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एक आदर्श पंचायती राज व्यवस्था कैसे स्थापित हो सकती है?

भारत मे स्थानीय स्वशासन का इतिहास सदियों पुराना है। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध चोल साम्राज्य के शासन के दौरान ऐसी संस्थाएं अनिवार्य रूप से उनके प्रशासन का हिस्सा थी। चोल स्थानीय स्वशासन के अंतर्गत दो प्रकार की ग्राम समितियाँ होती थीं- (i) उर या सभा, (ii) महासभा। उर गाँव की सामान्य समिति थी जबकि महासभा गाँवों में वृद्धों की सभा होती थी। यदि आधुनिक भारत में स्थानीय स्वशासन की स्थापना की बात करें तो इसकी स्थापना का श्रेय ब्रिटिश भारत के वायसराय लार्ड रिपन को जाता है। वर्ष 1882 में रिपन द्वारा निर्वाचित स्थानीय सरकारी निकाय के गठन की पहल की गई। उल्लेखनीय है कि उस समय इन्हें मुकामी बोर्ड कहा जाता था। इसके बाद भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत कई प्रांतों में ग्राम पंचायतों की स्थापना हुई और यह सिलसिला 1935 के गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद भी जारी रहा।

गांधी जी ने भी ग्राम स्वराज के अंतर्गत गाँवो के विकास की परिकल्पना की थी। उनकी इसी परिकल्पना को पंख देने के उद्देश्य के साथ वर्ष 1957 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा संबंधी समीक्षा करने के लिए बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। जनवरी 1958 में बलवंत राय मेहता समिति द्वारा की गई सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा स्वीकार लिया गया। इसके अगले वर्ष भारत देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान राज्य के नागौर जिले में पंचायतीराज व्यवस्था की नींव डाली गई। वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार के द्वारा पंचायतीराज संबंधी सुझाव सुझाने के उद्देश्य हेतु अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। इस समिति ने द्विस्तरीय पंचायत की रूपरेखा सुझाई। वर्ष 1985 में इसी संबंध में जी वी के राव समिति का गठन किया गया। वर्ष 1986 में पंचायती राज के मुद्दे पर गठित एल एम सिंघवी समिति ने इसे संवैधानिक दर्जा दिए जाने की सलाह दी। वर्ष 1988 में गाडगिल समिति ने भी पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिए जाने की वकालत की।

इस दिशा में वर्ष 1989 में राजीव गांधी सरकार द्वारा प्रयास भी किया गया किंतु इससे संबंधित लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में अटक गया। दो वर्ष बाद यानी वर्ष 1991 में पी वी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा इस संबंध में 73 संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया जो अंततः वर्ष 1992 में पारित हो गया। इस प्रकार भारत में पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिल गया। इसके साथ ही इस कानून के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में दो उपबंध किये गए। पहले उपबंध के तहत उन राज्यों को रखा गया जिनकी जनसंख्या 20 लाख से अधिक है; यहाँ पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया। दूसरे उपबंध के अंतर्गत उन राज्यों को रखा गया जहाँ की जनसंख्या बीस लाख से कम है; यहाँ पर द्विस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया।

पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत भागीदारी लोकतंत्र को बढ़ावा दिया गया। इससे शासन में उस वर्ग के लोगों को भी हिस्सेदारी का मौका मिला जो हाशिये पर खड़े हैं। ये पंचायती राज व्यवस्था का ही परिणाम है कि आज समाज के वंचित और अपवर्जित समुदाय भी शासन व्यवस्था का हिस्सा हैं। पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिए जाने के कारण समाज मे बहुआयामी बदलाव हुए हैं। इसने सामाजिक आधार पर आरक्षण को सुनिश्चित किया जिससे महिलाओं, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समूह से आने वाले लोगों को भी शासन में भाग लेने का मौका मिला। राज्य वित्त आयोग की अनुशंसा पर सरकार द्वारा पंचायतों को दी जाने वाले वित्तीय सहायता ने पंचायतों को बेहद सशक्त भी बनाया है।

वर्तमान में लगभग 5000 सांसद और विधायक जनप्रतिनिधि के रूप में लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं तो वहीं 28 लाख ग्रामीण जनप्रतिनिधियों ने इसे समावेशी स्वरूप प्रदान किया है। इन 28 लाख ग्रामीण जनप्रतिनिधियों में से 13 लाख जनप्रतिनिधि महिलाएँ हैं तो 1 लाख जनप्रतिनिधि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति से आते हैं। पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, अवसंरचना विकास और ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास अध्येता योजना और दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना आदि योजनाओं ने गाँव और ग्रामीणों के विकास की नई रूपरेखा लिखी है।

हालांकि पंचायती राज व्यवस्था के समक्ष अनेक चुनौतियाँ भी हैं। पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत बेशक महिलाओं को आरक्षण प्रदान कर दिया गया हो किंतु अक्सर ये देखा जाता है कि निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि के स्थान पर उनका परिवार शक्ति का प्रयोग करता है। कुछ साल पहले आई पंचायत वेबसीरीज में भी इस समस्या को बेहद नाटकीय अंदाज में दिखाया गया था। इसके अलावा अक्सर ये देखा जाता है कि पंचायती चुनाव को जीतने के लिए पंचायत प्रत्याशी और उनके समर्थक धनबल और बाहुबल का प्रयोग करते हैं। दलगत राजनीति और इनकी आपसी कटु प्रतिस्पर्धा ने भी इन चुनावों को विकृत किया है।

इसके साथ ही पंचायती राज संस्थायें वित्तीय रूप से उतनी सशक्त नहीं हैं जितना कि केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में शक्तिशाली हैं। सांसद और विधायक स्थानीय विकास हेतु मिली निधियों का प्रयोग अपनी स्वेच्छा से करने हेतु प्राधिकृत हैं जबकि पंचायती राज संस्थाओं के मामले में ऐसी शक्तियाँ बेहद सीमित हैं। इसके साथ ही इनके कार्यों और अनुदानों के संबंध में भी भेदभाव बरता जाता है। इस सम्बंध में पंचायती राज संस्थाएं अक्सर अपर्याप्त हस्तांतरण का सामना करती हैं। इसके अलावा राज सरकारें अनिवार्य कार्यों को ही करने में अपनी इच्छाशक्ति दिखाती हैं, जरूरी किंतु स्वैच्छिक प्रकृति के कार्यों को करने में ये अक्सर अनिच्छुक दिखती हैं। यही कारण है कि राज्य सरकारों द्वारा पंचायतों के लिए बेहद जरूरी किंतु स्वैच्छिक किस्म के कार्यों हेतु वित्तीय लेनदेन को सुनिश्चित करने का प्रयास नहीं किया जाता है।

पंचायती राज संस्थाओं की सरकारी निधि पर अत्यधिक आत्मनिर्भरता ने भी इसे कमजोर किया है। पर्याप्त राजस्व उगाही के वित्तीय अधिकार न मिलने के कारण ये अभी तक आत्मनिर्भर न हो सकी हैं जैसा कि महात्मा गांधी द्वारा ग्राम स्वराज की परिकल्पना के संदर्भ में सोचा गया था। इसके अलावा लालफीताशाही भी पंचायती राज के कुशल संचालन में बाधा है। आप अक्सर ही ऐसी खबरें पढ़ते, सुनते और देखते होंगे कि सरपंचों को फंड्स के लिए प्रखंड कार्यालय के अनगिनत चक्कर लगाने पड़ते हैं। इससे प्रशासनिक व्यवस्था में घूसखोरी की समस्या बढ़ती है जो अंततः भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। इसके साथ ही पंचायती राज संस्थानों की कमजोर संरचना ने भी इस व्यवस्था को सफल नहीं होने दिया है। 25 फीसदी ग्राम सभाओं के पास तो अपना कार्यालय भवन ही नहीं है। इसके अलावा इन भवनों में पूर्णकालिक सचिवों के अभाव में योजनाओं के सर्वेक्षण और नियोजन के संबंध में पर्याप्त आंकड़ो का संग्रहण नहीं हो पाता जो अंततः विभिन्न सरकारी योजनाओं के कुशल क्रियान्वयन में बाधक सिद्ध होता है।

यदि आदर्श पंचायती राज व्यवस्था के सपने को साकार करना है तो हमें इन सभी समस्याओं के समाधान की राहें तलाशनी होगी। ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा इस संबंध में व्यापक प्रयास भी किये जा रहे हैं। इस संबंध में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय द्वारा एक आदर्श पंचायत नागरिक चार्टर जारी किया गया है। इसे 29 क्षेत्रों में सेवाओं के वितरण के लिए विकसित किया गया है जिसे स्थानीय सतत विकास लक्ष्यों की क्रियाओं के साथ संरेखित किया गया है। इससे एक ओर नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने में मदद मिलेगी तो दूसरी ओर पंचायतों और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता के प्रति सीधे जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी।

इसके साथ भारत सरकार द्वारा ई ग्राम स्वराज नामक पहल को शुरू किया गया है। यह एक उपयोगकर्ता के अनुकूल वेब-आधारित पोर्टल है जो ग्राम पंचायतों की योजना, लेखा और निगरानी कार्यों को एकीकृत करता है। वर्ष 2018 में शुरू किया गया राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान एक केंद्र प्रायोजित योजना है जो 'सबका साथ, सबका गांव, सबका विकास' के अनुरूप गाँवो के विकास को सुनिश्चित करता है। 'जन योजना अभियान-सबकी योजना सबका विकास' देश में चल रही विभिन्न ग्राम पंचायत विकास योजनाओं को एक वेबसाइट पर उपलब्ध कराती है जहां कोई भी सरकार की विभिन्न प्रमुख योजनाओं की स्थिति को देख सकता है। इसके साथ ही उत्कृष्ट सेवा वितरण मॉडल जैसे कि सेवोत्तम मॉडल आदि के माध्यम से नागरिक चार्टर को और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है जो कि सेवा वितरण प्रणाली को और अधिक नागरिक केंद्रित बनाएगा। इससे अंतिम पंक्ति में बैठे हुए व्यक्ति को भी सर्वोत्कृष्ट किस्म की नागरिक सेवा एक निर्धारित समय मे और गुणवत्तापूर्ण तरीके से उपलब्ध हो पाएगी।

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

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