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द्रौपदी मुर्मू के महामहिम बनने के मायने

गतसप्ताह, 21 जुलाई को, द्रौपदी मुर्मू ने भारत के 15वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लिया। भारत के राजनीतिक इतिहास की यह एक महत्वपूर्ण घटना और भारत के संवैधानिक लोकतंत्र को गौरवान्वित करने वाला क्षण है। यह निर्वाचन गणतंत्र के विचार की सार्थक अभिव्यक्ति भी है। द्रौपदी मुर्मू के पार्षद से राष्ट्रपति पद तक का सफर साधारण से असाधारण उपलब्धि और संघर्ष की कहानी है। द्रौपदी मुर्मू का महामहिम निर्वाचित होना कई मायनों में विशेष है। झारखंड की पहली महिला राज्यपाल रही मुर्मू भारतीय राजनीति के सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली दूसरी महिला और जनजाति समुदाय से संबंधित प्रथम व्यक्ति हैं। मुर्मू उड़ीसा की भी प्रथम व्यक्ति हैं जो राष्ट्रपति निर्वाचित हुआ हो। मुर्मू आजाद भारत में जन्म लेने वाली प्रथम और सबसे कम उम्र की राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं।

जब से राष्ट्रपति चुनाव और उम्मीदवारों की घोषणा हुई और अब राष्ट्रपति के पद की शपथ लेने के बाद भी कई ऐसे प्रश्न हैं जो आमजन के लिए जिज्ञासा का विषय और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए मुद्दा बने हुए हैं।

यदि शक्तियों और कार्यों का विश्लेषण करें तो भारतीय संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति की स्थिति ज्यादातर प्रतीकात्मक ही है लेकिन संघीय सरकार में राष्ट्रपति के पास नाममात्र की शक्तियों के अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण विवेकाधीन शक्तियां भी प्राप्त हैं। राजनीति में प्रतीकों का भी अपना महत्व होता है यदि प्रतीक का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो।

उम्मीद-

द्रौपदी मुर्मू हाशिए पर खड़े समाज के लिए उम्मीद की एक किरण हैं। इनका निर्वाचन एक बड़ी आबादी को शीर्ष स्तर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होने जैसा है और यह वंचित समुदाय में राजनीतिक चेतना विकसित करने का कार्य भी करेगा। भारत की कुल जनसंख्या में से आदिवासी समाज की जनसंख्या लगभग 9 प्रतिशत है। यह निर्वाचन एक बड़ी आबादी की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने के साथ-साथ आधारभूत जरूरतों से जूझ रहे वंचित समाज की समस्याओं को सतह पर लाने का कार्य भी करेगा। मुर्मू का निर्वाचन आधी आबादी के लिए भी प्रेरणादायक साबित होगा। इनके निर्वाचन से महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को न सिर्फ बल मिला है बल्कि इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को गति भी मिलेगी।

चुनौतियाँ-

द्रौपदी मुर्मू पर इस बात का दबाव निश्चित तौर पर रहेगा कि वह किसी पार्टी या विचारधारा विशेष की निष्ठा के इतर सामाजिक हित के लिए कदम उठाएंगी। भारतीय संसद में 45 सीट और विधानसभाओं में 487 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। लेकिन जनजाति समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पोषण के मानकों पर निम्नतर स्थिति में है। उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीति ने आदिवासी समाज को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। संसाधनों का अनुचित दोहन, असुरक्षा और विस्थापन इस समाज की एक महत्वपूर्ण समस्या है। द्रौपदी मुर्मू के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण चुनौती जनजातीय समाज के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करना है।

यह प्रश्न भी विचारणीय है कि शीर्ष स्तर पर एक महिला निर्वाचित हो सकती है तो महिला प्रतिनिधित्व के लिए विधायिका में 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण क्यों नहीं? आबादी के लिहाज से महिला प्रतिनिधियों की संख्या बेहद कम है। हाल ही में विश्व आर्थिक मंच ने वर्ष 2022 के लिये अपने वैश्विक लैंगिक अंतराल (Global Gender Gap-GGG) सूचकांक में भारत को 146 देशों में से 135वें स्थान पर रखा है। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 22.3 प्रतिशत है। भारत में घरेलू हिंसा के आंकड़े भी बेहद डराने वाले हैं। इसलिए भारतीय समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आयामों में लैंगिक असमानता को दूर करना और हाशिए के समाज के लिए गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना भी द्रौपदी मुर्मू के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।

निष्कर्ष-

भारतीय संविधान के प्रावधानों के अवलोकन के पश्चात राष्ट्रपति के पद को सिर्फ रबर स्टांप समझना कमजोर आकलन है। राष्ट्रपति प्रथम नागरिक होने के साथ-साथ संघीय सरकार एवं रक्षा सेवाओं का प्रमुख और अनुसूची 5 व 6 के अंतर्गत संरक्षित क्षेत्रों का मुख्य प्रशासक भी होता है। द्रौपदी मुर्मू को कठोर संवैधानिक शख्सियत के रूप में जाना जाता है। उम्मीद है कि वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को समावेशी बनाने की दिशा में कार्य करेंगी।

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विमल कुमार

असिस्टेंट प्रोफेसर, कुँवर सिंह पीजी कॉलेज, बलिया

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