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जैव विविधता और पर्यावरण

COP-26 : जलवायु समानता की आवश्यकता

  • 15 Nov 2021
  • 13 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित  COP-26 शिखर सम्मेलन को संबोधित किया, जहाँ उन्होंने जलवायु कार्रवाई के लिये महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ कीं और दुनिया के विकासशील देशों की तरफ से आवाज़ भी उठाई।

प्रमुख बिंदु

  • शिखर सम्मेलन में भारत की प्रतिबद्धताएँ: भारत की ओर से अपना राष्ट्रीय वक्तव्य देते हुए प्रधानमंत्री ने COP-26 में जलवायु कार्रवाई के लिये भारत की ओर से पाँच प्रतिबद्धताएँ प्रस्तुत की गईं, इनमें शामिल हैं:
    • वर्ष 2030 तक भारत की गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट (GW) तक ले जाना।
    • वर्ष 2030 तक भारत की 50% ऊर्जा आवश्यकताओं को अक्षय ऊर्जा के माध्यम से पूरा करना।
    • वर्ष 2030 तक भारत की अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में 45% से अधिक की कमी करना।
    • अब से वर्ष 2030 तक इसके शुद्ध अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में 1 बिलियन टन की कटौती करना।
    • वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना।
  • क्लाइमेट इक्विटी मॉनिटर: भारत जलवायु और ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये विकसित देशों द्वारा किये जाने वाले कार्यों के संदर्भ में जलवायु समानता पर भी ज़ोर दे रहा है।
    • जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं पर नज़र रखने वाले क्लाइमेट इक्विटी मॉनिटर के अनुसार, अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया सहित अधिकांश यूरोपीय देशों ने वैश्विक कार्बन बजट के अपने उचित हिस्से को पार कर लिया है, जबकि भारत, चीन और अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिकी देशों ने अपने उचित हिस्से से कम खपत की है। 
  • एक रोल मॉडल के रूप में भारत: भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु कड़ा रुख अपनाया है , जो इस बात का भी संकेत है कि कैसे विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के संबंध में दृढ़ निर्णय लेने के इच्छुक हैं।
    • दुनिया के विभिन्न हिस्सों से उत्सर्जन दर के संबंध में ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को देखते हुए भारत की प्रतिक्रिया विकसित देशों की तुलना में काफी बेहतर है।

जलवायु परिवर्तन और विश्व:

  • वैश्विक सुधार: UNEP के एक अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के प्रति  प्रतिबद्धताओं से वैश्विक उत्सर्जन में कम-से-कम 26-28 बिलियन टन का सुधार हुआ है।
    • वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के बाद से नए कोयला बिजली संयंत्रों की मांग गिर गई है, पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद से 75% से अधिक नियोजित कोयला संयंत्रों को खत्म कर दिया गया है।
    • देशों ने भी अपनी शुद्ध शून्य प्रतिबद्धताओं के साथ कदम बढ़ाया है, भारत सहित कुल देशों में से लगभग 84% ने शुद्ध शून्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रतिबद्धता दिखाई है।
    • अधिक-से-अधिक देश कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिये लक्ष्य निर्धारित कर रहे हैं, साथ ही वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा भी की गई है।
  • भारत के प्रयास: भारत ने हाल ही में घोषणा की है कि वह पाँच सूत्री कार्य योजना के हिस्से के रूप में वर्ष 2070 तक कार्बन तटस्थता की स्थिति तक पहुँच जाएगा, जिसमें वर्ष 2030 तक उत्सर्जन को 50% तक कम करना शामिल है।
    • भारत एक बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते तथा चौथा सबसे बड़ा वैश्विक उत्सर्जक होने के नाते (ईयू सहित) उन देशों में से एक था जिसे शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा करने के लिये काफी दबाव दिया जा रहा था।
    • भारत ने इसे ध्यान में रखते हुए उत्सर्जन को कम करने हेतु अपने लक्ष्य की घोषणा की, हालाँकि वर्ष 2070 वह लक्ष्य नहीं है जिस पर दुनिया ज़ोर दे रही थी।
    • लेकिन पेरिस समझौते का बुनियादी ढाँचा स्पष्ट करता है कि हर देश को अपने विकास और जलवायु परिवर्तन के लिये जो भी उपाय करने की ज़रूरत है उसे करने की स्वायत्तता है।
    • भारत ने वर्ष 2022 के अंत तक 175 GW तथा वर्ष 2030 तक 450 GW अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य भी रखा था।
  • भारत अपनी ऊर्जा टोकरी का 40% गैर-जीवाश्म-ईंधन-आधारित और अपने ऊर्जा बाज़ार के 50% को नवीकरणीय बनाने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • भारत ने एक अरब टन कार्बन उत्सर्जन में कमी करने की भी प्रतिबद्धता जताई।
  • विकसित देशों की ज़िम्मेदारी: भारत 'साझा लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारी' के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसके अनुसार विकसित देशों को अपने उत्सर्जन में भारी कमी लाने के लिये पहला कदम उठाना चाहिये।
  • इसके अलावा उन्हें गरीब देशों को उनके पिछले उत्सर्जन के कारण पर्यावरणीय क्षति के लिये भुगतान करके क्षतिपूर्ति करनी चाहिये।

जलवायु परिवर्तन शमन से जुड़े मुद्दे:

  • निरर्थक प्रतिज्ञाएँ : वैश्विक नेताओं की प्रतिबद्धताओं और भाषणों में भी यह स्वीकार किया गया है कि अब जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है किंतु विश्व के विभिन्न देशों द्वारा अभी तक उन वादों को पूरा नहीं किया गया है जिन्हें सदी के अंत तक 1.5 ℃ तापमान वृद्धि से नीचे रहने के लिये पूरा करने की आवश्यकता है।  
  • निधियों का प्रतिबंधित प्रवाह: UNFCCC द्वारा प्रस्तुत वित्त के द्विवार्षिक मूल्यांकन (2018) के अनुसार, विकसित देशों से विकासशील देशों में धन का वास्तविक प्रवाह केवल 38 बिलियन डॉलर है, वह भी UNFCCC द्वारा अपनाए गए शिथिल मानदंडों के बाद।
    • ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) या अनुकूलन कोष जैसे जलवायु वित्त के लिये निधि का वास्तविक प्रवाह बहुत कम है और इसलिये विश्व बैंक तथा इसी तरह के अन्य संस्थानों के माध्यम से बहुत सारे वित्त प्रवाह को जलवायु वित्त के रूप में प्रविष्ट किया जाता है।
  • शमन निधि अंतर के लिये उच्च अनुकूलन वित्त: अनुकूलन वित्त, शमन वित्त की तुलना में बहुत कम है। यह अनुपात लगभग 75:25 या 65:35 है। शमन कार्यों के लिये प्रदत्त वित्त की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक है।
  • NDC संश्लेषण रिपोर्ट में उठाए गए मुद्दे: NDC संश्लेषण रिपोर्ट में जो देखा गया है वह यह है कि विकसित देशों ने वर्ष 2050 तक कार्बन तटस्थता लक्ष्य की प्रतिज्ञा की है।
    • यह प्रयास उत्सर्जन में 100% की कमी भी नहीं ला रहा है। वास्तव में हो यह रहा है कि वे उत्सर्जन के बोझ को विकासशील देशों में स्थानांतरित करने का प्रयास कर रहे हैं।
  • शुद्ध शून्य उत्सर्जन से संबंधित मुद्दा: शुद्ध शून्य उत्सर्जन का मतलब है कि एक देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रख सकता है यदि वह दूसरे देशों से कार्बन क्रेडिट करे और खुद को शुद्ध शून्य उत्सर्जन के रूप में दिखाए।
    • यह कुछ विकासशील देशों के लिये फायदेमंद हो सकता है लेकिन वैश्विक स्तर पर यह फायदेमंद नहीं है।
    • विकसित देशों को वर्ष 2030 तक कार्बन न्यूट्रल हो जाना चाहिये अन्यथा वे कार्बन स्पेस पर कब्जा करते रहेंगे, जिसका अर्थ होगा कि विकासशील देश कार्बन स्पेस से बाहर हो जाएंगे और आने वाले वर्षों में कोई कार्बन स्पेस नहीं होगा।

आगे की राह 

  • जलवायु वित्तपोषण: सभी देशों को जलवायु परिवर्तन संबंधी अपने कार्यों में तेज़ी लाने की आवश्यकता होगी और इसके लिये न केवल शमन के लिये बल्कि अनुकूलन हेतु भी विकसित देशों द्वारा वित्तीय प्रतिबद्धताओं का समर्थन करने की आवश्यकता होगी।
    • आने वाले दशक में इस संबंध में प्रौद्योगिकी और निजी निवेशकों की भी प्रमुख भूमिका है।
    • शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिये केवल प्रतिबद्धता या नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाना विकसित देशों की तुलना में पर्याप्त नहीं हो सकता है।
    • उन्हें जलवायु वित्तपोषण के मामले में भी अधिक खर्च करने की आवश्यकता होगी, विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा सुनिश्चित करना और संसाधनों के नुकसान व क्षति जैसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अनुकूलन के लिये वित्त का बेहतर प्रवाह सुनिश्चित करना होगा।
  • विकासशील और विकसित दुनिया के बीच जुड़ाव: राष्ट्रों के बीच बेहतर साझेदारी पर अधिक दबाव डालने की आवश्यकता है। जलवायु समानता के बारे में बात करते समय विकासशील और विकसित देशों के साथ जुड़ाव बहुत महत्त्वपूर्ण है।
    • UNSG (संयुक्त राष्ट्र के महासचिव) ने विशेष रूप से उन देशों और देशों के अनुकूलन हेतु दिये जाने वाले धन को आवश्यक रूप से बढ़ाने का आह्वान किया है जो पहले से ही जलवायु संकट की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और भविष्य में बदतर परिस्थितियों का सामना करेंगे।
    • अनुकूलन हेतु दिया जाने वाला सार्वजनिक और निजी वित्त इन देशों को विशेष रूप से कोविड के बाद मदद करने में काफी महत्त्वपूर्ण रहा है।
  • देशों की नीतियों पर पुनर्विचार: समय आ गया है कि सभी देश अपनी अर्थव्यवस्था और अपनी कर प्रणालियों पर कड़ी नज़र डालें तथा इसे एक ऐसी प्रणाली में संरेखित करें जो ग्रह की सीमाओं के साथ अधिक संतुलन में हो। अब सभी देशों को एक साथ काम करने और आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
  • नेतृत्त्वकर्त्ता के रूप में भारत: भारत एक नेतृत्त्वकर्त्ता के रूप में सिर्फ इसलिये नहीं आगे आ रहा है क्योंकि वह कार्रवाई कर रहा है, बल्कि इसलिये आ रहा है क्योंकि वह प्रौद्योगिकी के निर्माण, अनुकूलन मुद्दों को संबोधित करने हेतु कम लागत वाले विभिन्न  तरीके खोजने आदि के मामले में अव्वल है।

निष्कर्ष:

जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है और इसके कई पहलू हैं। देशों द्वारा व्यक्तिगत रूप से कई पहलुओं पर ध्यान दिया जा रहा है लेकिन एक वैश्विक संयुक्त मोर्चा भी स्थापित करने की आवश्यकता है।

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