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मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट में सुधारों की ज़रूरत

  • 07 Sep 2017
  • 7 min read

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसला सुनाते हुए 13 साल की एक रेप पीड़िता को 31 हफ्ते का गर्भ गिराने की इज़ाज़त दे दी है, जबकि कुछ दिन पहले ही एक ऐसे ही मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात की अनुमति नहीं दी थी। क्या कारण है कि एक ही प्रकार के मामलों में न्यायालय को अलग-अलग निर्णय देना पड़ता है? मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act of 1971) में किस तरह के सुधार की ज़रूरत है और इस संबंध में सरकार ने क्या प्रयास किये हैं? इस लेख में हम इन सभी सवालों का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे, लेकिन पहले नज़र दौड़ाते हैं वर्तमान घटनाक्रम पर।

वर्तमान घटनाक्रम

  • मुंबई की रहने वाली पीड़िता ने अर्जी दाखिल कर न्यायालय से गर्भपात की इज़ाज़त माँगी थी। न्यायालय ने नाबालिग लड़की के स्वास्थ्य की जाँच के लिये एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया था, बच्ची की सेहत की रिपोर्ट मिलने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात की इज़ाज़त दी।
  • अपने इस निर्णय में न्यायालय ने पीड़िता की उम्र और सेहत को देखते हुए उसे गर्भ गिराने की अनुमति दी है। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि एक 13 साल की पीड़िता भला माँ कैसे बन सकती है? न्यायालय ने इससे पहले पीड़िता और उसकी माँ को 1 लाख रुपए की आर्थिक मदद देने का भी आदेश दिया था।

क्या कहते हैं संबंधित प्रावधान ?

  • दरअसल, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट में प्रावधान है कि 20 हफ्ते के बाद गर्भपात नहीं किया जा सकता। इसके तहत सात साल तक की सज़ा का प्रावधान है। हालाँकि, यह छूट भी है कि यदि माँ या बच्चे को खतरा हो तो गर्भपात किया जा सकता है। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई मामलों में गर्भपात की इज़ाज़त दी है। 
  • इसी साल सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई निवासी 24 हफ्ते की गर्भवती एक 23 वर्षीय महिला को गर्भपात की इज़ाज़त दी थी। ध्यातव्य है कि वर्ष 2014 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट में एक संशोधन द्वारा गर्भपात की अनुमति प्राप्त करने की अवधि को  20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते करने का प्रस्ताव किया गया था, हालाँकि बाद के वर्षों में भी समय-समय पर यह माँग उठती रही है।
  • गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971 (The Medical Termination Of Pregnancy Act 1971) कानून के अनुसार, कुछ विशेष परिस्थितियों में 12 से 20 सप्ताह तक ही गर्भपात कराने की व्यवस्था की गई है।

इस संबंध में सरकार की पहल

  • विदित हो कि देश में गैर-कानूनी तरीके से  किये जा रहे गर्भपात व महिला भ्रूण हत्या के मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सरकार वर्तमान कानून में बदलाव के विचार से मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 में संशोधन करने पर विचार कर रही है।
  • इस संशोधन का उद्देश्य गैर कानूनी ढंग से गर्भ जाँच करवाने वालों को कानून के दायरे में लाने हेतु तथा स्वास्थ्य कारणों से गर्भपात की स्वीकृति देने के लिये कानून को लचीला स्वरूप प्रदान करना होगा। यदि यह संशोधन लाया जाता है और फिर पारित हो जाता है तो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 (MTP-1971) में गर्भपात की विधिक सीमा को 24 हफ्तों तक के लिये बढ़ाया जा सकता है।
  • उल्लेखनीय है कि ऐसा ही एक और संशोधन प्रस्ताव जो वर्ष 2014 में लाया गया था, पिछले तीन वर्षों से ठंढे बस्त्ते में पड़ा हुआ है।

आगे की राह

  • मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 एक 45 वर्ष पुराना कानून है, जो उस वक्त की जाँचों पर आधारित है। इस कानून के अनुसार, कानूनी तौर पर गर्भपात केवल विशेष परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, जैसे- जब महिला की जान को खतरा हो, महिला के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो, बलात्कार के कारण गर्भधारण हुआ हो, पैदा होने वाले बच्चे का गर्भ में उचित विकास न हुआ हो और उसके विकलांग होने का डर हो।
  • गर्भपात का अधिकार, महिलाओं के लिये जीवन के अधिकार का ही एक भाग है। यह महिलाओं को मिलना चाहिये। ऐसी भी परिस्थिति होती है, जिसमें गर्भपात करवाना ज़्यादा नैतिक और तर्कसंगत लगता है, जैसे कि गर्भधारण के कारण यदि माता के स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो।
  • ऐसी स्थिति में माता गर्भपात कराना चाहे तो क्या यह गलत या अनैतिक होगा? इस प्रकार के सवालों के जवाब न तो विधायिका के पास हैं और न ही अभी तक न्यायपालिका ने इस संबंध में विशेष कार्य किया है। अतः इस विषय पर समुचित अध्ययन के पश्चात् मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट में कुछ सुधारवादी संशोधन तो होने ही चाहिये।

निष्कर्ष

वर्तमान में महिलाओं को इस तरह के मामलों में पहले ज़िला न्यायालय फिर उच्च न्यायालयों और अंतत: सर्वोच्च न्यायालय तक का चक्कर काटना पड़ता है। फिर सर्वोच्च न्यायालय एक मेडिकल बोर्ड का गठन करता है और उसकी रिपोर्ट के आधार पर मामले की सुनवाई करता है। यह समूची प्रक्रिया बहुत ही जटिल है। अतः मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 में संशोधन का यह उचित समय है। साथ ही एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिसमें एक स्थायी मेडिकल बोर्ड हो, ताकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद होने वाली पहल को पहले ही सुविधाजनक ढंग से अंजाम दिया जा सके।

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