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प्रांतीय नागरिकता

  • 30 Sep 2025
  • 71 min read

स्रोत: TH 

चर्चा में क्यों?

“प्रांतीय नागरिकता” की संकल्पना अकादमिक और नीतिगत बहसों में तेजी से उभर रही है, विशेषकर झारखंड, जम्मू और कश्मीर (J&K) और असम जैसे राज्यों में डोमिसाइल नीतियों के संदर्भ में। 

  • इसकी बढ़ती लोकप्रियता यह संकेत देती है कि राजनीति में अधिक बहिष्कारी और देशज (नैटिविस्ट) रुझान बढ़ रहे हैं, जो एक समान, अखिल भारतीय नागरिकता के संवैधानिक आदर्श को चुनौती दे सकते हैं। 

प्रांतीय नागरिकता क्या है? 

  • प्रांतीय नागरिकता: प्रांतीय नागरिकता एक विशिष्ट भारतीय राज्य से संबंधित होने की एक अनौपचारिक, राजनीतिक रूप से निर्मित धारणा है। यह मूलनिवासी राजनीति से उभरती है, जो "मूल निवासी", "स्वदेशी", "स्थानीय" या "भूमिपुत्र" होने के विचार से जुड़ी है। 
    • यह संविधान का हिस्सा नहीं है, लेकिन राजनीति में इसका इस्तेमाल "स्थानीय लोगों" को विशेष अधिकार देने के लिये किया जाता है। यह अनुच्छेद 5-11 के तहत एकल भारतीय नागरिकता की संवैधानिक गारंटी को चुनौती देता है। 
  • प्रांतीय नागरिकता की मांग में वृद्धि के कारण: 
    • आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा: स्थानीय लोगों को डर है कि प्रवासी उनकी नौकरियाँ और संसाधनों तक उनकी पहुँच छीन लेंगे।  प्रांतीय नागरिकता ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत समुदायों को मान्यता प्रदान करती है और बड़े पैमाने पर प्रवासन से उत्पन्न जनसांख्यिकीय दबाव का मुकाबला करती है। 
    • सांस्कृतिक चिंता: प्रवासन से भाषा, परंपरा और सांस्कृतिक एकरूपता को खतरा उत्पन्न होता है। 
      • प्रांतीय नागरिकता का उद्देश्य स्वदेशी समूहों की संस्कृति और भूमि की रक्षा करना है। 
    • राजनीतिक शून्यता: राज्य स्तरीय अधिवास नियमों को विनियमित करने या राज्यों में अधिवास नीतियों में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिये कोई केंद्रीय कानून नहीं है। 
    • न्यायिक एवं नीतिगत सुरक्षा उपाय: 
      • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप  
        • सुनंदा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1995) मामले में न्यायालय ने स्नातकोत्तर चिकित्सा कोर्सेज़ में स्थानीय निवासियों के लिये 100% आरक्षण को रद्द कर दिया था और इस बात पर ज़ोर दिया था कि आरक्षण से योग्यता और दक्षता से समझौता नहीं होना चाहिये।  
        • डॉ. प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि जन्म स्थान या निवास के आधार पर आरक्षण अनुच्छेद 16(2) के तहत प्रथम दृष्टया असंवैधानिक है। 
      • राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) (1955): SRC ने कहा कि अधिवास बहिष्करण राष्ट्रीय एकता को नष्ट करता है।  
        • संवैधानिक ढाँचा नागरिकता को एकीकृत और राष्ट्रीय अवधारणा के रूप में मान्यता देता है, जिसका विनियमन नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत किया गया है। यह ढाँचा मौलिक अधिकारों के माध्यम से नागरिकों को गैर-भेदभाव और देश के भीतर स्वतंत्र गतिशीलता की गारंटी भी प्रदान करता है। 

पहलू  

राष्ट्रीय नागरिकता  

प्रांतीय नागरिकता  

कानूनी स्थिति  

संविधान द्वारा अनुच्छेद 5–11 के तहत परिभाषित 

कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त नहीं; राजनीतिक और सामाजिक संकल्पना 

विधि 

नागरिकता अधिनियम, 1955 

कोई औपचारिक कानून नहीं; राज्य-स्तरीय राजनीतिक प्रथाओं पर आधारित 

विस्तार 

पूरे भारत में समान रूप से लागू 

विशिष्ट राज्यों में लागू 

सुनिश्चित अधिकार  

निवास, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं तक समान अधिकार 

स्थानीय लोगों को प्राथमिकता; आंतरिक प्रवासियों की पहुँच सीमित कर सकता है 

संवैधानिक समर्थन  

मूलभूत अधिकारों द्वारा समर्थित (अनु. 14, 15, 16, 19) 

अक्सर मूलभूत अधिकारों के विपरीत 

पहचान का आधार  

भारतीय राष्ट्रीयता 

राज्य-स्तरीय पहचान (जैसे स्थानीय, देशज, "son of the soil") 

फेडरलिज्म पर प्रभाव  

समान नागरिकता के माध्यम से एकता को मजबूत करता है 

राज्य की स्वायत्तता बढ़ाता है, लेकिन केंद्र-राज्य संतुलन में तनाव उत्पन्न करता है 

नागरिकता

भारत में प्रांतीय नागरिकता से जुड़ी चिंताएँ क्या हैं? 

  • नागरिकता का विखंडन: यह स्तरीकृत पहचान बनाकर एक समान भारतीय नागरिकता के विचार को कमज़ोर करता है। 
  • संवैधानिक तनाव: 1955 की राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) की रिपोर्ट के अनुसार, निवास-आधारित नियम रोज़गार, शिक्षा और कल्याण योजनाओं तक पहुँच को सीमित करते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर), और अनुच्छेद 19 (आवागमन और निवास की स्वतंत्रता) के साथ विरोधाभासी हैं। 
  • प्रवासियों का बहिष्कार: आंतरिक प्रवासियों को मेजबान राज्यों में नौकरियों, आवास, शिक्षा और कल्याण तक पहुँचने के लिये संघर्ष करना पड़ता है। 
  • मूलनिवासी राजनीति का उदय: "भूमिपुत्रों" के आंदोलनों, बाहरी शत्रुता और क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करता है। 
  • न्यायालयों को निवास (डोमिसाइल) और आरक्षण नीतियों से जुड़ी भारी मात्रा में मुकदमों का सामना करना पड़ता है, जिससे पहले से ही बोझिल न्यायपालिका पर और अधिक भार का सामना करना पड़ता है। 
  • आर्थिक मंदी: प्रवासी श्रमिकों पर प्रतिबंध लगाने से कार्यबल की गतिशीलता कम हो जाती है, जिससे उत्पादकता और शहरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

राज्य की स्वायत्तता और राष्ट्रीय नागरिकता के बीच संतुलन बनाने हेतु किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • अधिवास पर संसदीय विधान: SRC 1955 ने सिफारिश की थी कि अधिवास नियमों को उचित संसदीय विधान द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये। इससे यह सुनिश्चित होता है कि राज्य मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण न करना या राष्ट्रीय नागरिकता के मूल अधिकारों को सीमित न करना। 
  • प्रवासी सुरक्षा को मज़बूत करना: कल्याणकारी लाभों की पोर्टेबिलिटी (स्थानांतरणीयता) को केवल खाद्य सामग्री (वन नेशन वन राशन कार्ड) तक सीमित न रखते हुए उसे स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आवास और रोज़गार तक विस्तार दिया जाए। 
    • ई-श्रम पोर्टल जैसी पहलों के माध्यम से यह सुनिश्चित करना कि आंतरिक प्रवासियों को उनके निवास राज्य की परवाह किये बिना समान अधिकार प्राप्त हों, जो असंगठित श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा को सक्षम बनाता है। 
  • संतुलित संघवाद: राज्यों को निवास-आधारित लाभों के लिये सीमित अधिकार दिये जाएँ, लेकिन यह सुनिश्चित किया जाए कि वे संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 19 के तहत प्रदत्त मूल अधिकारों से नागरिकों को वंचित न करें। 
  • चुनाव आयोग की निगरानी: विदेशी-विरोधी राजनीति को रोकने के लिये "भूमिपुत्रों" के चुनावी अभियानों को विनियमित करना। पार्टी मान्यता तथा वित्तपोषण नियमों में समावेशी सुरक्षा उपायों को शामिल करें। 
  • जन जागरूकता एवं समावेशन: शहरी अर्थव्यवस्थाओं में प्रवासियों के योगदान को उजागर करने वाले अभियान शुरू करना। विदेशी-द्वेष का मुकाबला करना और सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

प्रांतीय नागरिकता स्थानीय असुरक्षाओं को तो पूरा कर सकती है, लेकिन भारत की एकता, समानता और बंधुत्व को खंडित करने का जोखिम उठाती है। संविधान तथा सतत् विकास लक्ष्य 10 (असमानताओं में कमी) के मार्गदर्शन में, भारत को एक राष्ट्र, एक नागरिकता के सिद्धांत की पुनः पुष्टि करनी चाहिये, विविधता की रक्षा करते हुए सभी नागरिकों के लिये समावेशिता सुनिश्चित करनी चाहिये, चाहे वे कहीं से भी आते हों। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. भारत में प्रांतीय नागरिकता की अवधारणा का मूल्यांकन कीजिये और संविधान के तहत राष्ट्रीय एकता तथा समानता के लिये इसके निहितार्थों पर चर्चा कीजिये। 

 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों (FAQs) 

1. प्रांतीय नागरिकता क्या है? 

उत्तर: यह एक विशिष्ट भारतीय राज्य से संबंधित होने की एक अनौपचारिक, राजनीतिक रूप से निर्मित धारणा है। यह मूलनिवासी राजनीति से उपजी है, जो "मूल निवासी", "स्वदेशी", "स्थानीय" या "भूमिपुत्र" होने के विचार से जुड़ी है। 

2. भारत में प्रांतीय नागरिकता राष्ट्रीय नागरिकता से किस प्रकार भिन्न है? 

उत्तर: राष्ट्रीय नागरिकता को संविधान द्वारा अनुच्छेद 5-11 के तहत पूरे भारत में समान अधिकारों के साथ गारंटी दी गई है, जबकि प्रांतीय नागरिकता एक अनौपचारिक, अधिवास-आधारित संरचना है जो राज्यों के भीतर स्थानीय लोगों को विशेषाधिकार प्रदान करती है। 

3. अधिवास-आधारित नीतियों से कौन से संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होता है? 

उत्तर: अधिवास नियम अक्सर अनुच्छेद 14, 15, 16 और 19 के साथ संघर्ष करते हैं, जो समानता, गैर-भेदभाव, समान रोजगार के अवसर और आवागमन की स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं। 

4. राज्य तेज़ी से प्रांतीय नागरिकता नीतियों को क्यों अपना रहे हैं? 

उत्तर: नौकरियों के लिये आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा, प्रवासन को लेकर सांस्कृतिक चिंताएँ तथा निवास स्थान पर केंद्रीय कानून की कमी के कारण, राज्य इसे मूलनिवासी और चुनावी राजनीति हेतु एक उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs) 

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021) 

  1. भारत में केवल एक ही नागरिकता और एक ही अधिवास है।   
  2. जो व्यक्ति जन्म से नागरिक हो, केवल वही राष्ट्राध्यक्ष बन सकता है।  
  3. जिस विदेशी को एक बार नागरिकता दे दी गई है, किसी भी परिस्थिति में उसे इससे वंचित नहीं किया जा सकता। 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 

(b) केवल 2 

(c) 1 और 3 

(d) 2 और 3

उत्तर: (a)

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