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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

हौसलों का सफर: एक समीक्षा

किस्सों और कहानियों के माध्यम से प्रेरणा देने का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि भाषाई अभिव्यक्ति का इतिहास। मनुष्य ने जैसे-जैसे बोलना सीखा वैसे-वैसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को संस्कारों की शिक्षा देने वाली कथाओं को भी सुनाना आरंभ कर दिया। हालांकि ये कथाएँ नैतिक शिक्षा जरूर देती थी मगर ये अपनी प्रकृति में विशुद्ध आदर्शवादी थी। बाद में जब लिपि का विकास हुआ तो यही कहानियाँ लिपिबद्ध होकर साहित्य का भी हिस्सा बनीं। हालांकि इन आदर्शवादी प्रेरक कहानियों को, यथार्थवादी चेतना के पाठकों द्वारा, सहजता से आत्मसात करना थोड़ा मुश्किल होता है।

मगर प्रेरक साहित्य की विधा के अंतर्गत कुछ पुस्तकें ऐसी भी हैं जो बेहद सहजता के साथ इंसान के अंतर्मन में दाखिल होती है मगर उनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है। हौसलों का सफर भी एक ऐसी ही पुस्तक है। ये उन 13 आईपीएस अफसरों की कहानी है जिन्होंने न सिर्फ अपने-अपने क्षेत्र की कानून-व्यवस्था में सुधार किया बल्कि कई बार भारत को मुश्किल हालातों से उबारा भी।

इन अफसरों में कुछ नाम ऐसे हैं जिन्हें हम बख़ूबी जानते हैं- इनमें अजीत डोभाल, केपीएस गिल, किरण बेदी, के.विजय कुमार, हेमंत करकरे आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनसे शायद नई पीढ़ी का कम परिचय है जैसे बी.एन. लाहिरी, के.एफ.रूस्तमजी, जूलियो फ़्रांसिस रिबेरो, प्रकाश सिंह, डी. शिवानंदन, अरूण कुमार, मीरा चड्डा बोरवंकर और आर. एस. प्रवीण कुमार। अगर इस पुस्तक के उद्देश्य अर्थात कथावस्तु की बात करें तो ये पाठकों को इन 13 आईपीएस अफसरों की कहानियों के माध्यम से रोचकता के साथ कुछ सीख देने का प्रयास करती है जिसकी पुष्टि पुस्तक के पहले अध्याय के शुरूआती अनुच्छेद से भी होती है-

'वक्त हर पल नई कहानियां लिख रहा है, ऐसी कहनियाँ जो आने वाले समय के लिए मशाल का काम करेंगी। ऐसी ही कहानियाँ नए समय के किरदार गढ़ेंगी, उन्हें हिम्मत देंगी और आगे बढ़ते रहने का मक़सद सुझाएंगी।'

इस पुस्तक में अफसरों की पेशेवर और निजी जिंदगी को आधार बनाते हुए ऐसा कथानक बुना गया है कि पाठक इसकी हर कहानी को पढ़ने के बाद उसकी खुमारी में डूब जाता है। फिर चाहे वो बी.एन. लाहिरी द्वारा जज को यह कहना कि जी नहीं। वारंट खाली था, या फिर प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा एक आईपीएस अफसर जूलियो फ्रांसिस रिबेरो को अपने एक आदेश के लिए मनाना, "मना मत कीजियेगा, पंजाब में हालत बेहद खराब हैं और हम चाहते हैं कि आप पंजाब जाएं।"

अफसरों की पेशेवर जिंदगी से सम्बंधित इन रोचक किस्सों के इतर उनके निजी जीवन के भी ऐसे किस्से हैं इस पुस्तक में जो कई बार आपको रोमांचित करेंगे तो कई बार आपको रुलायेंगे भी। ऐसा ही एक किस्सा केपीएस गिल से संबन्धित है जब वो भीड़ नियंत्रण के लिए एक दौरे पर गए हुए थे और इधर उनकी पत्नी को लगातार लोगों के फोन आते हैं कि गिल को मार दिया गया है और उसकी बोटियाँ काट-काट कर रेलवे स्टेशन पर फेंक दी गई हैं। ऐसे हालातों में अफसरों के परिवारीजनों के मन में क्या विचार आते हैं; पुस्तक इन संवेदनाओं का मुकम्मल चित्रण करती है।

एक अफसर की कार्यप्रणाली को समझने के लिहाज से भी ये पुस्तक मानीखेज है। मसलन मुश्किल हालातों में अफसर कैसे निर्णय लेते है या फिर नैतिक दुविधा में वो कौन सा रास्ता चुनते हैं? इसे पुस्तक के ही एक उदाहरण से समझिए; मुंबई में बच्चों का एक क्रिकेट मैच हो रहा था और इस मैच में शाहिद गेंदबाजी कर रहा था और जिग्नेश बल्लेबाजी। इसी दौरान गेंद जिग्नेश की कनपटी पर लगती है और वो औंधे मुँह गिर जाता है, बाद में उसकी मौत भी हो जाती है। इस घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है। बाद में जूलियो को इस मामले के नियंत्रण के लिए भेजा जाता है और जूलियो अपनी सूझबूझ से बिना खून-खराबे के भीड़ को शांत करा देते हैं।

ऐसे अनेक किस्से हैं इस पुस्तक में जो न सिर्फ आपकी निर्णयशीलता के गुण को बढ़ाएंगे बल्कि सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए तो ये नीतिशास्त्र के कई सवालों का जवाब भी देंगे। फिर चाहे वो के.पी.एस.गिल द्वारा असम में एक पोस्टिंग के दौरान एक थाने में शुक्रिया शुल्क के नाम पर ली जा रही रिश्वत का बंद कराना हो या फिर एक व्यापारी द्वारा दिये गए घी के डिब्बे में लात मारना हो।

यह पुस्तक आजादी के बाद के भारत की कुछ चुनिंदा ऐतिहासिक घटनाओं और उस वक्त के माहौल से भी परिचय कराएगी। इनमें से कुछ प्रमुख घटनाएं हैं; असम में भाषाई आंदोलन, ऑपेरशन ब्लू स्टार, ऑपेरशन दाऊद, मिजोरम डिनर डिप्लोमेसी आदि। इन ऑपरेशनों में ये अफसर तो अपना सम्पूर्ण प्रयास देते ही थे, इनके परिवार वाले भी इनका बखूबी साथ देते थे। मसलन मिजोरम से मिजो नेशनल फ्रंट के आतंक के खात्मे के लिए की जा रही बातचीत के दौरान एक अफसर अक्सर इन नेताओं के साथ डिनर वार्ता करते थे और इस वार्ता के लिए सुअर का मांस उनकी पत्नी बनाती थी जिन्होंने पहली ही बार इसे पकाना सीखा था। इसके साथ ही ये पुस्तक आपको भारतीय पुलिस सेवा के इतिहास से भी रूबरू कराती है जैसे कि हैदराबाद से पहले पुलिस प्रशिक्षण कहाँ होता था? आदि...

यदि इस पुस्तक की पात्र व्यवस्था पर बात की जाए तो इस पुस्तक में जिन 13 आईपीएस अफसरों की कहानियाँ है वे सभी इस पुस्तक के मुख्य पात्र हैं। इसके साथ ही इन अफसरो की पेशेवर और निजी यात्रा के दौरान जो भी लोग इनके साथ जुड़ते गए उन सब ने भी इन कहानियों की पात्र संरचना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अगर इस पुस्तक की भाषा की बात करें तो ये अत्यंत ही सहज और बोधगम्य है जिसे पढ़ते वक्त आपको एक बार भी किसी शब्द के अर्थ को खोजने के लिए गूगल की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसे एक उदाहरण से समझिए-

"आईजी का कार्यभार संभालने के तीसरे दिन ही गब्बर सिंह ने बिल्कुल फिल्मी अंदाज में रूस्तमजी का स्वागत किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ के.एन. काटजू भिंड के दौरे पर थे और तभी गब्बर सिंह ने 11 ग्रामीणों की नाक काट ली थी। उन दिनों, उसने देवी के सामने 116 लोगों की नाक चढ़ाने की मनौती मानी हुई थी। "

इस पुस्तक का वातावरण भी अत्यंत सघन है। फिर चाहे वो पुलिसिंग की कार्यप्रणाली हो या फिर सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक माहौल। इसे पढ़ने के दौरान आप लगातार इन घटनाओं का हिस्सा बनते चले जाते हैं। एक अफसर किन-किन मनःस्थितियों से गुजरता है; इसे भी आप इस पुस्तक को पढ़कर समझ पाएंगे, जैसे के.एफ.रूस्तमजी के माध्यम से पुस्तक ये समझाने का प्रयास करती है कि कैसे एक विचारशील नवयुवक अपनी दुनिया के बारे में जानने और सार्थक हस्तक्षेप न कर पाने की बेचैनी में अवसाद का शिकार हो जाता है।

अगर संवाद की बात की जाए तो इस पुस्तक में अपनी बात को रोचक ढंग से कहने के लिए अनेक स्थानों पर संवाद शैली का प्रयोग किया गया है-

रिबेरो चेहरे पर अनजान आवाज भाव लिए भीड़ के सामने पहुँचे और कड़क आवाज में पूछा-

"यहाँ क्या हो रहा है?"

"क्या साहब, जानते नहीं क्या, मर्डर हुआ है, मर्डर।"

"मर्डर! किसने किया?"

इस प्रकार 'हौसलों का सफर' आपको एक ऐसी रोमांचक यात्रा पर ले जाती है जहाँ आप देश की पुलिस व्यवस्था की कार्यप्रणाली को नजदीक से समझ पाते हैं तो देश की कुछ चुनिंदा ऐतिहासिक घटनाओं से भी रूबरू हो जाते हैं। इसके अलावा यह पुस्तक एक युवा को कुछ करने का मोटिवेशन तो देती ही है, साथ ही उनकी जिंदगी के कुछ अहम फैसले लेने में भी सहायक होती है।

संकर्षण शुक्ला

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

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