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साहित्य, सिनेमा और समाज का अंतर्संबंध

साहित्य, सिनेमा और समाज तीनों को एक ही पंक्ति में रखने का कारण इनके मध्य व्याप्त गहन अन्तर्संबंधितता रही है। साहित्य समाज से और समाज साहित्य से निरंतर वैचारिक आदान-प्रदान करता आ रहा है। इसी प्रकार सिनेमा साहित्य और समाज दोनों से प्रभावित भी होता है और वृहद परिदृश्य पर जाकर समाज को प्रभावित करने का हुनर भी रखता है। परंतु बात जब वृहद परिदृश्य की आती है तो सिनेमा के ऊपर उत्तरदायित्व भी बड़ा आता है। साहित्य एवं सिनेमा के संबंध में पुरातन से ही यह बात चली आ रही है कि केवल मनोरंजन प्रधानता उनका उद्देश्य नहीं होना चाहिए | उद्देश्यहीन साहित्य और सिनेमा निम्न कोटि का समझा जाता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ इस संबंध में सटीकता लिए हुए है- ‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।’ यहाँ उपदेश का अर्थ समाज की बुनियाद को मजबूत बनाए रखने वाले आदर्शों और नैतिकताओं से रहा है। सिनेमा और साहित्य समाज से विषय वस्तु ग्रहण करते हैं, तो उनकी नैतिकता यह तो होनी ही चाहिए कि वह समाज पर सकारात्मक प्रभाव ही छोड़े। परंतु वर्तमान समय में सिनेमा दो खेमों में बंट गया है जहाँ एक ओर बॉक्स ऑफिस को मद्देनजर रखते हुए फिल्मों का निर्माण किया जाता है, तो दूसरी ओर वे फिल्में जिन्हें आर्ट सिनेमा के अंतर्गत रखा जाता है, जो समाज से सीधे तौर पर जुड़ी हुई होती हैं, जो कल्पना से इतर सटीक यथार्थ पर आधारित होती हैं।

सिनेमा और समाज के अंतर्संबंधों पर सरसरी तौर पर नजर डाली जाए तो पाया जाता है कि समाज सिनेमा से सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के विचार एवं विचारधारा से न केवल प्रभावित होता है, अपितु उसे ग्रहण कर जीवन में उपयोग करने का प्रयास भी करता है। ऊपरी तौर पर देखेंगे तो पाएंगे कि जो विचार पहले-पहल रोचक संवादों के जरिए समाज में स्थान बनाते हैं, वे लंबे समय के उपरांत अचेतन रूप से वैचारिकी में शामिल हो जाते हैं। हल्के तौर पर मनोरंजक ढंग से लिखे गये संवाद धीरे-धीरे पहले दर्शकों की जुबान से होते हुए बड़े तौर पर समाज के अंतस में पैठ बना लेते हैं। समाज जहाँ से दर्शक जुड़े हुए होते हैं वे यह विचार बिल्कुल भी नहीं करते कि जो सामग्री वे ग्रहण कर रहे हैं, वह उनके लिए प्रासंगिक, स्वीकार योग्य और उपयुक्त है भी या नहीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1985 में अमिताभ बच्चन और अमृता सिंह अभिनीत मशहूर फिल्म ‘मर्द’ का एक संवाद ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ उस समय से लेकर आज तक काफी प्रचलित रहा है। इस संवाद के प्रभाव के संबंध में बात की जाए तो यह संवाद पुरुष प्रधान समाज में उनके भीतर गर्व की भावना का संचार करता है और यह दर्शाता है कि पुरुष शारीरिक कष्ट के बावजूद भी मजबूत ही रहते हैं। परंतु इस संवाद का लॉन्ग टर्म इंपैक्ट यह पड़ा कि पुरुषों ने शारीरिक के साथ-साथ मानसिक पीड़ाओं को छुपाकर स्वयं को मजबूत दर्शाने का लगातार प्रयास किया और आज भी काफी हद तक करते आ रहे हैं। ‘लड़कियों की तरह नहीं रोते’ और ‘लड़का होकर होता है’ ऊपर संदर्भित संवाद के आगे के वर्जन हैं, जो बहुत सी फिल्मों और रोज़मर्रा के जीवन में भी हम अनजाने ही वर्षों से बोलते आ रहे हैं। यह संवाद समाज के भीतर इस प्रकार की वैचारिकी को उत्पन्न करती है कि रोना लड़कियों का कार्य है क्योंकि वे कमजोर, सामर्थ्यहीन, वल्नरेबल और अत्यधिक संवेदनशील होती हैं, वहीं लड़के नहीं रोते क्योंकि यह उनके लिए कमजोर होने की निशानी के तौर पर कार्य करता है और पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों का कमजोर होना अस्वीकार्य है। यहाँ तो केवल एक संवाद के प्रभाव की बात है, सिनेमा इस प्रकार के संवादों से अटा हुआ है। सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘दबंग’ का एक संवाद बड़ा प्रसिद्ध हुआ था- ‘प्यार से दे रहे हैं, रख लो, वरना थप्पड़ मारके भी दे सकते हैं।’ यह संवाद स्त्री के प्रति हिंसा का सामान्यीकरण करता है। कितनी विडंबना की बात है कि जिस माध्यम का उपयोग सुधारात्मक रूप से किया जा सकता था, वह माध्यम ही हिंसा, अभद्रता, अश्लील शब्दावली, द्विअर्थी संवाद, बॉडी शेमिंग, स्त्रियों के प्रति किए जाने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्याचारों, ऑब्जेक्टिफिकेशन, धार्मिक अलगाव, रेसिज्म आदि अन्य गंभीर मुद्दों को परिहास या मनोरंजन की तरह दर्शाता है। दृश्य और श्रव्य माध्यम होने के कारण सिनेमा साहित्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली माना जाता है। इसका एक पक्ष मनोरंजन या हास्य-व्यंग्य हो सकता है, परंतु जब कुछ फिल्में ही इन्हीं पक्षों को केंद्रीय विषय बनाकर दर्शकों के सामने लायी जाती हैं, तो यह बहुत हद तक सामान्य जनता पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। संवादों के अतिरिक्त एक और पक्ष है जिस पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है, वह है फिल्मों में बढ़ते ‘आइटम सांग्स के ट्रेंड का’। पटकथा से इस तरह के गानों का कोई संबंध हो या न हो, परंतु यह इसलिए फिल्मों में अपना स्थान बना पाते हैं कि इसमें ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जो न केवल द्विअर्थी होती है, अपितु कुंठित प्रवृत्ति के मनुष्यों के लिए मनोरंजक भी होती है। अभिनय के नाम पर स्त्रियों का जिस प्रकार वस्तुकरण इन गानों में किया जाता है, वह निंदनीय है। सिनेमा जगत से जुड़े अभिनेताओं, निर्देशकों, निर्माताओं, लेखकों, गीतकारों, संगीतकारों तथा सिनेमा के अन्य क्षेत्रों से संबंधित लोगों को अपने नैतिक दायित्वों के प्रति जागरूक होना चाहिए तथा उन्हें यह आभास होना चाहिए कि वे समाज के लिए अपनी भूमिका को किस प्रकार उपयोगी बना सकते हैं। यह कितनी गंभीरता का कार्य है, जिसे मनोरंजन जगत का एक बड़ा हिस्सा महज पैसे कमाने के जरिए तौर पर देखता है। हाल ही में संदीप रेड्डी वांगा निर्देशित फिल्म ‘एनिमल’ ने नौ सौ करोड़ से अधिक की कमायी की, जबकि इस फिल्म में विवादास्पद संवादों की भरमार आपको देखने को मिल जाती है। स्त्री का वस्तुकरण, विवाहेत्तर संबंध, कानून और संविधान का मखौल उड़ाना, नग्नता का व्यर्थ चित्रण, अराजकता और हिंसा से भरपूर दृश्य होने के बावजूद यह फिल्म चली और बड़े स्तर पर समाज द्वारा देखी और स्वीकार भी की गयी इसका अर्थ यह हुआ कि समाज अराजकता, हिंसा, कानून और न्याय-व्यवस्था को धराशायी होते देख विचलित नहीं हुआ अर्थात् यह बेहद गंभीर मुद्दा है कि यह समाज किस दिशा की ओर मुड़ रहा है। ‘एनिमल’ फिल्म के निर्माता की एक और फिल्म विवादास्पद रही है ‘कबीर सिंह’। ये दोनों फिल्में टॉक्सिक मस्कुलिनिटी को न केवल औचित्यपूर्ण ठहराती हैं, अपितु उनका महिमामंडन भी करती हैं। यहाँ सिनेमा के उत्तरदायित्व पर इतना जोर देने का प्रयास इसलिए किया जा रहा है क्योंकि सिनेमा समाज के सभी वर्गों तक अपनी पहुँच बनाने में सक्षम हो चुका है। यह शिक्षित-अशिक्षित, निम्न वर्ग, मध्य या उच्च वर्ग सभी के लिए बनाया जाता है, परन्तु सिनेमा की जो एप्रोच होती है, वह प्रत्येक वर्ग अपने-अपने विवेक के अनुसार अपनाता है। विवेकहीन व्यक्ति अभिधा के अतिरिक्त लक्षणा या व्यंजना समझने में असमर्थ रहता है, जिस कारण वह सीधा-सीधा अर्थ लेता है और उन सभी बातों के पक्ष-विपक्ष पर विचार नहीं कर पाता।

जहाँ एक ओर ‘दबंग’, ‘हाउसफुल’, ‘टाइगर’ इत्यादि प्रकार की मसाला फिल्मों का निर्माण चल रहा है, वहीं दूसरी ओर इस पक्ष की सराहना भी की जानी चाहिए जो कि ‘थप्पड़’, ‘पिंक’ ‘12वीं फेल’, ‘सुपर 30’, ‘पैडमैन’, ‘डियर जिंदगी’, ‘निल बट्टे सन्नाटा’, ‘गुठली’, ‘तुम्बाड’, ‘क्वीन’ आदि फिल्मों को भी काफी सराहना मिल रही है, जिस कारण से समाज बहुत से गंभीर परंतु वर्जित विषयों के प्रति अब काफी हद तक संवेदनशील और सहिष्णु बनने का प्रयास कर रहा है। अवसाद, हिंसा, स्त्री समस्या, जातिवाद आदि विषयों को लेकर हमारा समाज पिछले 10-15 वर्षों में काफी हद तक जागरूक हुआ है और इन्हीं समस्याओं की गंभीरता पर अब विवेकवान और संवेदनशील भी हुआ है, जिसकी हमारे समाज में अत्यंत आवश्यकता थी। सिनेमा और समाज के अंतर्संबंध पर बात करते हुए हम समझ पाएं हैं कि वह समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ता है, जिस कारण कभी-कभार परंतु अनजाने ही आपराधिक मनोवृत्ति के लोगों को नयी योजनाएं भी प्रदान कर बैठता है। वर्ष 2018 में ‘चंद्रवीर गाजियाबाद केस’ में अपराधी ने 2015 में आयी अजय देवगन अभिनीत फिल्म ‘दृश्यम’ को देखकर इस भीषण हत्याकांड को अंजाम दिया था। आश्चर्य की बात यह है कि चार वर्ष बाद 2022 में इस हत्याकांड का पर्दाफाश हुआ था। समाज दरअसल बेहद जटिल संरचना है और उससे भी अधिक जटिल है समाज को बनाए रखने वाले मनुष्य की मनोवृत्तियों को समझना, इस कारण इस बात पर ज़ोर देने का प्रयास किया गया है कि सिनेमा जगत को इन बातों पर खासा गौर करना चाहिए कि उससे समाज कितना और किस प्रकार प्रभावित और परिवर्तित होता है क्योंकि जिन दो वस्तुओं का अंतर्संबंध जब इतना गहरा होता है तो परस्पर सकारात्मक या नकारात्मक विचारों का आवागमन तो होता ही है।

साहित्य और समाज का संबंध भी पारस्परिक तारतम्यता पर आधारित है। साहित्य चूँकि गंभीरता लिए हुए होता है, इसका क्षेत्र समाज में कुछ हद तक सीमित हो जाता है। अशिक्षित वर्ग साहित्य से सिनेमा के माध्यम से परिचित होता है। प्रेमचंद की बहुत सी कहानियों और उपन्यासों को दूरदर्शन के माध्यम से छोटे पर्दे पर दर्शाया गया, जो बहुत लोकप्रिय भी रहे। मन्नू भंडारी की त्रिकोणीय प्रेम कहानी ‘यही सच है’ को ‘रजनीगंधा’ के नाम से बड़े पर्दे पर आयी। ‘गदर’, ‘पिंजर’, ‘पहेली’, ‘मालगुडी डेज’, ‘विक्रम बैताल’ आदि सभी साहित्यिक रचनाएँ बड़े या छोटे परदे पर समय-समय पर आते रहे। साहित्य की बात की जाए तो लेखक समाज से बहुत कुछ लेकर उसमें कल्पनाओं के रंग भरकर पुन: उसे समाज को लौटा देता है। लेखक पात्रों के संवादों के माध्यम से लोगों के मनोजगत में प्रवेश करने का प्रयास करता है। यदि यह कहा जाए कि साहित्य मानव को मानवता के प्रति सचेत करता है तो यह गलत न होगा। साहित्य के लक्षणों के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो। जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं।’ साहित्य और समाज एक-दूसरे पर आश्रित और अवलंबित हैं। जिस प्रकार का साहित्य होगा, समाज भी उसमें प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित होगा। साहित्य समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन भी करता है, वह सामाजिक समस्याओं, विचारों और भावनाओं को चित्रित करता है। वह दिशाहीन समाज को दिशा देने का भरसक प्रयास करता है। साहित्य की रचना करते हुए लेखक वास्तविकता, सजीवता और भावव्यंजकता तीनों का ध्यान रखता है ताकि वह कल्पना के अतिरेक से बचे। साहित्य और समाज के अंतर्संबंध को बतलाते हुए प्रेमचंद का कथन है कि ‘साहित्य अपने काल का प्रतिबिंब होता है। जो भावों और विचार लोगों के हृदय को स्पंदित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं।’ वर्तमान समय के साहित्यकारों की रचनाओं में समाज में व्याप्त अनैतिकता और अराजकता का चित्रण मिलता है, वहीं दूसरी ओर साहित्यकार विभिन्न संवेदनशील विषयों यथा स्त्रीविमर्श, भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर आदि से संबंधित समस्याओं पर खुलकर बात कर रहे हैं जिसका परिणाम यह निकलकर सामने आ रहा है कि आमजन धीरे-धीरे ही सही इन गंभीर समस्याओं के प्रति संवेदनशील होने का प्रयास कर रहा है। समाज के सदियों से बने-बनाए ढांचे में जब भी परिवर्तन होता है तो साहित्यकार की उसमें बहुत बड़ी भूमिका होती है, वह अपने प्रयासों से निरंतर यह कोशिश करता है कि समाज प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखे, न कि आदर्शवादी रवैये को अपनाकर सभी को जबरन उस व्यवस्था के उपयुक्त बनाने का प्रयास करे।

सिनेमा और साहित्य दोनों कला के अलग-अलग माध्यम होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक की भूमिका का काफी हद तक निर्वहन करते हैं। यह समाज से जन्म लेती, विकसित होती, उसे भी प्रभावित करती है। यह दोनों विधाएं समाज में व्याप्त भिन्न-भिन्न समस्याओं का निराकरण करने का प्रयास भी करती हैं और सुधारक की भूमिका में भी कभी-कभार सामने आती हैं क्योंकि सिनेमा और साहित्य का प्रभाव करोड़ों लोगों पर परिलक्षित होता है तो इनकी थोड़ी सी भी अगंभीरता समाज में नुकसान पहुंचाने में समर्थ होती है, इसी कारण सचेतनता की काफी आवश्यकता महसूस की जाती है। ‘साहित्य और सिनेमा दोनों ही कलाओं का एक-दूसरे से परस्पर संबंध है। यह दोनों विधाएं एक साथ मिलकर समाज सुधारक की भूमिका निभाती हैं तो निश्चित ही देश का सामाजिक स्तर विकसित होगा। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी और सामाजिक दोनों स्तरों पर ऐसी कोशिश की जानी चाहिए कि सिनेमा और आधुनिक तकनीक वाली साहित्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो सके और समाज निर्माण में उसकी भी अहम् भूमिका बने क्योंकि सिनेमा माध्यम का करोड़ों लोगों के जीवन पर असर पड़ता है। अंततः सिनेमा, साहित्य और समाज के अंतर्संबंधों को समझते हुए हमने पाया है कि इन तीनों का संबंध हमेशा से ही अभिन्न रहा है। इन तीनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। साहित्य और सिनेमा दोनों ही माध्यमों के केंद्र में ‘समाज’ है। जिस प्रकार समाज के बिना साहित्य और सिनेमा अपूर्ण है उसी प्रकार साहित्य के बिना समाज भी अपूर्ण है। अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ और उपयोगी होते हुए भी इनका एकमात्र ध्येय सामाजिक हित और समाज का मार्गदर्शन ही है।

  डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय  

लेखक डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक से उपाधि प्राप्त की तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। वर्तमान में ये दिल्ली शिक्षा निदेशालय के अंतर्गत हिंदी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।

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