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भारतीय इतिहास

महाराजा सूरजमल

  • 14 Feb 2022
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

महाराजा सूरजमल, पानीपत की तीसरी लड़ाई।

मेन्स के लिये:

महाराजा सूरजमल, महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्वों की भूमिका, महाराजा सूरजमल का योगदान।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने महाराजा सूरजमल को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि दी।

महाराजा सूरजमल:

  • उन्होंने 18वीं शताब्दी में शासन किया तथा वह जाट सरदार बदन सिंह के पुत्र थे।
  • वह एक महान नेता, महान सेनानी, महान राजनयिक और अपने समय के एक महान राजनेता थे।
  • उनकी राजनीतिक समझ, स्थिर बुद्धि और स्पष्ट दृष्टिकोण के कारण उन्हें "जाट लोगों का प्लेटो" तथा एक आधुनिक लेखक द्वारा "जाट ओडीसियस" के रूप में वर्णित किया गया था।
  • उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के विभिन्न गुटों को एकजुट किया तथा उनमें एकता स्थापित की।
  • उन्होंने अन्य धर्मों के राजाओं द्वारा बनाए गए ऐतिहासिक स्मारकों की देखभाल की और लोगों को योग्यता के अनुसार उच्च पदों पर नियुक्त किया, चाहे उनकी जाति कुछ भी हो।
  • उनका मानना था कि मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है।
  • उन्होंने "एक राष्ट्र के रूप में भारत" की कल्पना की और राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
  • महाराजा सूरजमल किसानों को समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ग मानते थे और उनका बहुत सम्मान करते थे।
    • उन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसानों की समस्याओं को सुना और उसमाधान के लिये सुधारों की शुरुआत की।
  • उनके नाम पर स्थापित कुछ संस्थानों में महाराजा सूरजमल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और महाराजा सूरजमल ब्रिज़ यूनिवर्सिटी, भरतपुर शामिल हैं।
  • ऐसा माना जाता है कि वर्ष 1763 के दिसंबर माह में हिंडन नदी के किनारे मुगल प्रमुख नजीब-अद-दौला (Najib ad-Dawlah) की सेना द्वारा घात लगाकर किये गए युद्ध में महाराजा की मृत्यु हो गई थी।

महाराजा सूरजमल की सैन्य यात्रा: 

  • जयपुर रियासत के महाराजा जय सिंह से उनके अच्छे संबंध थे। 
    • जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ईश्वरी सिंह और माधो सिंह के मध्य रियासत के उत्तराधिकारी के लिये लड़ाई शुरू हो गई।
  • सूरजमल बड़े बेटे ईश्वरी सिंह को रियासत का अगला वारिस बनाना चाहते थे, जबकि उदयपुर राज्य के महाराणा जगत सिंह छोटे बेटे माधो सिंह को राजा बनाने के पक्ष में थे।
  • इस बात पर सिंहासन के लिये लड़ाई शुरू हो गई। मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई परंतु यह संघर्ष पूरी तरह यहीं खत्म नहीं हुआ। 
  • माधो सिंह मराठों, राठौरों और उदयपुर के सिसोदिया शासकों के साथ पुनः युद्ध के मैदान में आ डटे। ऐसे में ईश्वरी सिंह का समर्थन करने के लिये राजा सूरजमल 10,000 सैनिकों के साथ युद्ध के मैदान में पहुँच गए।
  • इस युद्ध में ईश्वरी सिंह की विजय हुई और उन्हें जयपुर का शाही ‘पाठ’ प्राप्त हुआ। इस युद्ध के बाद पूरे भारत में महाराजा सूरजमल का डंका बजने लगा।
  • बाद में 1 जनवरी, 1750 को महाराजा सूरजमल ने सलाबत खान की मुगल सेना को हराया और अपनी सभी शर्तों को स्वीकार करने के लिये मजबूर कर दिया।
  • बाद में गृहयुद्ध के दौरान सफदर जंग के समर्थन में महाराजा सूरजमल ने पुरानी दिल्ली को लूट लिया।
  • वर्ष 1753 तक महाराजा सूरजमल ने अपने अधिकार क्षेत्र को दिल्ली और फिरोजशाह कोटला तक बढ़ा दिया था। इससे नाराज़ होकर दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने सूरजमल के खिलाफ मराठा सरदारों को उकसाया।
  • मराठों ने भरतपुर पर आक्रमण कर दिया। 
    • इस हमले में मराठा भरतपुर पर कब्ज़ा नहीं कर सके, लेकिन उन्हें इस हमले की कीमत मराठा सरदार मल्हारराव के पुत्र खांडेराव होल्कर की मृत्यु के रूप में चुकानी पड़ी। कुछ समय बाद मराठों ने सूरजमल के साथ संधि कर ली।
  • महाराजा सूरजमल ने अभेद्य लोहागढ़ किला बनवाया था, जिसे अंग्रेज़ 13 बार आक्रमण करने के बाद भी भेद नहीं पाए थे।
    • यह देश का एकमात्र ऐसा किला है, जो हमेशा अभेद्य रहा है।

महाराजा सूरजमल और पानीपत की तीसरी लड़ाई:

  • पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में मराठों और अफगान जनरल अहमद शाह अब्दाली की सेनाओं के बीच लड़ी गई थी।
  • दिल्ली से लगभग 90 किलोमीटर उत्तर में लड़ी गई इस लड़ाई में अफगानों ने जीत हासिल की और मराठों के लगभग 40,000 सैनिक मारे गए।
    • महाराजा सूरजमल ने इस युद्ध में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
  • युद्ध के बाद मराठों ने उत्तर भारत में अपनी प्रमुख स्थिति खो दी, जिसने अंततः ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्तियों के सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त किया।

स्रोत: पी.आई.बी.

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