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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

क्रेच में सीएसआर

अधिकार और उत्तरदायित्व की दो पटरियों पर ही समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण विश्व अर्थव्यवस्था की रेल टिकी हुई है अर्थात्, अधिकारों के साथ-साथ उत्तरदायित्व के सही निर्वहन से ही संतुलित विकास संभव है। यदि भारत के संदर्भ में देखें तो यहाँ सामाजिक-आर्थिक विषमता की पृष्ठभूमि में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल करना चुनौतीपूर्ण जान पड़ता है। ऐसे में उत्तरदायित्व के रूप में कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सबिलिटी (सीएसआर) की धनराशि का सही दिशा में यानी राष्ट्रीय क्रेच योजना में खर्च किये जाने से उपर्युक्त दोनों ही समस्याओं को साधने का प्रयास किया जा सकता है। किंतु अब प्रश्न यह उठता है कि सीएसआर और राष्ट्रीय क्रेच योजना क्या है एवं इन दोनों में अंतर्संबंध स्थापित करने से क्या बदलाव आएँगे?

दरअसल सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सबिलिटी एक व्यापक प्रबंधकीय अवधारणा है, जिसके माध्यम से एक कंपनी सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरण के क्षेत्र में ट्रिपल बॉटम लाइन दृष्टिकोण को प्राप्त करती है। साधारण शब्दों में कहें तो सीएसआर उपर्युक्त क्षेत्र में एक कंपनी पर निर्धारित सामाजिक दायित्व आरोपित करती है। इस अवधारणा को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के तहत नियंत्रित किया जाता है। यह उन कंपनियों, जिनका एक वित्त वर्ष के दौरान निवल मूल्य 500 करोड़ रुपए से अधिक हो या कुल कारोबार 1000 करोड़ रुपए से अधिक हो या शुद्ध लाभ 5 करोड़ रुपए से अधिक हो, पर लागू होती है और इस आधार पर ऐसी कंपनियों को विगत 3 वर्षों के शुद्ध लाभ के औसत का 2% निर्धारित क्षेत्रों पर खर्च करना होता है।

वहीं क्रेच कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देखभाल हेतु सुविधागृह होता है, जिसमें निर्धारित न्यूनतम शुल्क पर निश्चित आयु वर्ग के बच्चों की देखभाल की जाती है। कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देखभाल के उद्देश्य से ही राष्ट्रीय क्रेच योजना, जिसका पूर्व नाम राजीव गांधी राष्ट्रीय क्रेच योजना था, को केंद्र सरकार के द्वारा वर्ष 2017 से सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में कार्यान्वित किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि मातृत्त्व लाभ संशोधन अधिनियम, 2017 भी दस या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक संगठन हेतु क्रेच की अनिवार्यता पर बल देता है। इस योजना के द्वारा कामकाजी महिलाओं के 6 माह से 6 वर्ष की आयु वर्ग वाले बच्चों की देखभाल की जाती है। सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार यह शिशुगृह केंद्र 1 महीने में 26 दिन एवं प्रतिदिन लगभग 7:30 घंटे तक बच्चों को सुविधाएँ मुहैया कराते हैं। इस योजना के माध्यम से 3 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को प्रारंभिक प्रोत्साहन और 3 से 6 वर्ष तक के बच्चों को उचित पोषाहार देने से लेकर प्रारंभिक शिक्षा देने तक का कार्य किया जाता है। इस योजना की मुख्य बात यह है कि बच्चों की देखभाल प्रशिक्षित कर्मचारी द्वारा की जाती है। केंद्र सरकार द्वारा कार्यस्थल पर क्रेच की सुविधा के लिये जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार एक क्रेच कार्यस्थल पर या उसके 500 मीटर के दायरे में होना चाहिये हालाँकि, वैकल्पिक रूप से यह लाभार्थियों के पड़ोस में भी हो सकता है। अब मूल प्रश्न यह है कि सीएसआर और राष्ट्रीय क्रेच योजना के अंतर्संबंधन की आवश्यकता क्यों है?

दरअसल, सीएसआर और राष्ट्रीय क्रेच योजना के अंतर्संबंध का प्रश्न न केवल देश की महिला कर्मचारियों के लिये नियोजित बने रहने की समस्या से, बल्कि देश के कुशल मानव संसाधन रूपी भविष्य से भी जुड़ा हुआ है। विगत वर्ष के श्रमबल सर्वेक्षण रिपोर्ट 2017-18 के मुताबिक भारत के शहरी क्षेत्रों में पहली बार नौकरियों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक रही है। इस आँकड़े से यह तो स्पष्ट है कि कार्यशील महिलाओं की संख्या में इज़ाफा हुआ है किंतु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि कितनी कार्यशील महिलाएँ अपने पारिवारिक दायित्व विशेषतया गर्भधारण से पूर्व एवं जनन के बाद कौशल एवं योग्यता होने के बावजूद अपने कार्यों को छोड़ देती हैं। इससे सामाजिक न्याय की अवधारणा और मानव संसाधन का कुशलतम उपयोग प्रभावित होता है। खासकर वर्तमान संदर्भ में जब भारत ने वर्ष 2025 तक स्वयं को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा है। साथ ही वर्तमान में भारत सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है किंतु गौर करने वाली बात यह है कि आने वाले समय में सर्वाधिक आश्रितों की संख्या वाला देश भी भारत ही होगा, तो जाहिर है कि समय रहते तार्किक समाधान ढूँढने की आवश्यकता है और सही मायने में यदि देश की आबादी को विकास का इंजन बनाना है तो कार्यशील महिलाओं के समक्ष उत्पन्न बाधाओं को दूर करना होगा क्योंकि सृजनशीलता महिला का अभिन्न अंग है और राष्ट्रीय विकास अपरिहार्य।

ऐसे में राष्ट्रीय क्रेच योजना में सीएसआर की धनराशि को खर्च किया जाना एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। चूँकि, अब सीएसआर फंड की राशि को यदि निश्चित समय में खर्च नहीं किया जाता है तो यह स्वतः ही केंद्र सरकार के एक निर्णय के अनुसार  सरकार के विशेष खाते जैसे - ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष’ या ‘क्लीन गंगा फंड’ में जमा हो जाएगी। बेशक यह कदम प्रशंसनीय है, किंतु यदि इस फंड में राष्ट्रीय क्रेच योजना को शामिल किया जाए तो यह वर्तमान एवं भविष्य दोनों के साझे एवं संतुलनकारी विकास को संबोधित करेगा। इस योजना में फंड की राशि को खर्च करने से घाटे में चल रही कंपनियाँ या अपर्याप्त पूँजी वाली कंपनियाँ अपने यहाँ नियोजित महिला कर्मचारियों तथा उनके बच्चों के लिये सुविधाएँ मुहैया करा सकेंगी। परिणामस्वरूप महिलाएँ  प्रसव के (26 सप्ताह के बाद) बाद नियोजित रहते हुए अपने बच्चों की देखभाल के प्रति चिंतामुक्त होकर अपनी कंपनी और राष्ट्र के विकास में योगदान दे सकेंगी। साथ ही बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य को लक्षित करने वाली विभिन्न योजनाओं, जैसे- आईसीडीएस एवं मिड-डे-मील, के लक्ष्यों को इन शिशु गृहों में पूरा किया जा सकेगा और सरकार के कुपोषण मुक्त भारत के लक्ष्य को भी साधा जा सकेगा। यह उपाय वर्तमान में जहाँ नियोजित महिलाओं की समस्याओं को संबोधित करता है तो वहीं भविष्य में कुशल मानव संसाधन के निर्माण को भी। इसे हम पश्चिमी देशों के उदाहरण से समझ सकते हैं जहाँ बचपन में ही बच्चों की प्रतिभाओं को पहचान कर उनके रूचिपूर्ण क्षेत्रों में शुरुआती दिनों से ही अधिक ध्यान दिया जाता है। हालाँकि, यह उदाहरण अपवादों से परे नहीं है जिसमें बच्चों के मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा सर्वोपरि है किंतु भारत में उनकी कमियों से सीख लेते हुए बच्चों की प्रारंभिक देखरेख को नैतिक जीवन एवं सच्चरित्र वाले गुणों से जोड़कर उनमें भविष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों को रोका जा सकता। इस प्रकार इस तरीके को अपनाये जाने से न केवल सामाजिक न्याय की अवधारणा बलवती होगी बल्कि बच्चों के सर्वांगीण विकास, जैसे- पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की नई दिशा भी सुनिश्चित होगी। इसके अतिरिक्त हम इससे सामाजिक न्याय (महिला एवं बाल विकास) तथा आर्थिक विकास के जुड़वा लक्ष्यों को भी प्राप्त कर सकेंगे और इससे अन्य योग्य महिलाओं में भी औपचारिक कार्य के प्रति रूझानों को बढ़ाया जा सकेगा। जाहिर है इस संपूर्ण प्रक्रिया से एक महिला, ट्रिपल बॉटम लाइन उपाय के रूप में, स्वयं की अस्मिता, अपने पारिवारिक एवं राष्ट्र के प्रति दायित्वों में संतुलन स्थापित कर सकेगी। उपर्युक्त लाभों को देखते इस योजना में सीएसआर फंड से प्राप्त होने वाली राशि को केवल वैकल्पिक न बनाते हुए अनिवार्य किया जाना चाहिये ताकि घाटे और अपर्याप्त पूँजी वाली कंपनियों के साथ-साथ सरकार के वित्तीय बोझ को भी कम किया जा सके।

उपर्युक्त लेख के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के साझे लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु महिला को मानव संसाधन समझना और उसकी क्षमताओं को आर्थिक भागीदारी से जोड़ना समय की मांग है और इस दृष्टिकोण पर देश का वर्तमान और भविष्य दोनों टिका हुआ है। अतः यदि हमें भविष्य को बेहतर बनाना है तो वर्तमान की आवश्यकताओं को समझना होगा तथा इस दिशा में आगे बढ़ते हुए सीएसआर की धनराशि का क्रेच में इस्तेमाल पर विचार करना होगा क्योंकि वर्तमान ही भविष्य का निर्माता है।

[पिंकी कुमारी]

(पिंकी कुमारी दृष्टि समूह में एक कंटेंट राइटर हैं और विभिन्न विधाओं में लेखन यानी कविता, संपादकीय लेख आदि में भी इनकी गहरी रुचि है।)


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