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धारा 498ए के दुरुपयोग को लेकर विवाद

  • 02 Aug 2017
  • 10 min read

उच्चतम न्यायालय के एक हालिया निर्णय ने धारा 498 को फिर से चर्चा में ला दिया है। विदित हो कि उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान के लगातार बढ़ते दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। ध्यातव्य है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत दहेज़ उत्पीडन से संबंधित मामलों को देखा जाता है। इस आलेख में हम यह देखेंगे की शीर्ष न्यायालय ने क्या कहा और इस निर्णय के संबंध में असहमति व्यक्त करने वालों के तर्क क्या हैं? लेकिन पहले जान लेते हैं कि धारा 498ए है क्या?

498ए: दहेज़ निरोधक कानून 

  • आज हमारे देश में लड़कियों और महिलाओं को लेकर कई कानून बनाए गए हैं। लेकिन धारा 498ए का अपना महत्त्व है क्योंकि जब आईपीसी में धारा 498ए को शामिल किया गया था तो समाज ने, विशेषकर वैसे परिवारों ने राहत महसूस की जिनकी बेटियों को दहेज़ के लिये ससुराल में प्रताड़ित किया जाता था।
  • यह कानून इतना महत्त्वपूर्ण साबित हुआ कि लोगों को लगने लगा कि विवाहिता बेटियों के लिये एक सुरक्षा कवच मिल गया है। इससे दहेज़ के लिये बहुओं को प्रताड़ित करने वालों परिवारों में भय का वातावरण बना। 

क्या कहता है यह कानून ?

  • विदित हो कि दहेज़ प्रताड़ना और ससुराल में महिलाओं पर अत्याचार के दूसरे मामलों से निपटने के लिये इस कानून में सख्त प्रावधान किये गए हैं। महिलाओं को उसके ससुराल में सुरक्षित वातावरण मिले, कानून में इसका पुख्ता प्रबंध है।
  • दहेज़ प्रताड़ना से बचाव के लिये 1983 में आईपीसी की धारा 498ए का प्रावधान किया गया है। इसे दहेज़ निरोधक कानून कहा गया है। अगर किसी महिला को दहेज़ के लिये मानसिक, शारीरिक या फिर अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो महिला की शिकायत पर इस धारा के तहत मामला दर्ज़ किया जाता है।
  • इसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। साथ ही यह गैर-जमानती अपराध है। दहेज़ के लिये ससुराल में प्रताड़ित करने वाले तमाम लोगों को आरोपी बनाया जा सकता है।
  • इस मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 3 साल तक कैद की सज़ा का प्रावधान है। वहीं अगर शादीशुदा महिला की मौत संदिग्ध परिस्थिति में होती है और यह मौत शादी के 7 साल के दौरान हुई हो तो पुलिस आईपीसी की धारा 304-बी के तहत मामला दर्ज़ करती है।

क्या कहा उच्चतम न्यायालय ने ?

  • दरअसल, आरम्भ में तो कई लोग इस धारा 498ए के तहत प्राप्त होने वाले लाभों से अनभिज्ञ थे, लेकिन धीरे-धीरे लोग इसका सदुपयोग भी करने लगे। पर कुछ ही समय बाद धारा 498ए का ऐसा दुरुपयोग शुरू हुआ कि यह वर पक्ष के लोगों को डराने वाला एक हथियार बन गया।
  • इस कानून के बढ़ते दुरुपयोग को देखते हुए उच्चतम न्यायलय ने हाल ही में व्यापक दिशा निर्देश जारी किये हैं।

→ अब दहेज़ प्रताड़ना के मामले पुलिस के पास न जाकर एक मोहल्ला कमेटी (सिविल सोसाइटी) के पास जाएंगे, जो उस पर अपनी रिपोर्ट देगी। कमेटी की रिपोर्ट के बाद ही पुलिस देखेगी कि कार्रवाई की जाए या नहीं।
→  शीर्ष अदालत द्वारा जारी इन निर्देशों के लागू होने के छह माह बाद यानी 31 मार्च,  2018 को विधिक सेवा प्राधिकरण इस कानून में वांछित परिवर्तन हेतु आवश्यक सुझाव देगा।
→  जस्टिस ए. के. गोयल और जस्टिस यू. यू. ललित की पीठ ने ‘राजेश शर्मा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ के एक मामले में दिये फैसले में कहा कि ‘धारा 498ए का मकसद पत्नी को पति या उसके परिजनों के हाथों होने वाले अत्याचार से बचाना है और वह भी तब, जब ऐसी प्रताड़ना के कारण पत्नी के आत्महत्या करने की आशंका हो’।
→  अदालत ने कहा कि यह चिंता की बात है कि विवाहिताओं द्वारा धारा 498ए के तहत बड़ी संख्या में भ्रामक मामले भी दर्ज़ कराए जा रहे हैं। अतः इसमें अब सिविल सोसाइटी को शामिल किया जाना चाहिये, ताकि प्रशासन को न्याय सुनिश्चित करने में कुछ मदद मिल सके।

विवाद क्या है ?

  • दरअसल, उच्चतम न्यायलय ने इस कानून के दुरुपयोग को प्रमाणित करने के लिये एनसीआरबी( national crime record bureau) के आँकड़ों का सहारा लिया है।
  • एनसीआरबी के 2012 के आँकड़ों का ज़िक्र करते हुए उच्चतम न्यायलय की खंडपीठ ने कहा कि जिन मामलों में इस धारा का इस्तेमाल होता है, उनमें से 93.6% मामलों में चार्जशीट फाइल की जाती है, लेकिन सिर्फ 14.4% मामलों में ही दोषी का अपराध प्रमाणित हो पाता है।
  • यहाँ सवाल यह है कि क्या किसी कानून की महत्ता केवल इसलिये कम हो जाती है क्योंकि उसके तहत दर्ज़ किये गए अधिकांश मामले सही साबित नहीं हो पा रहे हैं?
  • दरअसल, होता यह है कि लंबे समय तक मुकदमा चलने की वजह से बड़ी संख्या में आरोपी छूट जाते हैं।  कभी-कभी तो पुलिस इतना कमज़ोर केस बनाती है कि आरोपी को अपराध से बरी कर दिया जाता है। वहीं कभी शिकायत दर्ज़ कराने वाले या तो थककर समझौता करने को मज़बूर हो जाते हैं या केस वापस लेने के लिये तैयार हो जाते हैं।
  • न्यायालय ने कहा है कि यदि आरोपी देश से बाहर रहता है तो उसका पासपोर्ट जब्त करने की ज़रूरत नहीं है। सिर्फ उन्हीं मामलों में यह रियायत नहीं दी जाएगी, जिसमें पीड़ित को गंभीर चोटें आई हों या जिसमें उसकी मौत हो गई हो। यह चिंतित करने वाला है, क्योंकि अब अपराधी आराम से देश छोड़कर जा सकता है।

विधायिका का रुख

  • यदि बात विधायिका की करें तो वह इस प्रावधान के दुरुपयोग और इसकी वजह से टूट रही वैवाहिक संस्था को बचाने के इरादे से धारा 498ए में संशोधन करना चाहती है और इस संबंध में उसने पहले भी कदम उठाए हैं। विदित हो कि गृह मंत्रालय ने सितंबर 2009 में यह मसला विधि आयोग के पास भेजा था।
  • विधि आयोग ने धारा 498ए से जुड़े तमाम मसलों पर विचार के बाद अगस्त 2012 में इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं पर सरकार को अपनी 243वीं रिपोर्ट सौंपी थी।
  • विधि आयोग के अलावा दंड न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये गठित मलिमथ समिति ने भी इस प्रावधान पर विचार किया था। इस समिति ने धारा 498ए के तहत दंडनीय अपराध को अदालत की अनुमति से समझौते के दायरे में लाने और जमानती अपराध बनाने का सुझाव दिया था।

निष्कर्ष

  • विदित हो कि न्यायालय के नए फैसले में दहेज़ के कारण उत्पीड़न के मामले में आरोपियों की गिरफ्तारी से पहले आरोपों की पुष्टि के लिये ज़िला स्तर पर परिवार कल्याण समिति गठित करने का निर्देश दिया गया है जो निश्चित ही सराहनीय कदम है।
  • न्यायालय का मत है कि निर्दोष व्यक्तियों के मानवाधिकारों की रक्षा हो। इस कानून का दुरुपयोग तो रुकना ही चाहिये लेकिन साथ ही हमें ध्यान रखना होगा कि दहेज़ प्रथा एक गंभीर सामाजिक बुराई है।
  • एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2012, 2013 और 2014 में 24,771 महिलाओं की हत्या  दहेज़ के लिये कर दी गई, यदि धारा 498ए नहीं होती तो यह आँकड़ा और भी वीभत्स तस्वीर पेश कर सकता था। 
  • इसमें कोई शक नहीं है कि कुछ लोगों को गलत तरीके से फँसाने के लिये भी इस कानून का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे मामलों की वजह से उस कानून को कमज़ोर किया जा सकता है, जो दहेज़ पीड़ितों के लिये एक सुरक्षा कवच के समान है?
  • हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायलय का उद्देश्य इस कानून को कमज़ोर करना है, लेकिन फिर भी यह ध्यान रखना होगा कि इस कानून के उद्देश्य अक्षुण्ण बने रहें।
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