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खड़ी बोली की विकास यात्रा में हरिऔध का योगदान

हिंदी साहित्य का एक समृद्ध इतिहास रहा है। इसे हम आदिकाल, मध्यकाल एवं आधुनिक काल के रूप में देखते आए हैं। आदिकाल में भाषा का जो स्वरूप था वह अभी प्रारम्भिक हिंदी को गढ़ने का काम कर रहा था, समय के साथ अपभ्रंश का केंचुल उतरता चला गया और शौरसेनी, मागधी और अर्धमागधी अपभ्रंशों के कई रूपों से क्षेत्रीयता लिए हुए हिंदी की बोलियों का विकास हुआ। आदिकाल में अपभ्रंश और अवहट्ट में रचनाएँ देखने को मिलती हैं। भाषा का डिंगल और पिंगल स्वरूप देखने को मिलता है। मध्यकालीन हिंदी साहित्य में रचनाएँ इन्हीं क्षेत्रीय बोलियों में हो रही थीं लेकिन ब्रजभाषा और अवधी का प्रभाव अधिक रहा। सभी प्रमुख रचनाएँ लगभग इन्हीं दो बोलियों में रची गयीं। आधुनिक काल तक आते-आते भाषा का बदला हुआ रूप साहित्य में स्वीकृत किया गया और साहित्य के लिए खड़ी बोली अब भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। लेकिन भाषाएँ, साहित्य या संस्कृतियों में बदलाव अचानक नहीं होता। उनमें बदलाव बड़ी ही क्षीण गति से होता है।

हिंदी भाषा के रूप में आज जिसे हम देख रहे हैं वह खड़ीबोली हिंदी का ही मानकीकृत रूप है। इसका नाम खड़ीबोली पड़ने के लिए अलग-अलग मत दिए जाते हैं। कुछ इसे ‘खरी बोली’ से जोड़कर देखते हैं, कुछ मानते हैं कि उत्तर प्रदेश के मेरठ के आस-पास की पड़ी बोली को खड़ीबोली के रूप में माना जाने लगा गया।

हिंदी साहित्य के इतिहास में खड़ीबोली का प्रारम्भिक स्वरूप अमीर खुसरो की पहेलियों व मुकरियों में ही मिल जाता है। कवि गंग की ‘चंद छंद बरनन की महिमा’ या रामप्रसाद निरंजनी की ‘भाषायोगवाशिष्ठ’ हिंदी की ऐसी रचनाओं में शामिल है जिसमें खड़ीबोली का प्रारम्भिक स्वरूप देखने को मिलता है। “रीतिकाल का खड़ीबोली गद्य प्रायः मिश्रित भाषा में है। ब्रजभाषा के सम्पर्क से मुक्त शुद्ध खड़ीबोली गद्य उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व नहीं मिलता। इस समय की अनेक रचनाओं पर ब्रजभाषा के साथ पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, अथवा पंजाबी का प्रभाव है।” वैसे भी रीतिकाल में जो खड़ीबोली मिलती है, गद्य रूप में ही मिलती है और वह भी टीकानुवाद में ही अधिक पाई जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी के ठीक शुरुआत में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई और वहाँ जॉन गिलक्राइस्ट की नियुक्ति हुई। उनकी देख-रेख में हिंदी के आरम्भिक गद्य लेखन का कार्य शुरू हुआ। सदल मिश्र, लल्लू लाल, इंशा अल्लाह खान, रीवा नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह आदि आरंभिक हिंदी गद्य के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उस दौरान दक्खिनी गद्य, राजस्थानी गद्य, भोजपुरी व अवधी में गद्य रचनाएँ भी मिलती हैं। लेकिन हिंदी के आधुनिक काल में अर्थात् भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी को गद्य के मानक रूप में स्थापित करने का कार्य भारतेंदु मंडल के रचनाकारों के साथ-साथ अन्य रचनाकारों ने भी किया। स्वयं भारतेंदु अपने संस्कारों के कारण कविता ब्रजभाषा में ही लिखते थे लेकिन बाक़ी लेखन उन्होंने खड़ीबोली गद्य में ही किया।

भारतेंदु युग ने खड़ीबोली को एक बड़ा आधार दिया और इसका प्रभाव आगे द्विवेदी युग में व्यापक स्तर पर देखने को मिला। असल में आधुनिक काल जब आया तो अपने साथ ज्ञान-विज्ञान को लेकर आया। छापाखाना का विकास हुआ, परिणामस्वरूप पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। इससे जन जागरण का कार्य भी हो रहा था। अंग्रेजों के साहित्य का हिंदी में अनुवाद हो रहा था। इन सबके के लिए भाषा का जो स्वरूप कार्य कर रहा था वह खड़ीबोली हिंदी का गद्य ही था। इस तरह आधुनिक काल के आरम्भ में खड़ीबोली की व्याप्ति पूरी तरह से साहित्य के पटल पर हो गयी। खड़ीबोली के गद्य ने तो अपना स्थान बना लिया था लेकिन साहित्य में कविता आज भी एक प्रमुख विधा के रूप में विद्यमान थी और भारतेंदु युग में कविता अभी बदल नहीं पाई थी। “भारतेंदु युग के कुछ कवियों ने खड़ीबोली में भी काव्य रचना की है किंतु यह इस युग की प्रतिनिधि काव्यभाषा नहीं बन सकी। भारतेंदु (फूलों का गुच्छा), प्रेमघन(मयंक-महिमा) और प्रतापनारायण मिश्र की खड़ीबोली कविताएँ तो परिमाण में बहुत ही कम हैं किंतु श्रीधर पाठक (एकांतवासी योगी), बालमुकुंद गुप्त (स्फुट कविता) तथा राधाकृष्ण दास को खड़ीबोली का सफल पक्षधर कहा जा सकता है।” लेकिन आगे चलकर द्विवेदी युग में खड़ीबोली को कविता में उचित गरिमा मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवियों की वजह से ही मिली लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि उसका आधार भारतेंदु युग में ही निर्मित हो गया था। इसी बीच अयोध्या प्रसाद खत्री के द्वारा 1888 में ‘खड़ीबोली का आंदोलन’ में अवधी भाषा एवं ब्रजभाषा में कविताओं को हिंदी भाषा के अंतर्गत स्थान नहीं दिया गया। उस समय इसका तीव्र विरोध भी हुआ। इसके ठीक बाद 1889 में ‘खड़ीबोली का पद्य’ में अनेक शैलियों की पद्य रचनाओं को जो कि खड़ीबोली में थीं, उन्होंने संकलित किया। इसके पश्चात इस ओर लोग़ों का रुझान और बढ़ा जो कि सरस्वती पत्रिका के यशस्वी सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में अपने उत्कर्ष पर पहुँचा। बहुत से रचनाकार जो भारतेंदु युग में रीतिकालीन परम्परा या फिर उसी परम्परा के थोड़े से परिमार्जित रूप को आगे बढ़ा रहे थे, ऐसे रचनाकारों में अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का नाम एक बड़े रचनाकार के रूप में लिया जाता है।

हरिऔध का जन्म भारतेंदु युग में ही हुआ। 1865 ई में जन्मे हरिऔध के लिए कविता हेतु भारतेंदु युग एक तरह से प्रयोगस्थली ही रहा क्योंकि अभी हरिऔध बहुत परिपक्व कवि नहीं हुए थे। मात्र 17 वर्ष की उम्र में 1882ई में उनके द्वारा लिखित ‘कृष्ण शतक’ चर्चा में आती है। लेकिन अपनी प्रवृत्ति में यह भारतेंदु युग में रीति की परम्परा को मानते-तोड़ते हुए चलने वाली काव्य धारा का ही रूप रहा इसलिए हरिऔध का मूल्यांकन द्विवेदी युग में उनके द्वारा रचित साहित्य के माध्यम से किया जाए तो बेहतर होगा। उसका एक दूसरा कारण यह भी है कि द्विवेदी युग आते-आते एक परिपक्व हो चुके कवि के रूप में भी हरिऔध हमारे सामने आते हैं। हरिऔध का कवि रूप ही सर्वप्रमुख है लेकिन इसके अतिरिक्त वे उपन्यासकार, आलोचक व इतिहासकार के रूप में भी जाने जाते हैं।

हरिऔध ने ब्रजभाषा में भी रचनाएँ कीं व खड़ीबोली हिंदी को भी अपनी रचना का माध्यम बनाया। मध्यकाल में जो महाकाव्य अवधी व ब्रजभाषा में रचे जा रहे थे, हरिऔध ने उस परम्परा को बदल कर 1914ई में ‘प्रियप्रवास’ नामक खड़ीबोली का पहला महाकाव्य लिखा जो 17 सर्गों में विभाजित है। इस रचना में राधा व कृष्ण को ईश्वर या सामान्य नायक-नायिका से ऊपर उठाकर विश्व से प्रेम करने वाले व समूचे विश्व की सेवा करने वाले नायक के रूप में चित्रित किया गया है। तत्कालीन सामाजिक स्थितियों को साथ लेकर उन्होंने अपनी रचना को आगे बढ़ाया। भक्ति काल में कृष्ण एक देवता थे, रीतिकाल में सामान्य नायक हुए। अब नए संदर्भों में उन्हें नए तरह से दिखाने की आवश्यकता थी जिसे उन्होंने पूरा किया। हरिऔध स्वयं लिखते हैं, “हम लोगों का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते हैं उनका चरित्र जब कहीं दृष्टिगोचर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते हैं जिसमें उनके ब्रह्मत्व का निरूपण हो। मैंने श्री कृष्ण को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं।” उन्नीसवीं सदी में पूरे देश में नवजागरण की जो लहर आई थी ये सब उसका ही परिणाम था। परंतु सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हरिऔध इन सबको कविता में, वह भी खड़ीबोली हिंदी में, महाकाव्य के रूप में अंकित कर रहे थे। जिस दौर में ये बहसें चल चुकी हों कि खड़ीबोली कविता की भाषा नहीं हो सकती क्योंकि इसमें ब्रजभाषा जैसी मिठास नहीं है, उस समय ऐसी रचना खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में स्थापित करने का सफल व सार्थक प्रयास माना जाएगा। इससे पूर्व खड़ीबोली के लिए चले आन्दोलनों में छुट-पुट या छोटी कविताएँ ही लिखी जा रही थीं लेकिन हरिऔध ने यह धारणा तोड़ी और खड़ी बोली में महाकाव्य लिखा जो अपनी विषय वस्तु और शिल्प के स्तर पर भी बेजोड़ रहा। उनकी पंक्तियाँ देखिए

“प्रिय पति, वह मेरा प्राणप्यारा कहाँ है?

दुःख - जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है?

लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,

वह हृदय हमारा नैन तारा कहाँ है?”

इनकी कविता में यदि एक ओर सरल और प्रांजल हिंदी का प्रयोग दिखाई देता है तो दूसरी ओर संस्कृतनिष्ठता भी है, कहीं मुहावरेदार भाषा चुटीले रूप में है तो कहीं आम बोल चाल के शब्द हैं। वृद्ध के साथ विवाह या बेमेल विवाह उस समय की एक बड़ी समस्या थी। हरिऔध ने उसपर लिखा

“जो बड़े-बड़े गुड़ियों को ठगें

पाउडर मुंह पर न अपने वे मलें।

ब्याह के रंगीन जामा को पहन

बेईमानी का पहन जामा न लें।”

यदि कृष्ण से जुड़ी हुई गौरवमयी भाषा की ज़रूरत है तो वहाँ भाषा का वही विधान देखने को मिलेगा, यदि चुटकी लेनी है तो उसके लिए वैसी शब्दावली से काम लेते हैं।

1940ई में उनके द्वारा रचित ‘वैदेही वनवास’ 18 सर्गों में निबद्ध एक बड़ी रचना है। एक उदाहरण देखिए -

“लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।

नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥

धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था।

ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥"

भाषा किस प्रांजलता के साथ यहाँ उपस्थित हो रही हैं, मनोहारी शब्दों की छटा देखते ही बनती है।

“दिव्य बने थे आलिंगन कर अंशु का।

हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस॥

विहग-वृन्द की केलि-कला कमनीय थी।

उनका स्वगत-गान बड़ा ही था सरस॥”

इस कोमल पदावली को खड़ीबोली में लिख कर हरिऔध जी ने भाषा को और गरिमा ही प्रदान की है।

हरिऔध की ये पंक्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं, यहाँ खड़ीबोली में कविता की सामर्थ्य का भान करते हुए वे लिखते हैं-

“दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला।।

तरु शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा।।”

हरिऔध ने छंदों में सधी हुई भाषा के साथ खड़ीबोली को महाकाव्य की भाषा के रूप में स्थापित किया।

नारी के लिए उस समाज में पर्दा-प्रथा एक अभिशाप के रूप में ही था। नारी के इस समस्या पर वे विचार करते हुए लिखते हैं-

"जीवन, जीवन के सुख को अपने ही से खोता है

मृदुता का कठोरता से दुःख-भूल मिलन होता है

****

गंगा जमुना की धारा बहती सूने सदनों में

पर्दे के भीतर सागर लहराता है नयनों में”

नारी के हृदय की वेदना को वे इतनी सूक्ष्मता से देख रहे हैं, यह बदलते हुए समय-समाज को पहचान लेने वाले बड़े कवि की पहचान कराती है।

हरिऔध का समय अग्रेजों द्वारा हो रहे ज़बर्दस्त शोषण का समय है। उस समय का हर जागरूक कवि-रचनाकार उनके ख़िलाफ़ लिख रहा था। हरिऔध भी लिखते हैं

“घोंटते जो लोग हैं उनका गला

क्यों नहीं उनका लहू हम गार लें

है हमारी जाति का दम घुट रहा

हम भला दम किस तरह से मार लें”

अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को सामने रखने वाले सजग रचनाकार के रूप में वे जाने जाते रहे हैं। वैसे तो उन्होंने पारिजात, कृष्ण शतक, कबीर कुंडल, रसिक रहस्य, राज़ कलश, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे जैसे लगभग कुल 25 काव्य रचनाएँ कीं। उन्होंने ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ और ‘अधखिले फूल’ नामक उपन्यास भी लिखे, अपनी आत्मकथा भी लिखी। उपन्यास हालाँकि खड़ीबोली गद्य में १९वीं शताब्दी के साथ ही शुरू हो गया था लेकिन खड़ीबोली में काव्य की प्रतिष्ठा नहीं हो पाई थी। हरिऔध ने न केवल फुटकल कविताएँ अपितु खड़ीबोली में महाकाव्यों की रचना कर ‘ब्रजभाषा में ही काव्य रचना सम्भव है’ को एक विराम दिया। खड़ीबोली का गद्य तो भारतेंदु युग से चला आ रहा था, लेकिन खड़ीबोली को काव्य भाषा के रूप में स्थापित करने का श्रेय हरिऔध को दिया जाना चाहिए। खड़ीबोली आंदोलन ने काव्यभाषा के लिए जो आधार बनाया था, हरिऔध ने उसे चरितार्थ किया।

  अनुराग सिंह  

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय    

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