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शासन व्यवस्था

लोकायुक्त पद की प्रासंगिकता पर प्रश्न

  • 07 Oct 2020
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

लोकपाल और लोकायुक्त, दंड प्रक्रिया संहिता 

मेन्स के लिये:

भारतीय लोकतंत्र में लोकायुक्त की भूमिका, लोकपाल और लोकायुक्त की शक्तियों में सुधार की आवश्यकता 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा गोवा के लोकायुक्त  पद से सेवानिवृत्त हुए तथा उन्होंने इस मौके पर लोकायुक्त की शक्तियों और उसके आदेशों के प्रति राज्य सरकार के व्यवहार के संदर्भ में कई गंभीर प्रश्न उठाए हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि गोवा राज्य के लोकायुक्त के रूप में जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा के कार्यकाल के दौरान उनके द्वारा सार्वजनिक पदाधिकारियों के खिलाफ प्रस्तुत 21 रिपोर्टों में से राज्य सरकार ने किसी पर भी कार्रवाई नहीं की।
  • जस्टिस मिश्रा ने लोकायुक्त के पास वास्तविक शक्तियों की भारी कमी को रेखांकित किया है। 

गोवा लोकायुक्त अधिनियम, 2011:

  • लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के लागू होने से पहले ही कई राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की जा चुकी थी।
  • गोवा लोकायुक्त अधिनियम को वर्ष 2003 में केंद्र सरकार के पास भेजा गया था और इसे वर्ष 2011 में राज्य विधानसभा से पारित किया गया (दोबारा प्रस्तुत किये जाने के बाद)। 
  • गोवा राज्य में लागू लोकायुक्त अधिनियम केरल और कर्नाटक के अधिनियम पर आधारित है, हालाँकि इसमें लोकायुक्त की शक्तियों में कमी की गई है। 
  • गोवा लोकायुक्त अधिनियम, 2011 के तहत लोकायुक्त किसी सार्वजनिक पदाधिकारी के खिलाफ प्राप्त शिकायत (इस अधिनियम की धारा-11 के तहत) के आधार पर या मामले का स्वयं संज्ञान लेते हुए उसके खिलाफ जांच प्रारंभ कर सकता है। 

विवाद का कारण:

  • 18 मार्च, 2016 से 16 सितंबर, 2020 तक के अपने कार्यकाल के दौरान लोकायुक्त को 191 शिकायतें प्राप्त हुईं, जिनमें से 133 का निस्तारण किया गया।
  • वर्तमान में लंबित 58 मामलों में से 21 में लोकायुक्त ने राज्य सरकार के पास रिपोर्ट भेजी थी, परंतु राज्य सरकार द्वारा इन मामलों में कार्रवाई के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं दी गई। 
  • अपने कार्यकाल के दौरान लोकायुक्त ने जिन सार्वजनिक पदाधिकारियों के खिलाफ रिपोर्ट प्रस्तुत की थी उनमें एक पूर्व मुख्यमंत्री और एक मौजूदा विधायक भी शामिल है।
  • गोवा के वर्तमान मुख्यमंत्री ने लोकायुक्त द्वारा एक पूर्व मुख्यमंत्री और दो अन्य अधिकारियों के खिलाफ दी गई रिपोर्ट को मात्र सलाहकारी बताते हुए खारिज कर दिया था। 
  • गौरतलब है कि गोवा लोकायुक्त अधिनियम, 2011 की धारा-16 (3) के तहत किसी मामले की कार्रवाई से संतुष्ट न होने पर लोकायुक्त को राज्यपाल के पास विशेष रिपोर्ट प्रस्तुत करने अधिकार है।
  • इसके साथ ही इस अधिनियम की धारा-17 के अनुसार, यदि किसी मामले में जाँच के बाद लोकायुक्त को लगता है कि सार्वजनिक पदाधिकारी ने कोई दंडनीय अपराध किया है और इसके लिये उस पर न्यायालय में मुकदमा चलाया जाना चाहिये तो वह इस संदर्भ में एक आदेश जारी कर सकता है, जिसके बाद उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा आरोपी सार्वजनिक पदाधिकारी के खिलाफ अभियोजन की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिये। 

चुनौतियाँ: 

  • लोकायुक्त की शक्तियों में कमी:
    • गोवा राज्य में लागू लोकायुक्त अधिनियम के तहत लोकायुक्त की शक्तियों को कई मामलों में सीमित रखा गया है। 
      • उदाहरण के लिये केरल और कर्नाटक के लोकायुक्त अधिनियम में लोकायुक्त को अभियोग चलाने की शक्ति प्राप्त है परंतु गोवा में इसे बदल दिया गया है। इसी प्रकार लोकायुक्त को अपने आदेशों की अवमानना ​​करने पर किसी को दंडित करने की शक्ति नहीं दी गई है। 
  • जाँच अधिकारियों की लापरवाही: 

    • लोकायुक्त के पास आए अधिकांश मामलों में पाया गया कि अधिकारी पीड़ित की शिकायत पर प्राथमिकी (FIR) न दर्ज करते हुए प्रारंभिक जाँच को रोक देते हैं।
      • गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने ‘ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2013)’ मामले में फैसला देते हुए स्पष्ट रूप से कहा था कि यदि कोई व्यक्ति पुलिस स्टेशन आकर किसी ‘संज्ञेय अपराध’ (Cognizable Offence) की शिकायत करता है तो ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी ‘दंड प्रक्रिया संहिता’ (Criminal Procedure Code- CrPC) की धारा-154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करने के लिये बाध्य होता है।
  •  योग्य कर्मचारियों की कमी: 
    • लोकपाल कार्यालय में एक जाँच शाखा होती है जहाँ कुछ योग्य पुलिस अधिकारियों की तैनाती की जाती है परंतु गोवा लोकपाल कार्यालय की जाँच शाखा में केवल दो कांस्टेबल और दो हेड कांस्टेबल की तैनाती की गई थी। ऐसे में किसी गंभीर मामले की जाँच करना लोकपाल के लिये एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया था। 

लोकपाल और लोकायुक्त: 

  • प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (वर्ष1966-70) ने दो प्राधिकारियों लोकपाल और लोकायुक्त की सिफारिश की थी। 
  • ‘लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ ने संघ (केंद्र) के लिये लोकपाल और राज्यों के लिये लोकायुक्त संस्था की व्यवस्था की। 
    • लोकपाल तथा लोकायुक्त विधेयक, 2013 के संसद से पारित होने के बाद 1 जनवरी, 2014 को भारत के राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर किये और इसे अधिनियम के रूप में 16 जनवरी, 2014 को लागू कर दिया गया।  
  • भारत में लोकपाल और लोकायुक्त का पद स्कैंडनेवियन देशों के ‘ऑफिस ऑफ ओम्बुड्समैन’ (Office of Ombudsman) और न्यूज़ीलैंड के ‘पार्लियामेंट्री कमीशन ऑफ इन्वेस्टीगेशन’ (Parliamentary Commission of Investigation) पर आधारित है। 
  • ये संस्थाएँ बिना किसी संवैधानिक दर्जे वाले वैधानिक निकाय हैं।
  • देश में लोकायुक्त का गठन सबसे पहले वर्ष 1971 में महाराष्ट्र में किया गया, गौरतलब है कि ओडिशा राज्य में वर्ष 1970 में ही लोकायुक्त की नियुक्ति से संबंधित एक विधेयक पारित किया गया था परंतु इसे वर्ष 1983 में पूर्णरूप से लागू किया गया। 

शक्तियाँ और कार्य:

  • लोकपाल और लोकायुक्त सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करते हैं, इसकी परिधि में मंत्री, संसद सदस्य, समूह ए, बी, सी और डी अधिकारी तथा केंद्र सरकार के अधिकारी आदि को शामिल किया गया है।
  • भारतीय प्रधानमंत्री को भी लोकपाल की परिधि में रखा गया है हालाँकि कई विषयों में वह लोकपाल से परे है।
  • हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में मुख्यमंत्री को लोकायुक्त की परिधि में रखा गया है, जबकि महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा ओडिशा में मुख्यमंत्री लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं।
  • लोकायुक्त जाँच करने के लिये जाँच एजेंसियों की सहायता लेता है और वह राज्य विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है।

कमियाँ:

  • लोकायुक्त की सिफारिशें केवल सलाहकारी होती हैं, वे राज्य सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं होती हैं।
  • अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त किसी अनुचित प्रशासनिक कार्रवाई के खिलाफ नागरिकों द्वारा की गई शिकायत के आधार पर या स्वयं जाँच प्रारंभ कर सकता है परंतु असम, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में वह स्वयं जाँच की पहल नहीं कर सकता। 

सुझाव: 

  • अभियोजन की शक्ति: जस्टिस मिश्रा ने लोकायुक्त को अभियोजन की शक्ति देने का समर्थन किया है। वर्तमान में गोवा लोकायुक्त अधिनियम की धारा-17 के तहत लोकायुक्त को अभियोजन के लिये आदेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। जस्टिस मिश्रा के अनुसार, यह आदेश मात्र सलाहकारी नहीं है, अतः इस संदर्भ में अस्पष्टता को दूर किया जाना चाहिये। 
  • लोकायुक कार्यालय की जाँच संबंधी शाखा में योग्य जाँच अधिकारियों की नियुक्ति की जानी चाहिये। 
  • लोकायुक्त के आदेशों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिये लोकायुक्त को अपने आदेशों की अवमानना ​​करने पर संबंधित व्यक्ति/अधिकारी को दंडित करने की शक्ति देने पर विचार किया जाना चाहिये। 

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

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