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राजनीतिक दल एवं मीडिया गठजोड़

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है क्योंकि लोकतंत्र को और सुदृढ़ करने एवं राजनीतिक दलों की जवाबदेही सुनिश्चित करने में मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, परंतु भारत में राजनीतिक दलों और मीडिया के मध्य गठजोड़ ने न केवल हमारी बौद्धिक स्वतंत्रता के लिये गंभीर चुनौती उत्पन्न की है बल्कि यह गठजोड़ लोकतंत्र के लिये भी गंभीर खतरा है।

वर्तमान में देश के अधिकांश न्यूज़ चैनल किसी-न-किसी राजनीतिक दल के मुखपत्र बने हुए हैं और राजनीतिक दलों को लाभ पहुँचाने के लिये लोगों के दृष्टिकोण, विश्वास एवं व्यवहार को प्रभावित करने का लगातार प्रयास कर रहे हैं तथा प्रोपगेंडा का सहारा ले रहे हैं जिसका उद्देश्य विचारों, सूचनाओं एवं अफवाहों को फैलाना है।

वर्तमान में जब मीडिया को सर्वाधिक राजनीतिक दल प्रभावित करते हैं ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि राजनीतिक दलों की वह कौन-सी प्रवृत्ति है जिससे राजनीतिक दलों का मीडिया पर नियंत्रण समस्या को और गंभीर बनाती है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र सुनिश्चित करने में राजनीतिक दल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपकरण है परंतु वर्तमान परिदृश्य में राजनीतिक दलों में हाईकमान का प्रचलन बढ़ा है और देश के लगभग सभी राजनीतिक दल किसी व्यक्ति अथवा परिवार की जागीर बनकर रह गए हैं।

मतदाताओं को अपने कार्यों, राजनीतिक आदर्शों अथवा राजनीतिक विचारधाराओं के माध्यम से आकर्षित करने एवं स्वस्थ राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के माध्यम से सत्ता प्राप्त करने के बजाय इन राजनीतिक दलों ने सोशल इंजीनियरिंग एवं कास्ट केमेस्ट्री जैसी नवीन जाति आधारित राजनीतिक प्रयोगों एवं स्पष्ट धार्मिक ध्रुवीकरण के लगातार प्रयासों द्वारा सामाजिक वैमनस्य को न केवल बढ़ाया है बल्कि देश की अखंडता के लिये भी गंभीर चुनौती उत्पन्न की है।

वहीं मीडिया चैनलों द्वारा धर्म, जाति एवं क्षेत्र आधारित मुद्दों को मतदाताओं तक इस तरह से मैनीपुलेट कर अथवा प्रबंधित करके पहुँचाया जाता है कि राजनीतिक दल के पक्ष में अधिक मतदाताओं को आकर्षित किया जा सके और बदले में संबंधित राजनीतिक दल से लाभ प्राप्त करने के अलावा अधिक-से-अधिक दर्शकों को आकर्षित करने में भी सफल होते हैं।

राजनीतिक दल हमारे किसी भी पहचान के बिंदु जैसे- धर्म, जाति, क्षेत्र अथवा भाषा का शुभचिंतक होने का दावा करते हैं एवं गाहे-बगाहे इन पहचान से संबंधित विभिन्न मुद्दों को उठाते रहते हैं जिससे संबंधित राजनीतिक दल से लोगों को आत्मीयता हो जाती है और यह आत्मीयता समय के साथ प्रगाढ़ होती जाती है तथा वह राजनीतिक दल उस पहचान का सर्वमान्य प्रतिनिधित्वकर्त्ता बन जाता है। इसके पश्चात् जनसामान्य द्वारा इस प्रतिनिधित्वकर्त्ता के किसी भी मत का समर्थन, बिना किसी तर्कशक्ति का प्रयोग किये किया जाता है, साथ ही आलोचना करने वालों का उग्र विरोध किया जाता है।

एक मतदाता के रूप में हमसे अपेक्षा की जाती है कि अपने नेता का चुनाव निष्पक्ष होकर तर्कपूर्ण ढंग से करें, न कि किसी पूर्वाग्रह अथवा जातीय, धार्मिक कुंठा के साथ।

कहा जाता है कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र है, यहाँ राजतंत्र समाप्त हो चुका है, औपनिवेशिक शासन समाप्त हो गया है और अब हम स्वतंत्र हैं, फलाने अनुच्छेद में हमें यह अधिकार मिला, ढिकाने अनुच्छेद में यह अधिकार मिला है! क्या सच में हम वास्तविक लोकतंत्र हैं? क्या सच में हम स्वतंत्र हैं?

भारत में लोकतंत्र सुनिश्चित करने वाले राजनीतिक दल किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार की जागीर बने हुए हैं और किसी राजतंत्र के समान ही इस राजनीतिक उत्तराधिकारी को चुना जाता है, लोकतंत्र में तो ऐसा नहीं होता है। लोकतंत्र में हम अपने पूर्वाग्रहों और कुंठाओं से स्वतंत्र तो हैं साथ ही लोकतंत्र में धर्म, जाति और क्षेत्रीयता जैसे तत्त्व मतदान के प्रमुख निर्धारक नहीं होते हैं। निश्चित रूप से हम अब किसी औपनिवेशिक सत्ता के गुलाम नहीं हैं परंतु आज भी हममें स्वतंत्र अभिवृत्ति का विकास नहीं हो पाया है, हम स्वतंत्र तो हैं परंतु हमारी मनोवृत्ति अभी भी गुलाम है।

राजनीतिक दलों की पहुँच से सोशल मीडिया भी अब अछूता नहीं रहा है, ऐसा माना जाता है कि सोशल मीडिया अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शी है तथा यहाँ पर सूचनाओं को नियंत्रित अथवा मैनिपुलेट नहीं किया जा सकता है परंतु हाल ही में विसलब्लोअर क्रिस्टोफर वायली (Whitsle-blower Christopher Wylie) ने आरोप लगाया कि कैंब्रिज एनालिटिका नामक संस्था ने सोशल मीडिया से लोगों के आँकड़ों को एकत्रित कर उनके अध्ययन से लोगों की रुचियों को जानकर एक राजनीतिक दल के पक्ष में लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने का प्रयास किया।

ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और मीडिया का यह गठजोड़ नवीन है, यह द्वितीय विश्वयुद्ध जैसी महाआपदा के प्रमुख कारणों में से एक है। मीडिया के माध्यम से सत्ता प्राप्त करने अथवा सत्ता में बने रहने के लिये यूरोपीय देशों में राष्ट्रवाद की अफीम मीडिया के माध्यम से राजनीतिक दलों ने ही बोई थी जो विश्वयुद्ध के रूप में परिणित हुई।

एक प्रगतिशील समाज की सामाजिक जड़ता समय के साथ कम होती जाती है परंतु मीडिया एवं राजनीतिक दलों के गठजोड़ ने न केवल सामाजिक विकास को बाधित किया है बल्कि सामाजिक जड़ता को और मज़बूत किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्षों के पश्चात् चुनावों  को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले बिंदु आज भी जाति और धर्म ही हैं। 

देश में लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिये सर्वाधिक आवश्यक है कि हम ऐसी किसी भीड़ का हिस्सा न बनें जो केवल भावनाओं एवं पूर्वाग्रहों को हथियार बनाकर राजनीतिक दलों एवं मीडिया प्रोपगेंडा द्वारा संचालित हो। समर्थन या विरोध हमारा स्वयं का होना चाहिये जो हमारे तर्क एवं विश्लेषण की परिणति हो, न कि किसी कुटिल वाह्य प्रेरक की।

[अरविंद सिंह]

(लेखक समसामयिक, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं आर्थिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के साथ आर्थिक इकाई के रूप में मानव व्यवहार के अध्ययन में गहरी रुचि रखते हैं।)

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