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सिविल सेवा में लेटरल एंट्री

  • 19 Jul 2017
  • 8 min read

संदर्भ
वर्ष 2014 में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केंद्र सरकार के सभी विभागों के प्रमुख सचिवों की दो बार बैठक बुलाई थी। ‘शासन में सुधार’ सरकार का एक अहम एजेंडा है। पिछले वर्ष जुलाई में ही सरकार ने कैडर–नियंत्रक प्राधिकरण से सिविल सेवाओं में सचिव स्तर पर लेटरल एंट्री के ज़रिये नियुक्तियों के संदर्भ में प्रस्ताव पत्र तैयार करने को कहा था। लेकिन इन प्रस्तावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

हालाँकि, इस मामले में अब सक्रियता दिखाते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को इसके लिये प्रस्ताव तैयार करने को कहा है। सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र के  कार्यकारी अधिकारियों को लेटरल एंट्री के ज़रिये विभिन्न विभागों में उप सचिव, निदेशक और संयुक्त सचिव रैंक के पदों पर नियुक्त किया जाए।

लेटरल एंट्री के माध्यम से नियुक्तियाँ आवश्यक क्यों ?

  • के. पी. कृष्णन और टी. वी. सोमनाथन ने सिविल सेवाओं की प्रभावशीलता को एक संस्थागत निकाय के आर्थिक महत्त्व के आलोक में परिभाषित किया है, उनके अनुसार ‘सरकार के आर्थिक संस्थाओं के संचालन मूल्य को कम करने के साथ-साथ उसकी क्षमता को बनाए रखना भी सिविल सेवकों का एक मुख्य दायित्व है।
  • दरअसल, यह माना जा रहा है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा विभिन्न मायनों में देश की तत्कालीन राज्यार्थ व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। नीचे के कुछ बिंदुओं के माध्यम से हम भारत की वर्तमान राज्यार्थ व्यवस्था की आवश्यकताओं के बारे में जान सकते हैं:

• जब भारत आज़ाद हुआ था तब देश में सामाजिक-आर्थिक विकास को अधिक महत्त्व दिया जा रहा था जो कि आवश्यक भी था। एक नए राष्ट्र को बांधे रखने के लिये सामाजिक ज़रूरतों का महत्त्व आर्थिक ज़रूरतों से अधिक था। संविधान सभा ने भी इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सिविल सेवकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने का ज़िक्र किया था।
• 7 दशकों से लगातार एक ही पैटर्न पर काम करने के कारण धीरे-धीरे सिविल सेवकों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया जो व्यवस्था कि आर्थिक ज़रूरतों को साधने में लगातार असफल रहा है।
• अब वह दौर नहीं रहा जब सिविल सेवक को सरकार के एक बाध्यकारी एजेंट के तौर पर कार्य करने की ज़रूरत हो। आज सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये केवल तय नियमों एवं कानूनों में बंधे रहकर कार्य करना पर्याप्त नहीं है, आज आर्थिक ज़रूरतों का भी महत्त्व उतना ही है जितना कि सामाजिक ज़रूरतों का।
• वर्तमान में अमेरिका जैसी अर्थव्यवस्थाएँ जहाँ वैश्वीकरण से स्वयं को आज़ाद करना चाहती हैं, वहीं भारत का बढ़ता बाज़ार वैश्वीकरण से उल्लेखनीय लाभ ले सकता है। ऐसे में हमें नीति-निर्माण और प्रभावी प्रशासन के लिये विशेष कौशल और ज्ञान प्राप्त सिविल सेवकों की ज़रूरत है।

  • किसी निजी निकाय में वर्षों तक उत्कृष्ट कार्य करने वाले कार्यकारी प्रमुखों का लेटरल एंट्री के ज़रिये सचिव स्तर के सिविल सेवक का पद देना प्रशासन को प्रभावी बनाने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।

महत्त्वपूर्ण है द्वितीय प्रशासनिक आयोग की रिपोर्ट

  • विदित हो कि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन 31 अगस्त, 2005 को "वीरप्पा मोइली" की अध्यक्षता में किया गया था। आयोग को सरकार के सभी स्तरों पर देश के लिये एक सक्रिय, प्रतिक्रियाशील, जवाबदेह, संधारणीय और कुशल प्रशासन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सुझाव देने की ज़िम्मेदारी दी गई थी।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने साफ तौर पर कहा है कि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर लेटरल एंट्री के लिये एक संस्थागत, पारदर्शी प्रक्रिया स्थापित की जानी चाहिये। 
  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में गठित बासवन समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में 75 से अधिक आईएएस अधिकारियों की कमी है और राज्य प्रतिनियुक्ति के तौर पर अधिकारियों को केंद्र में भेजे जाने के इच्छुक नहीं हैं और ऐसे में लेटरल एंट्री पर गौर किये जाने की ज़रूरत है।

किन बातों का रखना होगा ध्यान ?

  • सिविल सेवा में लेटरल एंट्री देना तभी अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है, जब चयन प्रक्रिया को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाया जा सके।

  • लेटरल एंट्री की व्यस्था केवल वहीं की जानी चाहिये, जहाँ किसी विशेष क्षेत्र में लक्ष्य आधारित परिणाम हासिल करने की ज़रुरत हो।

  • लेटरल एंट्री के माध्यम से चयनित सिविल सेवकों की संख्या इतनी अधिक न हो कि यूपीएससी द्वारा चयनित सदस्य स्वयं को उपेक्षित महसूस करें।

  • यदि पहले के अनुभवों की बात करें तो, कुछ ही ऐसे लोग हैं जो यूपीएससी द्वारा चयनित होकर नहीं आए हैं फिर भी शीर्ष स्तर पर शानदार काम किया है जैसे:-रघुराम राजन और नंदन नीलकेणी।

  • अतः लेटरल एंट्री के व्यवस्था के निर्माण में उपरोक्त बातों का भी ध्यान रखा जाना चाहिये, अन्यथा एक बेहतरीन उद्देश्यों वाली व्यवस्था कारगर सिद्ध होने के बजाय घातक हो सकती है।

निष्कर्ष
सरकार की तमाम योजनाएँ प्रशासनिक अधिकारियों के बल पर ही कामयाब हो पाती हैं। अगर वे अपना कर्त्तव्य निभाने में लापरवाही बरतते हैं तो योजनाएँ चाहे जितनी दूरगामी हों, वे नाकाम ही साबित होती हैं। इसलिये अपेक्षा की जाती है कि प्रशासनिक अधिकारी जनता से निकटता बनाएँ, उसकी ज़रूरतों को समझें और स्थितियों के अनुरूप कदम बढ़ाएँ। लेकिन इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हमें सचिव स्तर पर ऐसे नीति-निर्माताओं की आवश्यकता है, जो बदलते भारत की ज़रूरतों से वाकिफ हों। सिविल सेवाओं के लिये चयन का अधिकार संविधान के तहत केवल यूपीएससी को दिया गया है, इसलिये इससे बाहर जाकर नियुक्तियाँ करना लोकतान्त्रिक मूल्यों पर तो आघात होगा ही, साथ ही  इस परीक्षा से जुड़ी मेरिट आधारित, राजनीतिक रूप से तटस्थ सिविल सेवा के उद्देश्य को भी क्षति पहुँचेगी। लेकिन यदि सचिव स्तर के सिविल सेवकों तक ही यह व्यवस्था सीमित रहती और बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप के कार्य करती है तो इसे आजमाया जा सकता है।

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