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हिंद महासागर क्षेत्र में नरम कूटनीति अपनाना भारत के लिये बेहतर

  • 02 Jul 2018
  • 7 min read

संदर्भ 

एजम्पशन आइलैंड पर नौसैनिक अड्डा बनाने को लेकर भारत और सेशेल्स के बीच बनी सहमति सामरिक नज़रिये से काफी अहम है। यह सही है कि 2015 का यह समझौता इस साल संशोधित किये जाने के बाद भी वहाँ की संसद की मंज़ूरी नहीं पा सका है। मगर दोनों देश एक-दूसरे के हितों को देखते हुए आपस में मिलकर इस नौसैनिक अड्डे पर काम करने के लिये सहमत हुए हैं और यह बात सुकून देने वाली है। इसे सेशेल्स के राष्ट्रपति डैनी फॉर के भारत दौरे की ‘बेस्ट पॉसिबल आउटकम’ कहा जा रहा है, यानी सबसे अच्छा संभावित नतीजा। 

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

  • मौजूदा स्थिति में इससे बेहतर परिणाम नहीं निकल सकता था। अगर यह समझौता रद्द हो जाता (जिससे जुड़ी रिपोर्ट कुछ दिनों पहले खबरों में आई थी), तो हमें खासा नुकसान हो सकता था। 
  • मगर अब उम्मीद बंधी है कि अगले चुनाव में सेशेल्स के मौजूदा राष्ट्रपति यदि और अधिक प्रभावी तरीके से सत्ता में आते हैं, तो यह समझौता वहाँ की संसद की रजामंदी पा सकता है।

नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता 

  • नौसैनिक अड्डे को लेकर भारत की उत्सुकता और सेशेल्स की झिझक को समझना मुश्किल नहीं है। चीन इसकी एक बड़ी वजह है। उसका प्रभाव हिंद महासागर में लगातार बढ़ रहा है।
  • यहाँ पहले भारत प्रभावी भूमिका में था और चीन दक्षिण चीन सागर में। मगर अब हिंद महासागर में चीन के दखल के बाद क्षेत्र की राजनीतिक व सामरिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। 
  • उसने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा तो बना ही लिया है, ग्वादर (पाकिस्तान) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) बंदरगाहों को भी अपने खाते में डाल लिया है। 
  • इस बदलते घटनाक्रम से नई दिल्ली का चिंतित होना स्वाभाविक है। इस लिहाज से हमारे लिये एजम्पशन आइलैंड उम्मीद की एक बड़ी किरण है। यहाँ यदि नौसैनिक अड्डा बनकर तैयार हो जाता है, तो यह चीन को करारा जवाब देने जैसा होगा। मगर दुर्भाग्य से चीन के दबाव के कारण ही सेशेल्स फिलहाल उलझन में दिख रहा है।

सेशेल्स क्यों झिझक दिखा रहा है?

  • दरअसल, वर्ष 2004 के बाद से सेशेल्स में चीन का निवेश काफी बढ़ गया है। और जिस तरह हिंद महासागर में भारत व चीन के बीच स्पर्द्धा चल रही है, उसमें सेशेल्स, मॉरीशस, मालदीव जैसे आस-पास के तमाम छोटे-बड़े देश व आइलैंड खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं।
  • वे भारत को खुलेआम समर्थन देकर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। एक समस्या यह भी रही है कि कुछ सामरिक विद्वानों ने एजम्पशन आइलैंड के नौसैनिक अड्डे को इस रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था, मानो यह अड्डा भारत का होगा और यहाँ से चीन के जहाजों पर नज़र रखी जाएगी। इस अति-उत्साह ने भी सेशेल्स को अभी आगे बढ़ने से रोका है। 
  • अगर वह यह कहता कि नौसैनिक अड्डा भारत ही बनाएगा, तो भारत-चीन प्रतिस्पर्द्धा में संभवत: वह भी इसका हिस्सा नज़र आता। हालाँकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। अच्छी बात यह है कि सेशेल्स से हमारे रिश्तों में खटास नहीं आई है।

भारत और सेशेल्स के बीच बनी वर्तमान सहमति क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • भारत और सेशेल्स के बीच बनी ताज़ा सहमति हमारे लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संयुक्त नौसैनिक अड्डा हिंद महासागर में हमारी सामरिक ताकत को बढ़ाएगा। यहाँ भारत को घेरने के लिये चीन की विस्तारवादी नीतियाँ अपनी गति से चल रही हैं।
  • उसकी पनडुब्बियाँ कभी-कभी दक्षिण एशियाई सागर में भी आ जाती हैं और हम उन्हें पकड़ नहीं पाते। हालाँकि इसकी वजह तकनीक और साज़ो-सामान के मामले में हमारा चीन से कमतर होना भी है। 
  • अगर सेशेल्स का नौसैनिक अड्डा बनता है और भारत की मौजूदगी वहाँ बढ़ती है, तो इस महासागर में चीन के दखल पर हमारी नज़र बनी रहेगी। 
  • भारत का प्रयास मालदीव और मेडागास्कर जैसे राष्ट्रों से रिश्ता बढ़ाकर भी उसे रोकने का रहा है, जिसमें सफलता नहीं मिल पाई। फिर चीन का इन देशों पर आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव भी अधिक है। इस लिहाज़ से देखें, तो सेशेल्स से समझौता हो पाना ही अपने-आप में बड़ी उपलब्धि है।
  • हिंद महासागर में भारत को चीन से एक और चुनौती ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ के रूप में मिल रही है। इसके तहत महासागरीय क्षेत्र में भी तमाम तरह के निवेश किये जा रहे हैं।
  • इसके प्रत्युत्तर में भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर एक ‘चतुष्कोणीय’ गुट बनाने को तत्पर है। यह एक राजनीतिक समूह तो होगा ही, इंफ़्रास्ट्रक्चर के विकास के लिये भी इसका अस्तित्व काफी मायने रखेगा। 
  • एक संयुक्त क्षेत्रीय ढाँचागत योजना तैयार करने पर चारों देश विचार कर रहे हैं। अगर यह विचार साकार हो जाता है, तो भारत चीन को कई मामलों में चुनौती दे सकेगा।
  • भारत को अपनी उस ‘नेबरहुड पॉलिसी’ (पड़ोसी देशों को खास महत्त्व देने की नीति) को भी नई धार देनी होगी, जिसकी तरफ 2015 में कदम बढ़ाए गए थे। यह न सिर्फ हिंद महासागर क्षेत्र के लिये, बल्कि दक्षिण एशिया के लिहाज़ से भी किया जाना ज़रूरी है। 
  • आज भूटान, नेपाल जैसे हमारे करीबी पड़ोसी देश भी चीन के पाले में जाते दिख रहे हैं। हमें उन्हें समझाना होगा कि चीन या अमेरिका की तुलना में भारत के साथ रिश्तों को मज़बूती देना उनके लिये कहीं ज्यादा फायदेमंद है।
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