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अफगानिस्तान संकट के निहितार्थ

अफगानिस्तान संकट से सारा संसार हतप्रभ और क्षुब्ध है। आम अफ़ग़ानियों के बीच की भगदड़ समाचारपत्रों और समाचार चैनलों की सुर्खियों में हैं। क्या यह संकट तत्क्षण है? क्या संसार को इस संकट के उभार का अनुमान नहीं था? सोशल मीडिया पर इस संकट को लेकर कई आम धारणाएं कदम जामाए बैठी हैं। यह चर्चा आम है कि जिस तेजी से तालिबान ने, जो स्वयं को 'इस्लामिक एमीरेट ऑफ अफगानिस्तान' कहते हैं, राजधानी काबुल पर चढ़ाई करके अपनी जीत पक्की कर ली उससे सरकारें और कूटनीतिक समूह आश्चर्यचकित हैं।

तथ्यों की ओर देखें तो यह धारणाएं मिथ्या जान पड़ती हैं। उदाहरण के लिए, जून 23, 2021 को 'द वाल स्ट्रीट जर्नल' में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने दावा किया था कि अमेरिकी सेना का अफगानिस्तान से हटते ही वहां कि सरकार छह महीनों में ध्वस्त हो जाएगी। जब यह खबर प्रकाशित हुई ठीक उसी समय तालिबानी लड़ाके उत्तरी शहर कुंदूज़ में अफ़ग़ानी सरकार की सेना से लड़ाई कर रहे थे। उसके पहले उन्होंने मज़ार-ए-शरीफ़ पर जीत हासिल करके तज़ाकिस्तान से मिलने वाली सीमा रेखा को अपने नियंत्रण में ले रखा था।    

असल में और पीछे जाएँ तो अप्रैल 14, 2021 को अमेरिकी राष्ट्रपति जोसेफ बाइडेन ने औपचारिक घोषणा कर दी कि मई 1 से सितंबर 11 तक अमेरिका पूरी तरह से अपनी सेना को अफगानिस्तान से वापस बुला लेगा। इस घोषणा के साथ ही तालिबानी लड़ाकों ने अफ़ग़ानी सेना के ऊपर दक्षिण के हेलमंद प्रान्त में आक्रमण बोल दिया। मई 11 को काबुल से थोड़ी ही दूर पर नेरख ज़िले पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। जून 7 तक अफ़ग़ानी सरकार के अनुसार देश के 34 प्रांतों में से 26 में युद्ध की करवाई शुरू हो चुकी थी। फिर पूरे घटनाक्रम को विश्लेषित करने पर यह स्पष्ट होता है कि तालिबान लड़ाके अमेरिका की ओर से उसकी सेना की निकासी करने की औपचारिक घोषणा की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। तो प्रश्न फिर यह रह जाता है कि लगभग 20 वर्षों के कालखण्ड में अफगानिस्तान में जैसी लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना करने के प्रयास हो रहे थे वो कितने सफल थे? इसकी खोजबीन करने के लिए एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आवश्यक है।  

2001 से 2021 के मध्य का अफगानिस्तान  

अफगानिस्तान में 1973 में मुहम्मद ज़हीर शाह की राजशाही राज्यविप्लव में समाप्त हुई। तख़्तापलट करने वाले दाऊद खान का भी तख़्ता पलट 1978 में वामपंथी दल पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान ने कर दिया। इसे सौर क्रांति कहते हैं और इसका नेतृत्व वामपंथी नेता नूर मुहम्मद तरकी ने किया था। लेकिन ठीक साल भर में दिसंबर 24, 1979 को सोवियत रूस ने अफगानिस्तान पर हमला कर अपना आधिपत्य कर लिया। फिर शीत युद्ध की विभीषिका में पड़ा अफगानिस्तान सऊदी अरब, पाकिस्तानी, और अमेरिकी हस्तक्षेपों से सोवियत रूस से संघर्षरत रहा और रूस के विखण्डन और पराजय (1988-89) के बाद गृह युद्ध में जा फंसा। सोवियत रूस की शह पर काम करने वाले नजीबुल्लाह जैसे बाहर हुआ विभिन्न अफ़ग़ानी कबीलाई समूह आपस में लड़ भिड़े। 1992 से 1996 के मध्य हुए शीत युद्ध की कोख से तालिबान उदित हुआ। तालिबान मौलाना मुहम्मद उमर नाम के एक देवबंदी इस्लामी चरमपंथी की देखरेख में विभिन्न क़बीलाओं से आने वाले मुजाहिदिनों का समूह था। तालिबान पश्तों भाषा का शब्द है जिसका मतलब विद्यार्थी होता है।    

तालिबान के साथ निरंतर अरबी चरमपंथी भी लगे रहे। कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन और अल-क़ायदा इसी गठजोड़ का परिणाम था। फिर सितंबर 11, 2001 को अमेरिका पर हमला हुआ और उसके परिणामों से अधिकतर लोग परिचित हैं। तालिबान और अल-क़ायदा की हार के बाद 2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अफ़ग़ानिस्तान में मार्शल योजना जैसी पुनर्निर्माण योजना का आह्वान किया। देश में हामिद करजई के नेतृत्व में एक संक्रमणकालीन सरकार की स्थापना हुई, जिसके बाद पहला चुनाव 2004 में हुआ था। उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) ने देश भर में सुरक्षा प्रदान करने के लक्ष्य के साथ अगस्त 11, 2003 को अफ़ग़ानिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (आईएसएएफ) का अधिग्रहण किया। यह सेना मूल रूप से काबुल में थी लेकिन 2006 में पूरे देश में इसका विस्तार हुआ। यह अफगान बलों को अंततः देश में सुरक्षा संभालने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए गठित की गई थी।

इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में इस मिशन को आगे बढ़ाते हुए कहा कि वह अफ़ग़ानिस्तान में अतिरिक्त 30,000 सैनिक भेजेंगे, लेकिन उन्होंने 2011 तक सेना वापस लेने की योजना बनाई। पाकिस्तान में अमेरिकी सेना ने मई 2011 में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया, जिससे अफ़ग़ानिस्तान में निरंतर सैन्य उपस्थिति की चर्चा ने जोर पकड़ा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने एक महीने बाद कहा कि उन्होंने देश में सैनिकों को कम करने की योजना बनाई है। हालांकि उन्होंने 2014 तक सैनिकों को कम करने की बात दोहराते हुए भी यह हमेशा स्पष्ट कहा कि अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति अनिश्चित बनी हुई है। फिर 2020 में डोनॉल्ड ट्रम्प प्रशासन ने तालिबान के साथ अमेरिकी सैनिकों की वापसी और एक कैदी विनिमय सुनिश्चित करने के लिए एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। अफ़ग़ान सरकार ने इस संधि की बात में भागीदार होने का कोई भी दावा नहीं किया था। आखिरकार, अप्रैल 2021 में, नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सितंबर 11 तक अमेरिकी सेना की पूरी तरह से वापसी की घोषणा की जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।

ब्राउन यूनिवर्सिटी के 'कॉस्ट ऑफ वॉर प्रोजेक्ट' की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व वाले युद्ध में कम से कम 157,000 लोगों की मौत हुई है। इस अध्ययन का अनुमान है कि कुछ 53 लाख लोग या तो आंतरिक रूप से या देश छोड़कर विस्थापित हुए थे। मार्च 2021 में अमेरिकी रक्षा विभाग की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि युद्ध और पुनर्निर्माण में विभाग की लागत $837.3 बिलियन (€710.9 बिलियन) थी, अन्य अनुमान लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचते हैं।

विश्लेषण से संकेत और निष्कर्ष

उपरोक्त जानकारी से मूलतः इन तीन संकेतों की ओर पहुँचा जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:

1. तालिबान को एक 'नॉन-स्टेट एक्टर' मानने की अनुसंशा पर विभिन्न अमेरिकी सरकारें कभी स्पष्ट नहीं रहीं। आम धारणा है कि दो दलों की राजनीति में बंटी अमेरिकी राजनीति डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स के साथ मूलभूत मुद्दों पर भिन्न मत रखती हैं। यह एक गलत धारणा है जिसे प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रीडमन ने अपनी किताब 'टीरणी ऑफ स्टेटस कू' (1984) में साफ़ किया था। फ्रीडमन ने आर्थिक नीतियों का विश्लेषण करते हुए यह दिखाया था कैसे बाजार के सवाल पर अमेरिकी आर्थिक नीतियों में एक अडिग समरूपता है। ठीक यही बात हम अमेरिकी विदेश और सामरिक नीतियों के लिए भी कह सकते हैं। ऊपर की सूचनाओं से यह स्पष्ट है कि किस तरह अफगानिस्तान से सेना वापसी के मुद्दें पर ओबामा प्रशासन, ट्रम्प प्रशासन, और बाइडेन प्रशासन में समरूपता थी। ट्रम्प प्रशासन का तालिबान के साथ शांति समझौता करना और बाइडेन प्रशासन की सेना वापसी की औपचारिक घोषणा के साथ ही तालिबान की घेराबंदी का आरंभ होना कोई अचानक घटी प्रक्रिया नहीं है।

2. पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई (2001-2014) और अशरफ़ गनी (2014-2021) के नेतृत्व में अफगानिस्तान एक सुव्यवस्थित राज्य नहीं बन पाया। इसकी पुष्टि अमेरिकी गैर सरकारी संगठन 'फण्ड फॉर पीस' द्वारा प्रकाशित भंगुर राज्यों (फ्रजाइल स्टेट्स) के इंडेक्स में लगातार बने रहने से होती है। भंगुर राज्यों से मतलब है ऐसे राष्ट्र-राज्य जहाँ केंद्रीय सरकार निकम्मी और कमजोर हो, लोक सेवाओं की उपलब्धता न हो, भ्रष्टाचार और अपराध का बोलबाला हो, लोग शरणागत के लिए मजबूर हों, और लगातार आर्थिक पतन होता रहे। इस रिपोर्ट में 12 फैक्टर्स का इस्तेमाल करके राष्ट्र-राज्यों को रैंकिंग दी जाती है जिनमें आतंरिक सुरक्षा के खतरे, आर्थिक अन्तः स्फोट (इकनोमिक इम्प्लोजन), मानवाधिकारों का उलंघन, आदि प्रमुख हैं। 2020 की फ्रजाइल स्टेट्स इंडेक्स में भी अफगानिस्तान शीर्ष से आठवीं पायदान पर था।

3. वैश्विक स्तर पर तालिबान की वापसी के कयास बहुत पहले से लगाए जा रहे थे। अमेरिकी सेना के हटते ही अफगानिस्तान सरकार के गिर जाने की पुख्ता अटकलों के मध्य अमेरिका का इस मामले से खुद को अलग कर लेना तालिबान की वैश्विक भूमिका की ओर संकेत करते हैं। चीन, पाकिस्तान, और कुछ अन्य देशों से अलग संयुक्त राष्ट्र ने तालिबान की सत्ता में वापसी  हुए मानवाधिकारों के उलंघन और वैश्विक आतंकवाद की चिंताएं जाहिर की हैं। लेकिन यह चिंताएं किस प्रकार नीति निर्देशों में परिलक्षित होंगी यह देखना शेष है।

[शान कश्यप ]

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास के शोधार्थी हैं)

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