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जैव विविधता और पर्यावरण

भारत के पारिस्थितिकी-समुत्थानशीलन का निर्माण

  • 23 Jun 2025
  • 32 min read

यह एडिटोरियल 19/06/2025 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित Revamped Green India Mission: A matter of vulnerable ecosystems and livelihoods पर आधारित है। यह लेख संशोधित 'हरित भारत मिशन' पर प्रकाश डालता है, जो अब केवल वृक्षारोपण तक सीमित न रहकर पश्चिमी घाट और हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में समग्र पारिस्थितिक पुनर्स्थापन की दिशा में अग्रसर है। इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि पारिस्थितिक सुरक्षा और स्थानीय समुदायों के सतत् आजीविका स्रोतों के बीच संतुलन किस प्रकार स्थापित किया जाता है।

प्रिलिम्स के लिये:

संशोधित ग्रीन इंडिया मिशन, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना, EIA अधिसूचना 2006, वन संरक्षण अधिनियम (1980), वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972), जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन निधि, वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023, विजातीय प्रजातियाँ 

मेन्स के लिये:

भारत में पर्यावरण शासन की वर्तमान प्रणाली, भारत के समक्ष प्रमुख पर्यावरणीय खतरे। 

भारत का संशोधित ग्रीन इंडिया मिशन, वृक्षारोपण-केंद्रित दृष्टिकोण से व्यापक पारिस्थितिक पुनर्स्थापन की ओर एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है, जो पश्चिमी घाट, अरावली पर्वतमाला और हिमालय जैसे संवेदनशील परिदृश्यों को लक्षित करता है। ये जैव विविधता हॉटस्पॉट वनों की कटाई, अवैध खनन, अनियमित विकास और जलवायु-प्रेरित आपदाओं के बढ़ते दबाव का सामना करते हैं, जैसा कि वायनाड भूस्खलन द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। पुनर्गठित मिशन की सफलता अंततः इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या यह स्थानीय समुदायों के लिये सतत् आजीविका के अवसर उत्पन्न करने के साथ-साथ पारिस्थितिक सुरक्षा को भी मज़बूत बना पाता है, यह वह संतुलन है जो पूर्ववर्ती संरक्षण प्रयासों में प्रायः अनुपस्थित रहा है।

भारत में पर्यावरण शासन के वर्तमान तंत्र क्या हैं? 

  • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC): MoEFCC प्रमुख सरकारी निकाय है जो नीतियाँ बनाने और पर्यावरण कानूनों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिये जिम्मेदार है। 
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT): NGT पर्यावरण संरक्षण तथा वनों और वन्यजीवों के संरक्षण से संबंधित मामलों के त्वरित एवं प्रभावी निपटान के लिये एक विशेष निकाय है। 
    • वर्ष 2010 में स्थापित NGT पर्यावरण विवादों को निपटाने के लिये एक अर्द्ध-न्यायिक मंच के रूप में कार्य करता है तथा इसे पर्यावरणीय क्षति से प्रभावित लोगों को राहत और मुआवज़ा प्रदान करने का अधिकार प्राप्त है। 
  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB): CPCB भारत में प्रदूषण नियंत्रण उपायों को विनियमित करने के लिये राष्ट्रीय प्राधिकरण है ।
    • यह SPCB के साथ मिलकर काम करता है, जो राज्य स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण की निगरानी के लिये जिम्मेदार हैं। 
    • ये बोर्ड प्रदूषण मानक निर्धारित करते हैं, नियमित निरीक्षण करते हैं तथा वायु, जल एवं ध्वनि प्रदूषण से संबंधित कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करते हैं। 
      • ये उद्योगों, नगर पालिकाओं और अन्य संस्थाओं द्वारा पर्यावरणीय मानदंडों का पालन सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा प्रशासित EIA अधिसूचना 2006, भारत के पर्यावरण शासन में एक महत्त्वपूर्ण तंत्र है।
    • यह अनिवार्य करता है कि कोई भी प्रमुख औद्योगिक परियोजना या बुनियादी अवसंरचना विकास, जो पर्यावरण को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है, अनुमोदन से पूर्व एक आकलन प्रक्रिया से गुज़रे। 
      • हालाँकि, कुछ मामलों में इस प्रणाली की आलोचना इसके कमज़ोर प्रवर्तन और शिथिल निगरानी के लिये की गई है।
  • वन सलाहकार समिति (FCA) और वन संरक्षण अधिनियम (FCA) कार्यान्वयन: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत कार्यरत FCA को गैर-वन्य उद्देश्यों के लिये वन भूमि के परिवर्तन के प्रस्तावों को अनुमोदन देने या अस्वीकार करने की सिफारिश करने का कार्य सौंपा गया है। 
    • वन संरक्षण अधिनियम (1980) के तहत सरकार औद्योगिक, बुनियादी अवसंरचना या खनन उद्देश्यों के लिये वन भूमि के उपयोग को नियंत्रित करती है। 
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (वर्ष 1972) और राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL): वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972) भारत में वन्यजीवों और उनके आवासों के संरक्षण के लिये कानूनी कार्यढाँचा प्रदान करता है। 
    • यह सरकार को राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों जैसे संरक्षित क्षेत्रों (PA) की स्थापना करने का अधिकार देता है।
    • NBWL इन क्षेत्रों के प्रबंधन की देखरेख करने तथा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये नीतियों की सिफारिश करने के लिये जिम्मेदार है।
  • जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन तंत्र: भारत ने विभिन्न तंत्रों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन नीति को संस्थागत रूप दिया है।
    • जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन निधि और जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) भारत की जलवायु अनुकूलन रणनीति के लिये मुख्य रूपरेखा तैयार करते हैं। 
    • इसके अतिरिक्त, राज्य सरकारों को क्षेत्र-विशिष्ट जलवायु अनुकूलन रणनीति सुनिश्चित करने के लिये जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना (SAPCC) बनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।

भारत के समक्ष कौन-से प्रमुख पर्यावरणीय खतरे हैं? 

  • वायु प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट: भारत की वायु गुणवत्ता लगातार निम्न होती जा रही है, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ रही है। 
    • निम्न वायु गुणवत्ता के कारण समय से पहले मौतें होती हैं, साथ ही श्वसन एवं हृदय संबंधी बीमारियों में भी वृद्धि होती है। IQAir रिपोर्ट- 2023 में दिल्ली को विश्व की सबसे प्रदूषित राजधानी बताया गया है, जहाँ PM2.5 का स्तर WHO के दिशा-निर्देशों से 10 गुना अधिक है। 
      • वर्ष 2021 में वायु प्रदूषण के कारण 1.26 मिलियन मौतें हुईं, जिससे वायु गुणवत्ता नियंत्रण के लिये कड़े उपाय किये जाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
  • जल की कमी और प्रदूषण: अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और अकुशल प्रबंधन के कारण भारत में जल की कमी चिंताजनक स्तर पर पहुँच गई है। 
    • लगभग 600 मिलियन लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। मार्च 2025 के अंत तक, भारत के 161 प्रमुख जलाशयों में जल स्तर उनकी क्षमता के 40% से नीचे गिर गया, इनमें से 65 जलाशयों में उनकी क्षमता का 50% से भी कम जल शेष है।
    • भारत की पर्यावरण स्थिति पर वर्ष 2025 की रिपोर्ट से पता चला है कि भारत के 70% जल संसाधन दूषित हो चुके हैं, जिससे जल संकट बढ़ रहा है तथा खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो रहा है।
  • वनों की कटाई और जैव विविधता ह्रास: भारत में तेज़ी से हो रही वनों की कटाई से जैवविविधता और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ रहा है। 
    • देश में वर्ष 2013-2023 के दौरान 1.49 मिलियन हेक्टेयर वनक्षेत्र का ह्रास हुआ, जिससे आवास का विखण्डन और जलवायु परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न हुई। 
    • हाल की रिपोर्टों में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि प्राकृतिक वन, कार्बन-अवशोषण में वृक्षारोपण की तुलना में 40 गुना अधिक प्रभावी हैं, लेकिन नष्ट हुए वनों में से 95% प्राकृतिक थे, जो जैवविविधता और कार्बन-अवशोषण की क्षमता में विनाशकारी क्षति को रेखांकित करता है।
  • जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाएँ: भारत बाढ़, हीट वेव्स और चक्रवातों जैसी चरम मौसमी घटनाओं के प्रति तेज़ी से संवेदनशील होता जा रहा है, जिससे सामाजिक-आर्थिक कमज़ोरियाँ बढ़ रही हैं। 
    • वर्ष 2024 में, भारत में 366 दिनों में से 322 दिन चरम मौसमी घटनाएँ हुईं और 2.09 मिलियन हेक्टेयर फसलों की बर्बादी हुई।
    • UNICEF की वर्ष 2021 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि प्रत्येक 20 में से 17 भारतीय 'हाइड्रोमेट आपदाओं' (जलवायु से जुड़ी आपदाओं) के प्रति संवेदनशील हैं। यह आँकड़ा देश में प्रभावी एवं सुदृढ़ अनुकूलन रणनीतियों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
    • भारत के तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों जैसे: लक्षद्वीप तथा अंडमान द्वीप समूह में स्थित प्रवाल भित्तियाँ जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के कारण तेज़ी से क्षरण की स्थिति में हैं।  
      • उदाहरण के लिये, अंडमान क्षेत्र में प्रवाल भित्तियों के 83.6% तक के हिस्से में विरंजन (bleaching) देखा गया है, जिसका मुख्य कारण 'एल-नीनो' जैसी जलवायु घटनाएँ रही हैं। 
  • वन भूमि का गैर-वानिकी प्रयोजनों हेतु अपवर्तन: अनियंत्रित बुनियादी अवसंरचना का विकास महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर रहा है और भूमि-उपयोग में परिवर्तन में योगदान दे रहा है।  अनियंत्रित अवसंरचना विकास के कारण भारत के महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का क्षरण हो रहा है और भूमि-उपयोग में तीव्र परिवर्तन हो रहे हैं। 
    • वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 ने 'वन' की परिभाषा को इस प्रकार परिवर्तित किया है जिससे विकास परियोजनाओं के लिये वन भूमि के अपवर्तन की प्रक्रिया सरल हो गई है। यह संशोधन न केवल वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के मूल उद्देश्य को कमज़ोर करता है, बल्कि गोडावर्मन बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये ऐतिहासिक निर्णय के प्रतिकूल भी है।
      •  वर्ष 2023 में ही लगभग 29,000 हेक्टेयर वन भूमि का अपवर्तन राजमार्गों और खनन परियोजनाओं के लिये किया गया, जिससे भारत की पारिस्थितिक संतुलन व्यवस्था पर और अधिक दबाव पड़ा है। यह प्रवृत्ति भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं तथा सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) की प्राप्ति के मार्ग में भी एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है।
    • परसा ईस्ट और कांता बसन कोयला खनन परियोजना (छत्तीसगढ़), जिसमें लगभग 15,000 पेड़ों की कटाई शामिल थी, विकास बनाम संरक्षण की लगातार चल रही टकराव का एक उदाहरण है। इस प्रकार की परियोजनाएँ वन्यजीव आवासों के क्षरण, पारिस्थितिक विखंडन तथा मनुष्य-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि का कारण बन रही हैं।
  • अपशिष्ट प्रबंधन और प्रदूषण: अपशिष्ट का कुप्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, भारत में प्रतिवर्ष 62 मिलियन टन अपशिष्ट उत्पन्न होता है, लेकिन केवल 20% का ही प्रसंस्करण किया जाता है। 
    • सत्र 2022-23 में आंशिक प्रतिबंध के बावजूद 4.14 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्सर्जन का आँकड़ा दर्ज किया गया, जो अपशिष्ट निपटान प्रणालियों में विफलता को रेखांकित करता है। 
      • पिछले पाँच वर्षों में ई-अपशिष्ट में 73% की वृद्धि ने प्रदूषण संकट को और जटिल बना दिया है, विशेष रूप से शहरी मलिन बस्तियों में, जहाँ अपशिष्ट को प्रायः सुरक्षा उपायों के बिना संसाधित किया जाता है।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष: बुनियादी अवसंरचना परियोजनाओं के कारण वन कम होते जा रहे हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है। 
    • उदाहरण के लिये, सत्र 2012-13 से 2023-24 के दौरान बारह वर्षों में हाथियों के हमलों में 6,015 लोगों की जान गयी।
    • ये घटनाएँ संघर्ष को कम करने तथा मानव और पशु दोनों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिये बेहतर भूमि-उपयोग नियोजन एवं वन्यजीव गलियारे संरक्षण की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।
  • मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण: वनों की कटाई और रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा अपरदन बढ़ रहा है, जिससे उपजाऊ भूमि मरुस्थल में बदल रही है और कृषि-कार्य प्रभावित हो रहा है। 
    • अरावली पर्वतमाला के क्षरण के कारण थार रेगिस्तान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निकट आ गया है, जिससे वायु प्रदूषण की स्थिति और भी गंभीर हो गई है। 
    • भारत की 160 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि का 60% हिस्सा 'संकटग्रस्त भूमि' माना जाता है, जिससे लाखों किसानों की खाद्य सुरक्षा और आर्थिक संधारणीयता को खतरा है (WEF)।
  • विजातीय प्रजातियाँ और पारिस्थितिकी तंत्र व्यवधान: विजातीय प्रजातियों के प्रवेश से भारत भर में मूल जैवविविधता को खतरा हो रहा है। 
    • वर्ष 2023 में, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन में पाया गया कि विजातीय प्रजातियाँ मूल पादप प्रजातियों को प्रभावित कर रही हैं और वन-पुनर्स्थापन को कम कर रही हैं, जिससे वन पारिस्थितिकी तंत्र का ह्रास हो रहा है तथा स्थानिक प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं।
    • उदाहरण के लिये, लैंटाना कैमरा और यूकेलिप्टस के पेड़ों ने स्थानीय वनस्पतियों का स्थान ले लिया है, जिससे जैवविविधता कम हो गई है तथा पारिस्थितिकी तंत्र बाधित हो गया है।

पर्यावरण संरक्षण और संधारणीयता को बढ़ाने के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है? 

  • पर्यावरण कानूनों को सुदृढ़ एवं लागू करना: भारत को अपने मौजूदा पर्यावरण कानूनों में सुधार करने तथा उन्हें सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। 
    • इसमें वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 जैसे संशोधनों पर पुनर्विचार करना शामिल है, जिनके कारण संरक्षण कमज़ोर हुआ है तथा वनों, वन्यजीवों एवं जैवविविधता के लिये कठोर सुरक्षा उपायों को पुनः लागू करना शामिल है। 
    • नियामक निकायों की जवाबदेही में सुधार करके, देश सतत् विकास को बढ़ावा देते हुए अवैध खनन, वनों की कटाई और प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिये प्रभावी कानूनी प्रवर्तन सुनिश्चित कर सकता है।
  • चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रथाओं को बढ़ावा देना: चक्रीय अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण से अपशिष्ट में उल्लेखनीय कमी आ सकती है, संसाधन दक्षता में वृद्धि हो सकती है तथा संधारणीयता को समर्थन मिल सकता है। 
    • इसके तहत पुनर्चक्रण (recycling), पुनः उपयोग (upcycling) और जैवनिम्नीकरणीय सामग्रियों के प्रयोग को प्रोत्साहन देकर लैंडफिल पर निर्भरता कम की जा सकती है तथा सतत् उत्पादन प्रणालियाँ विकसित की जा सकती हैं।
    • इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन से जुड़ी नीतियों का पुनर्गठन आवश्यक है। साथ ही उद्योगों को ‘क्लोज़्ड-लूप प्रणाली’ अपनाने हेतु प्रेरित किया जाना चाहिये और ई-अपशिष्ट, प्लास्टिक व अन्य अजैविक पदार्थों के पुनर्चक्रण हेतु आधारभूत संरचना को मज़बूत किया जाना चाहिये।
  • जल प्रबंधन का विकेंद्रीकरण और संरक्षण में सुधार: भारत के जल संकट को दूर करने के लिये जल प्रबंधन का विकेंद्रीकरण आवश्यक है। 
    • इसमें वर्षा जल संचयन और जल उपयोग दक्षता कार्यक्रमों के माध्यम से जल संसाधनों के प्रबंधन के लिये स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना शामिल है।
    • इसके अतिरिक्त, जलग्रहण क्षेत्रों, आर्द्रभूमियों और प्राकृतिक जलभृतों का संरक्षण एवं पुनर्स्थापन जल प्रतिधारण व उपलब्धता को बढ़ाने में मदद कर सकता है। 
      • राज्यों को स्थानीय जल निकायों और झीलों को जल संरक्षण के लिये समुदाय-संचालित केंद्रों के रूप में कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये, जिससे अस्थिर भूजल निष्कर्षण पर अत्यधिक निर्भरता कम हो सके।
  • संधारणीय कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहन: भारत को संधारणीय कृषि की ओर बढ़ना होगा जिससे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम हो। 
    • यह जैविक कृषि, कृषि वानिकी और जैव-आधारित कीटनाशकों के उपयोग को बढ़ावा देकर हासिल किया जा सकता है। 
      • फसल विविधीकरण को अपनाने और हरी खाद एवं कम्पोस्ट के माध्यम से मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाने से मृदा की उर्वरता सुनिश्चित करने तथा पर्यावरणीय क्षरण को कम करने में सहायता मिलेगी। 
    • इसके अतिरिक्त, किसानों को परिशुद्ध कृषि प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण के लिये प्रोत्साहित करने से संसाधनों का उपयोग न्यूनतम किया जा सकता है तथा उत्पादकता को स्थायी रूप से बढ़ाया जा सकता है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता में निवेश: जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लिये, भारत को सौर, पवन और जल विद्युत जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में महत्त्वपूर्ण रूप से निवेश करना चाहिये। 
    • इसमें राष्ट्रीय ग्रिडों में हरित ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाना और ऊर्जा भंडारण समाधान में सुधार करना शामिल है। 
    • नवीकरणीय क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ नीतियों में उद्योगों, भवनों और शहरी स्थानों में ऊर्जा दक्षता उपायों को प्रोत्साहित करना चाहिये तथा सभी क्षेत्रों में LED प्रकाश व्यवस्था, स्मार्ट ग्रिड एवं ऊर्जा-कुशल उपकरणों को अपनाने को प्रोत्साहित करना चाहिये। 
  • महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों को पुनर्स्थापित और संरक्षित करना: अरावली पर्वतमाला, पश्चिमी घाट और हिमालय जैसे क्षतिग्रस्त पारिस्थितिक तंत्रों की पुनर्स्थापना पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये, जो भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। 
    • इसमें पुनर्वनीकरण और वनरोपण कार्यक्रम शामिल हैं जो मूल प्रजातियों, मृदा संरक्षण तकनीकों एवं संरक्षित क्षेत्रों के बेहतर प्रबंधन पर बल देते हैं। 
    • जैवविविधता गलियारों को प्राथमिकता देकर और महत्त्वपूर्ण आवासों के आसपास बफर ज़ोन सुनिश्चित करके, भारत आवास विखंडन के प्रभावों को कम कर सकता है, लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा कर सकता है तथा जलवायु परिवर्तन के खिलाफ पारिस्थितिकी तंत्र की समुत्थानशक्ति को सुदृढ़ कर सकता है।
  • हरित शहरीकरण और सतत् शहरों को बढ़ावा देना: भारत को सतत् शहरी नियोजन मॉडल अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें शहरी वनों, ग्रीन रूफ और वर्षा उद्यानों जैसे हरित बुनियादी अवसंरचना को शामिल किया जाए ताकि स्टॉर्मवाटर प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके तथा नगरीय ऊष्मा द्वीप प्रभाव को कम किया जा सके। 
    • सार्वजनिक परिवहन, साइकिल लेन और इलेक्ट्रिक वाहन (EV) जैसी संधारणीय परिवहन प्रणालियों पर बल देने से शहरों में कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी।
    • इसके अतिरिक्त, शहरी अपशिष्ट प्रबंधन में चक्रीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को एकीकृत करने से, जैसे कि कम्पोस्ट बनाना और अपशिष्ट-से-ऊर्जा बनाने की तकनीकें, लैंडफिल अपशिष्ट को कम कर सकती हैं तथा वायु की गुणवत्ता में सुधार कर सकती हैं।
  • जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को राष्ट्रीय योजना में एकीकृत करना: जलवायु परिवर्तन अनुकूलन भारत के राष्ट्रीय विकास कार्यढाँचे का एक मुख्य तत्त्व होना चाहिये। 
    • इसमें कृषि, जल संसाधन और शहरी विकास जैसे क्षेत्रों में जलवायु-अनुकूल बुनियादी अवसंरचनाओं को मुख्यधारा में लाना शामिल है।
    • जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिये जलवायु-स्मार्ट कृषि, बाढ़-रोधी शहरों और उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में भेद्यता को कम करने के लिये आपदा मोचन प्रणालियों में सुधार जैसे नवीन समाधानों की आवश्यकता है।
    • शहरी नियोजन और आपदा मोचन तैयारी में जलवायु जोखिम आकलन को शामिल करने से चरम मौसमी घटनाओं के लिये बेहतर अनुकूलन सुनिश्चित होगा।
  • इको-टूरिज़्म और पारिस्थितिकी संरक्षण शिक्षा को बढ़ावा देना: भारत को इको-टूरिज़्म मॉडल को बढ़ावा देकर अपनी समृद्ध प्राकृतिक विरासत का लाभ उठाना चाहिये, जिससे स्थानीय समुदायों को लाभ मिलने के साथ-साथ संरक्षण में भी योगदान मिले। 
    • यह लक्ष्य सतत् पर्यटन प्रथाओं को स्थापित करके प्राप्त किया जा सकता है जो पर्यावरणीय क्षरण को सीमित करते हैं तथा स्थानीय संरक्षण प्रयासों का समर्थन करते हैं। 
    • इसके अलावा, स्कूली पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा को शामिल करने और जन जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देने से अधिक पर्यावरण-सचेत समाज के निर्माण में सहायता मिलेगी, तथा नागरिकों को संधारणीयता प्रयासों में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिये सशक्त बनाया जा सकेगा।
  • पर्यावरण प्रबंधन में शासन और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहन: प्रभावी पर्यावरण शासन के लिये पारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं और डेटा-संचालित उत्तरदायित्व तंत्र के एकीकरण की आवश्यकता होती है। 
    • राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड और वन सलाहकार समिति जैसे पर्यावरण निगरानी संस्थाओं की भूमिका को मज़बूत करने से यह सुनिश्चित होगा कि पर्यावरणीय अनुमोदन केवल व्यापक आकलन के बाद ही दी जाए।
    • इसके अतिरिक्त, प्रमुख पर्यावरण नीतियों के लिये सुदृढ़ निगरानी और मूल्यांकन कार्यढाँचे की स्थापना से दीर्घकालिक संधारणीयता एवं संसाधनों के कुशल उपयोग को बढ़ावा मिलेगा।

निष्कर्ष: 

भारत की पर्यावरणीय संधारणीयता की दिशा में यात्रा एक संतुलित दृष्टिकोण पर निर्भर करती है, जो मज़बूत शासन व्यवस्था, धारणीय प्रथाओं तथा समावेशी विकास को समेकित करती हो। पारिस्थितिक तंत्रों के पुनरुत्थान को प्राथमिकता देकर, चक्रीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहित करके तथा स्थानीय समुदायों के लिये न्यायसंगत आजीविका सुनिश्चित करके भारत ऐसा भविष्य निर्मित कर सकता है जहाँ 'तीन P' — लाभ (Profit), लोग (People) और पर्यावरण (Planet) में सामंजस्य स्थापित हो। एक समग्र तथा क्रियात्मक पर्यावरणीय रणनीति दीर्घकालिक संधारणीयता एवं समवेत समृद्धि को सुनिश्चित कर सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भारत में पर्यावरण शासन के मौजूदा तंत्रों और प्रमुख पर्यावरणीय खतरों से निपटने में उनकी प्रभावशीलता का परीक्षण कीजिये। सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये इन तंत्रों को किस प्रकार सुदृढ़ किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)   

प्रिलिम्स 

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-से भौगोलिक क्षेत्र में जैवविविधता के लिये संकट हो सकते हैं? (2012)

  1. वैश्विक तापन
  2. आवास का विखण्डन
  3. विदेशी जाति का संक्रमण
  4. शाकाहार को प्रोत्साहन

निम्नलिख़ित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (a)

प्रश्न 2. जैवविविधता निम्नलिखित तरीकों से मानव अस्तित्व का आधार बनाती है: (2011) 

  1. मृदा निर्माण 
  2. मृदा अपरदन की रोकथाम 
  3. अपशिष्ट का पुनर्चक्रण 
  4. फसलों का परागण 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1, 2 और 3 
(b) केवल 2, 3 और 4 
(c) केवल 1 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4 

उत्तर: (d)

मेन्स

प्रश्न 1. भारत में जैवविविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैवविविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018)

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