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महिलाओं की न्यूनतम विवाह आयु 21 वर्ष करने हेतु विधेयक

  • 06 Sep 2024
  • 21 min read

प्रिलिम्स के लिये:

राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति, विवाह योग्य न्यूनतम आयु, भारत के संविधान की 7वीं अनुसूची, अनुच्छेद 200, अनुच्छेद 254, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, ओडिशा का बाल विवाह मुक्त गाँव

मेन्स के लिये:

महिलाओं के लिये विवाह योग्य आयु को बढ़ाना, बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों ? 

हाल ही में हिमाचल प्रदेश (HP) विधानसभा ने बाल विवाह प्रतिषेध (हिमाचल प्रदेश संशोधन) विधेयक, 2024 पारित किया, जिसका उद्देश्य महिलाओं के लिये न्यूनतम विवाह योग्य आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष करना है।

महिलाओं की न्यूनतम विवाह आयु पर HP के विधेयक में क्या शामिल है?

  • 'बच्चे' की पुनर्परिभाषा: वर्ष 2006 के अधिनियम की धारा 2(a) में ‘बच्चे’ को 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष या 18 वर्ष से कम आयु की महिला के रूप में परिभाषित किया गया है। 
    • विधेयक में इस लिंग-आधारित भेद को हटाया गया है और लिंग की परवाह किये बिना 21 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को ‘बच्चे’ के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • याचिका अवधि का विस्तार: विधेयक विवाह को रद्द करने (विवाह को अमान्य और कानूनी रूप से शून्य घोषित करने) के लिये याचिका दायर करने की समय अवधि भी बढ़ाता है। 
    • वर्ष 2006 के अधिनियम की धारा 3 के तहत विवाह के समय नाबालिग रहा कोई भी व्यक्ति वयस्क होने के दो वर्ष के भीतर (महिलाओं के लिये 20 वर्ष और पुरुषों के लिये 23 वर्ष की आयु से पहले) विवाह निरस्तीकरण के लिये आवेदन कर सकता है। 
    • विधेयक में इस अवधि को बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है, जिससे महिलाओं और पुरुषों दोनों को 21 वर्ष की नई व न्यूनतम विवाह योग्य आयु के अनुसार 23 वर्ष की आयु से पहले याचिका दायर करने की अनुमति है।
  • अन्य कानूनों पर वरीयता: एक नया प्रावधान, धारा 18A, यह सुनिश्चित करता है कि विधेयक के प्रावधान मौजूदा कानूनों और सांस्कृतिक प्रथाओं पर वरीयता प्राप्त करें, जिससे हिमाचल प्रदेश में एक समान न्यूनतम विवाह योग्य आयु स्थापित हो।

राष्ट्रपति की स्वीकृति क्यों आवश्यक है?

  • राज्यपाल के विकल्प: संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत जब कोई विधेयक किसी राज्य की विधान सभा द्वारा पारित कर दिया गया है या विधान परिषद वाले राज्य के मामले में राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है, तो इसे राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। राज्यपाल विधेयक पर सहमति दे भी सकता है और नहीं भी या विधेयक को पुनर्विचार के लिये वापस कर सकता है या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रख सकता है।
    • यदि राज्यपाल को लगता है कि यह विधेयक उच्च न्यायालय के अधिकार को कमज़ोर करता है या केंद्रीय कानूनों में हस्तक्षेप करता है, तो वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखता है।
  • केंद्रीय कानून के साथ असंगति: हिमाचल प्रदेश विधेयक महिलाओं के लिये एक अलग विवाह योग्य न्यूनतम आयु का प्रस्ताव करता है, जो संभवतः केंद्रीय PCMA, 2006 के साथ असंगत है।
  • संवैधानिक विचार: भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार विवाह और तलाक इस समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 के अंतर्गत आते हैं, जो केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों को बाल विवाह को विनियमित करने की अनुमति देता है।
    • हालाँकि यदि कोई राज्य कानून किसी केंद्रीय कानून के साथ असंगत है, तो इसे तब तक ‘अमान्य’ माना जा सकता है जब तक कि इसे राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो जाए।
    • संविधान का अनुच्छेद 254 विरोध के सिद्धांत को स्थापित करता है, जो केंद्रीय और राज्य कानूनों के बीच असंगतता से निपटता है।
      • संसद के पास संघ सूची के विषयों पर और राज्य विधायिका के पास राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्तियाँ हैं तथा समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों के पास कानून बनाने की शक्तियाँ हैं।
      • जब दो कानून परस्पर असंगत होते हैं, तो विरोध उत्पन्न होता है और यदि समवर्ती सूची के किसी विषय पर राज्य का कानून केंद्रीय कानून के विरुद्ध है, तो केंद्रीय कानून लागू होता है तथा राज्य का कानून असंगतता की सीमा तक अमान्य होता है।
        • यदि राज्य का कानून राष्ट्रपति के लिये आरक्षित है और उसे स्वीकृति मिल जाती है, तो वह राज्य के भीतर प्रभावी हो सकता है और उस राज्य में केंद्रीय कानून के प्रावधानों को दरकिनार कर सकता है।

हिमाचल प्रदेश की महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु विधेयक के बारे में क्या चिंताएँ हैं?

  • कानूनी अस्पष्टताएँ: प्रस्तावित कानूनी ढाँचा असंगतियाँ उत्पन्न कर सकता है, जैसे कि 18 वर्ष की आयु से सहमति से यौन संबंध बनाने की अनुमति देना लेकिन 21 वर्ष की आयु तक विवाह को प्रतिबंधित करना। 
    • यह विसंगति नए मुद्दों को उत्पन्न कर सकती है, जैसे कि प्रजनन अधिकारों और कानूनी स्थिति से संबंधित जटिलताएँ। 
    • किशोर न्याय देखभाल और संरक्षण तथा एकीकृत बाल संरक्षण योजना केवल 18 वर्ष की आयु तक सहायता प्रदान करती है, जिससे 19-21 वर्ष की आयु के बाल वधु/वरों को सहायता देने के लिये कोई स्थान नहीं बचता। 
    • आलोचकों ने चिंता जताई है कि यह 21 वर्ष की आयु से पूर्व विवाह करने वाली महिलाओं के लिये कानूनी सुरक्षा को भी सीमित कर सकता है तथा संभावित रूप से प्रभावित समुदायों पर पुलिस की निगरानी बढ़ाई जा सकती है।
  • कार्यकर्ताओं का विरोध: बाल और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का तर्क है कि विवाह की आयु बढ़ाने से अनजाने में माता-पिता का नियंत्रण मज़बूत हो सकता है और युवा वयस्कों की स्वायत्तता में बाधा आ सकती है। 
    • उनके अनुसार वर्तमान कानून का कभी-कभी उन लड़कियों को दंडित करने के लिये दुरुपयोग किया जाता है जो अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध जीवन साथी चुनती हैं।

विवाह के लिये न्यूनतम आयु क्यों निर्धारित की गई है?

  • बाल विवाह को रोकने: विवाह की न्यूनतम आयु नाबालिगों के साथ दुर्व्यवहार को रोकने और बाल विवाह को गैरकानूनी बनाने के लिये निर्धारित की गई है।
  • कानूनी मानक:
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष और लड़के की 21 वर्ष निर्धारित करता है।
    • इस्लामिक कानून: प्यूबर्टी प्राप्त कर चुके नाबालिग के विवाह को वैध मानता है।
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA), 2006: लड़की के लिये 18 वर्ष और लड़के के लिये 21 वर्ष की आयु निर्धारित करता है। PCMA 2006 भी इस आयु से कम में होने वाले विवाह को केवल तभी "अमान्य" (हाँलाकि कुछ कानूनी, लेकिन जिसे बाद में अनुबंध के एक पक्ष द्वारा रद्द किया जान सकता है) मानता है जब उस पर विवाद हो।
  • वैकल्पिक सिफारिशें: वर्ष 2008 की विधि आयोग की रिपोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्ष 2018 के प्रस्ताव ने लड़के एवं लड़की दोनों के लिये 18 वर्ष की एक समान विवाह आयु निर्धारित करने की सिफारिश की, जिसके बारे में कुछ लोगों का तर्क है कि यह अधिक न्यायसंगत समाधान हो सकता है। 
    • महिलाओं के खिलाफ भेदभाव उन्मूलन समिति सहित विभिन्न संयुक्त राष्ट्र निकाय लड़के एवं लड़की दोनों के लिये न्यूनतम विवाह आयु 18 वर्ष करने का समर्थन करते हैं, क्योंकि उन्हें विवाह की महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों को संभालने से पहले पूर्ण परिपक्वता तथा कार्य करने की क्षमता प्राप्त करनी चाहिये।

विवाह आयु कानून का विकास

बाल विवाह का अस्तित्त्व भारतीय समाज में उपनिवेशवाद से भी पहले से है। वर्ष 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम ने लड़कियों के लिये आयु सीमा 14 वर्ष और लड़कों के लिये 18 वर्ष निर्धारित की, लेकिन कम आयु सीमा के कारण यह अप्रभावी था।

  • इस अधिनियम में वर्ष 1978 में संशोधन करके लड़कियों के लिये आयु सीमा 18 वर्ष और लड़कों के लिये 21 वर्ष कर दी गई, लेकिन फिर भी इससे बाल विवाह में कमी नहीं आई।
  • वर्ष 2006 के PCMA का उद्देश्य समाज से बाल विवाह को पूरी तरह से खत्म करना है। यह अधिनियम बाल विवाह को अवैध बनाता है, पीड़ितों के अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करता है और ऐसे विवाहों में सहायता करने, उन्हें बढ़ावा देने या उन्हें संपन्न कराने वालों के लिये दंड को कठोर करता है।
  • बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक, 2021 दिसंबर 2021 में लोकसभा में पेश किया गया और एक स्थायी समिति को भेजा गया।
    • हालांकि 17वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक अब समाप्त हो गया है। विधेयक का उद्देश्य लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु को 21 वर्ष करना तथा किसी भी अन्य कानून, प्रथा को निरस्त करना था।

सरकार विवाह की आयु पर पुनः विचार क्यों कर रही है?

  • लिंग तटस्थता: विवाह की आयु की फिर से विचार करने का एक मुख्य कारण लिंग समानता सुनिश्चित करना है। लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष करने के पीछे सरकार का उद्देश्य इसे पुरुषों के लिये मौजूदा आयु आवश्यकता के अनुरूप बनाना है, जिससे समानता को बढ़ावा मिले।
  • स्वास्थ्य प्रभाव: कम उम्र में गर्भधारण जैसे मुद्दों का समाधान करना, जो पोषण स्तर, मातृ एवं शिशु मृत्यु दर (MMR एवं IMR) और समग्र स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
  • शैक्षिक और आर्थिक प्रभाव: कम उम्र में विवाह के कारण शिक्षा और आजीविका की संभावनाओं में होने वाली गिरावट को कम करना।
    • महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा विवाह की आयु बढ़ाने के निहितार्थों का आकलन करने के लिये जून 2020 में जया जेटली समिति की स्थापना की गई
      • समिति ने विवाह की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने की सिफारिश की ताकि शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण और यौन शिक्षा तक पहुँच बढ़ाई जा सके।
  • सामाजिक और आर्थिक विकास: यह पुनर्परीक्षण सामाजिक और आर्थिक विकास के व्यापक लक्ष्यों के साथ संरेखित है। कम उम्र में विवाह को संबोधित करके सरकार का उद्देश्य गरीबी और सामाजिक कलंक जैसे संबंधित मुद्दों से निपटना है, जो अक्सर परिवारों को कम उम्र में विवाह करने के लिये मज़बूर करते हैं।

क्या विवाह की आयु बढ़ाने से व्यवस्थित असमानताएँ दूर होंगी?

  • सतही समानता: विवाह की आयु 21 वर्ष करना पुरुषों की आयु के अनुरूप है, लेकिन केवल इससे लैंगिक समानता या सशक्तीकरण की गारंटी नहीं मिलती। एक अत्यधिक पितृसत्तात्मक समाज में केवल संख्यात्मक समानता महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली व्यवस्थित असमानताओं को संबोधित नहीं करती है।
    • वास्तविक सशक्तीकरण केवल विवाह हेतु समान आयु में निहित नहीं है बल्कि इसके लिये समान आर्थिक अवसर, शिक्षा तक पहुँच और महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण जैसे व्यापक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।
    • लैंगिक समानता में केवल आयु कानून ही शामिल नहीं है; इसमें वेतन अंतर, कार्यस्थल भेदभाव और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच जैसे मुद्दों को संबोधित करना भी शामिल है।
  • अनसुलझी समस्याएँ: विवाह की आयु बढ़ाने से कम उम्र में विवाह के पीछे के वास्तविक मुद्दों जैसे दहेज की मांग, सामाजिक कलंक और पारिवारिक नियंत्रण का समाधान नहीं होता है।
    • ये मुद्दे सामाजिक और आर्थिक कारकों से प्रेरित हैं, जिन्हें केवल कानूनी परिवर्तनों से हल नहीं किया जा सकता।
  • स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: संशोधन के समर्थकों का सुझाव है कि विवाह की आयु बढ़ाने से मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में सुधार होगा।
    • हालाँकि मौजूदा आँकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों में विवाह की औसत आयु पहले से ही अधिक है (केरल में महिलाओं की शादी औसतन 21.4 वर्ष में हो जाती है) और स्वास्थ्य परिणाम समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से अधिक निकटता से जुड़े हुए हैं।
  • सांस्कृतिक प्रतिरोध: कई जनजातीय समुदायों में कानूनी बदलावों के बावजूद पारंपरिक मानदंड और प्रथाएँ कम उम्र में विवाह को बढ़ावा दे सकती हैं। सांस्कृतिक प्रतिरोध को संबोधित करना और मानसिकता को बदलना नीति की सफलता के लिये महत्त्वपूर्ण है।

आगे की राह

  • सामाजिक-व्यवहारगत परिवर्तन: संशोधन की प्रभावशीलता व्यापक सामाजिक परिवर्तनों पर निर्भर करती है।
  • बाल विवाह की अमान्यता: वर्तमान कानून बाल विवाह को प्रारम्भ से ही अमान्य करने के बजाय अमान्यकरणीय बनाता है, जिससे कानूनी सुधारों की प्रभावशीलता कम हो सकती है।
  • मूल कारणों का समाधान: महिलाओं के लिये शैक्षिक पहुँच, व्यावसायिक प्रशिक्षण और आर्थिक अवसरों पर ध्यान केंद्रित करना महत्त्वपूर्ण है।
    • नीतियों का लक्ष्य सुरक्षित, लचीली शिक्षा और नौकरी के अवसर प्रदान करना होना चाहिये, जिससे विवाह में देरी हो सके तथा समग्र कल्याण में सुधार हो सके।
  • व्यापक सुधार: कानूनी बदलावों के बजाय सामाजिक परिवर्तन और मौजूदा कानूनों के प्रवर्तन को शामिल करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक है।
    • इसमें सामाजिक दबावों का समाधान करना, प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करना, व्यापक यौन शिक्षा लागू करना और हानिकारक प्रथाओं को समाप्त करना शामिल है।
  • महामारी का आर्थिक प्रभाव: कोविड महामारी के आर्थिक प्रभावों पर ध्यान दें, जिसके कारण नौकरियों में कमी आई है और आर्थिक रूप से तनावग्रस्त परिवारों में कम उम्र में विवाह होने लगे हैं।
  • इतिहास से सीख: विवाह कानूनों को बदलने के ऐतिहासिक प्रयासों ने मिश्रित परिणाम दिखाए हैं। सफल लैंगिक समानता पहलों में अक्सर कानूनी परिवर्तन, सामाजिक सुधार और शैक्षिक प्रयासों का संयोजन शामिल होता है।
    • अन्य देशों के साथ तुलना करने और इन प्रथाओं की जाँच करने से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: विवाह की न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 करने से लैंगिक समानता और सामाजिक मानदंडों पर संभावित प्रभाव का मूल्यांकन कीजिये। इस कानूनी बदलाव से क्या चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न.भारतीय संविधान का कौन-सा अनुच्छेद किसी व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार की रक्षा करता है? (2019)

(a) अनुच्छेद 19
(b) अनुच्छेद 21
(c) अनुच्छेद 25
(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों और निर्णय विधियों की मदद से लैंगिक न्याय के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य की व्याख्या कीजिये। (2023)

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