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मरुस्थलीय ‘मृदा-निर्माण’ तकनीक

  • 01 Oct 2025
  • 14 min read

स्रोत: द हिंदू 

पहली बार पश्चिमी राजस्थान की शुष्क रेगिस्तानी भूमि में एक नवीन ‘मरुस्थलीय मृदा-निर्माण तकनीक’ का उपयोग करके गेहूँ की सफलतापूर्वक खेती की गई है। 

  • परिचय: मरुस्थलीय मृदा-निर्माण तकनीक एक जैव प्रौद्योगिकी विधि है, जो बंजर मरुस्थलीय की रेत को मिट्टी जैसी सामग्री में परिवर्तित करती है, जो कृषि गतिविधियों को बनाए रखने में सक्षम है। 
    • यह ढीले रेत कणों को बाँधने, मृदा  संरचना को बढ़ाने और जल धारण क्षमता में उल्लेखनीय सुधार करने के लिये जैव-सूत्रीकरण तथा पॉलिमर का उपयोग करता है। 
  • उद्देश्य: मरुस्थलीकरण से निपटना, शुष्क क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देना और टिकाऊ भूमि प्रबंधन को बढ़ावा देना। 
  • मुख्य विशेषता: 
    • यह प्रौद्योगिकी पौधों की सहनशीलता को बढ़ाती है, जिससे फसलें (गेहूँ, बाजरा, ग्वार गम) उष्ण और शुष्क परिस्थितियों के प्रति अधिक लचीली हो जाती हैं। 
    • पॉलिमर रेत के कणों के बीच क्रॉस-लिंक बनाते हैं, जिससे ढीली रेत एक संरचित, मृदा जैसी सामग्री में बदल जाती है। 
    • यह जैव-सूत्रीकरण सूक्ष्मजीवी गतिविधि को बढ़ाता है, बेहतर पोषक चक्रण को बढ़ावा देता है तथा समग्र मृदा स्वास्थ्य में सुधार करता है। 
      • शोधकर्त्ताओं ने पाया कि बायोफॉर्मूलेशन-संशोधित रेत में उगाई गई बाजरा, ग्वार गम और चना की फसलों में सामान्य मृदा की तुलना में 54% अधिक उपज होती है। 
    • यह प्रक्रिया एक बाइंडिंग प्रभाव (बंधकारी प्रभाव) उत्पन्न करती है, जो मृदा में जल धारण क्षमता को बेहतर बनाकर सिंचाई की आवश्यकता को काफी हद तक कम कर देती है। 
  • मरुस्थलीकरण: यह प्राकृतिक कारकों और मानवीय गतिविधियों के कारण शुष्क, अर्द्ध-शुष्क तथा शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में भूमि का क्षरण है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में कमी आती है एवं वनस्पति का क्षय होता है। 
और पढ़ें: मरुस्थलीकरण 
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