लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



दृष्टि आईएएस ब्लॉग

महात्मा गांधी का दिल्ली से नाता : अंतिम उपवास तथा शिक्षक गांधी

महात्मा गांधी के नोआखाली और कोलकाता में सांप्रदायिक दंगों को खत्म करवाने के बारे में बार-बार लिखा जाता है। पर उन्होंने यही काम दिल्ली में भी किया था। अजीब बात है कि इसकी अधिक चर्चा नहीं होती। इसके साथ ही वे दिल्ली में शिक्षक भी बने। उन्होंने दिल्ली के बच्चों को पढ़ाया भी। बाकी शायद ही कहीं वे किसी जगह पर मास्टर जी बने हों!

 दरअसल, 9 सितंबर, 1947 को गांधी जी शाहदरा रेलवे स्टेशन पहुँचते हैं। वे उसके बाद कभी दिल्ली से गए नहीं। वे पहली बार राजधानी में 12 अप्रैल 1915 को आए थे। तब वे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरे थे। शाहदरा रेलवे स्टेशन में देश के गृह मंत्री सरदार पटेल और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर उन्हें लेने आए थे। उस वक्त सारे वातावरण में तनाव और निराशा फैली हुई थी। कारण यह था कि देश आजाद होने के साथ-साथ बँटा भी था। बँटने के कारण अनेक शहरों में सांप्रदायिक दंगे भड़के थे। दिल्ली भी दंगों से अछूती नहीं रही थी।पहाड़गंज,करोलबाग,दरियागंज, महरौली वगैरह को दंगों ने हिला कर रखा दिया था। गांधी जी को शाहदरा रेलवे स्टेशन पर ही सरदार पटेल ने बता दिया कि अब उनका पंचकुईयां रोड की वाल्मीकि बस्ती के वाल्मीकि मंदिर में रहना सुरक्षित नहीं होगा। बापू वहां पर पहले रह चुके थे।

 नहीं थम रहे थे दंगे

बापू को यह भी बताया गया कि अब वाल्मीकि बस्ती में पाकिस्तान से आए शरणार्थी ठहरे हैं। इसलिये उनके लिये वहॉं स्पेस भी नहीं है। पंडित नेहरू भी यही चाहते थे कि बापू किसी सुरक्षित जगह पर ठहरें क्योंकि दिल्ली में दंगे-फसाद थम ही नहीं रहे थे। तब बापू अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी) पर स्थित बिड़ला हाउस में ठहरने के लिये तैयार हुए। शाहदरा से बिड़ला हाउस तक के सफर में गांधी जी ने जलती दिल्ली को देख लिया था। वे समझ गए थे कि यहां के हालात बेहद संवेदनशील हैं। वे दिल्ली आने के बाद सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने जुट गए। वे 14 सितंबर को  ईदगाह और मोतियाखान जाते हैं। ये दोनों स्थान भी दंगों की आग में झुलसे थे। वे स्थानीय लोगों से शांति बनाए करने की अपील करते हैं। दोनों जगहों पर दोनों संप्रदायों के लोग उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हैं। पाकिस्तान से अपना सब कुछ खोकर आए हिंदू और सिख शरणार्थी हैरान थे कि गांधी जी कह रहे हैं कि “ भारत में मुसलमानों को रहने का हक़ है।”

 गांधी का अंतिम उपवास किसलिये?

गांधी जी के सघन प्रयासों के बाद भी यहॉं जब दंगे रुक ही नहीं रहे थे, तब उन्होंने 13 जनवरी,1948 से अनिश्चितकालीन उपवास चालू कर दिया। दरअसल, उन्हें 12 जनवरी को खबर मिली कि महरौली में स्थित कुतुबउदीन बख्तियार काकी की दरगाह के बाहरी हिस्से को दंगाइयों ने क्षति पहुंचाई है।  ये सुनने के बाद उन्होंने अगले ही दिन से उपवास पर जाने का निर्णय लिया। माना जाता है कि बापू ने अपना अंतिम उपवास इसलिये रखा था ताकि भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सके कि वो पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अदा कर दे। पर सच ये है कि उनका उपवास दंगाइयों पर नैतिक दबाव डालने को लेकर था। गांधी जी ने 13 जनवरी को प्रात: साढ़े दस बजे अपना उपवास चालू किया। उस वक्त पंडित नेहरू, बापू के निजी सचिव प्यारे लाल नैयर वगैरह वहॉं पर थे। बिड़ला हाउस परिसर के बाहर मीडिया भी ‘ब्रेकिंग’ खबर पाने की कोशिश कर रहा था। हालॉंकि तब तक खबरिया चैनलों का युग आने में लंबा वक्त बचा था।

बापू के उपवास शुरू करते ही नेहरू जी और सरदार पटेल ने बिड़ला हाउस में डेरा जमा लिया। वायसराय माउंटबेटन भी उनसे बार-बार मिलने आने लगे। बापू से अपना उपवास तोड़ने के लिये सैकड़ों हिन्दू, मुसलमान और सिख भी पहुँच रहे थे। उनकी निजी चिकित्सक डा. सुशीला नैयर उनके गिरते स्वास्थ्य पर नजर रख रही थीं। आकाशवाणी बापू की सेहत पर बुलेटिन प्रसारित कर रहा था। उनके उपवास का असर दिखने लगा। दिल्ली शांत हो गई। दंगाइयों ने बवाल काटना बंद कर दिया। तब बापू ने 18 जनवरी को अपना उपवास तोड़ा। उन्हें नेहरू और मौलाना आजाद ने ताजे फलों का रस पिलाया। इस तरह से 78 साल के बापू ने हिंसा को अपने उपवास से मात दी।

Mahatma-Gandhi

 क्यों गए थे फकीर की दरगाह?

वे इसके बाद 27 जनवरी को सुबह काकी की दरगाह में पहुंचते हैं। उनके साथ मौलाना आजाद भी दरगाह में जाते हैं। वे वहॉं पर मुसलमानों को भरोसा दिलाते हैं कि उन्हें भारत में ही रहना है। कुछ मुसलमान जब पाकिस्तान जाने की उनके साथ ही जिद करने लगे तो बापू ने उन्हें कसकर डांट भी पिलाई। बापू ने वापस बिड़ला हाउस आने पर प्रधानमंत्री नेहरू को निर्देश दिया कि वे काकी साहब की दरगाह के क्षतिग्रस्त भागों की मरम्मत करवाएँ। नेहरू जी ने बापू के निर्देशों का पालन किया। पर अफसोस कि अब दरगाह से जुड़े किसी खादिम को ये जानकारी नहीं है कि बापू का काकी की दरगाह से किस तरह का रिश्ता रहा है।

 जब बापू बने मास्टर जी

दिल्ली ने महात्मा गांधी को मास्टर जी के रूप में देखा,यह तथ्य कम ही लोग जानते हैं। यहॉं उनकी पाठशाला चलती थी। वे अपने छात्रों को अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ाते थे। उनकी कक्षाओं में सिर्फ बच्चे ही नहीं आते थे। उसमें बड़े-बुजुर्ग भी रहते थे। वे पंचकुईया रोड स्थित वाल्मीकि मंदिर परिसर में 214 दिन रहे। 1 अप्रैल 1946 से 10 जून,1947 तक। वे शाम के वक्त मंदिर से सटी वाल्मीकि बस्ती में रहने वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाते थे। उनकी पाठशाला में खासी भीड़ हो जाती थी। तब बापू की पाठशाला में रीडिंग रोड (अब मंदिर मार्ग) में स्थित हारकोर्ट बटलर स्कूल, रायसीना बंगाली स्कूल, दिल्ली तमिल स्कूल वगैरह के बच्चे भी आने लगे थे। कुछ बच्चे करोल बाग और इरविन रोड तक से आते थे।

बापू अपने उन विद्यार्थियों को फटकार भी लगा देते थे, जो कक्षा में साफ-सुथरे हो कर नहीं आते थे। वे स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते थे। वे मानते थे कि स्वच्छ रहे बिना आप ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते। यह संयोग ही है कि इसी मंदिर से सटी वाल्मीकि बस्ती से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2 अक्तूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी।

बहरहाल वो कमरा जहॉं बापू पढ़ाते थे, अब भी पहले की तरह बना हुआ है। इधर एक चित्र रखा है, जिसमें कुछ बच्चे उनके पैरों से लिपटे नजर आते हैं। आपको इस तरह का चित्र शायद ही कहीं देखने को मिले। बापू की कोशिश रहती थी कि जिन्हें कतई लिखना-पढ़ना नहीं आता वे कुछ लिख-पढ़ सकें। इस वाल्मीकि  मंदिर में बापू से विचार-विमर्श करने के लिये पंडित नेहरू से लेकर सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान भी आते थे। सीमांत गांधी यहॉं बापू के साथ कई बार ठहरे भी थे। अब भी इधर बापू के कक्ष के दर्शन करने के लिये देखने वाले आते रहते हैं। वाल्मीकि समाज की तरफ से प्रयास हो रहे हैं कि इधर गांधी शोध केन्द्र की स्थापना हो जाए। वे शाम को प्रार्थना के तुरंत बाद बच्चों को पढ़ाते थे।

जहॉं लुई फिशर मिलते थे बापू से

गांधी जी की संभवत: सबसे महानतम जीवनी ‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी’ के लेखक लुई फिशर भी उनसे वाल्मीकि  मंदिर में ही मिलते थे। वे 25 जून,1946 को दिल्ली आए तो यहॉं  पर बापू से मिलने पहुँचे थे। उस समय इधर प्रार्थना सभा की तैयारियॉं चल रही थीं। ‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी’ को आधार बनाकर ही फिल्म गांधी का निर्माण हुआ था।

वाल्मीकि बस्ती में रहे डॉ ओ.पी. शुक्ला के पिता को भी बापू ने पढ़ाया था। वे कहते हैं कि हमारे वाल्मीकि समाज को बापू ने जिस तरह गले से लगाया, उसे हम कभी नहीं भूल सकते। हमारा समाज उनका सदैव आभारी रहेगा। वाल्मीकि  मंदिर के पुजारी संत कृष्ण विद्यार्थी कहते हैं, “हमने बापू के कमरे में रत्तीभर भी बदलाव नहीं किया। उनका बिस्तरा और लिखने की टेबल ठीक वैसी ही है। दोनों जगहों पर रोज फूल चढ़ाए जाते हैं।”

विवेक शुक्ला

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा Gandhi’s Delhi पुस्तक के लेखक हैं)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2