सामाजिक न्याय
भारत में समग्र महिला सशक्तीकरण के प्रयास
- 10 Sep 2025
- 170 min read
यह एडिटोरियल 09/09/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “The ‘domestic sphere’ in a new India” पर आधारित है। इस लेख में ‘नारी शक्ति’ के नारे तथा दहेज हत्या, अवैतनिक घरेलू काम और महिलाओं के श्रम के कम मूल्यांकन की वास्तविकताओं के बीच के बहुत बड़े अंतर को उजागर किया गया है, साथ ही इस बात पर बल दिया गया है कि वास्तविक सशक्तीकरण प्रतीकात्मक उत्सव की बजाय संरचनात्मक परिवर्तन की माँग करता है।
प्रिलिम्स के लिये: मातृ मृत्यु अनुपात (MMR), सकल नामांकन अनुपात (GER), उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2021-2022, केंद्रीय बजट 2025-26, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY), e-Shram पोर्टल, नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023, उज्ज्वला योजना
मेन्स के लिये: महिला सशक्तीकरण की दिशा में भारत की ठोस प्रगति को दर्शाने वाले क्षेत्र, भारत में महिलाओं के प्रभावी सशक्तीकरण में बाधक कारक
यद्यपि भारत की नेतृत्व-व्यवस्था सार्वजनिक विमर्श में ‘नारी शक्ति’ और महिला-प्रधान विकास की अनुशंसा करता है, परंतु घरेलू परिस्थितियों में महिलाओं के समक्ष आने वाली कठोर वास्तविकताओं पर एक चिंताजनक चुप्पी बनी हुई है। दहेज संबंधी हिंसा से प्रतिवर्ष 7,000 महिलाओं की मृत्यु हो जाती है और 93% महिलाएँ प्रतिदिन सात घंटे अवैतनिक घरेलू कार्य में बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 26 मिनट ही काम करते हैं, ऐसे में बयानबाजी और वास्तविकता के बीच का अंतर बहुत बड़ा है। वास्तविक महिला सशक्तीकरण के लिये न केवल उनके योगदान का उत्सव मनाना आवश्यक है, बल्कि उन संरचनात्मक असमानताओं को दूर करना भी आवश्यक है जो उन्हें अत्यधिक काम और कम मूल्यांकन के चक्र में फँसाती हैं।
वे कौन-से प्रमुख क्षेत्र हैं जहाँ भारत ने महिला सशक्तीकरण को आगे बढ़ाया है?
- स्वास्थ्य और मातृ देखभाल: भारत ने मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार हासिल किया है, जिससे मातृ मृत्यु दर में उल्लेखनीय गिरावट आई है।
- वर्ष 2018-20 में मातृ मृत्यु अनुपात (MMR) घटकर प्रति लाख जीवित जन्मों पर 97 हो गया, जो वर्ष 2030 तक सतत् विकास लक्ष्य (SDG) के 70 लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में उचित प्रगति को दर्शाता है।
- यह उपलब्धि मुख्यतः बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं तक अभिगम्यता और विशेषकर संस्थागत प्रसव को बढ़ावा दिये जाने के कारण संभव हुई है।
- सत्र 2019-21 में, 88.6% प्रसव स्वास्थ्य संस्थानों में हुए, जो सत्र 2015-16 के 78.9% से उल्लेखनीय वृद्धि है।
- मातृ स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने से प्रसवपूर्व देखभाल (ANC) में भी सुधार हुआ है, जिसमें 59% (सत्र 2019-21) महिलाओं को स्वास्थ्य प्रदाताओं द्वारा अनुशंसित चार या अधिक ANC दौरे प्राप्त हुए हैं।
- शिक्षा और साक्षरता: भारत में महिला साक्षरता और शिक्षा तक अभिगम्यता में लगातार वृद्धि देखी गई है, जिससे लैंगिक अंतर कम हुआ है।
- विश्व बैंक भारत की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की स्वतंत्रता के दौरान 11 में से केवल 1 लड़की ही साक्षर थी, जो लगभग 9% है। और वर्तमान में, महिला साक्षरता दर बढ़कर 77% हो गई है, जो विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार दर्शाती है।
- प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों का सकल नामांकन अनुपात (GER) लड़कों की तुलना में लगातार अधिक रहा है।
- सत्र 2021-22 में महिला GER और पुरुष GER का अनुपात 1.01 (उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2021-2022) है।
- कार्यबल भागीदारी और आर्थिक सशक्तीकरण: महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में सकारात्मक वृद्धि देखी गई है, महिला स्व-रोज़गार में 30% की वृद्धि हुई है, जो सत्र 2017-18 में 51.9% से बढ़कर सत्र 2023-24 में 67.4% हो गई है।
- महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास के लिये भारत के प्रयासों के कारण अधिक महिलाएँ उद्यमिता में प्रवेश कर रही हैं, लगभग 50% DPIIT-पंजीकृत स्टार्टअप्स में कम से कम एक महिला निदेशक हैं।
- महिलाओं के लिये श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो सत्र 2017-18 में 23.3% से बढ़कर सत्र 2022-23 में 37% हो गई है।
- इसके अतिरिक्त, महिलाओं के स्वामित्व वाले MSME ने वित्त वर्ष 2021-2023 तक महिलाओं के लिये 89 लाख से अधिक नए रोज़गार सृजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- लैंगिक-संवेदनशील नीतियाँ और सरकारी योजनाएँ: भारत ने महिला कल्याण के लिये समर्पित योजनाओं के माध्यम से लैंगिक समानता का समर्थन करने के लिये अपने नीतिगत कार्यढाँचे को सुदृढ़ किया है।
- केंद्रीय बजट 2025-26 में लैंगिक बजट आवंटन में 37.25% की वृद्धि की गई है, जो ₹4.49 लाख करोड़ तक पहुँच गया है।
- प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (68% ऋण महिलाओं को) जैसी पहलों ने लाखों महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया है।
- ये नीतियाँ न केवल वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं, बल्कि एक समावेशी परिवेश का भी पोषण करती हैं जहाँ महिलाएँ उद्यमी और आर्थिक विकास में योगदानकर्त्ता के रूप में प्रगति कर सकती हैं।
- डिजिटल वित्तीय समावेशन और वित्तीय साक्षरता: भारत ने महिलाओं के डिजिटल वित्तीय समावेशन में प्रगति की है, जो आर्थिक स्वतंत्रता के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) से एक क्रांतिकारी बदलाव आया है, जिसकी सफलता में महिलाएँ अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।
- अगस्त 2025 तक, 56% से अधिक जन धन खाते महिलाओं के होंगे। इस पहल ने लाखों बैंकिंग सेवाओं से वंचित महिलाओं को शून्य-शेष खाता प्रदान किया है, जिससे उनकी औपचारिक वित्तीय भागीदारी की नींव रखी गई है।
- इसके अलावा, मार्च 2025 तक, 30.68 करोड़ से अधिक असंगठित श्रमिकों ने e-Shram पोर्टल पर पंजीकरण कराया है, जिनमें से आधे से अधिक महिलाएँ (53.68%) हैं।
- प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) से एक क्रांतिकारी बदलाव आया है, जिसकी सफलता में महिलाएँ अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।
- सामाजिक सुरक्षा जाल और कल्याण कार्यक्रम: प्रधानमंत्री आवास योजना- महिला प्रधान परिवार (PMAY) और उज्ज्वला योजना जैसे सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों ने महिलाओं को आवास एवं रसोई गैस प्रदान करके उन्हें महत्त्वपूर्ण रूप से लाभान्वित किया है।
- आँगनवाड़ी और मान्यता प्राप्त मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (ASHA) कार्यकर्त्ताओं जैसे ज़मीनी स्तर पर महिलाओं का विशाल नेटवर्क कई सामाजिक कल्याण योजनाओं की रीढ़ है। वे सबसे कमज़ोर आबादी तक स्वास्थ्य सेवा और पोषण सेवाएँ प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- खेलों में भारतीय महिलाओं का उदय: हाल के वर्षों में, भारतीय महिलाओं ने खेलों में प्रमुखता हासिल की है, रिकॉर्ड तोड़े हैं और लाखों लोगों को प्रेरित किया है।
- मनु भाकर ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला निशानेबाज बनीं। भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने वर्ष 2023 में एशियाई खेलों में अपना पहला स्वर्ण पदक जीता।
- पैरा-शूटर अवनि लेखरा तीन पैरालंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं, जबकि पैरा-तीरंदाज शीतल देवी सबसे कम उम्र की भारतीय पैरालंपिक पदक विजेता बनीं।
- ये उपलब्धियाँ भारतीय खेलों में महिलाओं के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित करती हैं।
भारत में महिलाओं के प्रभावी सशक्तीकरण में कौन से कारक बाधक हैं?
- श्रम बल अपवर्जन और अनौपचारिकीकरण: महिलाओं को कौशल विकास के अवसरों, सुरक्षित कार्यस्थलों और औपचारिक रोज़गार तक अभिगम्यता प्राप्त करने में प्रणालीगत बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिससे कई महिलाएँ कम वेतन वाले अनौपचारिक काम या अवैतनिक घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित रह जाती हैं।
- भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर अभी भी पुरुषों की श्रम बल भागीदारी दर का आधा है और वैश्विक औसत महिला श्रम बल भागीदारी दर 47.2% (EPW) से काफी कम है।
- राष्ट्रीय असंगठित क्षेत्र उद्यम आयोग (NCEUS) के अनुसार, भारत में 90% से अधिक महिलाएँ अनौपचारिक कार्य में लगी हुई हैं, जिससे उन्हें सामाजिक सुरक्षा, कॅरियर में उन्नति और आर्थिक स्वतंत्रता से वंचित होना पड़ता है, जिससे गरीबी एवं भेद्यता का कुचक्र और प्रबल होता है।
- विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2025 में भारत 148 देशों में 131वें स्थान पर है।
- राजनीतिक अल्प प्रतिनिधित्व और प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व: हालाँकि महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सुधार हुआ है, लेकिन यह अभी भी अत्यंत अपर्याप्त है, जिससे नीति निर्माण में उनकी चिंताओं के समाधान की सीमा प्रभावित होती है।
- भारत की संसद (18वीं लोकसभा) में केवल 14% सीटें महिलाओं के पास हैं और राज्य विधानसभाओं में यह आँकड़ा और भी कम है।
- हालाँकि नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 महिलाओं के लिये 33% सीटें आरक्षित करने का प्रयास करता है, लेकिन इसे अगले परिसीमन के बाद ही लागू किया जाएगा, जिससे महत्त्वपूर्ण निर्णयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कमज़ोर हो जाएगा।
- इसके अलावा, निचले स्तर पर, ‘सरपंच-पति’ प्रणाली जैसी प्रथाएँ, जहाँ पुरुष-संबंधी निर्वाचित महिलाओं की ओर से कार्य करते हैं, वास्तविक नेतृत्व को कमज़ोर करती हैं।
- स्वास्थ्य असमानता और लैंगिक उपेक्षा: हालाँकि हाल ही में सुधार देखे गए हैं, स्वास्थ्य सेवा में प्रणालीगत बाधाएँ एनीमिया, मातृ कुपोषण और अपर्याप्त निवारक सेवाओं की उच्च दर के रूप में प्रकट होती हैं, जो महिलाओं की दीर्घायु एवं कार्यक्षमता को प्रभावित करती हैं।
- NFHS-5 से पता चलता है कि 15-49 वर्ष की आयु की 57% महिलाएँ एनीमिया से ग्रस्त हैं। ये आँकड़े स्वास्थ्य उपेक्षा और सामाजिक और आर्थिक हाशिये पर होने के अंतर्संबंध को उजागर करते हैं, जिससे राष्ट्रीय विकास एवं कार्यबल भागीदारी को खतरा है।
- शिक्षा अंतराल और कौशल वियोग: हालाँकि स्कूलों में लड़कियों के नामांकन में वृद्धि हुई है, फिर भी अधिगम के परिणामों, उच्च शिक्षा तक अभिगम्यता और STEM में भागीदारी में असमानताएँ बनी हुई हैं।
- उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात केवल 28.5% है (हालाँकि पुरुषों की तुलना में थोड़ा अधिक), लेकिन यह उच्च ड्रॉपआउट दर, कम उम्र में विवाह तथा तकनीकी व पेशेवर कॅरियर बनाने वाली महिलाओं के लिये अपर्याप्त संस्थागत समर्थन से और भी जटिल हो जाता है, जिससे सीमित अवसरों का अंतर-पीढ़ीगत चक्र और भी मज़बूत हो जाता है।
- समय की कमी और अवैतनिक देखभाल कार्य: भारत में महिलाएँ अवैतनिक घरेलू और देखभाल संबंधी कार्यों का दंश झेलती हैं, जिससे उनकी शिक्षा, रोज़गार या अवकाश के लिये समय गंभीर रूप से सीमित हो जाता है।
- नवीनतम समय उपयोग सर्वेक्षण (2024) के अनुसार, महिलाएँ प्रतिदिन 289 मिनट अवैतनिक घरेलू कार्यों में बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 88 मिनट ही बिता पाते हैं।
- अवैतनिक श्रम पर खर्च किये गए समय में यह असमानता महिलाओं के लिये सवेतन कार्यों के अवसरों को कम करती है, जिससे श्रम बल में भागीदारी में लैंगिक अंतर बढ़ता है।
- हालाँकि उज्ज्वला योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी नीतियों ने कुछ बोझ कम किया है, लेकिन वे समय की कमी के व्यापक मुद्दे को हल करने में अपर्याप्त हैं, जो महिलाओं को अवैतनिक श्रम के चक्र में फँसाए रखता है।
- नवीनतम समय उपयोग सर्वेक्षण (2024) के अनुसार, महिलाएँ प्रतिदिन 289 मिनट अवैतनिक घरेलू कार्यों में बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 88 मिनट ही बिता पाते हैं।
- औपचारिक रोज़गार क्षेत्रों में भेदभाव: महिलाओं को औपचारिक रोज़गार में संरचनात्मक भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण प्रायः उच्च वेतन वाली या नेतृत्वकारी भूमिकाओं में उनका प्रतिनिधित्व कम होता है।
- कॉर्पोरेट परिवेश में, महिलाओं को एक 'ग्लास सीलिंग' का सामना करना पड़ता है, जहाँ समान योग्यता होने के बावजूद, उन्हें पदोन्नति या नेतृत्वकारी पदों के लिये नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
- अव्यक्त पूर्व-धारणाएँ भी लैंगिक रूढ़ियों को बनाए रखती हैं, जिसके कारण महिलाओं को प्रायः कम वेतन वाले कार्यों या मानव संसाधन, ग्राहक सेवा तथा प्रशासनिक कार्यों जैसी भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है।
- मैकिन्से एंड कंपनी के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि प्रौद्योगिकी, वित्त या इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में महिलाओं को नियुक्त या पदोन्नत किये जाने की संभावना कम होती है, जहाँ नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व निराशाजनक है।
- इसके अतिरिक्त, औपचारिक क्षेत्र में भी महिलाएँ प्रायः अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में काफी कम कमाती हैं, जिससे लैंगिक वेतन अंतर बना रहता है।
- लिंग आधारित हिंसा और दण्ड से मुक्ति: भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा एक महत्त्वपूर्ण और व्यापक मुद्दा बनी हुई है, जो घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, मानव तस्करी और ऑनर किलिंग जैसे विभिन्न रूपों में प्रकट होती है।
- घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम (2005) और आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम (2013) जैसे विधिक प्रावधानों, जो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के कृत्यों को अपराध मानते हैं, के बावजूद इन कानूनों का कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव किया है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में, सामाजिक मानदंड प्रायः अपराधियों को ढाल बना देते हैं और महिलाओं को कलंक, अस्वीकृति या प्रतिशोध के डर से चुप रहने के लिये भारी सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है।
- हिंसा की रिपोर्ट करने में अनिच्छा, पीड़ित को दोषी ठहराने की गहरी जड़ें जमाए संस्कृति से उपजी है, जहाँ पीड़ितों को प्रायः उनके द्वारा सहे गए दुर्व्यवहार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।
- देवी–दासी द्वैत आज भी समाज में बना हुआ है, जहाँ एक ओर महिला को ‘देवी’ के रूप में आदर्श और पवित्र मानकर प्रस्तुत किया जाता है, वहीं दूसरी ओर कई महिलाओं को ‘दासी’ के रूप में हाशिये पर धकेलकर शोषण का शिकार बनाया जाता है। यह भेदभाव इस बात को दर्शाता है कि समाज में गहन स्तर पर महिलाओं की अधीनता को सामान्य और स्वीकार्य मान लिया गया है।
- घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम (2005) और आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम (2013) जैसे विधिक प्रावधानों, जो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के कृत्यों को अपराध मानते हैं, के बावजूद इन कानूनों का कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है।
- जिटल डिवाइड और अपवर्जन के नए रूप: भारत के तेज़ी से डिजिटलीकरण ने डिजिटल लैंगिक अंतर को और बढ़ा दिया है, जिससे महिलाओं की सूचना, वित्तीय साधनों, ई-गवर्नेंस प्लेटफॉर्म एवं सुरक्षित ऑनलाइन स्थानों तक अभिगम्यता सीमित हो गई है।
- भारत असमानता रिपोर्ट 2022: डिजिटल डिवाइड के अनुसार, भारत में इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं में महिलाओं की संख्या केवल एक तिहाई है।
- डिजिटल साक्षरता में लैंगिक अंतर महिलाओं को डिजिटल अर्थव्यवस्था में भाग लेने से और भी रोकता है, जिससे सामाजिक एवं आर्थिक गतिशीलता के लिये आवश्यक सूचना व संसाधनों तक उनकी अभिगम्यता सीमित हो जाती है।
समग्र और न्यायसंगत महिला सशक्तीकरण सुनिश्चित करने के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है?
- कानूनी कार्यढाँचे को सुदृढ़ करना और त्वरित न्याय सुनिश्चित करना: भारत को कानूनी प्रक्रियाओं में तेज़ी लानी चाहिये और महिलाओं की सुरक्षा एवं अधिकारों से संबंधित कानूनों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना चाहिये।
- इसमें न्याय प्रदान करने में विलंब को कम करने के लिये हिंसा, दहेज हत्या और यौन उत्पीड़न के मामलों की त्वरित सुनवाई शामिल है।
- देश भर में लैंगिक हिंसा के लिये विशेष अदालतें स्थापित की जानी चाहिये, जिनमें पुलिस, न्यायपालिका और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को ऐसे मामलों को संवेदनशीलता से संभालने के लिये प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये मौजूदा कानूनों को और अधिक मज़बूत एवं व्यापक बनाने के लिये सुधारों को आगे बढ़ाया जाना चाहिये।
- लैंगिक-संवेदनशील शिक्षा नीतियों को बढ़ावा देना: शिक्षा महिला सशक्तीकरण का एक मूलभूत साधन है और भारत को लैंगिक-संवेदनशील शिक्षा नीतियों को लागू करना चाहिये जो न केवल नामांकन बल्कि प्रतिधारण एवं पूर्णता दर को भी सुनिश्चित करें।
- पाठ्यक्रम सुधारों में लैंगिक समानता, सामाजिक न्याय और महिलाओं के इतिहास पर ज़ोर दिया जाना चाहिये और कम उम्र से ही रूढ़िवादिता को चुनौती देनी चाहिये।
- उच्च शिक्षा की बाधाओं को दूर करने के लिये, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में, जहाँ महिलाओं की भागीदारी सीमित है, वंचित क्षेत्रों की महिलाओं को छात्रवृत्तियाँ, मार्गदर्शन कार्यक्रम और कॅरियर परामर्श उपलब्ध कराए जाने चाहिये।
- महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व और नेतृत्वकारी भूमिकाओं का विस्तार: सरकार को संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का 33% प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 के कार्यान्वयन को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, स्थानीय शासन, कॉर्पोरेट बोर्डों और विभिन्न क्षेत्रों के नेतृत्वकारी पदों पर लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये नीतियाँ बनाई जानी चाहिये।
- सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यकारी पदों पर महिलाओं के लिये कोटा लागू करके, साथ ही महिलाओं की विशिष्ट चुनौतियों के अनुरूप नेतृत्व विकास कार्यक्रमों को लागू करके निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी को और बढ़ाया जा सकता है।
- महिलाओं के लिये व्यापक स्वास्थ्य सेवाएँ: समग्र सशक्तीकरण सुनिश्चित करने के लिये, भारत को महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और समग्र कल्याण पर ध्यान केंद्रित करते हुए, स्वास्थ्य सेवा तक समान अभिगम्यता प्रदान करनी चाहिये।
- इसमें मातृ स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों को दूर करना, परिवार नियोजन विधियों तक अभिगम्यता में सुधार करना और महिलाओं के लिये मानसिक स्वास्थ्य देखभाल जागरूकता को बढ़ावा देना शामिल है।
- स्वास्थ्य नीतियों का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी अवसंरचना में सुधार और महिलाओं के जेब खर्च को कम करके स्वास्थ्य सेवा तक अभिगम्यता में लैंगिक असमानता को कम करना होना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि महिलाओं को आजीवन निरंतर और समग्र देखभाल प्राप्त हो।
- मध्य प्रदेश के सुमन सखी जैसे चैटबॉट, जो व्हाट्सएप के माध्यम से सुलभ हैं और 247 मातृ एवं प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्रदान करते हैं, सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- महिला-केंद्रित डिजिटल साक्षरता और समावेशन कार्यक्रम: भारत को महिलाओं (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) को ध्यान में रखते हुए बड़े पैमाने पर डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम शुरू करने चाहिये, जो न केवल बुनियादी डिजिटल कौशल का प्रशिक्षण दें बल्कि वित्तीय साक्षरता, ई-कॉमर्स और ऑनलाइन उद्यमिता को भी एकीकृत करें।
- इससे महिलाओं को व्यावसायिक अवसरों, दूरस्थ कार्य और सामाजिक संपर्कों के लिये इंटरनेट का लाभ उठाने में सहायता मिलेगी, जिससे भौगोलिक और अभिगम्यता संबंधी बाधाएँ कम होंगी।
- विशिष्ट प्लेटफॉर्म बनाए जा सकते हैं जहाँ महिलाएँ अपनी डिजिटल शिक्षा की यात्रा में सहायता के लिये अनुकूलित संसाधनों, मार्गदर्शन और वित्तीय नियोजन उपकरणों तक अभिगम्यता प्राप्त कर सकें।
- गिग इकॉनमी में महिलाओं के लिये समर्थन: भारत को गिग इकॉनमी में काम करने वाली महिलाओं, जैसे डिलीवरी ड्राइवर, फ्रीलांसर और प्लेटफॉर्म वर्कर, के लिये विशिष्ट कार्यढाँचे एवं सुरक्षा संजाल बनाने चाहिये।
- इसमें गिग वर्कर्स के लिये एक राष्ट्रीय रजिस्ट्री बनाना, स्वास्थ्य सेवा लाभ प्रदान करना, उचित वेतन सुनिश्चित करना और उत्पीड़न के विरुद्ध श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है।
- यह सुनिश्चित करने के लिये लक्षित नीतियाँ लागू की जानी चाहिये कि महिला गिग वर्कर्स को पारंपरिक श्रमिकों के समान कानूनी अधिकार और सामाजिक सुरक्षा लाभ प्राप्त हों, जिनमें मातृत्व अवकाश एवं सेवानिवृत्ति लाभ शामिल हैं।
- महिला-केंद्रित शहरी अवसंरचना विकास: शहरों को महिलाओं की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर डिज़ाइन किया जाना चाहिये। इसमें वास्तविक समय सुरक्षा निगरानी, सुरक्षित पैदल यात्री अवसंरचना, केवल महिलाओं के लिये स्थान और सार्वजनिक स्थानों पर अधिक सुलभ बाल देखभाल सुविधाओं के साथ अधिक महिला-अनुकूल सार्वजनिक परिवहन प्रणालियाँ बनाना शामिल है।
- समय की कमी को कम करने और महिलाओं की सुरक्षा में सुधार के लिये एकीकृत सामुदायिक सेवाओं के साथ कम लागत वाले आवास के डिज़ाइन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
- नीति-निर्माण के लिये लिंग-संवेदनशील AI और डेटा सिस्टम: भारत को लिंग-संवेदनशील AI और डेटा सिस्टम बनाने चाहिये जो स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, रोज़गार और सुरक्षा तक महिलाओं की अभिगम्यता पर वास्तविक समय का विश्लेषण प्रदान करें, जिससे नीति-निर्माता महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं पर अधिक प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया दे सकें।
- सरकारी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में लैंगिक-केंद्रित डेटा को एकीकृत करके, विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के समक्ष आने वाली विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करने के लिये नीतियों को अनुकूलित किया जा सकता है, जिससे सशक्तीकरण के लिये एक अधिक व्यक्तिगत एवं प्रभावी दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सके।
- राज्य समर्थित महिला उद्यमी नेटवर्क: महिला उद्यमियों के लिये राज्य समर्थित नेटवर्क बनाए जाने चाहिये, जहाँ ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की महिलाएँ सहयोग कर सकें, संसाधन साझा कर सकें तथा सरकारी योजनाओं, वित्त पोषण एवं बाज़ार तक अभिगम्यता प्राप्त कर सकें।
- ये नेटवर्क बिज़नेस इन्क्यूबेटरों के रूप में काम कर सकते हैं, जो व्यवसायों को बढ़ाने, निवेशकों से जुड़ने और बाज़ार की जटिलताओं से निपटने के बारे में प्रशिक्षण प्रदान कर सकते हैं।
- ये प्लेटफॉर्म विशेष रूप से छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को लाभान्वित करेंगे, उन्हें अपने व्यवसायों को अपने इलाकों से आगे बढ़ाने के लिये उपकरण प्रदान करेंगे।
- साथ ही, कोल्हापुर की 'पालकमंत्री मकान-दुकान' योजना, जो ग्रामीण महिलाओं को अपने घरों के पास किराने की दुकानें स्थापित करने में सहायता करती है, सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
निष्कर्ष:
महिलाओं का सशक्तीकरण किसी एक क्षेत्रीय सुधार के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसे एक सामाजिक रूपांतरण के रूप में समझना चाहिये जो जीवन के हर पहलू को ऊँचा उठाता है। विधिक, आर्थिक, डिजिटल, सांस्कृतिक और शैक्षणिक उपायों को मिलाकर अपनाया गया समग्र दृष्टिकोण ही वास्तव में न्यायसंगत वातावरण का निर्माण कर सकता है। प्रगति तभी धारणीय होगी जब महिलाएँ केवल भागीदार ही नहीं बल्कि निर्णय-निर्माता की भूमिका में भी हों। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा है, “जब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं होगा, तब तक विश्व का कल्याण संभव नहीं है। पक्षी केवल एक पंख के सहारे नहीं उड़ सकता।”
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में महिला सशक्तीकरण के लिये कल्याणकारी योजनाओं से आगे बढ़कर प्रणालीगत, बहुआयामी सुधारों की आवश्यकता है। हाल के नीतिगत उपायों और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के संदर्भ में इस कथन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
मेन्स
प्रश्न 1. “महिला सशक्तीकरण जनसंख्या संवृद्धि को नियंत्रित करने की कुंजीहै।” चर्चा कीजिये। (2019)
प्रश्न 2. भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के समारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (2015)
प्रश्न 3. “महिला संगठनों को लिंग भेद से मुक्त करने के लिये पुरुषों की सदस्यता को बढ़ावा मिलना चाहिये।” टिप्पणी कीजिये। (2013)
प्रश्न 4. 'देखभाल अर्थव्यवस्था' और 'मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था' के बीच अंतर कीजिये। महिला सशक्तीकरण के द्वारा देखभाल अर्थव्यवस्था को मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था में कैसे लाया जा सकता है? (2023)
प्रश्न 5. महिलाओं की सामाजिक पूँजी सशक्तीकरण और लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने में सहायक है। समझाइये। (2013)