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भारतीय राजनीति

विधायकों का निलंबन

  • 15 Jan 2022
  • 8 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 212, अनुच्छेद 194, संविधान की मूल संरचना, लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 151 (ए)

मेन्स के लिये:

जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951, शक्तियों का पृथक्करण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा के 12 विधायक अपने एक वर्ष के निलंबन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय गए हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने पाया है कि विधायको का पूरे एक वर्ष के लिये निलंबन प्रथम दृष्टया असंवैधानिक है और इन निर्वाचन क्षेत्रों में एक संवैधानिक शून्य की स्थिति पैदा करेगा।

प्रमुख बिंदु:

  • विधायकों के निलंबन के बारे में:
    • विधायकों को ओबीसी के डेटा के खुलासे के संबंध में विधानसभा में किये गए दुर्व्यवहार के लिये निलंबित किया गया है।
    • निलंबन की चुनौती मुख्य रूप से नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के खंडन और निर्धारित प्रक्रिया के उल्लंघन के आधार पर निर्भर करती है।
      • 12 विधायकों ने कहा है कि उन्हें अपना मामला पेश करने का मौका नहीं दिया गया और निलंबन ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है।
    • महाराष्ट्र विधानसभा का नियम 53: इसमें कहा गया है कि "अध्यक्ष किसी भी उस सदस्य को विधानसभा से तुरंत हटने के लिये निर्देश दे सकता है जो उसके फैसले को मानने से इनकार करता है या जिसका आचरण उसकी राय में अव्यवस्था उत्पन्न करता है"।
      • सदस्य को "दिन की शेष बैठक के दौरान खुद का अनुपस्थित" रहना होगा।
      • यदि किसी सदस्य को उसी सत्र में दूसरी बार वापस लेने का आदेश दिया जाता है तो अध्यक्ष सदस्य को अनुपस्थित रहने का निर्देश दे सकता है, जो "किसी भी अवधि के लिये सत्र के शेष दिनों से अधिक नहीं होना चाहिये"
  •  महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा तर्क:
    • अनुच्छेद 212: सदन ने अनुच्छेद 212 के तहत अपनी विधायी क्षमता के तहत कार्य किया तथा न्यायालय को विधायिका की कार्यवाही की जाँच करने का अधिकार नहीं है।
      • अनुच्छेद 212 (1) के अनुसार, "किसी राज्य के विधानमंडल प्रक्रिया की किसी कथित अनियमितता के आधार पर किसी राज्य के विधानमंडल में किसी भी कार्यवाही की वैधता पर सवाल नहीं उठाया जाएगा।
    • अनुच्छेद 194: राज्य ने सदन की शक्तियों और विशेषाधिकारों पर अनुच्छेद 194 का भी उल्लेख किया और तर्क दिया है कि इन विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी सदस्य को सदन की अंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से निलंबित किया जा सकता है।
      • राज्य द्वारा इस बात से भी इनकार किया गया है कि किसी सदस्य को निलंबित करने की शक्ति का प्रयोग केवल विधानसभा के नियम 53 के माध्यम से किया जा सकता है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए तर्क:
    • संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन: विधानसभा में पूरे एक साल तक निलंबित विधायकों के निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व न होने से संविधान का मूल ढाँचा प्रभावित होगा।
    • संवैधानिक आवश्यकता: पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 190 (4) का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है, "यदि किसी राज्य के विधानमंडल के सदन का कोई सदस्य साठ दिनों की अवधि तक सदन की अनुमति के बिना उसकी सभी बैठकों से अनुपस्थित रहता है, तो सदन उसकी सीट को रिक्त घोषित कर सकता है।"
    • वैधानिक आवश्यकता: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151 (ए) के तहत, "किसी भी रिक्ति को भरने के लिये वहाँ एक उप-चुनाव, रिक्ति होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर आयोजित किया जाएगा"।
      • इसका मतलब है कि इस धारा के तहत निर्दिष्ट अपवादों को छोड़कर, कोई भी निर्वाचन क्षेत्र छह महीने से अधिक समय तक प्रतिनिधि के बिना नहीं रह सकता है।
    • पूरे निर्वाचन क्षेत्र को दंडित करना: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष का निलंबन प्रथम दृष्टया असंवैधानिक था क्योंकि यह छह महीने की सीमा से आगे निकल गया था और यहाँ "सदस्य को नहीं बल्कि पूरे निर्वाचन क्षेत्र को दंडित किया गया।
    • सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का प्रश्न: उच्चतम न्यायालय से इस प्रश्न पर शासन करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या न्यायपालिका सदन की कार्यवाही में हस्तक्षेप कर सकती है।
      • हालाँकि संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि न्यायालय ने पिछले फैसलों में स्पष्ट किया है कि सदन द्वारा किये गए असंवैधानिक कृत्य के मामले में न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है।

संसद सदस्य के निलंबन के प्रावधान:

  • लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत नियम 378 के अनुसार, लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सदन में व्यवस्था बनाई रखी जाएगी तथा उसे अपने निर्णयों को प्रवर्तित करने के लिये सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
  • नियम 373 के अनुसार, यदि लोकसभा अध्यक्ष की राय में किसी सदस्य का व्यवहार अव्यवस्थापूर्ण है तो अध्यक्ष उस सदस्य को लोकसभा से बाहर चले जाने का निर्देश दे सकता है और जिस सदस्य को इस तरह का आदेश दिया जाएगा, वह तुरंत लोकसभा से बाहर चला जाएगा तथा उस दिन की बची हुई बैठक के दौरान वह सदन से बाहर रहेगा।
  • नियम 374 (1), (2) तथा (3) के अनुसार, यदि लोकसभा अध्यक्ष की राय में किसी सदस्य ने अध्यक्ष के प्राधिकारों की उपेक्षा की है या वह जान बूझकर लोकसभा के कार्यों में बाधा डाल रहा है तो लोकसभा अध्यक्ष उस सदस्य का नाम लेकर उसे अवशिष्ट सत्र से निलंबित कर सकता है तथा निलंबित सदस्य तुरंत लोकसभा से बाहर चला जाएगा।
  • नियम 374 (क) (1) के अनुसार, नियम 373 और 374 में अंतर्विष्ट किसी प्रावधान के बावजूद यदि कोई सदस्य लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट आकर अथवा सभा में नारे लगाकर या अन्य प्रकार से लोकसभा की कार्यवाही में बाधा डालकर जान-बूझकर सभा के नियमों का उल्लंघन करते हुए घोर अव्यवस्था उत्पन्न करता है तो लोकसभा अध्यक्ष द्वारा उसका नाम लिये जाने पर वह लोकसभा की पाँच बैठकों या सत्र की शेष अवधि के लिये (जो भी कम हो) स्वतः निलंबित माना जाएगा।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस

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