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क्या राजद्रोह कानूनों को खत्म कर देना चाहिये?

  • 30 Jun 2017
  • 13 min read

लोकतंत्र सही मायनों में लोकतंत्र तभी माना जाता है, जब सरकार के प्रति व्यक्त असहमति और आलोचना का भी तहेदिल से स्वागत किया जाए। कबीरदास ने कहा है “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय” अर्थात खुद की निंदा करने वालों को अपने पास ही रखना चाहिये। लेकिन, आज सबसे बड़ा सवाल यह यह है कि निंदा या आलोचना की भाषा और देशद्रोह की भाषा में अंतर क्या है? क्या एक परिपक्व लोकतंत्र में राजद्रोह कानूनों की आवश्यकता है? आज वाद-प्रतिवाद और संवाद के माध्यम से हम भारत में राजद्रोह कानूनों की प्रासंगिकता पर बात करेंगे।

वाद

  • असहमति भले ही लोकतंत्र का मूलभूत गुण हो लेकिन आज देश में ऐसे हालात है कि अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करना भी आपको देश-द्रोही की संज्ञा दिला सकता है। ऐसे में या तो आप जेल की सलाखों के पीछे होंगे या फिर, गली, नुक्कड़, बस या ट्रेन में या फिर सड़कों पर भीड़ आपका इंतज़ार कर रही होगी।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (A) के अनुसार, "बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष (Disaffection) उत्पन्न करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जाएगा।" 
  • सत्ता के खिलाफ लिखने, बोलने या दृश्य फिल्म की प्रस्तुति पर प्रतिबंध प्रथम दृष्टया वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन माना जाता है। यद्यपि वैधानिक साधनों से सरकार का विरोध करना इस धारा के अधीन अपराध नहीं माना गया है, किंतु समस्या यह है कि वह वैधानिक साधन क्या है, यह स्पष्ट नहीं है।
  • अतः राजद्रोह से संबंधित आईपीसी की धारा 124 (A) अपनी परिभाषा में अपूर्ण और अस्पष्ट है तथा यह कभी-कभी औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान बने काले कानून की पुनरावृत्ति नज़र आती है।
  • उल्लेखनीय है कि जेएनयू में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार छात्रों के मामले में 17 महीने के बाद भी पुलिस कोई चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई थी। वहीं नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार जेएनयू विवाद के बाद से लेकर अब तक देश में देशद्रोह के कुल 77 मामले दर्ज़ किये जा चुके हैं।
  • 1870 में संभावित विद्रोह के डर से औपनिवेशिक शासकों द्वारा देशद्रोह कानून को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में शामिल किया गया था। आज़ादी के बाद इसे खत्म किये जाने के मांगों के बावजूद, यह आज भी कानून की किताबों में बना हुआ है। उल्लेखनीय है कि तब देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने कहा था कि इन कानूनों से जितनी जल्दी मुक्ति मिल जाए उतना ही अच्छा है।
  • आज सरकारों के बीच यह कानून इतना लोकप्रिय हो गया है कि तमिलनाडु के कुंडकुलम में एक गाँव पर इसलिये देशद्रोह कानून थोप दिया गया था, क्योंकि वे वहाँ परमाणु सयंत्र बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे।
  • इतना ही नहीं, वर्ष 2014 में झारखण्ड में तो विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी देशद्रोह कानून चलाया गया था। दरअसल, राजद्रोह का कानून भारत के औपनिवेशिक शासनकाल की निशानी है, जहां सत्ता प्रतिष्ठान आंदोलित जनता के खिलाफ इसका इस्तेमाल करता था। अतीत में भी, जब भी किसी के ऊपर इस धारा को लगाया गया, संबंधित एजेंसियों के लिये इसे जायज़ ठहराना टेढ़ी खीर साबित हुआ है।

प्रतिवाद

  • जैसे- जैसे दुनिया आधुनिक होती जा रही है, ठीक वैसे-वैसे किसी राष्ट्र की सुरक्षा चुनौतियाँ भी गंभीर होती जा रही हैं। ऐसे में यह पहचान करना मुश्किल है कि वे कौन लोग हैं, जो राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता से खिलवाड़ करना चाहते हैं। आईबी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बहुत से ऐसे एनजीओ हैं, जो राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। ऐसे में वह देशद्रोह कानून ही है जो इन पर लगाम लगाता है।
  • राजद्रोह कानूनों को खत्म करने की वकालत करने वाले लोगों का तर्क यह है कि इस कानून का दुरुपयोग किया जाता है। यह तर्क अपने आप में इस बात का सूचक है कि इस कानून की कुछ तो उपयोगिता है ही। इस संबध में माननीय सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी कानून के दुरूपयोग की संभावना ही उस कानून के निरस्तीकरण का कारण नहीं बन सकती।
  • राजद्रोह कानून के विरोधी अक्सर दावा करते हैं कि आईपीसी की धारा 124 (A), अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ की भावना के प्रतिकूल है। अनुच्छेद 19 ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ की बात करता है और इसका नियम 1 (ए) कहता है कि “सभी नागरिकों को बोलने का और अभिव्यक्ति का अधिकार होगा”, किंतु इस स्वतंत्र वाणी अथवा अभिव्यक्ति पर निश्चित प्रतिबंध भी लगाता है।
  • खेलों की बात करें तो भारत-पाकिस्तान के बीच किसी मैच के दौरान मोहम्मद आमिर की गेंदबाज़ी की तारीफ करना या फिर सोहेल अब्बास के गोल पर ताली बजाना देशद्रोह नहीं है, लेकिन किसी भारतीय नागरिक के पाकिस्तान जिंदाबाद बोलने से आपसी सौहार्द बिगड़ता है और देश की सुरक्षा के प्रति चुनौतियाँ खड़ी होती हैं तो ऐसे में राजद्रोह कानूनों की प्रासंगिकता तो बनी रहनी चाहिये।

संवाद

  • एक लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राजद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधानों के बीच अक्सर तनाव उभरता रहता है। ग़ौरतलब है कि जब भी इस तरह का मामला प्रकाश में आता है तो देश में इस बात को लेकर एक ज़ोरदार बहस छिड़ जाती है कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है, तो फिर सरकार या नेताओं की आलोचना करना, सरकारी नीतियों या प्रशासनिक अधिकारियों की बुराई करना राजद्रोह क्यों और कैसे है?
  • ऐसे में, कुछ लोग तो अति उत्साह में एक लोकतांत्रिक देश में राजद्रोह या देशद्रोह से संबंधित कानूनों को ही पूर्णतया अनावश्यक करार दे देते हैं। उनका तर्क होता है कि लोकतंत्र में विरोध करना या अपनी बात कहना, जनता का बुनियादी हक है और लोकतंत्र की सार्थकता इसी से सिद्ध होती है। फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार किस आधार पर अपने ही नागरिकों को देशद्रोही साबित करने हेतु औपनिवेशिक कानून का पोषण करती है?
  • जबकि इस मामले में सरकार के तर्क में मुख्य चिंता उग्रवादियों, आतंकवादियों और किसी भी प्रकार के अतिवाद से उत्पन्न होने वाले खतरे से देश को बचाए रखने की होती है।
  • बेशक, सरकार या सरकारी नीतियों की आलोचना करना राजद्रोह कतई नहीं कहा जा सकता है, लेकिन राजद्रोह का मुकदमा तभी दायर होना चाहिये, जब किसी व्यक्ति या किसी समूह द्वारा देश की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर सवाल खड़ा किया जाए।
  • भारत के विरुद्ध नारे लगाना और उनकी वकालत करना, अफज़ल गुरु, जिसने कि लोकतंत्र के मंदिर भारतीय संसद में आतंकी हमले कराये, उसे पोस्टर बॉय बनाकर भारत की बर्बादी के नारे लगाना निश्चित ही, राजद्रोह के अंतर्गत आना चाहिये।
  • वहीं यदि हम केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले की बात करें तो पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 124 (ए) को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था। उसने कहा था कि यह प्रावधान अभिव्यक्ति एवं वाणी की मूलभूत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तो लगाता है, किंतु वे प्रतिबंध “सार्वजनिक व्यवस्था के हित में हैं तथा मूलभूत अधिकारों में जिस विधायी हस्तक्षेप की अनुमति है, उसी के दायरे में हैं।” 
  • अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि राजद्रोह का अपराध तभी माना जाएगा, यदि वह अपराध “हिंसक तरीकों से सरकार का तख्ता पलटने” के इरादे से किया गया हो। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि “सरकारी नीतियों के प्रति असंतोष जताने के लिये अथवा उनमें सुधार की माँग करते हुए कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना राजद्रोह नहीं कहा जाएगा।
  • लेकिन इस बात की कल्पना करना कठिन है कि भारत के विखंडन की अपील करना या अपनी हरकतों से अप्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हजारों निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकवादियों की प्रशंसा करना ‘केवल कड़े शब्दों का इस्तेमाल’ कैसे माना जा सकता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित करना राष्ट्र के विखंडन को न्योता देना होगा।

निष्कर्ष
शासन चाहे किसी भी प्रवृत्ति का हो, हर प्रकार की व्यवस्था में शासन के खिलाफ आवाज़ उठाना दंडनीय अपराध माना जाता रहा है। भारत में भी प्राचीन और मध्यकाल में यह किसी-न-किसी रूप में मौजूद था। आधुनिक काल में, जब 1860 में भारतीय दंड संहिता बनाई गई तो उसके बाद राजद्रोह संबंधी प्रावधानों को धारा 124 (A) के अंतर्गत स्थान दिया गया। बहरहाल, वह दौर औपनिवेशिक शासन का था और उस समय ब्रिटिश भारत सरकार का विरोध करना देशभक्ति का पर्याय माना जाता था।

दरअसल, हमें यह समझना होगा कि न तो सरकार और राज्य एक हैं, और न ही सरकार तथा देश। सरकारें आती-जाती रहती हैं, जबकि राज्य बना रहता है। राज्य संविधान, कानून और सेना से चलता है, जबकि राष्ट्र अथवा देश एक भावना है, जिसके मूल में राष्ट्रीयता का भाव होता है। इसलिये कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि राजद्रोह राष्ट्रभक्ति के लिये आवश्यक हो जाए। ऐसी परिस्थिति में सरकार की आलोचना नागरिकों का पुनीत कर्त्तव्य होता है। अतः सत्तापक्ष को धारा 124 (A) दुरुपयोग नहीं करना चाहिये।

सच कहें तो देशद्रोह शब्द एक सूक्ष्म अर्थों वाला शब्द है, जिससे संबंधित कानूनों का सावधानी पूर्वक इस्तेमाल किया जाना चाहिये। यह एक तोप के समान है, जिसका प्रयोग राष्ट्रहित में किया जाना चाहिये न कि चूहे मारने के लिये, अन्यथा हम अपना ही घर तोड़ बैठेंगे।

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