भारतीय राजव्यवस्था
जन्म स्थान के आधार पर आरक्षण
- 19 Aug 2020
- 7 min read
प्रिलिम्स के लिये:अनुच्छेद-16, डी. पी. जोशी बनाम मध्य भारत मामला, 1955 मेन्स के लिये:जन्म स्थान के आधार पर आरक्षण प्रदान करने का आलोचनात्मक परीक्षण |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि सरकारी नौकरियाँ राज्य के "बच्चों" के लिये आरक्षित होंगी और इसके लिये कानूनी प्रावधान तैयार किये जाएंगे।
प्रमुख बिंदु
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जन्म स्थान के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के विरुद्ध तर्क:.
- भारत के संविधान में अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता को संदर्भित करता है।
- अनुच्छेद 16(1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी।
- अनुच्छेद 16 (2) के अनुसार, राज्य के अधीन किसी भी पद के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा।
- अधिवास और निवास के आधार पर आरक्षण का अर्थ भेदभाव होगा क्योंकि मात्र न्यूनतम प्रस्थान भी एक मेधावी उम्मीदवार को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित करता है।
- इस तरह की संकीर्णता क्षेत्रीयता को प्रोत्साहित करती है और राष्ट्र की एकता के लिये खतरा है।
- भारत के संविधान में अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता को संदर्भित करता है।
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जन्म स्थान के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के पक्ष में तर्क:
- अनुच्छेद 16(3), निवास (न कि जन्म स्थान) के आधार पर सरकारी नियुक्तियों में प्रावधान करने की अनुमति देता है।
- प्रायः कुछ राज्य स्थानीय लोगों के लिये सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने के लिये कानून में मौजूद खामियों का उपयोग करते रहते हैं। इसके लिये वे भाषा या एक निश्चित अवधि के लिये राज्य में निवास/अध्ययन का प्रमाण जैसे मानदंडों का इस्तेमाल करते हैं।
- महाराष्ट्र में केवल मराठी भाषा में निपुण 15 वर्षों से राज्य में रहने वाले लोगों को पात्र माना जाता हैं।
- जम्मू और कश्मीर में भी सरकारी नौकरियाँ केवल "अधिवासियों" के लिये आरक्षित है।
- पश्चिम बंगाल में कुछ पदों पर भर्ती के लिये बंगाली में पढ़ना और लिखना आना एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है।
- वर्ष 2019 में कर्नाटक सरकार ने राज्य में लिपिकों और कारखाने की नौकरियों में निजी नियोक्ताओं को कन्नड़ लोगों को "प्राथमिकता" देने के लिये एक अधिसूचना जारी की।
- इस संदर्भ में अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि राज्य के निवासियों को अधिमान्य उपचार देने से राज्य के संसाधनों के सही आवंटन में मदद मिलेगी और लोगों को अपने राज्य की सीमाओं के भीतर काम करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
- इससे पिछड़े राज्यों से महानगरों में लोगों के प्रवास को रोकने के तरीके के रूप में भी देखा जाता है, जिससे ऐसे शहरों पर बोझ कम हो जाता है।
- अनुच्छेद 16(3), निवास (न कि जन्म स्थान) के आधार पर सरकारी नियुक्तियों में प्रावधान करने की अनुमति देता है।
अधिवास स्थिति और जन्म स्थान के बीच का अंतर
- डी.पी. जोशी बनाम मध्य भारत मामले (1955) में सर्वोच्च न्यायालय (SC) के निर्णयानुसार, अधिवास या निवास स्थान एक प्रवाही अवधारणा है अर्थात् जन्म स्थान के विपरीत यह समय-समय पर बदल सकती है, परंतु जन्म स्थान निश्चित होता है।
- अधिवास का अर्थ है किसी व्यक्ति का स्थायी निवास।
- जन्म स्थान उन आधारों में से एक है जिस पर अधिवास का दर्जा दिया जाता है।
SC का निर्णय:
- वर्ष 2019 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा जारी एक भर्ती अधिसूचना पर रोक लगा दी थी, जिसमें उन महिलाओं के लिये वरीयता निर्धारित की गई थी जो राज्य की "मूल निवासी" थी।
- कैलाश चंद शर्मा बनाम राजस्थान राज्य मामले, 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘निवास’ चाहे राज्य, ज़िले या किसी अन्य क्षेत्र में हो, अधिमान्य आरक्षण या उपचार का आधार नहीं हो सकता।
- संविधान विशेष रूप से जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है, सर्वोच्च न्यायालय ने डीपी जोशी बनाम मध्य भारत मामले (1955) में अधिवास आरक्षण को, विशेष रूप से शैक्षणिक संस्थानों में, संवैधानिक माना है।
आगे की राह
- राज्य में जन्म लेने वाले उम्मीदवारों को आरक्षण देने का कदम संवैधानिक समानता और बंधुत्त्व की भावना के विरुद्ध है। जैसाकि हमेशा देखा गया है इस तरह के राजनीतिक रूप से प्रेरित निर्णय को न्यायपालिका द्वारा पलट दिया जाता है, अतीत में भी कई बार ऐसा हुआ है। संभवतः इस बार भी ऐसा ही हो।
- इसके अलावा सरकार गारंटी के रूप में रोज़गार प्रदान करने वाली कोई एजेंसी नहीं है, बल्कि एक प्राधिकरण है जो अपनी नीतियों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जो आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करता है। इस प्रकार के निर्णय लेते समय सरकार को संविधान की मूल भावना को ध्यान में रखना चाहिये।