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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

किसान दिवस

प्रेमचंद जी द्वारा लिखित कहानी पूस की रात का हल्कू तो आपको याद ही होगा। यह वह लापरवाह किसान है जो ठंड के आगे विवश होकर हार मान लेता है और अपनी फसल जानवरों के हवाले कर देता है। क्या करें बेचारे गरीब हल्कू के पास हड्डियों को कंपकंपा देने वाली जाड़े की ठंड में केवल एक पुराना कंबल ही था और वह इसी के सहारे अपने खेत की फसल की पशुओं से रक्षा करना चाहता था। लेकिन अपने सीमित साधनों में वह शरीर को तीर की तरह भेदने वाली इस ठंड का सामना नहीं कर पाता और ठंड के आगे हार मानकर लापरवाह हो जाता है। फलस्वरुप वह खेतों की सुरक्षा नहीं कर पाता और पशु उसकी सारी फसल चर जाते हैं। बहरहाल यह हल्कू आज भी आपको भारत के हर गाँव में देखने को मिल जाएगा। लेकिन यह रोज़ ठंड के सामने कमज़ोर नहीं पड़ता वरना इस संसार का पेट कैसे भरेगा...

आज दिसंबर की 23 तारीख है और भारत में वर्ष 2001 से इस दिन  प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन के अवसर पर किसान दिवस मनाया जा रहा है। चौधरी चरण सिंह ने अपने कार्यकाल में कृषि क्षेत्र के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही किसानों के जीवन और स्थितियों को बेहतर बनाने के लिये कई नीतियों की शुरुआत की। यह किसान दिवस हमें उस अन्नदाता की याद दिलाता है जो इंसान को जमा देने वाले इस जाड़े में अपने खेतों में रात-दिन बर्फ की तरह ठंडे जल से सिंचाई करता है, प्रकृति की कठोर आपदाओं भयंकर सर्दी, बारिस, ओले आदि का सामना करता है ताकि मानव स्वयं को जीवित रखने के लिये अपना पेट भर सके। हम शायद अन्न के एक-एक दाने को प्राप्त करने में लगे श्रम और त्याग की कीमत कभी भी न दे पाएँ किंतु अचरज तो यह है कि हम इतने स्वार्थपरायण हैं कि इस अनाज की आर्थिक कीमत तक किसानों को नहीं दे पाते हैं। किसानों द्वारा अत्यधिक कम कीमत में बिकने के कारण कई सब्जियों को सड़कों पर फेंक देने जैसी घटनाएँ आम हैं क्योंकि इस कीमत से उनका परिवहन तक का खर्च अदा नहीं हो पाता है। 

हालाँकि अनाज की कीमत में होने वाली गिरावट से किसानों को बचाने के लिये सरकार द्वारा 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा की जाती है  लेकिन यदि कभी आप इन खरीद केंद्रों में जाएँगे तो यहाँ भी अन्नदाता की स्थिति दयनीय ही पाएँगे….चूँकि खरीदी केंद्रों की संख्या सीमित और इनकी स्थिति सुदूर होती है, अतः किसान बहुत दूर से आते हैं और यहाँ अपने अनाज की बिक्री के लिये लंबा इंतज़ार भी करते हैं, कई बार इस प्रक्रिया में 1-2 हफ़्तों का समय भी लग सकता है। इसी समय अचानक होने वाली वर्षा से उनके अनाज के भीगने की संभावना भी बनी रहती है और अगर ऐसा होता है तो इनकी फसल खरीदी भी नहीं जाती। ऐसी स्थिति में किसान मज़बूर होकर दलालों को औने-पौने दामों में फसल बेच देते हैं, लागत की भरपाई के लिये ऋण लेते हैं और इस तरह ऋण के दुश्चक्र में फँसकर इसे चुका न पाने की स्थिति में आत्महत्या कर लेते हैं……

लोगों को जीवन देने वाला खुद अपने जीवन से हार गया,
संसार का पालनहार खुद दो वक्त की रोटी कमा न सका  

यह तो बस एक वाकया है, ऐसी कई और घटनाएँ हैं जिनसे किसान रोज़ तिल-तिल के मरता है। वह कभी अनिश्चित वर्षा से हताश होता है तो कभी सूखे की मार सहता है; कभी उसकी फसल तैयार होने से पहले नष्ट हो जाती है तो कभी वह औने-पौने दामों में बिक जाती है; कभी उसे कोई दलाल /साहूकार लूटता है तो कभी उस पर सत्ता की रोटियाँ सेंकी जाती हैं लेकिन फिर भी वह चेहरे पर निश्चल मुस्कान लिये लागातार मिट्टी से अन्न उगाने में लगा रहता है। भारत में प्रतिवर्ष देश के हज़ारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं लेकिन किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती, यह मुद्दा मीडिया के लिये भी महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इससे उन्हें किसी प्रकार की TRP नहीं मिलती, न जाने कब तक और यह सिलसिला जारी रहेगा……..

हालाँकि स्वतंत्रता के बाद से किसानों की स्थिति में सुधार हेतु कई प्रयास किये गए हैं जिनमें सब्सिडी पर खाद देना, सॉइल हेल्थ कार्ड के माध्यम से मृदा का परीक्षण, कृषि यंत्रों पर सब्सिडी, पूंजी की उपलब्धता हेतु क्रेडिट कार्ड, फसल की उचित बिक्री हेतु ई-नाम जैसे प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध कराना और एमएसपी पर फसल बिक्री आदि शामिल हैं लेकिन फिर भी किसानों की स्थिति दयनीय है क्योंकि इनका उचित क्रियान्वयन न होने के कारण कुछ बड़े किसान ही फायदा उठा पाते हैं, उदाहरण के लिये एमएसपी का फायदा केवल 6 प्रतिशत किसान ही उठा पाते हैं। भारत में 85 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है अतः यह आवश्यक हो गया है कि कृषकों के विकास हेतु जो भी कदम उठाए जाएँ वो इन 85 प्रतिशत किसानों को ध्यान में रखकर उठाए जाएँ। 

वस्तुतः आज हम डिजिटल कृषि, ज़ीरो बजट कृषि, खाद्य प्रसंस्करण जैसे क्षेत्रों की ओर बढ़ रहे हैं, हमने वर्ष 2022 तक कृषकों की आय दोगुना करने का सपना भी देखा था लेकिन शायद अभी भी हम इस लक्ष्य से काफी दूर हैं। GDP में कृषि के योगदान को देखते हुए आज भारत को ऐसे किसान की आवश्यकता है जिसके पास पर्याप्त संसाधन हों, जो तकनीकी रूप से सशक्त हो, जिसे डिजिटल युग का ज्ञान हो, जो अपने उत्पादों की बिक्री के लिये विश्व बाज़ार से जुड़ सके और जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो। यदि हमारा प्रयास इस दिशा में सफल रहता है तो न ही प्रेमचंद जी का कोई हल्कू ठिठुरती ठंड से समझौता करेगा और न ही कोई होरी अपने खेतों को बेचने के लिये विवश होकर मज़दूर बनेगा। एक ज़माना था, जब हमारे देश में खेती को सबसे उत्तम कार्य माना जाता था लेकिन अब कोई इसमें संलग्न नहीं होना चाहता। अब समय आ गया है कि हम अपने कृषकों को इतना सशक्त बनाएँ कि महाकवि घाघ की इस प्रसिद्ध कहावत में लोग फिर से विश्वास कर सकें :

उत्तम खेती, मध्यम बान। 
निषिद्ध चाकरी, भीख निदान।

साधना सनोडिया

(लेखिका दृष्टि वेब कंटेंट टीम से संबद्ध हैं)


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