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ग्लोबल एजुकेशन मॉनीटरिंग रिपोर्ट

  • 20 Nov 2018
  • 14 min read

चर्चा में क्यों?

बर्लिन में यूनेस्को (UNESCO) की 2019 ग्लोबल एजुकेशन मॉनीटरिंग रिपोर्ट, प्रवासन, विस्थापन और एजुकेशन (Global Monitoring Report, Migration, Displacement and Education) जारी की गई। यूनेस्को द्वारा जारी इस रिपोर्ट के अनुसार, पूरी दुनिया में वर्ष 2000 के बाद आप्रवासी तथा स्कूल जाने की उम्र वाले शरणार्थी बच्चों की संख्या में 26% की वृद्धि हुई है।

वैश्विक परिदृश्य

  • यह रिपोर्ट आप्रवासी तथा शरणार्थी बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा का लाभ प्राप्त करने के अधिकार (एक ऐसा अधिकार जो शिक्षार्थी तथा समुदाय जिसमें वे रहते हैं, के हित में कार्य करता है) क्षेत्र में देशों की उपलब्धियों तथा त्रुटियों को प्रमुखता से दर्शाती है।
  • इन बच्चों के लिये गुणवत्तापरक शिक्षा के अधिकार को प्रतिदिन कक्षाओं और स्कूलों के प्रांगण में चुनौती दी जाती है तथा कुछ देशों की सरकारों द्वारा यह अधिकार प्रदान करने से इनकार भी किया जाता है।
  • इसके बावजूद शरणार्थियों को आश्रय प्रदान करने वाले शीर्ष 10 देशों में से 8 में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में शरणार्थी बच्चों को शामिल करने की दर में वृद्धि हुई है। शरणार्थियों की हिमायत करने वाले इन देशों में चाड, इथियोपिया और युगांडा जैसे निम्न आय वाले देश शामिल हैं। कनाडा और आयरलैंड आप्रवासियों के लिये समावेशी शिक्षा नीतियों को लागू करने में सबसे आगे हैं।

शरणार्थियों के बारे में क्या कहती है रिपोर्ट?

  • पूरी दुनिया में विस्थापित लोगों की संख्या में आधे से अधिक 18 वर्ष तक की आयु वाले हैं फिर भी बहुत से देश ऐसे हैं जो इन शरणार्थियों को अपनी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली से बाहर रखते हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया, हंगरी, इंडोनेशिया, मलेशिया और मेक्सिको जैसे देशों में यदि शरणार्थी बच्चों की शिक्षा तक पहुँच है भी, तो वह सीमित है।
  • बांग्लादेश में रोहिंग्या (Rohingyas) शरणार्थी, यूनाइटेड रिपब्लिक ऑफ़ तंज़ानिया (United Republic Of Tanzania) में बुरुंडी (Burundian) शरणार्थी, थाईलैंड (Thailand) में करेन (Karen) शरणार्थी और पाकिस्तान में बहुत से अफगान शरणार्थी केवल अलग, गैर-संगठित, समुदाय आधारित या निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, इनमें से कुछ तो प्रमाणित भी नहीं हैं। उदाहरण के लिये-
  1. केन्या शरणार्थियों को अपनी राष्ट्रीय शैक्षणिक पाठ्यक्रम का लाभ उठाने की अनुमति तो देता है लेकिन पूरी तरह से उन्हें समावेशित नहीं कर पाता है क्योंकि ये शरणार्थी कैंपों में रहते हैं जहाँ वे अपने केन्याई समकक्षों से बातचीत करने में असमर्थ होते हैं।
  2. लेबनॉन और जॉर्डन दोनों ऐसे देश हैं जहाँ प्रति व्यक्ति के हिसाब से शरणार्थियों की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन इनके पास शरणार्थियों हेतु और अधिक स्कूलों का निर्माण करने के लिये संसाधनों की कमी है। इसलिये इन देशों ने अपने देश के नागरिकों और शरणार्थियों के लिये मॉर्निंग और इवनिंग शिफ्ट में स्कूलों की व्यवस्था की है जिससे इन दोनों समूहों के बीच सीमित बातचीत होती है।
  • यह रिपोर्ट रवांडा और इस्लामिक गणराज्य ईरान जैसे देशों द्वारा शरणार्थियों तथा नागरिकों को एक साथ शिक्षा उपलब्ध कराने के क्रम में किये गए महत्त्वपूर्ण निवेश को स्वीकार करती है। पूर्वी अफ्रीका के 7 देशों की तरह तुर्की भी वर्ष 2020 तक सभी शरणार्थियों को राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में शामिल करने के लिये प्रतिबद्ध है। युगांडा पहले ही यह वादा पूरा कर चुका है।
  • निम्न तथा माध्यम आय वाले देशों में लगभग 89% शरणार्थी रहते हैं लेकिन इन देशों में शरणार्थियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये धन की कमी है। ऋण दाता देशों को शरणार्थी बच्चों की शिक्षा और लंबी अवधि तक समर्थन को सुनिश्चित करने के लिये अपने व्यय को तीन गुना करने की आवश्यकता है।

आप्रवासियों (Immigrants) के बारे में क्या कहती है रिपोर्ट?

  • उच्च आय वाले देशों में वर्ष 2005 से 2017 के बीच आप्रवासी पृष्ठभूमि वाले छात्रों की संख्या 15% से बढ़कर 18% हो गई। अब इनकी संख्या 36 मिलियन है जो कि पूरे यूरोप में स्कूल जाने वालों छात्रों की संख्या के बराबर है। यदि इनकी संख्या में इसी दर से वृद्धि होती रही तो वर्ष 2030 तक यह वृद्धि 22% तक हो सकती है।
  • वर्ष 2017 में यूरोपीय संघ में आप्रवासी छात्रों ने स्थानीय छात्रों की तुलना में अधिक पहले स्कूल छोड़ दिया। वर्ष 2015 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organization for Economic Cooperation and Development- OECD) में शामिल देशों में पहली पीढ़ी के आप्रवासी छात्रों की संख्या पढ़ने, गणित और विज्ञान में बुनियादी कौशल हासिल करने में स्थानीय छात्रों की तुलना में 32% कम थी।
  • कनाडा में जहाँ आप्रवासियों की संख्या का प्रतिशत, सात सबसे अधिक समृद्ध देशों के बीच सर्वाधिक है, यह सुनिश्चित करता है कि बच्चे दूसरी कक्षा से ही आप्रवासन के बारे में जानें और इसने अपने संविधान में बहु-संस्कृतिवाद को भी शामिल किया है।
  • आयरलैंड, जहाँ पहली पीढ़ी के आप्रवासियों की संख्या यूरोपीय संघ में सर्वाधिक है, गंभीर वित्तीय संकट के बावजूद अंतर-सांस्कृतिक शैक्षणिक रणनीति को वित्तपोषित करने में सफल रहा है।

भारत के परिदृश्य में

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2013 में भारत में, 6 से 14 वर्ष के 10.7 मिलियन बच्चे ग्रामीण परिवारों में रहते थे ये ऐसे परिवार हैं जो मौसम के अनुसार प्रवास करते हैं। इन परिवारों में 15 से 19 वर्ष की आयु के 28% युवा या तो अशिक्षित थे या इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं की थी।
  • सात शहरों में मौसमी प्रवासी बच्चों की कुल संख्या का 80% ऐसा था जिनके कार्यस्थल के पास शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी और 40 प्रतिशत संख्या ऐसी थी जिन्हें शिक्षा प्राप्त करने के स्थान पर कार्य का चुनाव करना पड़ा तथा इन बच्चों ने दुर्व्यवहार और शोषण का अनुभव भी किया।
  • रिपोर्ट के अनुसार, निर्माण क्षेत्र में अल्पकालिक प्रवासियों की संख्या बहुत अधिक होती है। 2015-16 में पंजाब राज्य में 3,000 ईंट भट्ठी श्रमिकों पर किये गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इन श्रमिकों में 60% संख्या अंतर्राज्यीय प्रवासियों की थी। भट्टों में रहने वाले 5 से 14 वर्ष के सभी बच्चों में से 65% से 80% के बीच ऐसे बच्चे थे जो प्रतिदिन 7-9 घंटे काम करते थे। लगभग 77% भट्ठी श्रमिकों ने अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा तक पहुँच की कमी के बारे में सूचना दी।
  • रिपोर्ट के अनुसार, अंतर्राज्यीय प्रवासन की दर 2001 और 2011 के बीच दोगुनी हो गई है। अनुमानतः 2011 से 2016 तक 9 मिलियन लोगों ने राज्यों के बीच प्रवासन किया।

  • यह उन बच्चों की शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव की भी चेतावनी देता है जिनके माता-पिता उन्हें छोड़कर कार्य करने के लिये चले गए।
  • हालाँकि रिपोर्ट में भारत द्वारा इस क्रम में किये गए कुछ प्रयासों की सराहना भी की गई है। जो इस प्रकार हैं-
  • 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून के तहत स्थानीय निकायों में प्रवासी बच्चों के प्रवेश को अनिवार्य बनाया जाना।
  • राष्ट्रीय स्तर पर दिशा-निर्देश जारी किये गए जो कि बच्चों की प्रवेश प्रक्रिया को आसान बनाने, गतिशील (mobile) शिक्षा के समर्थन के लिये परिवहन और स्वयंसेवकों की उपलब्धता, मौसमी प्रवासियों के लिये छात्रावास बनाने और ज़िलों तथा राज्यों के बीच समन्वय स्थापित करने की अनुमति देता है।
  • कुछ राज्यों द्वारा भी प्रवासी बच्चों की शिक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गए। हालाँकि ये प्रयास उन प्रवासी लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने की बजाय बच्चों को सामुदायिक गृहों में रखने पर केंद्रित हैं जो पहले से ही सक्रिय हैं।
  • यह रिपोर्ट उस पहल कि असफलता को भी दर्शाती है जिसकी शुरुआत 2010-11 में राजस्थान में ईंट भट्टा साइटों पर ऐसे बच्चों के लिये की गई थी जिन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया था।
  • इन साइटों पर शिक्षकों ने संस्कृति, भाषा, जीवनशैली, सफाई और कपड़ों को उनके और भट्ठी पर काम करने वाले समुदाय के बीच प्रमुख बाधाओं के रूप में उद्धृत किया। शिक्षक और छात्र अनुपस्थिति भी व्यापक रूप से देखी गई।
  • रिपोर्ट के अनुसार, भारत में झोपड़ियों और अनौपचारिक बस्तियों की संख्या में वृद्धि देखी गई है जहाँ स्कूल होना दुर्लभ ही होता है।

रिपोर्ट में दिए गए सुझाव

  • आप्रवासियों तथा विस्थापित लोगों के लिये शिक्षा का अधिकार सुरक्षित किया जाए।
  • आप्रवासियों तथा शरणार्थियों को राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली में शामिल किया जाए।
  • आप्रवासियों तथा शरणार्थियों की शिक्षा संबंधी आवश्यकताओं को समझा जाए तथा उन्हें पूरा करने के लिये योजना बनाई जाए।
  • पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिये शिक्षा में आप्रवासन तथा विस्थापन को सही ढंग से शामिल किया जाए।
  • विभेद तथा मुसीबतों को समाप्त करने के लिये आप्रवासियों तथा शरणार्थियों के लिये शिक्षक तैयार किये जाएँ।
  • प्रवासियों तथा विस्थापित लोगों की सामर्थ्य को उपयोग में लाया जाए।
  • मानवतावादी तथा विकास संबंधी सहायता राशि के माध्यम से आप्रवासियों तथा विस्थापित लोगों की शिक्षा संबंधी आवश्यकताओं का समर्थन किया जाए।

निष्कर्ष

  • चीन और भारत दोनों ऐसे देश हैं जहाँ की एक बड़ी आबादी आतंरिक रूप से प्रवासन करती है और रिपोर्ट से पता चलता है कि मौसमी प्रवासन का शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
  • इसलिये, यूनेस्को की रिपोर्ट नीति निर्माताओं से झोपड़ियों में रहने वाले ग्रामीण प्रवासी बच्चों के लिये सार्वजनिक शिक्षा को मज़बूत करने का आग्रह करती है।
  • प्रवासन और विस्थापन दोनों वैश्विक चुनौतियाँ हैं जिन्हें सामान्य रूप से 17 सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDGs) और विशेष रूप से SDG 4 यानी 'विशेष रूप से समावेशी और न्यायसंगत गुणवत्तापरक शिक्षा सुनिश्चित करना और सभी के लिये आजीवन सीखने के अवसरों को बढ़ावा देना’ है।
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