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सामाजिक न्याय

वृद्धजनों के अधिकारों का संरक्षण

  • 30 Apr 2024
  • 28 min read

यह एडिटोरियल 29/04/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “For Future Ready Seniors” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है कि जनसांख्यिकीय लाभांश पर अधिक ध्यान केंद्रित करने से वृद्धजन आबादी की आवश्यकताएँ किस प्रकार प्रभावित हो रही हैं। लेख में नीति निर्माताओं द्वारा बढ़ती वृद्धजन आबादी द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का सक्रिय रूप से समाधान करने और गृह-आधारित देखभाल के लिये दिशानिर्देश स्थापित करने पर बल दिया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

सिल्वर इकोनॉमी, इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023, UNFPA (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष), इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (IIPS), राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, प्रधानमंत्री वय वंदना योजना, राष्ट्रीय वयोश्री योजना, SAMPANN प्रोजेक्ट, वृद्धजनों के लिए SACRED पोर्टल, SAGE पोर्टल

मेन्स के लिये:

वृद्धजनों को सशक्त बनाने का महत्त्व, सिल्वर इकोनॉमी को सुविधाजनक बनाने में सरकार की भूमिका।

भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश के शोर में देश में धीरे-धीरे बढ़ रही वृद्धजन आबादी की बात कहीं खो गई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund) के अनुसार, 60 वर्ष से ऊपर के व्यक्तियों की संख्या वर्ष 2011 में 100 मिलियन से दोगुनी से अधिक होकर वर्ष 2036 में 230 मिलियन हो जाएगी, जो कुल जनसंख्या का लगभग 15% होगी। वर्ष 2050 तक इसके बढ़कर 319 मिलियन हो जाने का अनुमान है, जो कुल जनसंख्या का लगभग पाँचवाँ हिस्सा होगा। माना जाता है कि भारत जनसांख्यिकीय संक्रमण मॉडल के तीसरे चरण से गुज़र रहा है।

घटती प्रजनन दर और बढ़ती जीवन अवधि इस संक्रमण को बढ़ावा दे रही है। भारत में औसत परिवार आकार वर्ष 2011 में 5.94 से घटकर वर्ष 2021 में 3.54 हो गया है। छोटे परिवारों वाले घरों और वृद्धजनों की बढ़ती संख्या (जो क्रोनिक बीमारियों से पीड़ित हो सकते हैं) के कारण स्वास्थ्य एवं सामाजिक देखभाल प्रणाली को पुनर्स्थापित किये जाने की आवश्यकता है। वरिष्ठ नागरिकों की गृह-आधारित देखभाल (home-based care) एक बढ़ती हुई चिंता है क्योंकि यह सामाजिक देखभाल और स्वास्थ्य देखभाल के बीच झूलती रहती है, जहाँ दोनों के बीच की रेखाएँ प्रायः धुंधली हो जाती हैं। बदलती पारिवारिक संरचना वृद्धजनों की गृह-आधारित की देखभाल में बाह्य सहायता का मार्ग प्रशस्त कर रही है।

स्वतंत्रता के बाद से भारत में जीवन प्रत्याशा 1940 के दशक के लगभग 32 वर्षों से बढ़कर वर्तमान में लगभग 70 वर्ष हो गई है। कई देशों ने इससे भी बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन फिर भी यह भारत के लिये ऐतिहासिक उपलब्धि है। इसी अवधि में, प्रजनन दर प्रति महिला लगभग छह बच्चों से घटकर केवल दो रह गई है, जिससे महिलाओं को बार-बार बच्चे पैदा करने तथा उनकी देखभाल के बंधनों से मुक्ति मिल गई है। ये आशाजनक स्थितियाँ हैं, लेकिन यह एक नई चुनौती भी पैदा करती है, जो है जनसंख्या की बढ़ती आयु और वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात में वृद्धि।

निर्भरता अनुपात:

  • परिचय:
    • निर्भरता अनुपात (Dependency Ratio) एक जनसांख्यिकीय संकेतक है जो आश्रित आबादी (जो आमतौर पर कार्यबल में संलग्न नहीं है, जैसे कि बच्चे और वृद्धजन) और कार्यशील-आयु आबादी (जो आमतौर पर कार्यबल में संलग्न है) के अनुपात की माप करता है। यह आश्रितों के भरण-पोषण के लिये कार्यशील आबादी पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ के स्तर के संबंध में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
  • निर्भरता अनुपात के प्रकार:
    • युवावस्था निर्भरता अनुपात (Youth Dependency Ratio): यह अनुपात 0-14 आयु वर्ग (आश्रित मानी जाने वाली) की जनसंख्या की तुलना 15-64 आयु वर्ग (कार्यशील-आयु मानी जाने वाली) की जनसंख्या से करता है। यह बच्चों के उस अनुपात को परिलक्षित करता है जिसका कार्यशील-आयु आबादी द्वारा संपोषण किया जाना चाहिये।
      • सूत्र: (0-14 आयु वर्ग की जनसंख्या / 15-64 आयु वर्ग की जनसंख्या) x 100
    • वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात (Elderly Dependency Ratio): यह अनुपात 65 वर्ष और उससे अधिक आयु (आश्रित मानी जाने वाली) की जनसंख्या की तुलना 15-64 आयु वर्ग (कार्यशील-आयु मानी जाने वाली) की जनसंख्या से करता है। यह वृद्धजनों के उस अनुपात को इंगित करता है जिसका कार्यशील-आयु आबादी द्वारा संपोषण किया जाना चाहिये।
      • सूत्र: (65+ आयु वर्ग की जनसंख्या / 15-64 आयु वर्ग की जनसंख्या) x 100
    • कुल निर्भरता अनुपात (Total Dependency Ratio): यह अनुपात कार्यशील-आयु आबादी पर निर्भरता के बोझ का एक समग्र माप प्रदान करने के लिये युवावस्था एवं वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात का योग करता है।
      • सूत्र: (0-14 आयु वर्ग की जनसंख्या + 65+ आयु वर्ग की जनसंख्या) / (15-64 आयु वर्ग की जनसंख्या) x 100

भारत में वृद्धजन आबादी से संबद्ध विभिन्न चुनौतियाँ:

  • बदलती स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताएँ:
    • ऐसे जनसांख्यिकीय क्षेत्र में जहाँ वृद्धजनों की जनसंख्या वृद्धि दर युवाओं की तुलना में कहीं अधिक हो, सबसे बड़ी चुनौती वृद्धजनों को गुणवत्तापूर्ण, वहनीय और सुलभ स्वास्थ्य एवं देखभाल सेवाएँ प्रदान करना है। उन्हें घर पर टेली या होम कंसल्टेशन, फिजियोथेरेपी एवं पुनर्वास सेवाओं, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श एवं उपचार के साथ-साथ दवा एवं निदान (डायग्नोस्टिक) सेवाओं सहित विभिन्न तरह की विशेषीकृत चिकित्सा सेवाओं की आवश्यकता होती है।
  • भारत का निम्न HAQ स्कोर:
    • वर्ष 2016 के स्वास्थ्य देखभाल पहुँच एवं गुणवत्ता (Healthcare Access and Quality- HAQ) सूचकांक के अनुसार, भारत 41.2 के स्कोर के साथ अभी भी 54 अंकों के वैश्विक औसत से बहुत नीचे है और 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है। HAQ का निम्न स्तर छोटे शहरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में और भी बदतर हो जाता है, जहाँ बुनियादी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ बेहद अपर्याप्त हैं।
  • सामाजिक मुद्दे:
    • पारिवारिक उपेक्षा, निम्न शिक्षा स्तर, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ एवं कलंक, संस्थागत स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर कम भरोसा जैसे कारक वृद्धजनों के लिये स्थिति को और बदतर कर देते हैं।
      • सुविधाओं तक पहुँच में असमानता बुजुर्गों के लिये समस्याओं को और बढ़ा देती है, जो पहले से ही शारीरिक, आर्थिक और कभी-कभी मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसी सुविधाओं को समझने तथा उनका लाभ उठाने से वंचित होते हैं। परिणामस्वरूप, उनमें से अधिकांश उपेक्षापूर्ण जीवन जीते हैं।
  • स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और अनुत्पादकता का दुष्चक्र:
    वृद्धजनों का एक बड़ा भाग निम्न सामाजिक-आर्थिक तबके से आता है। खराब स्वास्थ्य और अवहनीय स्वास्थ्य लागत का दुष्चक्र उनकी आजीविका कमाने की असमर्थता के कारण और भी गंभीर हो जाता है। परिणामस्वरूप, न केवल वे आर्थिक रूप से अनुत्पादक होते हैं, बल्कि इससे उनकी मानसिक एवं भावनात्मक समस्याएँ भी बढ़ जाती हैं।
  • अपर्याप्त कल्याणकारी योजनाएँ:
    • आयुष्मान भारत और सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के बावजूद नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि 400 मिलियन भारतीयों के पास स्वास्थ्य संबंधी खर्चों के लिये कोई वित्तीय कवर मौजूद नहीं है। केंद्र और राज्य स्तर पर पेंशन योजनाओं की उपस्थिति के बावजूद कुछ राज्यों में मात्र 350-400 रुपए प्रति माह प्रदान किया जाता है और वह भी सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
  • रीस्किलिंग संबंधी मुद्दे:
    • वृद्धजन आबादी की बड़े पैमाने पर रीस्किलिंग या पुनःकौशल विकास के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकी, सुविधाएँ आदि सुनिश्चित करना एक चुनौती है। उदाहरण के लिये, सेनाओं के पास सेवानिवृत्त अधिकारियों को नागरिक व्यवस्था में एकीकृत करने का एक उत्कृष्ट व्यवस्थित तरीका मौजूद है। हालाँकि, तंत्र के एक हिस्से के रूप में पुनःकौशल विकास एक वृहत् कार्य है और यह केवल कुछ क्षेत्रों में ही संभव है।
  • आयु वृद्धि का नारीकरण:
    • जनसंख्या की आयु वृद्धि के उभरते मुद्दों में से एक ‘आयु वृद्धि का नारीकरण’ (Feminization of Ageing) भी है, यानी पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अधिक वृद्ध आयु तक पहुँच रही हैं। भारत की जनगणना से पता चलता है कि वर्ष 1951 में वृद्धजनों का लिंग अनुपात पर्याप्त अधिक अधिक (1028) था जो वर्ष 1971 में घटकर लगभग 938 हो गया, लेकिन वर्ष 2011 में पुनः बढ़कर 1033 हो गया।
  • सहायक संसाधनों तक पहुँच का अभाव:
    • निकट अतीत में अकेले रह रहे वृद्धजनों की संख्या बढ़ी है जिससे वरिष्ठ नागरिक आवास की आवश्यकता बढ़ रही है और उनके लिये सुरक्षा गैजेट एवं स्वास्थ्य उपकरणों का विकास हो रहा है। ये सभी पहलें स्टार्टअप क्षेत्र की ओर से सामने आ रही हैं। हालाँकि, वृद्धजन आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीब तबके से आता है और इन सुविधाओं के दायरे से बाहर रह जाने की वृहत संभावना रखता है।

वृद्धजन आबादी से संबंधित कानूनी प्रावधान: 

  • अनुच्छेद 41 और अनुच्छेद 46 वृद्धजनों के लिये उपलब्ध संवैधानिक प्रावधान हैं। हालाँकि नीति निदेशक तत्व कानून के तहत प्रवर्तनीय नहीं होते, लेकिन यह किसी भी विधि निर्माण के समय राज्य को एक सकारात्मक दायित्व सौंपते हैं।
  • हिंदू विवाह एवं दत्तक ग्रहण अधिनियम, 1956 की धारा 20 में वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण को बाध्यकारी प्रावधान बनाया गया है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत वृद्ध माता-पिता अपने बच्चों से भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं।
  • माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007 (Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007) बच्चों या उत्तराधिकारियों के लिये अपने माता-पिता या परिवार के वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण करने को विधिक रूप देने का लक्ष्य रखता है।

नोट

  • संयुक्त राष्ट्र (UN) में वृद्धजनों के अधिकारों पर अभिसमय (Convention on the Rights of Older Persons) प्रस्तावित है।
  • वर्ष 1982 में वर्ल्ड असेंबली ऑन एजिंग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई (जिसे ‘इंटरनेशनल प्लान ऑन एजिंग’ के रूप में भी जाना जाता है), जिसने वृद्धजनों के अधिकारों पर पहले अंतर्राष्ट्रीय विमर्श का प्रतिनिधित्व किया और इनके कार्यान्वयन के लिये एक योजना प्रस्तुत की।
  • संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNPF) को द्वितीय वर्ल्ड असेंबली की योजना को लागू करने का कार्य सौंपा गया, जिसने वर्ष 2002 में बढ़ती वृद्ध आयु पर ‘मैड्रिड अंतर्राष्ट्रीय योजना’ (Madrid International Plan) को अंगीकृत किया।

वृद्धजन आबादी के लिये गृह-आधारित देखभाल के विभिन्न पहलू:

  • दायरा/स्कोप:
    • घर पर प्रदान की जाने वाली सेवाओं का दायरा दैनिक जीवन की गतिविधियों में सहायता से लेकर नियमित नर्सिंग देखभाल के साथ-साथ विशेष देखभाल तक विस्तारित हो गया है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार , घर पर प्रदत्त स्वास्थ्य देखभाल 65% अनावश्यक अस्पताल दौरों को प्रस्थापित कर सकता और अस्पताल लागत को 20% तक कम कर सकता है।
  • चिंताएँ:
    • घर पर देखभाल संबंधी अभ्यास सुपरिभाषित और मानकीकृत नहीं हैं। सुप्रशिक्षित एवं समानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाले देखभालकर्ताओं की कमी है और वे प्रायः वृद्धों के परिवारों द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने की शिकायत करते हैं। उपयोगकर्ताओं या देखभालकर्ताओं के लिये कोई विशिष्ट शिकायत निवारण तंत्र मौजूद नहीं है ।
    • इसके अलावा, घर पर देखभालकर्ता की सेवा प्राप्त करना महँगा भी है। वर्तमान में इन सेवाओं का एक बड़ा भाग निजी और फॉर-प्रॉफिट क्षेत्र द्वारा प्रदान किया जाता है। बाज़ार अनुमान के अनुसार गृह-आधारित देखभाल उद्योग प्रति वर्ष 15-19% की दर से बढ़ेगा, जो वर्ष 2021 में लगभग 6-7 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2027 तक 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा।
  • सुझाव:
    • सर्वप्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ‘घर’ को देखभाल प्रदान करने के स्थान के रूप में और देखभालकर्ताओं के लिये ‘कार्यस्थल’ के रूप में चिह्नित करें। इसका उपयोगकर्ताओं और देखभाल प्रदाताओं दोनों के अधिकारों एवं सुरक्षा पर प्रभाव पड़ता है। भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) कुछ विशेष परिस्थितियों में घर पर ही अस्पताल सेवा को मान्यता देता है।
    • दूसरा, घर पर देखभाल अस्पताल या वृद्धाश्रम (Old-Age-Homes- OAHs) जैसी संस्था की तुलना में अलग तरह की होती है। घर के माहौल के हिसाब से देखभाल और उपचार प्रोटोकॉल तय किये जाने चाहिये।
    • तीसरा, प्रशिक्षित देखभालकर्ताओं की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये उनके व्यावसायिक प्रशिक्षण, नामकरण, भूमिका और करियर प्रगति को सुव्यवस्थित किया जाए।
    • अंत में, इन सभी बातों को गृह-आधारित देखभाल पर एक व्यापक नीति के तहत लाया जाना चाहिये, जिसमें ऐसी सेवाओं के प्रदाताओं का पंजीकरण करना; पारदर्शिता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करना; शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना करना और बीमा कवरेज जैसे पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिये।

वृद्धजन आबादी की चिंताओं को दूर करने के लिये आवश्यक कदम:

  • अभाव से सुरक्षा:
    • वृद्धजनों के लिये सम्मानजनक जीवन की दिशा में पहला कदम यह होगा कि उन्हें अभाव और उसके साथ जुड़ी सभी वंचनाओं से बचाया जाए। पेंशन के रूप में नकद राशि विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने और अकेलेपन से बचने में मदद कर सकती है। यही कारण है कि वृद्धावस्था पेंशन दुनिया भर में सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
      • सामाजिक सुरक्षा पेंशन में सुधार लाना एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होगा। उन्हें स्वास्थ्य देखभाल, दिव्यांगता सहायता, दैनिक कार्यों में सहायता, मनोरंजन के अवसर और एक अच्छे सामाजिक जीवन जैसे अन्य सहायता एवं सुविधाओं की भी आवश्यकता है।
  • प्रेरणा ग्रहण करना:
    • दक्षिणी राज्यों और ओडिशा एवं राजस्थान जैसे गरीब राज्यों ने सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा पेंशन लगभग हासिल कर ली है। उनके कार्य अनुकरणीय हैं। यदि केंद्र सरकार राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) में सुधार करे तो सभी राज्यों के लिये इसे अपनाना बेहद आसान हो जाएगा।
  • पारदर्शी ‘अपवर्जन मानदंड’:
    • बेहतर दृष्टिकोण यह होगा कि सभी विधवाओं और वृद्धजनों या दिव्यांगजनों को पात्र माना जाए, जो सरल एवं पारदर्शी ‘अपवर्जन मानदंड’ के अधीन हों। पात्रता की घोषणा स्वयं भी की जा सकती है, जहाँ समयबद्ध सत्यापन का भार स्थानीय प्रशासन या ग्राम पंचायत पर डाला जा सकता है।
      • यद्यपि विशेषाधिकार प्राप्त परिवारों द्वारा इसका अधिक लाभ उठाने की संभावना है, फिर भी वर्तमान में बड़े पैमाने पर बहिष्करण त्रुटियों को जारी रखने की अपेक्षा कुछ समावेशन त्रुटियों को समायोजित करना अधिक बेहतर होगा।
  • वृद्ध महिलाओं की चिंताओं को चिह्नित करना:
    • नीति को इस तथ्य का भी संज्ञान लेना चाहिये कि भारत में महिलाएँ औसतन पुरुषों से तीन वर्ष अधिक जीवित रहती हैं। वर्ष 2026 तक वृद्धजनों का लिंगानुपात 1060 तक बढ़ने का अनुमान है। चूँकि भारत में महिलाएँ आमतौर पर अपने पतियों से आयु में छोटी होती हैं, इसलिये वे प्रायः अपने अंत के वर्ष विधवाओं के रूप में बिताती हैं।
      • इसलिये, नीति को विशेष रूप से अधिक कमज़ोर एवं आश्रित वृद्ध एकल महिलाओं को ध्यान में रखना चाहिये ताकि वे सम्मानजनक एवं स्वतंत्र जीवन जी सकें।
  • माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण तथा कल्याण (संशोधन) विधेयक, 2019 पारित करना:
    • स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ( MoHFW ), सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (MSJE) और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय (MSDE) को इस मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इनके बीच बेहतर सहयोग से आवश्यक सुधारों पर कार्य शुरू हो सकता है।
      • माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण एवं कल्याण (संशोधन) विधेयक, 2019 वृद्धजनों के लिये गृह-आधारित देखभाल को विनियमित करने का प्रयास करता है। यह घर पर देखभाल सेवाएँ प्रदान करने वाली संस्थाओं के पंजीकरण और उनके लिये न्यूनतम मानक निर्धारित करने का प्रस्ताव करता है। हालाँकि वर्ष 2019 में संसद में पेश किये जाने के बाद से अभी तक इसे पारित नहीं किया गया है।
  • नीतिगत हस्तक्षेप:
    • वृद्धजनों के लिये घर पर देखभाल का समर्थन करने के लिये एक सुदृढ़ सार्वजनिक नीति का होना अत्यंत आवश्यक है। वृद्धाश्रमों को अपनी सुविधाओं, इमारतों और सामाजिक वातावरण को वृद्धजनों के अनुकूल बनाने के लिये नीतिगत हस्तक्षेप द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिये। अभिकल्पना, वास्तुकला और नागरिक सुविधाओं के बारे में ज़मीनी स्तर से सोचा जाना चाहिये और ये नवाचार केवल महंगे घरों में रहने वालों के लिये बल्कि सभी निवासियों के लिये उपलब्ध होने चाहिये।
  • वृद्धजन समावेशी समाज का निर्माण करना:
    • वृद्धाश्रमों में सभी वृद्धजनों के लिये उचित स्वास्थ्य सुविधाएँ सुनिश्चित करने का एक प्रभावी तरीका यह होगा कि सुनिश्चित किया जाए कि इन घरों में उनकी संख्या कम हो। वृद्धजन समाज के लिये एक संपत्ति हैं न कि दायित्व। इस संपत्ति का लाभ उठाने का सबसे अच्छा तरीका उन्हें वृद्धाश्रमों में अलग-थलग करने के बजाय मुख्यधारा की आबादी में शामिल करना है।

वृद्ध आबादी के कल्याण के लिये विभिन्न पहलें:

निष्कर्ष:

जबकि भारत की युवा आबादी को ‘फ्यूचर-रेडी’ बनाने पर बल देना स्वागतयोग्य है, इसे समान रूप से महत्त्वपूर्ण एक अन्य समूह (वृद्ध आबादी) की उपेक्षा का कारण नहीं बनना चाहिये। जापान जैसे देशों के अनुभव से पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था में युवा आबादी योगदान दे सके, इसके लिये वृद्ध लोगों की देखभाल व्यवस्थाओं का होना आवश्यक है। इसके अलावा, यह समाज की नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह अपने वृद्धजनों की देखभाल करे और समाज में उनके जीवन भर के शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक एवं आर्थिक निवेश का मूल्य चुकाए।

वृद्धजनों के कल्याण और देखभाल के लिये हमें पहले से मौजूद सामाजिक सहायता प्रणालियों/पारंपरिक सामाजिक संस्थाओं—जैसे परिवार एवं नातेदारी, पड़ोसी संबंध, सामुदायिक संबंध के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। इसमें सामुदायिक भागीदारी को पुनर्जीवित करना और नातेदारों/रिश्तेदारों को वृद्धजन नागरिकों के प्रति अधिक संवेदनशील एवं देखभालपूर्ण बनने के लिये प्रोत्साहित करना शामिल है।

अभ्यास प्रश्न: भारत की तेज़ी से बढ़ती वृद्धजन आबादी के परिप्रेक्ष्य में, 21वीं सदी में उनके सामाजिक कल्याण और स्वास्थ्य देखभाल को सुनिश्चित करने के लिये विद्यमान चुनौतियों और आवश्यक रणनीतियों की चर्चा कीजिये।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न:

मेन्स:

प्रश्न: सुभेद्य वर्गों के लिए क्रियान्वित की जाने वाली कल्याण योजनाओं का निष्पादन उनके बारे में जागरूकता के न होने और नीति प्रक्रम की सभी अवस्थाओं पर उनके सक्रिय तौर पर सम्मिलित न होने के कारण इतना प्रभावी नहीं होता है। - चर्चा कीजिये। (2019)

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