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अज्ञेय ‘प्रयोगवाद’ के प्रवर्तक

‘नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है/ या कि मेरा प्यार मैला है/ बल्कि केवल यही/ ये उपमान मैले हो गए हैं/ देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच/ कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।’

प्रगतिवादी साहित्य में व्याप्त एकरसता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद का आरंभ माना जाता है। अज्ञेय की उपर्लिखित पंक्तियाँ इस वक्तव्य को पुष्ट करती हैं। प्रगतिवादी साहित्य मार्क्सवादी दर्शन पर आधारित था, जिस कारणवश इसमें कवि के वैयक्तिक विचारों को पर्याप्त स्थान प्राप्त न हो पाया और विषय-वस्तु के सीमित होने के कारण इसमें नवीन विचारधाराओं को प्रश्रय न मिल सका। “अज्ञेय ने ‘प्रगतिवाद’ से असंतुष्ट होकर ‘व्यक्ति स्वतंत्र सिद्धांत’ की स्थापना का अभियान ‘प्रयोगवाद’ चलाया ।” प्रयोगवाद की शुरुआत अज्ञेय के संपादन में वर्ष 1943 में ‘तारसप्तक’ से होती है। ‘तारसप्तक’ में विविध विचारधारा रखने वाले सात कवियों को एक साथ लिया गया तथा उन्हें ‘राहों के अन्वेषी’ की संज्ञा प्रदान की गई। आगे चलकर अज्ञेय के ही संपादकत्व में ‘दूसरा सप्तक’ (1951), ‘तीसरा सप्तक’ (1959) और ‘चौथा सप्तक’ (1979) प्रकाशित होता है। हालाँकि डॉ. बच्चन सिंह का मंतव्य है कि “तीसरा सप्ताह में सप्तक काव्य-परंपरा समाप्त हो जाती है। चौथा सप्तक उसका सुरक्षा-कवच होकर रह जाता है।”

‘प्रयोगवाद’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने अपने निबंध ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ में किया था, इसमें उनके द्वारा सप्तक की समीक्षा प्रस्तुत की गई थी। वे लिखते हैं कि “पिछले कुछ समय से ही हिंदी काव्य क्षेत्र में कुछ रचनाएँ हो रही है, जिन्हें कुछ सुलभ शब्द के अभाव में प्रयोगवादी रचना कहा जा सकता है।” हालाँकि दूसरे सप्तक की भूमिका में अज्ञेय आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की बात का खंडन करते हुए कहते हैं कि “हमें प्रयोगवादी कहना उतना सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें ‘कवितावादी’ कहना।” परन्तु ‘प्रयोग’ शब्द के बार-बार प्रयुक्त होने के कारण तार सप्तकीय कवियों द्वारा लिखी गई कवियों के लिए प्रयोगवादी कविता शब्द अंततः रूढ़ हो गया। इन कवियों ने भाषा, उपमान, शिल्प तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से अनेक नवीन प्रयोग किए जिस कारण ‘प्रयोगवाद’ नाम सार्थक बन पड़ता है।

प्रयोगवादी कविताओं में वैयक्तिक सुख-दुख और संवेदनाओं को व्यक्त करते हुए उसका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया। शहरी मध्यवर्गीय समाज के जीवन की व्याप्त जटिलता, अतिशय बौद्धिकता, जड़ता, निराशा, कुंठा, अनास्था आदि को अभिव्यक्त किया गया है। दमित काम वासना का पर्याप्त चित्रण भी इन कविताओं में देखने को मिलता है। प्रयोगवादी कविता को जहाँ एक ओर ‘परंपरा से विच्छेद’ की कविता कहा गया है, वहीं दूसरी ओर यह अतिशय वैयक्तिता के कारण ‘आत्मकेंद्रित’ होकर प्रभावहीन होती चली गयी। प्रयोगवादी कविता का ही विकसित रूप कालांतर में ‘नई कविता’ के रूप में हुआ।

‘प्रयोगवाद’ के प्रवर्तन का श्रेय पूर्णतः अज्ञेय को मिलता है। उन्होंने विविध विचारधाराओं वाले इक्कीस कवियों को एकत्रित कर तीन सप्तकों का कुशल संपादन किया। गणपतिचन्द्र गुप्त अज्ञेय द्वारा नवीन कवियों को ही स्थान देने के संबंध में यह बात स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि “अज्ञेय ने मुख्यतः दो बातें कही हैं, एक तो उन्होंने ऐसे कवियों को लिया है, जो इतने प्रतिष्ठापित नहीं हुए कि कोई प्रकाशक सहसा उनके अलग-अलग संग्रह निकाल सके। दूसरे ‘उनके एकत्र होने का कारण यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं। अभी राही हैं। इसके अतिरिक्त एक तीसरी बात और भी थी, जिसका उल्लेख स्वयं ‘अज्ञेय’ ने नहीं किया। वह यह है कि जिन कवियों ने अज्ञेय का पिछलग्गू बनना स्वीकार किया, वे ही इसमें स्थान पा सके। जिन्होंने बाद में नेतृत्व अस्वीकार कर दिया, उनका नाम आगे चल कर कवियों की सूची में से काट दिया ।” गणपतिचंद्र गुप्त इसे अज्ञेय की आदूरदर्शिता का परिणाम बताते हैं, जिस कारण प्रयोगवाद का ह्रास होकर वह अंततः बिखर गया और ‘नई कविता’ में परिणत हो गया । प्रयोगवादी कविता में शिल्प पर अत्यधिक बल के कारण ‘कला कला के लिए’ के सिद्धांत को पोषित किया गया, वहीं अतिशय व्यक्तिवाद के चित्रण के कारण अस्तित्ववाद और व्यक्तिवाद की ओर मुड़कर यह मनोविश्लेषणवाद से प्रभावित होता चला गया।

प्रयोगवादी कविता के प्रसंग में नकेनवाद या प्रपद्यवाद का उल्लेख करना भी आवश्यक हो जाता है । नकेन ( नाम के प्रथम अक्षर के आधार पर) का अर्थ नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश से है। नकेनवादियों ने इसे ‘प्रयोगवादियों’ के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया, वे स्वयं को वास्तविक प्रयोगवादी मानते थे क्योंकि वे प्रयोग को ही साध्य मानते थे, केवल साधन नहीं । प्रपद्यवादियों ने अपने काव्य संग्रह में प्रयोगवादियों को ‘प्रयोगशील’ और स्वयं को ‘प्रयोगवादी’ की संज्ञा प्रदान की। हालाँकि कुछ समय उपरांत यह ‘वाद’ भी पर्याप्त मान्यता के अभाव में विलुप्त हो गया।

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ के संबंध में चर्चा की जाए तो आधुनिक युगबोध, क्षणवाद, यथार्थवाद, भोगवाद, अतिशय बौद्धिकता-वैयक्तिकता और नवीन शिल्प विधान इसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ बनकर उभरती हैं। प्रयोगवादी कविता ने जीवन में क्षणवाद को महत्त्वपूर्ण बताया, जिसमें कि वर्तमान को पूर्णतया भोगने की बात कही गयी। क्षणवाद के कारण कविता में निराशावाद व्याप्त होता देखा जा सकता है। अज्ञेय की कविता के माध्यम से क्षणवाद को समझते हैं-

“आओ हम उस अतीत को भूलें
और आज की अपनी रग-रग के अंतर को छू लें
छू लें इसी क्षण
क्योंकि कल के वे नहीं रहे
क्योंकि कल हम भी नहीं रहेंगे।”

प्रयोगवाद और नयी कविता में भोगवाद और वासना से संबंधित कुछ उहात्मक कविताएँ भी देखने को मिलती हैं । इन कविताओं में क्षणवाद के कारण बढ़ती भोगवादी प्रवृत्ति का चित्रण भी देखने को मिलता है ।

“आह मेरा श्वास है उत्तप्त
धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार
प्यार है अभिशप्त
तुम कहाँ हो नारि?”

अभी तक जिन वृत्तियों को कविताओं में अश्लील या अस्वस्थ कहकर स्थान नहीं दिया गया था या नकार दिया गया था, प्रयोगवाद में उन्हीं वृत्तियों का वर्णन कवियों द्वारा बड़े स्तर पर देखने को मिलता है। कविता के नाम पर वासनात्मक और दैहिक वर्णनों ने प्रयोगवाद का ह्रास किया ।

प्रयोगवादी कविता में आधुनिक मानव के जीवन में व्याप्त संत्रास, निराशा, कुंठा और द्वंद्व को विषय- वस्तु बनाया गया । भोगे जा रहे यथार्थ का वर्णन किया जाने लगा, जीवन के तिक्त अनुभवों को कविताओं में स्थान दिया गया। जगदीश गुप्त ने अपनी कविता में वैज्ञानिक युग की देन औद्योगिकता के कारण बढ़ती प्रतिस्पर्धा, भय और घृणा का वर्णन किया है-

“इस युग के सिया-राम क्षुधा-काम ।
.....मानव के तिमिर ग्रस्त चिंतन के भानु-इंदु
यंत्र बाहु, यंत्र-चरण, यंत्र हृदय, यंत्र बुद्धि
सब कुछ यंत्रित, केवल इच्छाएं अनियंत्रित।”

प्रयोगवादी कवि ने प्रणयानुभूति जैसे संवेदनशील विषय को भी यौनाकर्षण तक सीमित कर दिया। वे भावों को उच्च मनोभूमि पर देखकर मुख्यत: शारीरिक धरातल पर देखने के पक्षधर थे। प्रणयानुभूति का मांसल वर्णन देखिए-

“क्या है प्रेम? घनीभूत इच्छाओं की ज्वाला है।
क्या है विरह? प्रेम की बुझती राख भरा प्याला है।।”

प्रयोगवादियों ने कविताओं के शिल्प को परंपरागत काव्य से भिन्न बनाने का भरसक प्रयास किया । पुराने प्रतीकों और उपमानों के नवीन अर्थ खोजे गए और प्रयोगवादियों द्वारा बहुत से नवीन प्रतीक और उपमान भी कविता को दिये गए-

1. प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया।
2. ऑपरेशन थिएटर सी जो हर काम करते हुए भी चुप है।
3. गार्ड की रोशनी सा पीछे गुमसुम सा शुक्र तारा जा रहा है ।

प्रयोगवादी कवियों ने कविताओं के लिए साधारण विषयों का चुनाव किया, जिससे हुआ यह कि उनके आसपास की ही वस्तुएँ उनकी कविताओं की विषय वस्तु बनकर सामने आने लगीं जैसे कि वेटिंग रूम, होटल, दाल, साइकिल इत्यादि । सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता देखिये-

बैठ कर बेल्ड से नाखून काटें,
बढ़ी हुई दाढ़ी में बालों के बीच की
खाली जगह छांटें
सर खुजलायें, जम्हुआयें,
कभी धूप में आयें
कभी छांह में जायें।

गणपतिचन्द्र गुप्त का इस प्रकार की कविताओं के संबंध में विचार है कि “यदि किसी घर के कोने में या किसी गली के बीच कोई टेप-रिकॉर्डर लगा दिया जाय तो ऐसी हजारों कविताएं रोज तैयार हो सकती हैं। बच्चों की रफ कॉपियों में; या हमारी रोजाना की डायरियों में ऐसी उक्तियाँ मिल जायेंगी।”

डॉ. नगेन्द्र ने नयी कविता की दुरुहता को बताने के लिए मुख्यत: पांच बिंदु बताए हैं-

1. भाव तत्व और काव्यानुभूति के बीच रागात्मक के स्थान पर बुद्धिगत संबंध होना
2. साधारणीकरण का त्याग
3. उपचेतन मन के अनुभव-खंडों का यथावत् चित्रण
4. भाषा का एकांत एवं अनर्गल प्रयोग
5. नूतनता का सर्वग्राही मोह

प्रयोगवादी कविता की प्रवृत्तियाँ ही उसके ह्रास का मुख्य कारण बनकर सामने आती हैं। नवीन की खोज में अज्ञेय ने प्रयोगवाद के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विषयों का न केवल त्याग किया, अपितु कविताओं को दुरुहता भी प्रदान कर दी। प्रयोगवादी कविता अस्तित्ववादी प्रवृतियों से संचालित होने लगी। जिससे की उसमें बहुत से अस्वस्थ, अनैतिक वर्णनों का समावेश हो गया। प्रयोगवाद जिस मूल स्वरूप को लेकर प्रारंभ हुआ था, चौथे सप्तक तक आते-आते वह स्वरूप पूर्णतः बिखर कर कृत्रिम कविता का रूप धारण कर चुका था ।

  डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय  

लेखक डॉ. विवेक कुमार पाण्डेय ने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय से  स्नातक और परास्नातक तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री हासिल की है। वर्तमान में वे दिल्ली शिक्षा निदेशालय के अंतर्गत हिंदी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं।

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