जैव विविधता और पर्यावरण
भारत के वन्यजीव प्रशासन हेतु एक चेतावनी
- 10 Nov 2025
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यह एडिटोरियल 10/11/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Greater openness: On India and wildlife management” पर आधारित है। इस लेख में भारत की वन्यजीव परमिट प्रणाली पर CITES पैनल की हालिया चिंताओं को सामने लाया गया है, जिसका उदाहरण जामनगर का वंतारा मामला है, जो वन्यजीव प्रशासन में गहन खामियों को उजागर करता है। यह भारत के लिये अपने पर्यावरण प्रबंधन में विश्वास पुनः स्थापित करने हेतु अपने संरक्षण कार्यढाँचे और वैश्विक समन्वय को सुदृढ़ करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देता है।
प्रिलिम्स के लिये: प्रोजेक्ट टाइगर, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण, बाघ अभयारण्य, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, हाथी अभयारण्य, M-STrIPES, प्रोजेक्ट चीता, कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क, लैंटाना कैमरा, वन अधिकार अधिनियम
मेन्स के लिये: वन्यजीव प्रबंधन के क्षेत्र में भारत की प्रमुख प्रगति, भारत के वन्यजीव संरक्षण कार्यढाँचे से जुड़े प्रमुख मुद्दे।
CITES समिति की हालिया रिपोर्ट ने भारत की वन्यजीव अनुमति प्रणाली पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं तथा जामनगर के 'वनतारा परियोजना' की जाँच के उपरांत चिड़ियाघरों के लिये संकटग्रस्त प्राणियों के आयात पर रोक लगाने की सिफारिश की है। तथापि, यह प्रकरण भारत की वन्यजीव प्रबंधन संरचना में निहित गहन संरचनात्मक संकटों का प्रतीक है। ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ जैसी अग्रणी संरक्षण सफलताओं के बावजूद भारत की वन्यजीव शासन प्रणाली केंद्र और राज्य एजेंसियों के बीच विखंडित अधिकार, विभागों के बीच अपर्याप्त समन्वय, कमज़ोर प्रवर्तन तंत्र और ट्रेसेबिलिटी मानकों पर कमज़ोर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सीमित सहभागिता से ग्रस्त है।
विश्व के कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जैवमंडलों का संरक्षक होने के रूप में, भारत को अपने वन्यजीव प्रबंधन तंत्र तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को सुदृढ़ करने की तात्कालिक आवश्यकता है ताकि उसके संरक्षण संबंधी दावे पर वैश्विक विश्वास पुनर्स्थापित किया जा सके।
वन्यजीव प्रबंधन के क्षेत्र में भारत की प्रमुख उपलब्धियाँ क्या हैं?
- प्रमुख प्रजाति संरक्षण सफलताएँ: निरंतर, समर्पित सरकारी कार्यक्रम, 'प्रोजेक्ट टाइगर' (1973 में शुरू), ने 'कोर-बफर' रणनीति और गहन प्रबंधन के माध्यम से भारत के राष्ट्रीय पशु के विलुप्त होने के खतरों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है।
- यह उपलब्धि बड़े परभक्षी संरक्षण के लिये एक वैश्विक मानक है, जो प्रभावी नीति कार्यान्वयन और प्रवर्तन को दर्शाता है।
- राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) की स्थापना ने संरक्षण और निगरानी को संस्थागत रूप दिया है।
- बाघों की आबादी वर्ष 2006 में 1,411 के निम्न स्तर से बढ़कर वर्ष 2022 में अनुमानित 3,682 हो गई है, जो विश्व की जंगली बाघ आबादी का 75% से अधिक है। भारत वर्तमान में देश भर में 58 बाघ अभयारण्यों का प्रबंधन करता है।
- यह उपलब्धि बड़े परभक्षी संरक्षण के लिये एक वैश्विक मानक है, जो प्रभावी नीति कार्यान्वयन और प्रवर्तन को दर्शाता है।
- भू-दृश्य-स्तरीय आवास संपर्क: एक प्रमुख कदम भू-दृश्य-स्तरीय संरक्षण की ओर परिवर्तन है, जिसमें आनुवंशिक प्रवाह और जलवायु परिवर्तन के प्रति सहिष्णुता सुनिश्चित करने के लिये संरक्षित क्षेत्रों के बाह्य वन्यजीव गलियारों की आवश्यकता को मान्यता दी गई है।
- यह दृष्टिकोण परस्पर जुड़े वनों को एकल प्रबंधन इकाइयों के रूप में मान्यता देता है और विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले आवास विखंडन की समस्या का समाधान करता है। इससे हाथी अभयारण्यों का परिसीमन और बेहतर बुनियादी अवसंरचना की योजना बनाने में सहायता मिली है।
- प्रोजेक्ट एलिफेंट 14 राज्यों में 33 हाथी अभयारण्यों का प्रबंधन करता है और भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) इन गलियारों के मानचित्रण पर काम करता है।
- समुदाय-केंद्रित संरक्षण मॉडल: समुदाय-आधारित संरक्षण को बढ़ावा मिल रहा है, स्थानीय लोगों को शामिल करने और जैव-विविधता के संरक्षण में उनके पारंपरिक ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये आधिकारिक तौर पर सामुदायिक अभयारण्य एवं संरक्षण अभयारण्य स्थापित किये जा रहे हैं। यह अपवर्जन से समावेशी प्रबंधन की ओर एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करता है।
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (WLPA) अब सामुदायिक अभयारण्यों को कानूनी मान्यता देता है।
- भारत के नेटवर्क में अब वर्ष 2023 के अंत तक 115 संरक्षण अभयारण्य और 220 सामुदायिक अभयारण्य शामिल हैं, जिनमें नगालैंड में फोम समुदाय के नेतृत्व में अमूर फाल्कन संरक्षण जैसे सफल उदाहरण शामिल हैं।
- उन्नत निगरानी तकनीक का अंगीकरण: M-STrIPES (बाघों के लिये गहन सुरक्षा और पारिस्थितिक स्थिति निगरानी प्रणाली) जैसी उन्नत तकनीक और AI-संचालित निगरानी का एकीकरण अवैध शिकार से निपटने तथा वन्यजीव आबादी के प्रबंधन में एक क्रांतिकारी बदलाव है। तकनीक वास्तविक काल में निर्णय लेने के लिये एक सुदृढ़, वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।
- मानचित्रण और निगरानी के लिये ड्रोन और GPS का उपयोग क्षेत्रीय कर्मचारियों की क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि करता है। इस वैज्ञानिक प्रबंधन को विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
- सौर ऊर्जा चालित इलेक्ट्रॉनिक बाड़ और सेंसर और मोबाइल अलर्ट का उपयोग करने वाली पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने में, विशेष रूप से हाथी गलियारों में, प्रभावी सिद्ध हुई हैं, जिससे फसल क्षति कम हुई है, साथ ही पशु सुरक्षा भी सुनिश्चित हुई है।
- लक्षित एकल-प्रजाति पुनर्प्राप्ति परियोजनाएँ: भारत ने बाघों से परे कई अत्यधिक केंद्रित, एकल-प्रजाति परियोजनाओं को सुदृढ़ किया है, जो विशिष्ट संकटग्रस्त, स्थानिक या पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण प्रजातियों को विलुप्त होने के कगार से बचाने के लिये एक समर्पित प्रयास को प्रदर्शित करती हैं। इन कार्यक्रमों में 'कैप्टिव ब्रीडिंग' (बंधित प्रजनन) तथा 'ट्रांसलोकेशन' (स्थानांतरण) की रणनीतियों का प्रयोग किया जाता है।
- यह अनुकूलित दृष्टिकोण, जिसमें प्रायः अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी शामिल होती है, स्थानीय विलुप्ति को रोकता है और उनके विशिष्ट आवासों में पारिस्थितिक संतुलन पुनः स्थापित करता है।
- प्रोजेक्ट चीता ने वर्ष 2022 में इस प्रजाति को विलुप्त होने के बाद कुनो राष्ट्रीय उद्यान में सफलतापूर्वक पुनः स्थापित किया और असम में एक सींग वाले गैंडों की आबादी वर्ष 2024 तक 4,000 से अधिक हो गई, जिसका मुख्य कारण इंडियन राइनो विज़न 2020 है।
- सक्रिय नीति और विधिक संशोधन: हाल के विधिक और नीतिगत सुधार, विशेष रूप से वन्य जीवन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2022, राष्ट्रीय कानूनों को CITES जैसी अंतर्राष्ट्रीय संधियों के साथ संरेखित करने तथा संरक्षण को बढ़ाने के लिये एक सक्रिय शासन दृष्टिकोण को प्रदर्शित करते हैं। यह वन्यजीव अपराध के विरुद्ध प्रवर्तन तंत्र को सुदृढ़ करता है।
- यह विधिक परिपक्वता को दर्शाता है।
- कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क और 30x30 लक्ष्य (वर्ष 2030 तक 30% भूमि और समुद्र की रक्षा) के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, वैश्विक संरक्षण लक्ष्यों के साथ संरेखण का संकेत देती है, साथ ही उन्हें घरेलू पारिस्थितिक एवं सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के अनुकूल बनाती है।
- जैव-विविधता को विकास में मुख्यधारा में लाना: सशक्त पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) और प्रतिपूरक वनीकरण के माध्यम से जैव-विविधता संबंधी चिंताओं को प्रमुख बुनियादी अवसंरचना और विकासात्मक नियोजन में मुख्यधारा में लाने के लिये, यद्यपि चुनौतीपूर्ण, प्रयास बढ़ रहे हैं। यह इस बात को स्वीकार करता है कि विकास महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों की कीमत पर नहीं हो सकता।
- प्रतिपूरक वनीकरण का विधिक तंत्र और EIA की आवश्यकता, बुनियादी अवसंरचना की आवश्यकताओं को आवश्यक पारिस्थितिक तंत्र संरक्षण के साथ संतुलित करने का प्रयास करती है। यह एक प्रगतिशील शासन कदम है।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अधिकृत केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) के अनुसार, भारत ने अपने प्रतिपूरक वनीकरण लक्ष्य का लगभग 85% हासिल कर लिया है, सत्र 2019-20 और 2023-24 के दौरान 2.09 लाख हेक्टेयर के लक्ष्य के मुकाबले लगभग 1.78 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में वृक्षारोपण किया है।
भारत के वन्यजीव संरक्षण कार्यढाँचे से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- कमज़ोर प्रवर्तन और निम्न दोषसिद्धि दर: संशोधित वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WLPA) जैसे सख्त कानूनों के बावजूद, प्रवर्तन अभी भी कमज़ोर है, जिसका कारण प्रायः अपर्याप्त प्रशिक्षण, कमज़ोर जाँच प्रक्रियाएँ और संगठित अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव अपराध की जटिल प्रकृति होती है।
- यह संरचनात्मक कमज़ोरी निवारक क्षमता को गंभीर रूप से कमज़ोर करती है तथा आपराधिक नेटवर्क को राज्य की सीमाओं के पार अपेक्षाकृत दंडमुक्त होकर काम करने में सक्षम बनाती है।
- वन्यजीव अपराधों में दोषसिद्धि दर चिंताजनक रूप से निम्न है, जो ऐतिहासिक रूप से लगभग 2-3% रही है। वर्ष 2020 से 2024 के दौरान कुल 2,701 वन्यजीव अपराध मामलों का पंजीकरण हुआ, परंतु सफल अभियोजन की कमी पेंगोलिन या स्टार टॉरटॉइज़ जैसी प्रजातियों के अवैध व्यापार के पैमाने के अनुरूप नहीं है, जिससे शिकारी तत्त्वों के लिये 'न्यून जोखिम, उच्च लाभ' वाला वातावरण निर्मित होता है।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष (HWC) में वृद्धि: बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष (HWC) आवास विखंडन और रैखिक बुनियादी अवसंरचना के विकास का परिणाम है, जो हाथियों और बिग कैट जैसे विशाल जीव-प्रजातियों को मानव-प्रभुत्व वाले भू-दृश्यों में प्रवेश करने को विवश होना पड़ता है। यह स्थिति स्थानीय सहनशीलता पर दबाव डालती है और प्रतिशोधात्मक हत्या की घटनाओं को जन्म देती है।
- सक्रिय, विज्ञान-आधारित संघर्ष शमन रणनीतियों और त्वरित मुआवज़ा तंत्रों का अभाव इस गंभीर समस्या को और बढ़ा देता है।
- वर्ष 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पाँच वर्षों में मानव-हाथी संघर्षों के कारण 2853 लोगों की मौत हुई है, जो वर्ष 2023 में 628 के शिखर पर पहुँच जाएगी, जो संघर्ष की तीव्रता का एक स्पष्ट संकेतक है।
- हाल के वर्षों में, केरल जैसे उच्च-संघर्ष वाले राज्यों में प्रत्येक वर्ष सैकड़ों मानव-हाथी संघर्ष घटनाएँ दर्ज की गई हैं, जो हाथियों और जंगली सूअरों जैसी प्रजातियों द्वारा कृषि भूमि एवं बस्तियों पर अतिक्रमण के कारण होती हैं।
- CITES अनुपालन और आयात संबंधी उचित परिश्रम में कमी: हाल के घटनाक्रमों ने CITES (लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन) के अनुपालन में खामियों को उजागर किया है (विशेष रूप से विदेशी जीवित जानवरों के आयात के संबंध में) जिससे वैध अंतरण के रूप में प्रच्छन्न अवैध वन्यजीव व्यापार के संभावित मार्गों के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
- विदेशी जानवरों के आयात पर विवाद के बाद, CITES समिति ने भारत को उचित परिश्रम की व्यवस्थित समीक्षा होने तक आयात परमिट रोकने की अनुशंसा की।
- इसमें निर्यात और आयात किये गये पशुओं की संख्या में असंगति जैसी समस्याएँ शामिल थीं, जैसे एक मामले में मेक्सिको से निर्यातित चीताों की संख्या में 14 और 24 के बीच का अंतर पाया गया।
- विदेशी जानवरों के आयात पर विवाद के बाद, CITES समिति ने भारत को उचित परिश्रम की व्यवस्थित समीक्षा होने तक आयात परमिट रोकने की अनुशंसा की।
- संरक्षित क्षेत्र (PA) बफर ज़ोन का अकुशल प्रबंधन: मूल संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के चारों ओर स्थित बफर और गलियारा क्षेत्र प्रायः अत्यधिक जैविक दबाव का सामना करते हैं, जैसे: पशु-चारण, संसाधन दोहन तथा अवसंरचनात्मक परियोजनाएँ, जो वन्यजीवों के लिये आवश्यक परिदृश्य-स्तरीय संयोजकता को कमज़ोर कर देते हैं।
- प्रबंधन योजनाएँ प्रायः आश्रित स्थानीय और जनजातीय समुदायों के अधिकारों एवं आजीविका आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से एकीकृत करने में विफल रहती हैं।
- मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में, हाल ही में वन क्षेत्र में वृद्धि मुख्यतः वृक्षारोपण के कारण हुई है, न कि प्राकृतिक वनों के कारण, जो पारिस्थितिक समुत्थानशीलता को कम करते हैं।
- WLPA संशोधन, 2022 में परिभाषा संबंधी अस्पष्टता: हाल ही में पारित वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2022 ने यद्यपि CITES को सम्मिलित किया है, परंतु इसने संरक्षित प्रजातियों के वर्गीकरण के संबंध में अस्पष्टताएँ उत्पन्न कर दी हैं। इसके परिणामस्वरूप सामान्य प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजातियों के समान ही उच्च सुरक्षा स्तर प्रदान किया गया है, जिससे संसाधनों के समुचित वितरण में जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं।
- नई अनुसूची-I (Schedule I) के अंतर्गत सियार जैसी सामान्य प्रजातियों को भी बाघ के समान सुरक्षा प्रदान की गयी है।
- गंभीर रूप से, ‘किसी अन्य उद्देश्य’ के लिये हाथियों के उपयोग की अनुमति देने वाले प्रावधान का दुरुपयोग होने की संभावना है, जो संभावित रूप से इस प्रावधान के माध्यम से वाणिज्यिक व्यापार को वैध बना सकता है।
- आक्रामक विदेशी प्रजातियों पर अपर्याप्त ध्यान: यह कार्यढाँचा ऐतिहासिक रूप से आक्रामक बाह्य प्रजातियों के प्रति प्रतिक्रियात्मक रहा है, जबकि ये प्रजातियाँ स्थानीय जैवविविधता के लिये एक गंभीर किंतु प्रायः उपेक्षित खतरा उत्पन्न करती हैं। ये स्थानीय वनस्पतियों और जीवों को प्रतिस्पर्द्धा में परास्त कर पारितंत्रों को परिवर्तित करती हैं तथा रोगों का प्रसार करती हैं।
- भारत के 40% से अधिक बाघ अभयारण्यों में लैंटाना कैमरा जैसी आक्रामक प्रजातियों की उपस्थिति एक महत्त्वपूर्ण प्रबंधन विफलता को दर्शाती है जो मूल निवास स्थान की गुणवत्ता और शिकार आधार को कम करती है।
- साथ ही, रेड-इयर्ड स्लाइडर टर्टल जैसी आक्रामक प्रजातियाँ पूरे भारत में मूल कछुआ प्रजातियों के लिये एक गंभीर खतरा हैं।
- इनका तीव्र प्रसार, जो प्रायः गैर-जिम्मेदार पालतू पशु व्यापार और उसके बाद किये गये परित्याग से प्रेरित होता है, उनके आयात एवं प्रसार को रोकने हेतु नियामक अधिकारों के प्रभावी क्रियान्वयन में विफलता को दर्शाता है।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 का अपर्याप्त कार्यान्वयन: संरक्षित क्षेत्रों के भीतर और आसपास वन अधिकार अधिनियम (FRA) को पूरी तरह से लागू करने में लगातार विफलता एक प्रमुख सामाजिक-पारिस्थितिक मुद्दा बनी हुई है, क्योंकि इससे भूमि विवाद अनसुलझे रहते हैं तथा स्थानीय समुदाय, जो संरक्षण में आवश्यक भागीदार हैं, अलग-थलग पड़ जाते हैं।
- अधिकारों का यह हनन पारंपरिक प्रबंधन को कमज़ोर करता है तथा समुदायों द्वारा अवैध शिकार विरोधी प्रयासों की रिपोर्ट करने या उनमें सहयोग करने की संभावना को कम करता है।
- कर्नाटक के नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में जेनु कुरुबा जनजाति इस इनकार का उदाहरण है, जहाँ अधिकारों की मान्यता में प्रायः विलंब किया जाता है या उसे अस्वीकार कर दिया जाता है।
भारत अपने वन्यजीव संरक्षण कार्यढाँचे को बेहतर बनाने के लिये क्या उपाय अपना सकता है?
- भू-दृश्य-स्तरीय पारिस्थितिक अखंडता नियोजन को अनिवार्य बनाना: भारत को खंडित संरक्षित क्षेत्र (PA) प्रबंधन से अनिवार्य, प्रवर्तनीय और कानूनी रूप से समर्थित भू-दृश्य-स्तरीय नियोजन की ओर संक्रमण करने की आवश्यकता है, जिसमें गलियारों एवं बफर ज़ोन की कार्यात्मक कनेक्टिविटी को प्राथमिकता दी जाएगी।
- इसके लिये आवश्यक है कि वन्यजीव संबंधी चिंताओं को सभी प्रमुख आधारभूत संरचना और विकास परियोजनाओं में एक कठोर ‘पारिस्थितिक संपर्कता प्रभाव मूल्यांकन’ (EIA परिशिष्ट) के माध्यम से एकीकृत किया जाये, जिससे केवल वनों के विचलन के मूल्यांकन से आगे बढ़कर समग्र पारिस्थितिक हानि का आकलन किया जा सके।
- ध्यान अब इस दिशा में स्थानांतरित होना चाहिये कि संरक्षित क्षेत्रों (PAs के निकटवर्ती राजस्व क्षेत्रों में सक्रिय भूमि-उपयोग क्षेत्रीकरण किया जाना चाहिये, ताकि रैखिक आधारभूत संरचना के प्रभाव को अत्याधुनिक वन्यजीव मार्गों तथा बड़े स्तनधारियों की आवाजाही के लिये बनाए गये ओवरपास के माध्यम से न्यूनतम किया जा सके।
- एक समर्पित वन्यजीव अपराध अभियोजन शाखा की स्थापना: कम दोषसिद्धि दर की व्यापक समस्या को दूर करने के लिये, एक विशिष्ट, बहु-विषयक वन्यजीव अपराध अभियोजन संवर्ग की स्थापना की जानी चाहिये, जिसमें समर्पित लोक अभियोजक, फोरेंसिक विशेषज्ञ एवं जाँचकर्त्ता शामिल हों।
- वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो (WCCB) के अंतर्गत कार्यरत इस इकाई को साइबर फोरेंसिक, जैविक साक्ष्य (DNA) के लिये हिरासत शृंखला प्रोटोकॉल और सीमा पार खुफिया जानकारी साझा करने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये, जिससे दोषसिद्धि-उन्मुख केस तैयारी सुनिश्चित होगी।
- विधिक प्रक्रिया का यह व्यावसायीकरण संगठित अंतर्राष्ट्रीय अवैध शिकार और अवैध व्यापार सिंडिकेट का उन्मूलन करने के लिये महत्त्वपूर्ण है जो वर्तमान में न्यायिक कमज़ोरियों का फायदा उठाते हैं।
- AI-संचालित, पूर्वानुमानित संघर्ष शमन प्रणालियों को लागू करना: उच्च मानव-वन्यजीव संघर्ष (HWC) क्षेत्रों में, विशेष रूप से हाथियों और बिग कैट प्रजातियों के लिये, AI और IoT-आधारित वास्तविक काल चेतावनी प्रणालियों को तैनात करने हेतु एक राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिये।
- इसमें मौसम, फसल चक्र और ऐतिहासिक आँकड़ों के आधार पर जानवरों की आवाजाही के पैटर्न का पूर्वानुमान करने के लिये थर्मल-सेंसिंग ड्रोन, बायो-सॉनिक सेंसर एवं मशीन लर्निंग मॉडल का उपयोग करना शामिल है, जो भू-बाड़ वाले, भाषा-विशिष्ट अलर्ट को सीधे सामुदायिक प्रारंभिक चेतावनी ऐप्स पर भेजता है।
- साथ ही, वन सीमाओं के भीतर स्थानीय घास के बागानों और जल स्रोतों जैसे आवास संवर्द्धन क्षेत्रों के निर्माण के लिये धन आवंटित किया जाना चाहिये, ताकि जानवरों के मानव बस्तियों में आने के पारिस्थितिक प्रोत्साहन को कम किया जा सके।
- समुदाय-नेतृत्व वाले संरक्षण शासन का विकेंद्रीकरण और सशक्तीकरण: वन अधिकार अधिनियम (FRA) के अनुसार, निर्दिष्ट बफर और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों पर सामुदायिक वन संसाधन (CFR) अधिकारों के साथ ग्राम सभाओं को पूरी तरह एवं वास्तविक रूप से सशक्त बनाने के लिये कार्यढाँचे को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिये।
- गैर-काष्ठीय वन उपज और सूक्ष्म-नियोजन के लिये अधिकार का यह अंतरण संरक्षण में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी को बढ़ावा देता है, स्थानीय लोगों को संभावित विरोधियों से अपरिहार्य भागीदारों में परिवर्तित करने में सहायता प्रदान करता है, जिससे प्राकृतिक निगरानी और अवैध शिकार के खिलाफ खुफिया जानकारी एकत्र करने में वृद्धि होती है।
- इसके अलावा, समुदाय के सदस्यों को एक प्रतिस्पर्द्धी, स्थायी-संवर्ग योजना के तहत 'वन्यजीव संरक्षक' के रूप में नियुक्त और प्रशिक्षित किया जाना चाहिये, जिससे उनकी आजीविका सीधे जैव-विविधता स्वास्थ्य से जुड़ सके।
- प्रदर्शन-आधारित संरक्षण वित्तपोषण और स्वायत्तता लागू करना: केंद्र सरकार को राज्य वन विभागों और संरक्षित क्षेत्र प्रशासनों के लिये वर्तमान केंद्रीकृत आवंटन मॉडल के स्थान पर एक प्रतिस्पर्द्धी, प्रदर्शन-आधारित वित्तपोषण तंत्र स्थापित करना चाहिये।
- निधियों को मापनीय परिणामों से जोड़ा जाना चाहिये, जैसे प्रजातियों की आबादी में निरंतर वृद्धि, आवास गुणवत्ता में स्पष्ट सुधार (जैसे: आक्रामक प्रजातियों को हटाने में सफलता) और सामुदायिक भागीदारी के मानक।
- साथ ही, संरक्षित क्षेत्रों को विशेषज्ञ कर्मियों को शीघ्रता से नियुक्त करने, प्रौद्योगिकी प्राप्त करने और कठोर, धीमी प्रशासनिक प्रक्रियाओं से बाधित हुए बिना स्थानीय संरक्षण रणनीतियों को लागू करने के लिये अधिक प्रशासनिक एवं वित्तीय स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये।
- डिजिटलीकरण के माध्यम से वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम का आधुनिकीकरण: वन्यजीव अपराध प्रवर्तन और निगरानी के सभी पहलुओं को पूरी तरह से डिजिटल बनाने के लिये एक व्यापक परियोजना की आवश्यकता है, जिससे सभी कानून प्रवर्तन एजेंसियों (वन, पुलिस, सीमा शुल्क, न्यायपालिका) के लिये सुलभ एक केंद्रीकृत, वास्तविक समय राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार हो सके।
- इस आधुनिकीकरण में डिजिटल प्रमाण संग्रह (जैसे, जियोटैग्ड साक्ष्य), आनुवंशिक मार्करों के साथ एक एकीकृत प्रजाति पहचान डेटाबेस और CITES परमिट के लिये एक ई-गवर्नेंस पोर्टल का अनिवार्य उपयोग शामिल है ताकि पता लगाने की क्षमता एवं पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके।
- माधव गाडगिल सहित कुछ विशेषज्ञों ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में बड़े सुधारों का सुझाव दिया है और इसके निरसन की अनुशंसा की है।
- अधिनियम को पूरी तरह से निरस्त करने के बजाय, इसकी प्रभावशीलता को सुदृढ़ करने और मौजूदा कमियों को दूर करने के लिये इसमें व्यापक सुधार किये जाने चाहिये।
निष्कर्ष:
भारत का वन्यजीव संरक्षण कार्यढाँचा एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जो अपनी समृद्ध संरक्षण विरासत को उभरती शासन और अनुपालन चुनौतियों के साथ संतुलित करता है। प्रवर्तन को सुदृढ़ करना, समुदायों को सशक्त बनाना और प्रौद्योगिकी-आधारित, भू-दृश्य-स्तरीय संरक्षण को अपनाना आगे के आवश्यक कदम हैं। इन सुधारों को सतत् विकास लक्ष्यों SDG 15 (थलीय जीवों की सुरक्षा), SDG 13 (जलवायु परिवर्तन कार्रवाई) और SDG 17 (लक्ष्यों हेतु भागीदारी) के साथ जोड़ने से भारत के वैश्विक संरक्षण नेतृत्व को बल मिलेगा। एक समुत्थानशील, पारदर्शी और समावेशी कार्यढाँचा न केवल पारिस्थितिक संतुलन को पुनर्स्थापित कर सकता है बल्कि जैव-विविधता के संरक्षण में भारत की अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता को भी पुनर्जीवित कर सकता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न.“भारत के वन्यजीव संरक्षण प्रयास प्रजाति-केंद्रित संरक्षण से पारिस्थितिकी तंत्र और समुदाय-आधारित प्रबंधन में विकसित हो गए हैं, फिर भी शासन और प्रवर्तन संबंधी चुनौतियाँ बनी हुई हैं।” हाल के घटनाक्रमों के संदर्भ में चर्चा कीजिये और मूल्यांकन कीजिये कि भारत अपनी वन्यजीव संरक्षण रणनीति को सतत् विकास लक्ष्यों के साथ किस-प्रकार संरेखित कर सकता है। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न 1. यदि किसी पौधे की विशिष्ट जाति को वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 की अनुसूची VI में रखा गया है, तो इसका क्या तात्पर्य है? (2020)
(a) उस पौधे की खेती करने के लिये लाइसेंस की आवश्यकता है।
(b) ऐसे पौधे की खेती किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकती।
(c) यह एक आनुवंशिकत: रूपांतरित फसली पौधा है।
(d) ऐसा पौधा आक्रामक होता है और पारितंत्र के लिये हानिकारक होता है।
उत्तर: (a)
प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन-से भौगोलिक क्षेत्र में जैव-विविधता के लिये संकट हो सकते हैं? (2012)
- भू-मंडलीय तापन
- आवाह का विखण्डन
- विदेशी जाति का संक्रमण
- शाकाहार को प्रोत्साहन
निम्नलिखित कूटों के आधार पर सही उत्तर चुनिये:
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2 और 3
fc) केवल 1 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (a)
मेन्स
प्रश्न 1. भारत में जैव-विविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैव-विविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है? (2018)