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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ‘मीमांसा दर्शन तर्कपूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है।’ कथन को स्पष्ट करते हुए इस दर्शन के प्रमुख तत्त्वों की चर्चा करें।

    07 Aug, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    • मीमांसा दर्शन का संक्षिप्त परिचय।

    • मीमांसा दर्शन के प्रमुख तत्त्वों को लिखते हुए निष्कर्ष लिखें।

    भारत के छ: आस्तिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रवर्तक जैमिनी हैं। मीमांसा शब्द का वास्तविक अर्थ तर्क-पूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है। यह विचार पद्धति वैदिक साहित्य के भाग रहे संहिता तथा ब्राह्मणों के विश्लेषण पर केंद्रित थी।

    मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों में शाश्वत सत्य निहित है तथा यदि व्यक्ति को धार्मिक श्रेष्ठता, स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करनी है, तो उसे वेदों द्वारा नियत सभी कर्तव्य पूरे करने होंगे।

    इस दर्शन के अनुसार मुक्ति अनुष्ठानों के निष्पादन से ही संभव है। साथ ही, मुक्ति के उद्देश्य से किये जा रहे अनुष्ठानों को पूर्णता से संपन्न करने के लिये उनमें निहित तर्क को समझना भी आवश्यक है।

    मीमांसा दर्शन के अनुसार व्यक्ति के कर्म अपने गुण दोषों के लिये उत्तरदायी होेते हैं तथा गुणयुक्त कर्मों के प्रभाव की अवधि तक व्यक्ति स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता है, किंतु वे जन्म और मृत्यु से मुक्त नहीं होंगे। मुक्ति को प्राप्त करने के पश्चात् वे इस अनंत चक्र से छूट जाएंगे।

    मीमांसा में महासृष्टि तथा खंडसृष्टि नाम से दो सृष्टियों का उल्लेख है, जबकि प्रलय, महाप्रलय और खंडप्रलय नाम से तीन प्रलयों का उल्लेख है। किसी स्थल विशेष का भूकंप आदि से विनाश होना खंडप्रलय तथा वहाँ नए जीवन का उदय खंडसृष्टि है। महासृष्टि में परमाणुओं से द्वयणुकादि द्वारा पंचमहाभूत पर्यंत नवग्रहादिकों की सृष्टि होती है।

    विद्वानों ने अनुमान सिद्ध ईश्वर का निराकरण किया है तथा वेद सिद्ध ईश्वर को स्वीकार किया है।

    पदार्थ विवेचना की चार कोटियाँ मानी गई हैं-

    प्रमाण: जिसके विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो और विषय का निर्धारण हो।

    प्रमेय: प्रमाण के द्वारा जिसका ज्ञान हो।

    प्रमिती: प्रमाण के द्वारा जिस किसी भी विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो।

    प्रमाता: जो प्रमाण के द्वारा प्रमेय ज्ञान को जानता है।

    यद्यपि मीमांसा तर्क-पूर्ण चिंतन को प्रोत्साहित करती है परंतु साथ ही यह समाज में वर्ग विभेद को भी बढ़ावा देती है। चूँकि यह मुक्ति के लिये अनुष्ठानों को आवश्यक मानती है, जिसकी उचित समझ सामान्य लोगों को नहीं होती। अत: उन्हें पुरोहितों की सहायता लेनी पड़ती है, जो कि स्पष्ट रूप से ब्राह्मणाें के वर्चस्व को स्थापित करता है।

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