक ज़रूरत, बुढ़ापे में व्यक्ति को भावनात्मक सहारे की होती है। वे चाहते हैं कि घर के अन्य युवा सदस्य उनके साथ बैठें; उनसे सलाह लें; उन्हें समय दें, और जब उन्हें यह सब नहीं मिलता है तो वे अपनी भावनाएँ किसी के साथ साझा नहीं कर पाते और अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। परिवार में अपनी अहमियत को न समझे जाने के कारण वे हताश एवं उपेक्षित जीवन जीने को विवश होते जा रहे हैं।

एक सर्वे के मुताबिक 30 से 50 फीसदी बुजुर्गों में ऐसे लक्षण मौजूद थे जो उन्हें अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार बनाते हैं। अकेले रहने को विवश वृद्धों में एक बड़ी संख्या विशेष रूप से विधवा महिलाओं की है।

भारत के संदर्भ में यह स्थिति और भी चिंताजनक है क्योंकि एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की बुजुर्ग आबादी अगले दशक में 41 प्रतिशत तक बढ़ जाने का अनुमान है, यानी 2031 तक इस देश में 194 मिलियन वरिष्ठ नागरिक हो जाएँगे। ऐसे में उनके साथ दुर्व्यवहार की संख्या में भी तेजी से इज़ाफा हो रहा है।

यहाँ इस बात पर भी गौर करना ज़रूरी है कि उन बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार अधिक होता है, जो आर्थिक रूप से अपनी संतानों पर निर्भर होते हैं। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि कई बुजुर्ग भावुक होकर अपने जीते जी अपनी वसीयत संतानों के नाम पर कर देते हैं; वहीं कई बार बेटे व बेटियाँ ज़बरदस्ती अपने माँ-बाप की संपत्ति को अपने नाम करवा लेते हैं, और फिर माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं या खाने के लिये भी मोहताज़ कर देते हैं। ऐसे में प्रत्येक बुजुर्ग को आर्थिक रूप से मज़बूत रहना अत्यंत आवश्यक है। आंकड़ों की बात करें तो ‘हेल्पएज इंडिया’ एनजीओ द्वारा किये गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण से पता चला कि कम से कम 47 प्रतिशत वृद्धजन अपने परिवारों पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं और 34 फीसदी पेंशन एवं सरकारी नकद हस्तांतरण पर निर्भर हैं।

आर्थिक स्वतंत्रता के अलावा, बुजुर्गों को यह भी जानकारी रखनी चाहिए कि अगर उनकी संतान या किसी रिश्तेदार (कानूनी वारिस) ने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया है, तो वो अपना हक कैसे हासिल कर सकते हैं, उनके हितों की रक्षा के लिये देश में कौन-कौन से कानून हैं, क्या प्रावधान हैं?

बता दें कि, बुजुर्गों के लिये गरिमा भरे जीवन को सुनिश्चित करने के लिये कानून में कई तरह के प्रावधान हैं। जिनमें एक कानून ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण कानून 2007 (MWPSC)’ है, जो विशेष रूप से संतानों द्वारा सताए जा रहे बुजुर्गों के लिये बनाया गया है। इसके तहत बच्चों/रिश्तेदारों के लिये माता-पिता/वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल करना, उनके स्वास्थ्य, उनके रहने-खाने जैसी बुनियादी ज़रूरतों की व्यवस्था करना अनिवार्य है।

इस कानून की खास बात ये है कि अगर बुजुर्ग अपनी संपत्ति बच्चों या रिश्तेदार के नाम ट्रांसफर कर चुका हो और वो अब उसकी देखभाल नहीं कर रहे तो संपत्ति का ट्रांसफर भी रद्द हो सकता है। यानी वह संपत्ति फिर से बुजुर्ग के नाम हो जाएगी। इसके बाद वह चाहे तो अपने बेटे-बेटियों को अपनी संपत्ति से बेदखल भी कर सकता है।

इसके अलावा, वे माता-पिता जो अपनी आय या संपत्ति के जरिए अपनी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं और उनके बच्चे या रिश्तेदार उनका ध्यान नहीं रख रहे तो वे भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। उन्हें हर महीने 10 हज़ार रुपये तक का गुजारा-भत्ता मिल सकता है। यही नहीं, भरण-पोषण के आदेश का एक महीने के भीतर पालन करना अनिवार्य है।

हालाँकि, यह सच है कि आज भी भारत में बहुत से बुजुर्ग लोक-लाज के डर से अपने बच्चों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने से हिचकते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे अपने ही बच्चों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे तो परिवार का नाम खराब होगा; जमाना क्या कहेगा; बच्चे हमेशा के लिए उनसे दूर हो जाएँगे इत्यादि। वहीं, कुछ ज़ागरूकता की कमी के चलते चुपचाप बच्चों द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार को सहते रहते हैं। जानकर हैरानी होगी कि लगभग 30 प्रतिशत बुजुर्ग ही अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार के खिलाफ कानूनी रास्ता अपनाते हैं। अगर इस समस्या से निजात पाना है तो हमारे बुजुर्गों को अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी।

कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिये ये समस्याएँ मुंह फैलाए खड़ी हैं। जिनका अंत होते दिख नहीं रहा है।

चूँकि यह सामाजिक के साथ-साथ एक भावनात्मक मुद्दा है इसलिए इसका हल केवल सरकार द्वारा बनाए गए कानूनी प्रावधानों के आधार पर नहीं किया जा सकता है। इसके लिये चाहिए कि बच्चों को बचपन से ही स्कूलों में व घरों में बड़े-बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील रहने की शिक्षा दी जाए। उनमें नैतिक मूल्यों का विकास किया जाए।

युवा पीढ़ी को समझना चाहिए कि वृद्ध व्यक्ति समाज के लिये संपत्ति की तरह हैं, बोझ की तरह नहीं, और इस संपत्ति का लाभ उठाने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि उन्हें वृद्धाश्रमों में अलग-थलग करने की बजाय मुख्यधारा की आबादी में आत्मसात किया जाए। अगर हर संतान अपने माता- पिता को साथ रखे; न केवल साथ रखे बल्कि परिवार के निर्णयों में उन्हें सम्मिलित करे; उनके मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य का ध्यान रखे; उन्हें भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक सहायता दे, तो देश में एक भी वृद्धाश्रम की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हमें इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है वरना कल हम भी किसी वृद्धाश्रम में पड़े होंगे। इसी संदर्भ में युवा पीढ़ी को संबोधित करते हुए दिनेश दिग्गज ने लिखा है-

'बहुत सेल्फी लेते हो, जरा मुस्कराया करो,

अपने चेहरे को आईना भी दिखाया करो,

अरे जमाने के तजुर्बे गूगल पर नहीं मिलेंगे,

मिले जो वक्त, बुजुर्गों के पास बैठ जाया करो।

वहीं नीचे दी गई ये बेहतरीन पंक्तियाँ भी बुजुर्गों की अहमियत को बखूबी बयां करती हैं-

तू इन बूढ़े दरख्तों की हवाएँ साथ रख लेना

सफ़र में काम आयेंगी दुआएँ साथ रख लेना

उपरोक्त के विपरीत, इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि बुजुर्गों को भी अपनी परंपरागत हठधर्मिता को छोड़ते हुए नई पीढ़ी के युवाओं के साथ तालमेल बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। अपने बेटे-बहुओं के साथ अपनी राय साझा करें, किंतु उन पर अपनी राय थोपें नहीं। महामारी की तरह फैल रही इस सामाजिक समस्या को आपसी सामंजस्य के ज़रिये ही जड़ से खत्म किया जा सकता है।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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