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भारत में कितनी कारगर रहेगी बेसिक आय?

  • 18 Sep 2017
  • 10 min read

संदर्भ

  • हाल ही में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) ने "प्रशासन में सर्वोत्तम पहल" का पुरस्कार मध्य प्रदेश में चल रही “सार्वभौमिक बुनियादी आय” (universal basic income) सुनिश्चित करने वाली एक पायलट स्कीम को दिया है।
  • यह पुरस्कार डॉ. सरथ दावला जो कि एक स्वतंत्र समाजशास्त्री और आईएनबीआई (India Network for Basic Income) के समन्वयक हैं, को प्रस्तुत किया गया है।
  • विदित हो कि आज बेसिक आय की अवधारण को लेकर भिन्न-भिन्न मत दिये जा रहे हैं ऐसे में यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि भारत में यह कितनी व्यावहारिक होगी।

लेकिन पहले यह देख लेते हैं कि इस पायलट स्कीम पर कार्य करते हुए मध्य प्रदेश में लोगों के जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?

पायलट स्कीम की सफलता का आकलन

  • दरअसल, कोई योजना कितनी सफल रही है इस बात का आकलन संबंधित योजना के अब तक के प्रदर्शन के आधार पर किया जा सकता है। एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत मध्य प्रदेश के आठ गाँवों में छह हज़ार से ज़्यादा लोगों को बेसिक आय के तौर पर मासिक भुगतान किया गया  और इसके नतीज़े बहुत दिलचस्प रहे हैं।
  • अधिकांश ग्रामीणों ने उस पैसे का उपयोग घरेलू सुविधा बढ़ाने (शौचालय, दीवाल, छत) में किया, ताकि मलेरिया के खिलाफ सावधानी बरती जा सके।
  • अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों में यह देखा गया कि बेहतर वित्तीय स्थिति में वे राशन की दुकानों के बजाय बाज़ार जाने लगे।
  • लोगों ने अपने पोषण में सुधार किया और स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति और प्रदर्शन दोनों बेहतर हुआ है।
  • एक नियमित बेसिक आय के भुगतान द्वारा भूख और बीमारी से विवेकपूर्ण ढंग से निपटने में मदद मिल सकती है।

बेसिक आय ज़रूरी क्यों

क्या भारत में आय असमानता की चौड़ी होती जा रही खाई को पाट दिया गया है? क्या सबके लिये पीने का स्वच्छ पानी, रहने को घर और खाने को भोजन मिल रहा है? क्या अमीर व गरीब सबके बच्चे एक मानक शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा हैं? यदि इन सभी सवालों का जवाब ‘नहीं’ है तो क्यों न तमाम सामाजिक, आर्थिक मानकों का अध्ययन करते हुए सबके लिये एक ‘बेसिक आय’ की व्यवस्था कर दी जाए।

  • ध्यातव्य है कि पिछले कुछ दिनों से यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि सरकार एक ऐसी सामाजिक सुरक्षा योजना के बारे में सोच रही है, जिसमें सबको एक बेसिक आय या आधारभूत आय दी जाएगी।
  • प्रत्येक व्यक्ति को जीवन यापन के लिये न्यूनतम आय की गारंटी मिलनी चाहिये- यह विचार कोई नया नहीं है। ‘थॉमस मूर’ नाम के एक अमेरिकी क्रांतिकारी दार्शनिक ने हर किसी के लिये एक समान आय की मांग की थी।
  •  मूर चाहता था कि 'एक राष्ट्रीय कोष' हो, जिसके माध्यम से हर वयस्क को एक निश्चित राशि का भुगतान किया जाए। ‘बर्ट्रेंड रसेल’ ने 'सोशल क्रेडिट' आंदोलन चलाया, जिसमें सबके लिये एक निश्चित आय की बात की गई थी।
  • वर्तमान में वैश्विक परिस्थितियाँ बदली हुई हैं, जहाँ भूमंडलीकरण से असंतोष बढ़ता ही जा रहा है और इस असंतोष का मुख्य कारण रोज़गार में हुई कमी को माना जा रहा है। ऐसे में विश्व की कई अर्थव्यवस्थाएँ बेरोज़गारों को एक निश्चित राशि देने पर विचार कर रही हैं।
  • विदित हो कि फ़िनलैंड में इस संबंध में एक प्रयोग किया जा रहा है। इस प्रयोग के अंतर्गत 2 हज़ार बेरोज़गारों को 2 वर्षों के लिये एक निश्चित राशि प्रदान की जाएगी। यदि यह प्रयोग सफल रहता है तो इसे व्यापक तौर पर लागू किया जाएगा।

भारत में बेसिक आय की अवधारण का औचित्य

  • मध्य प्रदेश में पायलट प्रोजेक्ट के नतीज़ों पर गौर करें तो इसे अमल में लाना आदर्श प्रतीत हो रहा है, क्योंकि इसके माध्यम से गाँवों में लोगों के रहन-सहन के स्तर को सुधारा जा सकता है, उन्हें पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है और बच्चों के पोषण में सुधार भी लाया जा सकती है|
  • एक नियमित बेसिक आय के भुगतान द्वारा भूख और बीमारी से विवेकपूर्ण ढंग से निपटने में मदद मिल सकती है।
  • बेसिक आय, बाल श्रम को कम करने में भी मददगार साबित हो सकता है। इसके ज़रिये उत्पादक कार्यों में वृद्धि करके गाँवों की तस्वीर बदली जा सकती है और यह सतत विकास की दिशा में एक उल्लेखनीय प्रयास होगा|
  • विदित हो कि बेसिक आय की मदद से सामाजिक विषमता को भी कम किया जा सकता है।
  • यदि एक वाक्य में कहें तो बेसिक आय का यह विचार आय असमानता और इसके दुष्प्रभावों के श्राप से भारत को मुक्त कर सकता।

बेसिक आय की राह में चुनौतियाँ

  • भारत एक विकासशील देश है, जबकि सभी व्यक्तियों के लिये एक निश्चित आय का बोझ कोई बहुत विकसित अर्थव्यवस्था ही उठा सकती है। हम तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं और आधारभूत ढाँचे का बोझ ही बहुत मुश्किल से उठा पा रहे हैं।
  • ऐसे में बेसिक आय की राह में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ‘बेसिक आय’ का स्तर क्या हो, यानि वह कौन सी राशि होगी जो व्यक्ति की अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सके? 
  • मान लें कि हम गरीबी रेखा का पैमाना लेते हैं, जो कि औसतन चालीस रुपए रोजाना है  तो प्रत्येक व्यक्ति को लगभग चौदह हज़ार रुपए सालाना या बारह सौ रुपए प्रतिमाह की गारंटी देनी होगी। 
  • यदि हम देश की कुल जनसंख्या की पच्चीस फीसद को सालाना चौदह हज़ार रुपए और अन्य पच्चीस फीसद आबादी को सालाना सात हज़ार रुपए दें तो भी योजना की लागत प्रतिवर्ष लगभग 693,000 करोड़ रुपए आएगी। 
  • विदित हो कि यह राशि विगत वित्तीय वर्ष में सरकार के भुगतान बज़ट के पैंतीस फीसद के बराबर है।
  • ज़ाहिर है, वर्तमान परिस्थितियों में यह आवंटन सरकार के लिये सम्भव नहीं है।

आगे की राह

  • बेसिक आय का विचार भारत को अपनी जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य नागरिक सुविधाओं में सुधार के साथ उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास होगा।
  • लेकिन सबके लिये एक बेसिक आय तब तक सम्भव नहीं है, जब तक कि वर्तमान में सभी योजनाओं के माध्यम से दी जा रही सब्सिडी को खत्म न कर दिया जाए।
  • अतः सभी भारतवासियों के लिये एक बेसिक आय की व्यवस्था करने के बजाए सामाजिक-आर्थिक जनगणना की मदद से समाज के सर्वाधिक वंचित तबके के लिये एक निश्चित आय की व्यवस्था करना कहीं ज़्यादा प्रभावी और व्यावहारिक होगा।

निष्कर्ष

  • वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा भारत में पायलट स्कीम के तौर पर चलाई जा रही बेसिक आय की इस योजना को प्रोत्साहन मिलना निश्चित ही सराहनीय है।
  • लेकिन समूचे भारत के संदर्भ में बेसिक आय की अवधारणा की स्वीकार्यता प्रमाणित करने के लिये हमें अन्य पहलुओं पर भी विचार करना होगा जैसे कि ‘लोगों की सामाजिक स्थिति में सुधार’।
  • बेसिक आय के माध्यम से लोगों के जीवन में प्रत्यक्ष सुधार तो देखा जा सकता है, लेकिन सामाजिक स्थिति में सुधार का भी अपना एक अलग महत्त्व है जो कि प्रत्यक्ष तौर पर नहीं नज़र आता।
  • साथ ही यह ज़रूरी नहीं है कि जो नीतियाँ कनाडा और फिनलैंड में प्रभावी व प्रमाणित हो रही हों वे भारत में भी उतनी ही प्रभावी हों।
  • अतः ‘सार्वभौमिक मूलभूत आय’ यानी सभी भारतवासियों के लिये एक बेसिक आय सुनिश्चित करने से बेहतर है कि कुछ लक्षित समूहों के लिये ही ऐसी व्यवस्था की जाए।
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