दृष्टि आईएएस अब इंदौर में भी! अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें |   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

संसद टीवी संवाद


भारतीय अर्थव्यवस्था

द बिग पिक्चर : निजी अस्पतालों का विनियमन

  • 24 Nov 2018
  • 26 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि


दिल्ली सरकार राजधानी में निजी अस्पतालों के कामकाज को विनियमित करने के लिये दिये गए कुछ सुझावों के पीछे निहित तर्क को समझने के लिये समिति द्वारा तैयार की गई मसौदा नीति की पुन: परीक्षण करेगी। ड्राफ्ट एडवाइजरी को स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक कीर्ति भूषण की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय विशेषज्ञ पैनल द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था। पैनल का गठन पिछले साल 13 दिसंबर को तब किया गया जब शालीमार बाग में स्थित मैक्स अस्पताल में चिकित्सीय लापरवाही के कारण एक बच्चे को गलत तरीके से मृत घोषित किये जाने का आरोप उसके परिजनों ने लगाया था।

  • वरिष्ठ अधिकारी मसौदा नीति से संतुष्ट नहीं हैं और चाहते हैं कि समिति पूरी रिपोर्ट पर फिर से काम करे।
  • 28 मई को दिल्ली सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों तथा नर्सिंग होम पर लगाम लगाने के लिये नियमों को बदलकर निजी अस्पतालों को नेशनल लिस्ट ऑफ इसेंशियल मेडीसिन्स (एनएलइएम), 2015 में शामिल 376 दवाइयों को ही लिखने का प्रस्ताव पास किया था।
  • प्रस्ताव में अस्पतालों से इन दवाइयों को एमआरपी दर पर ही बेचने की बात की गई थी। इस लिस्ट से बाहर की दवाइयों और कंज्यूमेबल आइटम्स पर खरीद रेट से अधिकतम 50 प्रतिशत से ज़्यादा मुनाफा नहीं लेने का सुझाव दिया गया था। 50 प्रतिशत या एमआरपी में से जो भी कम होगा, उतना बिल लिये जाने का प्रस्ताव किया गया था।
  • इस मसौदे को पब्लिक डोमेन में 30 दिनों के लिये रखा गया था और इस पर सुझाव आमंत्रित किये गए थे।
  • मसौदा जून के अंत तक प्रस्तुत किया जाना था जिसमें पहले ही चार महीने की देरी हो चुकी है।

निजी अस्पतालों को विनियमित किये जाने की ज़रूरत क्यों?

निजी अस्पतालों को विनियमित किये जाने की आवश्यकता क्यों है, इसे समझने के लिये राजधानी दिल्ली में हुए कुछ केस स्टडी पर नज़र डालते हैं-

केस नंबर 1
  • पिछले साल दिसंबर में दिल्ली मेडिकल काउंसिल को यह जानकारी प्राप्त हुई कि एक व्यक्ति जाली प्रमाण पत्रों के साथ कथित रूप से मुनिरका स्थित एक अपंजीकृत नर्सिंग होम में चिकित्सक के रूप में प्रैक्टिस कर रहा है। जाँच के उपरांत पाया गया कि उसके द्वारा गलत दवाइयाँ देने के कारण एक मरीज़ की मृत्यु हो गई।
  • दिल्ली मेडिकल काउंसिल द्वारा की गई जाँच में पाया गया कि वह कभी डॉक्टर रहा ही नहीं। उसने गोवा मेडिकल काउंसिल से जाली तथा नकली मेडिकल सर्टिफिकेट प्राप्त किया था तथा उसी आधार पर इंडियन अकेडमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स की सदस्यता हासिल की थी और इन्हीं जाली और नकली प्रमाणपत्रों के आधार पर देश की राजधानी में मेडिकल प्रैक्टिस कर रहा था।
  • देश में ऐसे हज़ारों फर्जी चिकित्सक प्रैक्टिस कर रहे हैं जो कि एक खतरनाक स्थिति है।
केस नंबर 2
  • 30 नवंबर, 2017 को दिल्ली के शालीमार बाग स्थित मैक्स हॉस्पिटल ने एक जीवित बच्ची को मृत घोषित कर दिया था और उसे प्लास्टिक के थैले में भरकर परिजनों को सौंप दिया था। इसके बाद परिजनों की शिकायत पर पुलिस ने FIR दर्ज नहीं की और मामला मेडिकल की लीगल सेल को फॉरवर्ड कर दिया गया था।
केस नंबर 3
  • पिछले वर्ष दिसंबर में डेंगू से पीड़ित एक बच्ची की फोर्टिस अस्पताल में मौत हो गई और अस्पताल प्रशासन ने मृतक बच्ची के माँ-बाप को 16 लाख रुपए का बिल थमा दिया।
  • दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले में संज्ञान लिया और गुरुग्राम स्थित फोर्टिस अस्पताल द्वारा बनाए गए इस बिल पर कड़ा रुख अपनाते हुए हरियाणा सरकार द्वारा की जा रही जाँच रिपोर्ट तलब की।
  • उपरोक्त मामले बानगी भर हैं हकीकत तो यह है कि ऐसे मामले लगातार देखने को मिल रहे हैं जो निजी अस्पतालों को विनियमित किये जाने का कारण उत्पन्न करते हैं तथा कठोर कदम उठाने पर मजबूर करते हैं।
  • हाल ही में नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी ने दिल्ली-एनसीआर के 4 अस्पतालों के बिलों का अध्ययन कर इस बात को उजागर किया है कि ये अस्पताल किस तरह से आम आदमी को लूट रहे थे। 
  • हाल के वर्षों में भारत में डॉक्टरों और अस्पतालों के विनियमन का मुद्दा विभिन्न स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित गतिविधियों के अधिनियमन या स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित अधिनियमों में संशोधन या डॉक्टर-फार्मा नेक्सस से उत्पन्न कुछ कदाचारों के कारण मीडिया में चर्चा का विषय रहा है।
  • निजी अस्पतालों में इलाज हेतु जाने वाले लगभग सभी लोगों ने इस प्रकार का अनुभव शेयर किया है कि यहाँ मेडिकल एथिक्स के अनुसार सब कुछ ठीक नहीं है। कई बार तो ऐसी ख़बरें मीडिया में प्रकाशित होती हैं, जबकि मीडिया में प्रकाशित नहीं होने वाली ख़बरों की संख्या कहीं अधिक है।
  • संदिग्ध चिकित्सीय लापरवाही और अत्यधिक बिल राशि के उदाहरण आम हैं।
  • इस मुद्दे पर तमाम बहसों के बाद समग्र राय यह सामने आई है कि निजी चिकित्सा क्षेत्र को अधिक प्रभावी ढंग से विनियमित करने की आवश्यकता है।
  • एक आम धारणा गहराती जा रही है कि निजी अस्पताल उपचार में खर्च के नाम पर लूट-खसोट करते हैं। कई निजी अस्पताल तो इसलिये कुख्यात हो रहे हैं कि वहाँ जान-बूझकर अनाप-शनाप बिल बनाया जाता है। एक समस्या यह भी है कि उनकी मनमानी के खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं होती।
  • नागरिकों की सबसे बड़ी परेशानी स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता, मापदंड और कीमत को निर्धारित करने वाले नियमों का पूरी तरह अभाव होना है।
  • क्या वज़ह है कि निजी अस्पतालों को रेगुलेट करने के लिये कोई नीति नहीं है?
  • अस्पतालों की मनमानी पर रोक लगाने के लिये नियामक की ज़रूरत है। अगर रियल एस्टेट, बीमा, बिजली और टेलीकॉम के लिये सरकार नियामक बना सकती है तो हेल्थ जैसे बेहद अहम क्षेत्र के लिये क्यों नहीं?
  • निजी अस्पतालों की मनमानी पर लगाम लगाना ज़रूरी है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और केंद्र इसमें अधिक हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  • यूपीए सरकार के कार्यकाल में राज्यों के सहयोग से इस तरह के मेडिकल प्रोसीजर की कीमतें तय करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, बाद में इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
  • केंद्रीय और राज्य स्तर पर हेल्थ नियामक होने से अस्पतालों के सभी तरह के मेडिकल प्रोसीजर, जाँच और अन्य खर्चों की लिमिट तय हो जाएगी और वे मनमानी नहीं कर पाएंगे।
  • निजी अस्पतालों में कई नेताओं, ब्यूरोक्रेट्स तथा कॉर्पोरेट ने पैसा लगाया हुआ है जिस कारण इस क्षेत्र के लिये नियामक की नियुक्ति नहीं हो पा रही है तथा रेगुलेट करना मुश्किल हो रहा है।
  • निजी अस्पतालों में एथिकल प्रैक्टिसेज़ एक बहुत बड़ा मुद्दा है। चिकित्सा क्षेत्र में बढ़ते वैश्विक प्रैक्टिसेज़ को देखते हुए निजी अस्पतालों के विनियमन की बेहद आवश्यकता है।
  • भारत जैसे बड़े देश में निजी क्षेत्र भी ज़रूरी है। सभी सेवाएँ पब्लिक सेक्टर द्वारा नहीं दी जा सकतीं, इसके कुछ लिमिटेशन भी हैं, साथ ही इस क्षेत्र की कुछ अपनी समस्याएँ हैं।
  • हमें संतुलन बनाए रखने की ज़रूरत है लेकिन प्रश्न यह उठता है कि निजी क्षेत्र को कौन विनियमित करेगा।
  • भारत की मेडिकल काउंसिल मानकों को निर्धारित करने वाली संस्था है लेकिन यह केवल भारत के मेडिकल रजिस्टर पर डॉक्टरों को पंजीकृत करती है इसमें भ्रष्टाचार के अनेक मामले उजागर हुए हैं।
  • अब वह समय आ गया है कि चिकित्सा क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकारें अनुशासन के प्रवर्तन के लिये एक साथ काम करें। हमें निजी अस्पतालों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिये कारगर कदम उठाना चाहिये।

दिल्ली सरकार की यह नीति समस्याओं से किस प्रकार निपटने में सक्षम होगी?

  • चिकित्सकों के अंदर उच्च नैतिक गुण होने चाहिये। इस ड्राफ्ट पॉलिसी का उद्देश्य भ्रष्ट व्यवस्था को समाप्त करना है लेकिन इस नीति में जाँच से संबंधी कोई प्रावधान नहीं है क्योंकि इसमें अस्थिरता अधिक है।
  • डॉक्टर और मरीज़ के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है और दोनों में काफी अधिक अविश्वास है। इसलिये नीति बनाते समय इन सब बातों पर ध्यान देना होगा क्योंकि सब जानते हैं कि हर व्यक्ति भ्रष्ट है।
  • हमें रणनीतियों को तय करते समय सावधानी बरतने की ज़रुरत है। हालाँकि सरकार इस पर ध्यान दे रही है लेकिन इस पर सख्ती दिखाने की ज़रूरत है।
  • हमें ध्यान रखना चाहिये कि सुपर क्वालिटी केयर के मामले में हमारा देश अन्य विकसित देशों की तुलना में सबसे सस्ता है और ये देश अपनी आवश्यकताओं के लिये हमारी सेवाएँ ले रहे हैं।
  • वर्तमान नीति काफी प्रगतिशील है तथा गरीब रोगियों के लिये स्वीकार्य है लेकिन इसमें कुछ कमियाँ भी हैं। जैसे इस नीति में शिकायत निवारण तंत्र का अभाव है। अगर किसी मरीज़ की कोई शिकायत है तो वह कहाँ जाएगा।
  • साथ ही यह नीति कानूनी दृष्टि से टिकाऊ नहीं दीखती है और निजी क्षेत्र को इस बात का भय है कि इससे लोगों की सेवा की बजाय मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलेगा। इस प्रकार इन तमाम कमियों को दूर किया जाना ज़रूरी है।
  • इस नीति में नर्सिंग होम के बारे में स्पष्ट नहीं किया गया है कि नर्सिंग होम रेगुलेशन एक्ट, 1953 के अंतर्गत या क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 2010 के रूल्स एंड रेगुलेशन के अंतर्गत आएंगे।
  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह नीति अच्छी है, जनता के हित में है लेकिन वर्तमान में इससे संबद्ध कुछ चुनौतियाँ भी हैं जिनसे निपटना आवश्यक है।

विभिन्न मौजूदा चिकित्सा विनियम क्यों विफल रहे हैं?

  • प्रत्येक राज्य में 1950 के दशक में बनाया गया नर्सिंग होम एक्ट होता है, जो कि अब देश में हेल्थ केयर संस्थानों से जुड़ा हुआ नहीं है।
  • बनाए गए नियमों-अधिनियमों के अंतर्गत सभी मेडिकल प्रतिष्ठानों को पंजीकृत करने की आवश्यकता होती है तथा उनके लाइसेंस रद्द किये जा सकते हैं, लेकिन कदाचार या ओवरबिलिंग को लेकर कोई प्रावधान नहीं है।
  • मानकों को निर्धारित करने वाली संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया है, लेकिन यह केवल भारत के मेडिकल रजिस्टर पर डॉक्टरों को पंजीकृत करती है। स्टेट मेडिकल काउंसिल राज्य चिकित्सा रिकॉर्ड में डॉक्टरों का पंजीकरण करती है।
  • वर्तमान में सभी मेडिकल काउंसिल निर्वाचित निकाय हैं और इनके सदस्य को चुनाव की प्रक्रिया में शामिल हैं। इनका उद्देश्य डॉक्टरों के हितों की रक्षा करना है, न कि उनकी जाँच करना या दंडित कर परेशान करना। काउंसिल शायद ही कभी किसी डॉक्टर के लाइसेंस को निलंबित करती है।
  • राष्ट्रीय या राज्य चिकित्सा परिषदों द्वारा डॉक्टरों के अनैतिक उपचार की निगरानी हेतु कोई समुचित व्यवस्था नहीं है।
  • क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 2010 को संसद द्वारा पारित किये जाने के बाद भी किसी राज्य द्वारा इसे ठीक से लागू नहीं किया गया है।

स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों को जवाबदेह कैसे बनाया जा सकता है?

  • क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट को लागू करने के अलावा, हमें एक नियामक (regulator) की आवश्यकता है, जो एक ट्रिब्यूनल की तरह हो, न कि उपभोक्ता अदालत की तरह।
  • उपभोक्ता अदालत केवल दोषपूर्ण सेवा और मुआवज़े को निर्धारित करती है, जबकि चिकित्सीय लापरवाही या कदाचार के मामले का फैसला करते समय इसके लिये कोई चिकित्सा सलाह उपलब्ध नहीं है।
  • चिकित्सीय लापरवाही और कदाचार के मामलों में ऐसे वकीलों की आवश्यकता होती है जो चिकित्सा परिणामों की व्याख्या कर सकें और सर्वोत्तम प्रथाओं तथा उपचार के नियमों के साथ अपनी बात रख सकें।
  • हमें ज़िला स्तर पर ज़िला मंच, राज्य स्तर पर राज्य मंच और राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकपाल के साथ शुरू होने वाले मेडिकल ट्रिब्यूनल की आवश्यकता है।
  • इनमें से प्रत्येक में एक न्यायाधीश, एक डॉक्टर और एक चिकित्सा प्रशासक होना चाहिये जो अस्पताल प्रशासन के बारे में जानकारी रखता हो।
  • हमें ऐसे चिकित्सा ट्रिब्यूनल की ज़रूरत है जो कदाचार, लापरवाही, उदासीनता और ओवरबिलिंग के इन विशिष्ट मामलों को देख सके।
  • क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट द्वारा जो मानक तैयार किये जाएँ उन्हें स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं द्वारा पूरा किया जाना चाहिये। यदि इन मानकों का उल्लंघन होता है तो अधिकारी उनका पंजीकरण रद्द कर सकते हैं।
  • यदि राज्य, चिकित्सा मानकों और देखभाल की गुणवत्ता के विषय में कोई कारगर कदम नहीं उठाते हैं तो इस विषय को संविधान की समवर्ती सूची में लाया जाना चाहिये।
  • सार्वजनिक अस्पतालों में बड़ी समस्याएँ हैं। मिसाल के तौर पर सरकारी डॉक्टर मरीज़ों को अपने निजी क्लिनिक में आने तथा इलाज कराने की सलाह देता है, जहाँ वह मरीज़ों से पाँच गुना अधिक पैसा वसूलता है। ऐसे डाक्टरों को जाँच के दायरे में रखा जाना चाहिये।
  • चिकित्सकों को छोटी गलतियों पर स्वयं संज्ञान लेना चाहिये क्योंकि बड़े अनुभव वाले श्रेष्ठ डॉक्टरों से भी गलतियाँ होती हैं। यदि वे सुरक्षित तरीके से अपने कार्य को अंजाम देते हैं तो बहुत सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं।
  • चिकित्सक हेल्थकेयर सिस्टम के एंकर हैं और समाज में लोगों के मन में डॉक्टरों के लिये काफी सम्मान है। डॉक्टरों की सक्रिय भागीदारी के बिना अनैतिक अभ्यास व्यापक नहीं हो सकते हैं।

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 2010

  • क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट को केंद्र सरकार ने 2010 में बनाया था जिसका मक़सद था निजी अस्पतालों, क्लीनिक, डायग्नोस्टिक सेंटरों की जवाबदेही निर्धारित करना और यह सुनिश्चित करना कि वे खुद का पंजीकरण करवाएँ और मानकों का पालन करें।
  • इसमें कानून का पालन नहीं करने वालों पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। यह कानून 28 फरवरी, 2012 को अधिसूचित किया गया और शुरुआती तौर पर चार राज्यों - अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम और सभी केंद्रशासित राज्यों (दिल्ली के अलावा) में लागू किया गया।
  • बाद में उत्तर प्रदेश, राजस्थान बिहार, झारखंड और उत्तराखंड द्वारा इस कानून को अपनाया गया। राज्यों के पास विकल्प था कि या तो वे इसे अपने राज्य में लागू करें या इस विषय पर अपने राज्य के लिये कोई अलग क़ानून बनाएँ।
  • राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, असम और उत्तराखंड ने इस कानून को स्वीकार तो कर लिया है लेकिन इसे पूरी तरह लागू नहीं किया है।

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट के प्रमुख प्रावधान

  • सभी अस्पताल, क्लीनिक, मैटरनिटी होम, डिस्पेंसरी और नर्सिंग होम को पंजीकृत करवाना ज़रूरी होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे लोगों को न्यूनतम सुविधाएँ और सेवाएँ दे रहे हैं।
  • एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, यूनानी दवाओं से जुड़ी समस्त स्वास्थ्य सुविधाओं पर यह कानून लागू होगा।
  • इलाज और स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने वाले सभी संस्थानों के लिये ज़रूरी होगा कि वे हर मरीज़ से संबंधित सभी इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ या इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (EHR या EMR) सुरक्षित रखें।
  • अगर कोई रोगी इमर्जेंसी की स्थिति में किसी अस्पताल या क्लिनिक पहुँचता है तो उसे वे सभी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएँ जिससे रोगी को स्थिर या सुरक्षित अवस्था में लाया जा सके।
  • इलाज करने वाले संस्थान अपनी सेवाओं की फीस राज्य सरकारों से बातचीत करके तथा केंद्र सरकार की सूची में निर्धारित सीमाओं के भीतर तय करेंगे।
  • अस्पताल, प्रदान की जाने वाली समस्त सेवाओं की फीस की जानकारी स्थानीय भाषा और अंग्रेज़ी भाषा में अस्पताल में प्रदर्शित करेंगे। साथ ही किसी भी प्रावधान के उल्लंघन पर अस्पताल का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया जाएगा।
  • कानून का उल्लंघन किये जाने पर 10 हज़ार रुपए से 5 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना लगाया जाएगा, जेल का कोई प्रावधान नहीं है। समस्त अस्पतालों का ज़िला स्तर पर डिजिटल रिकॉर्ड रखा जाएगा जिसे डिजिटल रजिस्ट्री कहा जाएगा।

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट और चिकित्सकों की असहमति

  • जस्टिस जे. राव की अध्यक्षता में बनाई गई विधि आयोग की अगस्त 2006 में आई रिपोर्ट में डॉक्टरों पर ज़िम्मेदारी डाली गई है कि वे किसी भी अवस्था में इमर्जेंसी में आए किसी भी रोगी को बिना इलाज के वापस नहीं लौटाएंगे।
  • व्यय संबंधी समस्या से निपटने के लिये इस रिपोर्ट में मेडिकल सर्विसेज़ फ़ंड बनाने का सुझाव दिया गया था। इस फंड की स्थापना राज्यों को करनी थी लेकिन अभी तक इसका क्रियान्वयन नहीं हो सका है।
  • चिकित्सकों की सबसे ज़्यादा नाराज़गी अधिनियम की धारा 12 (2) को लेकर है जिसके मुताबिक, अगर कोई रोगी इमर्जेंसी में अस्पताल पहुँचता है तो उसे वह सभी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएंगी जिससे रोगी को ‘स्टेबल’ किया जा सके। डाक्टरों का सवाल है कि इमरजेंसी इलाज का खर्च कौन उठाएगा?
  • इसके अलावा डॉक्टरों का यह भी कहना है कि इस कानून में अधिकारियों को व्यापक अधिकार दिये गए हैं जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा।
  • इसके अलावा, कानून में अस्पतालों – क्लीनिक की फीस नियत करने की बात की गई है जिसके बारे में डॉक्टरों का कहना है कि विभिन्न सेवाओं के लिये उनकी फीस पर सरकार कंट्रोल नहीं कर सकती।
  • डॉक्टरों को मरीज़ों का रिकॉर्ड रखने में भी आपत्ति है क्योंकि उनका कहना है कि इससे उनका खर्च बढ़ेगा।

आगे की राह

  • रोगी के इलाज की लागत प्रत्यक्ष रूप से चिकित्सा शिक्षा लागत से जुड़ी होती है। कोई व्यक्ति MBBS या MD करने में जितना अधिक पैसा खर्च करेगा उतना ही अधिक इसकी रिकवरी भी करना चाहेगा। चाहे गलत तरीके से ही उसे रिकवरी क्यों न करनी पड़े। इसलिये प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों तथा पब्लिक मेडिकल कॉलेजों के बीच संतुलन बनाने की ज़रूरत है।
  • नेशनल फ्रेमवर्क ऑफ़ रेगुलेटिंग प्राइवेट सेक्टर के साथ वर्तमान नीति में बहुत सारी चीज़ों को शामिल किया गया है। कुछ क्षेत्रों में समस्याएँ ज़रूर हैं जिनके कारणों को तलाशने की ज़रूरत है तथा इनका निराकरण तुरंत किये जाने की ज़रूरत है।
    बोर्ड ऑफ़ गवर्नर के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग गठित किये जाने की ज़रूरत है। एक ऐसे पावरफुल वैधानिक निकाय की ज़रूरत है जो किसी भी अनएथिकल प्रैक्टिस के विरुद्ध कार्यवाही करने में सक्षम हो।
  • हमें ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • हमारी स्वास्थ्य नीति आम आदमी के लिहाज से सही दिशा में है लेकिन इसके बेहतर क्रियान्वयन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

निष्कर्ष

1972 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनोथ एरो ने चेतावनी दी थी कि स्वास्थ्य सेवा को बाज़ार के हवाले कर देना आम नागरिक के लिये घातक होगा। ऐसा लगता है कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हो गया है जिसका आनंद कुछ ब्रांडेड अस्पतालों द्वारा उठाया जा रहा है। यह विडंबना ही है कि सालाना 17 प्रतिशत की औसत से बढ़ने वाला स्वास्थ्य क्षेत्र आम नागरिक की सहज पहुँच से लगातार दूर होता जा रहा है। इलाज पर होने वाले कुल खर्चे में सरकारी खजाने का हिस्सा महज़ 25 प्रतिशत है, बाकी का बोझ लोगों की जेब पर पड़ता है। नतीजतन सालाना तौर पर 10 लाख भारतीय साधनों के अभाव में उपचार नहीं करा पाते और उनकी मौत हो जाती है। 

मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा डाक्टरों के लिये कोड ऑफ एथिक्स तय किया गया है लेकिन ऐसा लगता है कि यह एक मृत पत्र बनकर रह गया है। जितना ही अधिक डॉक्टर डायग्नोस्टिक टेस्ट की सिफारिश करता है या एक रोगी को आईसीयू में अधिक समय तक रखा जाता है उतना ही उसके पैसे बनते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के विनियमन में दिल्ली सरकार की यह पहल उम्मीदों पर खरा उतरेगी।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow